Monday, November 2, 2015

आसमान से उतरे सितारे -- राजनीती की धरा पर


     

       सिने जगत एक ऐसा आसमान है, जहाँ  अनगिनत सितारे चमकते रहते है और ऐसे सितारे जिनकी चमक  कभी  धूमिल नहीं  होती है . दुनियाँ  की आँखों को चकाचौंध भरी रौशनी से चुंधियाता  हुआ रुपहला पर्दा, यहाँ हम बात कर रहे है उन  सदाबहार अभिनेत्रियों की जिन्होंने न केवल रुपहले पर्दे पर किरदारो को जिया है बल्कि वे किरदार आज भी लोगो के दिलों पर  जीवंत राज करते  है, वक़्त तो अपनी गति से  बढ़ता चला  गया परन्तु जैसे इन सितारो  का वक़्त वहीँ ठहर गया है. आज भी  इन सदाबहार अभिनेत्रियों के  चाहने  वालों की कमी नहीं है. आज भी इनके हुस्न की चर्चा होती है, कुछ अभिनेत्रियों ने रुपहले परदे के  अलावा राजनीति के गलियारें में भी कदम रखे, तो लोगो का हुजूम ऐसा  उमड़ा  कि  जैसे सितारे ने आसमान से जमीं पर कदम रखें हों. लोगों ने इन सितारों  का स्वागत भीगे हुए स्नेहिल मन से  किया।  रुपहले परदे की कई अदाकारा जिन्होंने कला के साथ साथ राजनीति में भी अपना भाग्य आजमाया है , क्या लोगों ने उन्हें एक राजनीतिक के रूप में स्वीकार किया है है या आज भी वह एक  अभिनेत्रियों के  रूप में भी पहचानी जाती है।  एक राजनीतीक के रूप में वह कितनी सफल हुई  इस पर एक नजर डालते है …… बॉलीबुड की कई चर्चित अभिनेत्रिया जैसे हिंदी सिनेमा से नरगीस, रेखा, जया प्रदा ,हेमामालिनी,  जया  बच्चन, गुलपनाग दक्षिण की जयललिता , नगमा, बंगाल से मुनमुन सेन, अर्पिता घोष ,शताब्दी राय, संध्या राय, उड़ीसा से अपराजिता भवन्ति ……… आदि  कई अभिनेत्रियों ने राजनीति  में  अपना भाग्य आजमाया है। आईये एक नजर डालते है  उन अभिनेत्रयों के  फिल्मों से राजनीतिक सफ़र तक और किसने कहाँ तक यह सफ़र जारी रखा है।

  फ़िल्मी सफ़र से राजनितिक सफ़र पर एक नजर ---
सबसे पहले बात करते है दक्षिण की जानीमानी अदाकारा जय जयललिता जी की, जो न सिर्फ रुपहले पर्दे पर सफल रहीं है  बल्कि एक राजनितिक के रूप में भी कामयाबी ने उनका दामन थामे रखा है . लोगों ने इन्हें वही प्यार दिया जो एक अभिनेत्री  को दिया था। 
२४ फरवरी १९४८ को जन्मी जयललिता के सर से उनके पिता का साया महज २ वर्ष की उम्र मे मिट गया था, बेहद गरीबी और अभावों में पली जयललिता ने परिवार  चलाने के लिए  १५  वर्ष की उम्र में सिनेमा का रुख किया और जाने माने निर्देशक श्रीधर की फ़िल्म " वेन्नीरादई " से अपना कॅरिअर शुरू किया फिर तमिल, हिंदी और तेलगु की  लगभग ३०० फिल्मों में काम किया। गोल चेहरा, बड़ी आंखें और आकर्षक अंदाज वाली इस अभिनेत्री ने २० साल तक लोगों के दिलों में पर एक हीरोइन के रूप में राज किया 
 अपने सफलता के इसी अंदाज  को उन्होंने राजनीति में भी बरकरार  रखा है. सपनों की  परिभाषा बदल कर सपनों को नए रंगो से सरोबार कर दिया। 
  राजनीति  में " अम्मा " के नाम से  मशहूर जयललिता को  पार्टी के अंदर और सरकार में रहते हुए मुश्किल  कठोर फैसलों के  कारण तमिलनाडू में " आइरन लेडी " और तमिल की  "मार्ग्रेट थ्रेचर "भी कहा जाता है. सन १९८२ में  पूर्व साथी  अभिनेता और नेता एम्. जी. रामचंद्रन ही  जयललिता को राजनीति में लाए, उसी साल वह ए.आई.ए.डी.एम.के. के टिकट पर राज्यसभा  के लिए मनोनीत की गईं. उसके बाद उन्होंने पीछे मुड़ कर नहीं देखा। हालाकि १९८७ में उन्हें पार्टी के प्रोपोगेंडा  सचिव के पद से हटा दिया गया था। आल इंडिया अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़गम पार्टी से  तमिलनाडु में मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठीं जयललिता  ने 1991 से 1996 के बीच, फिर कुछ वक्‍त 2001 में और उसके बाद 2002 से 2006 के बीच मुख्यमंत्री का कार्यभार संभाला  हैं। समर्थकों के लिए वह अम्मा भी हैं और क्रांतिकारी नेता (पुरात्ची थलाइवी) भी।
  
           सन १९९१ में राजीव गांधी की हत्या के बाद  जयललिता ने कांग्रेस के साथ गठबंधन किया, जिसका उन्हें फायदा पहुंचा. लोगों के मन में डीएमके के प्रति जबरदस्त गुस्सा था क्योंकि लोग उसे लिट्टे का समर्थक समझते थे. मुख्यमंत्री बनने के बाद जयललिता ने लिट्टे पर पाबंदी लगाने का अनुरोध किया, जिसे केंद्र सरकार ने मान लिया. हालांकि  वह हिंदूवादी समझी जाती हैं लेकिन उन्होंने शिव सेना और बीजेपी की कार सेवा के खिलाफ बोला.   2001 में वह दोबारा सत्ता में आईं तब उन्होंने लॉटरी टिकट पर पाबंदी लगा दी. हड़ताल पर जाने की वजह से दो लाख कर्मचारियों को एक साथ नौकरी से निकाल दिया, किसानों की मुफ्त बिजली पर रोक लगा दी, राशन की दुकानों में चावल की कीमत बढ़ा दी, 5000 रुपये से ज्यादा कमाने वालों के राशन कार्ड खारिज कर दिए, बस किराया बढ़ा दिया और मंदिरों में जानवरों की बलि पर रोक लगा दी.लेकिन 2004 के लोकसभा चुनाव में बुरी तरह हारने के बाद उन्होंने पशुबलि की अनुमति दे दी थी  और फिर किसानों की मुफ्त बिजली भी बहाल हो गई.  कई कठोर  फैसले लिए  जिसके कारन आलोचना का सामना भी करना पड़ा फिर उन्होने पुराने फैसलों से सीख लेते हुए पार्टी को बिखरने नहीं दिया…… उन्हें अपनी आलोचना बिल्कुल पसंद नहीं है, इसी  वजह से उन्होंने कई अखबारों के ख़िलाफ़ मानहानि के मुक़दमे दायर  कर रखें हैं। खैर बात यह नहीं कि क्या हुआ ? मुख्य बात यह है कि जयलिता ने सिनेमा और  राजनीती दोनों  में सफलता के नए मापदंड स्थापित किये है और  लोगों ने जयललिता के दोनों किरदारों  को बेहद पसंद किया व जयललिता आज भी लोगों के दिलो में राज करतीं है।

ऐसी ही एक अभिनेत्री जया भादुडी  बच्चन -
सन ९ अप्रैल १९४८ को मध्यप्रदेश के जबलपुर में बंगाली परिवार में जन्मी जया   भादुडी ने  महज १५ वर्ष की उम्र में अपने  फ़िल्मी सफ़र की शुरुआत सन  १९६३ में बंगाली फ़िल्म महानगर से की थी , फ़िल्मी दुनिया में जब उन्होंने कदम रखा तब शर्मीला टैगोर और हेममनीलिनी का जादू  लोगो पर चढ़ा हुआ था, ऐसे में सीधी सादी मासूम सी लड़की का सफल और स्थापित होना लोगों को नामुमकिन लगता था, परन्तु यही सादगी लोगो के दिलो में बस गयी।  आम लड़की के रूप में  किरदारों जिया है. लोगों को  उनमे अपने ही  पड़ोस की लड़की नजर आती थी। प्रतिभा और बेजोड़ अभिनय की धनी जया ने अपने बेहतरीन अभिनय द्वारा फ़िल्म जगत को  अनगिनत यादगार फिल्में दीं है और परदे पर हर किरदार को जीवंत  कर दिया, गुड्डी के नाम से मशहूर सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री जया को उनके सर्वश्रेष्ठ अभिनय के लिए अनेकों फिल्मफेयर पुरस्कार, अंतर्राष्ट्रीय फ़िल्म फेयर पुरस्कार, सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री पुरस्कार , लाइफ टाइम अचीवमेंट पुरस्कार, सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेत्री पुरस्कारो से नवाजा जा चुका है. सन ३ जून १९७३ को मशहूर अभिनेता अभिताभ बच्चन से उनकी शादी संपन्न हुई और  वे जय बच्चन बनी। उनका फ़िल्मी सफ़र कभी भी समाप्त हुआ, आज भी वें यदा कदा  बेहतरीब फिल्मों में अपने अभिनय का जादू  बिखेरतीं है।  उन्होंने अपनी एक विशिष्ठ पहचान स्थापित की है।  जया बच्चन को वर्ष २००४ में  राज्यसभा के सदस्य के तौर पर चयनित किया गया था. तब जया बच्चन उत्तर प्रदेश फ़िल्म डेवलपमेंट कॉउसिल के अध्यक्ष के तौर पर अन्य सेवाएं भी दे रहीं थी।  कांग्रेस के भारत के राष्ट्रपति ने उनसे इस्तीफा देने के लिए कहा था जिससे उनका कार्यकाल पूरा नहीं हो सका था। वर्ष १९९२ ने जया बच्चन को भारत सरकार द्वारा  पद्म श्री प्रदान किया गया और उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा  यश भर्ती सम्मान से नवाजा गया। आज भी जया बच्चन अपना विशिष्ठ स्थान बनायें हुएँ है।
 इस कड़ी में नाम जुड़ता है बला की  खूबसूरत अभिनेत्री रेखा का। ....
     रेखा का असली नाम  भानुरेखा गणेशन है।  सन १० ओक्टुबर १९५४ को जन्मी प्रतिभाशाली अभिनेत्री रेखा का जन्म चेन्नई में हुआ था. एक बाल कलाकार के रूप में रेखा ने १५ वर्ष की उम्र से तेलगु फ़िल्म रंगुला रत्नम से फिल्मजगत में कदम रखा था, लेकिन हिंदी सिनेमा में उनकी प्रविष्टि फ़िल्म सावन भादो से हुई,  फिर रेखा ने पलट कर नहीं देखा, अपने ४० साल के फिल्मी करिअर में उन्होंने कई सुपरहिट फिल्में दीं है। १८० से ज्यादा फिल्मों में काम कर चुकी यह  सांवली रंग की  खूबसूरत अदाकारा अपने बेजोड़ अभिनय ,सदाबहार हुस्न और जीवंत किरदारों के कारण आज भी लोगों के दिलों पर  राज करती है, अभिनय तो जैसे इनकी रगों में बसा हुआ है, फ़िल्म जगत को कई यादगार फिल्में देने वाली रेखा का हुस्न और सौंदर्य आज भी कशिश भरा है. यह सौंदर्य लोगो के लिए  रहस्य बना हुआ है , उमराव जान का किरदार व कई गानें तो लगता है जैसे रेखा के लिए ही लिखे गए थे।  इन आँखों की मस्ती के….......  सच ने दीवानें आज भी हैं। रेखा का फ़िल्मी सफ़र कभी समाप्त नहीं हुआ अपितु कम हुआ है।  उनकी उपस्थिति आज भी दर्शको को  बॉक्स ओफ़िस तक खींच लाती है।  रेखा जितनी अपने सौंदर्य को लेकर चर्चित रही है उतनी ही कई बार अपने साथी अभिनेता से अपने अफैयर को लेकर भी चर्चित हुई है. कभी विनोद मेहरा , कभी विश्व्जीत तो कभी अमिताभ बच्चन जिनके साथ इनका नाम सबसे ज्यादा जुड़ा, तो कभी अपने  पति मुकेश गौस्वामी की  आत्महत्या के कारन चर्चा में आयीं, परन्तु रेखा का सौंदर्य और अभिनय सदैव सर्वोपरि  रहा है , हर किरदारों को  परदे पर जीवंत करने वाली रेखा को  उनके अभिनय के लिए फिल्मफेयर पुरस्कार भी प्रदान किया गया है।
 सरकार ने रेखा के शानदार अभिनय और फिल्मजगत में उनके योगदान को सम्मानित करते हुए उन्हें राज्यसभा के तौर  पर मनोनीत किया गया ,१५ मई २०१२ को रेखा ने राज्यसभा सदस्य के रूप में शपथ ली थी। सांसद रेखा रिटेल में एफडीआई के पक्ष में नहीं थी। वह एफडीआई के पक्ष में वोट भी नहीं करना चाहती थी। सरकार ने रेखा को पटाने के लिए उनकी एक मांग पूरी कर दी और आखिरी मौके पर रेखा ने सरकार के पक्ष में वोट भी डाल दिया। एक समाचार पत्र के मुताबिक रेखा दिल्ली में मन मुताबिक आवास सुविधा नहीं मिलने से नाराज थीं। वे राजनीती में सक्रीय है पर रेखा आज भी लोगों के दिलो में एक अभिनेत्री के रूप में राज करती है।
 एक और खूबसूरत अदकारा, हर उम्र के लोगो की ड्रीम गर्ल हेमामालिनी जिन्होंने साइन जगत से अपने कदम राजनीति की धरती पर रखें है - १६ ओक्टुबर १९४८ को अम्मनकुडी में जन्मी हेमामालिनी को दर्शक ड्रीम गर्ल  के नाम से जानते है , हर उम्र के लोगों  की ड्रीम गर्ल  कही जाने वाली हेमामालिनी एक प्रसिद्ध अभिनेत्री के साथ- साथ प्रसिद्ध नृत्यांगना भी है , यह उन गिनी चुनी सदाबहार अभिनेत्रयो में से है जिनमें  सौंदर्य , अभिनय और ग्लैमर का अनूठा संगम है, अपने फ़िल्मी सफ़र की  शुरुआत में उन्होंने बहुत संघर्ष किया है। तमिल निर्देशक श्रीधर ने तो यहाँ  तक कह दिया था कि इनमे स्टार  अपील नहीं है, कई संघर्षो के बाद  उन्हें राजकपूर की फ़िल्म सपनों के सौदागर में बतौर नायिका काम मिला , जिसमे उन्हें ड्रीम गर्ल कह कर प्रचारित किया गया था, फ़िल्म तो नहीं चली पर उनका सौंदर्य लोगों के दिलो में जगह बनाने में कामयाब रहा।  सन १९७० की फ़िल्म जानी मेरा नाम से उन्हें सफलता हासिल हुई , करीब १५० से ज्यादा फिल्मो में काम कर चुकी हेमामालिनी  आज भी ड्रीम गर्ल कहा जाता है .  उनका सौंदर्य और अभिनय आज भी लोगो को परदे पर आकर्षित करता है।  कई फिल्मफेयर पुरस्कार से नवाजी जा चुकी हेमामालिनी ने समाजसेवा कार्य हेतु राजनीति  में प्रवेश लिया और भारतीय जनता पार्टी के सहयोग से  राज्यसभा सदस्य बनी हेमा मालिनी को फिल्मों में उल्लेखनीय योगदान के लिए 1999 में फिल्मफेयर का लाइफटाइम एचीश्री सम्मान से भी सम्मानित की गईं। हेमामालिनी आज भी फ़िल्म और राजनीति  में सक्रियता बनाये हुए है.
अब हम बात करते है बुद्धिजीवी  कही जाने वाली बेहतरीन आदाकारा शबाना आजमी की -- शबाना आजमी जितनी बड़ी सशक्त अभिनेत्री है वह उतनी ही अच्छी व सशक्त समाजकर्ता भी है.  शोषित समाज के लिए तो वह मुखर  आवाज बनी हुईं है । मशहूर शायर कैफी आजमी की बेटी  शबाना आजमी का जन्म १८ सितम्बर १९५० हुआ था, प्रखर बुद्धि की शबाना आजमी कभी फिल्मों में आना नहीं चाहती थी, शुरू से ही प्रोग्रेसिव विचारो, परम्पराओ एव मान्यताओं से जुडी शबाना आजमी का   झुकाव अभिनय  की   तरफ नहीं  था , लेकिन फ़िल्म सुमन में जया बच्चन की एक्टिंग से प्रभावित होकर शबाना आजमी ने फ़िल्म एक्टिंग और टेलीविजन इंस्टिट्यूट ऑफ इंडिया में दाखिला ले लिया।  सन  १९७३ को डिप्लोमा पूरा करके वापिस लौटी तो मरहूम ख्वाजा अहमद अल्बास ने उन्हें अपनी फ़िल्म  फासला के लिए  साइन कर लिया।  शबाना आजमी को पेड़ों के इर्द गिर्द घूमना पसंद नहीं था। उनकी फिल्में आम फिल्मों से अधिक सशक्त विषय पर आधारित होती थी.  बेजोड़ शानदार अभिनय के बतौर उन्होंने अर्थ ,स्पर्श , पार……  आदि अनगिनत फिल्मों में अपने अभिनय का लोहा मनवाया है। फिल्मो में जिस तरह उन्होंने आम आदमी का दर्द प्रस्तुत किया, उसी तरह असल जीवन में भी वे आम आदमी के दर्द से जुड़कर उनकी आवाज बनी।  उन्होंने एक सफल सामाजिक कार्यकर्त्ता के रूप में भी अपनी  पहचान बनायीं है।  जावेद अख्तर के साथ उन्होंने शादी की।  उनके बेजोड़ अभिनय के लिए कई नेशनल अवार्ड  से से सम्मानित किया गया , शबाना आजमी को भारत सरकार द्वारा पद्मश्री पुरस्कार भी दिया गया है. एक सामजिक कार्यकर्त्ता के तौर  पर भी शबाना आजमी एक सफल शक्शियत  बन कर उभरी है। दोनों किरदार फिल्म व राजनिति मे  शबाना आजमी एक सफल नाम है।

इसी कड़ी में आगे नाम जुड़ा अभिनेत्री  जयाप्रदा का ---
जया प्रदा  एक सफल अभिनेत्री और सफल राजनितीज्ञ के रूप में जानी जाती है . ३ अप्रैल १९६२ में जन्मी जयाप्रदा का असली नाम ललिता रानी है ,आंध्र प्रदेश के राममंड्री में जन्मी जयाप्रदा ने बचपन से ही नृत्य और संगीत में दक्षता हासिल कर ली  थी . स्कूल के वार्षिक  समारोह में १४ वर्ष की जयाप्रदा ने नृत्य प्रस्तुति दी थी।,तब वहाँ तमिल के एक निर्देशक भी मौजूद थे। जिन्होंने बाद में जयाप्रदा को अपनी तमिल  फ़िल्म भूमिकोसम  में ३ मिनिट का नृत्य करने के लिए कहा था।  उनके परिवार ने उन्हें प्रोत्साहित किया और इस तरह उन्होंने फिल्मों में अपने कदम रखे।  ३ मिनिट के उनके नृत्य को देखकर उनके पास अनगिनत फिल्मों के प्रस्ताव बाढ़ की तरह आने लगे। उनके नृत्य कौशल के बल पर उन्होंने बहुत जल्दी तमिल में फ़िल्मी सफलता हासिल कर ली , उनकी  फ़िल्म के बालचंदर की अंतुलेनी कथा जबरजस्त हिट  हुई।  उन्होंने तेलगु  के  अलावा तमिल, मलयालम और कन्नड़ फिल्मो में भी अभिनय किया एवं  सभी जगह सफलता के नए मुकाम स्थापित किये . जब   के. विश्वनाथ की  फ़िल्म सिरी सिरी  मुब्बा को हिंदी में सरगम नाम से बनाया गया था,  तब  इस फ़िल्म से सफलता के झंडे  गाड़ दिए थे। अपने ३० वर्षीय फ़िल्मी केरियर में उन्होंने ३००  से ज्यादा फिल्में की है। इस तरह हिंदी फिल्मों में भी उनका पदार्पण हुआ. अनगिनत पुरस्कारो से नवाजा गया है। उन्हें  सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री, सर्वश्रेष्ठ कला अभिनेत्री  के अलावा उन्हें लाइफ टाइम अचीवमेंट  पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया है.  कुछ अन्य कई पुरस्कार जैसे  राजीव गांधी पुरस्कार , नर्गिस दत्त पुरस्कार , शकुंतला कला रत्नम पुरस्कार , उत्तम कुमार पुरस्कार , उत्तम लेखन पुरस्कार , ANR उपलब्धि पुरस्कार , किन्नेर सावित्री पुरस्कार , कला सरस्वती पुरस्कार …… समेत अनगिनत पुरस्कारो से उन्हें नवाजा गया है। सन १९८६ में श्रीकांत नहाटा से उन्होंने शादी की जो पहले से शादी शुदा थे। जितनी सफल वे फिल्मो में हुई उतनी ही राजनिति  में भी  सफलतापूर्वक पहचान स्थापित करके  सक्रीय है जयाप्रदा के राजनितिक  जीवन पर नजर डालें तो कई रोचक तथ्य भी मिलते हैं . फ़िल्मी कॅरिअर के चरम पर पहुचने के बाद जयाप्रदा ने अपने साथी अभिनेता   एन टी रामाराव  की पार्टी से १९९४ में तेलगुदेसम पार्टी से अपना राजनीतिक सफ़र शुरू किया।  एन टी रामाराव का स्वास्थ ख़राब होने पर चन्द्र बाबू नायडू को आंध्रप्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया गया और उसी दौरान जयाप्रदा  राज्यसभा के लिए नामित हुई थी। सन १९९६ में जयाप्रदा तेलगु की महिला अध्यक्ष बनी।  बाद में उन्होंने तेपेदा छोड़ दिया और समाजवादी पार्टी में शामिल हो गयी। सन २००४ के आम चुनाव में उन्होंने रामपुर से संसदीय चुनाव लड़ा व ८५ हजार वोटो से जीती।  पांच साल तक सांसद रहने के बाद पुनः चुनाव लड़ा और ३०,००० से  ज्यादा वोटो के अंतर पर विजयी रही।  आज भी जयाप्रदा राजनिति  में उतनी ही शिद्दत से कार्यरत है  और सफल है। 
अब बात करतें है उस युवा अभिनेत्री की जिसने कम उम्र में सफलता के कई आयाम स्थापित किये हैं।   यहाँ हम बात कर रहे हैं बॉलीबुड , टोलीवुड और कॉलीवुड की  सफलतम अभिनेत्री नगमा की जिनका वास्तविक नाम है नंदिता मोरारजी या नम्रता सदाना, जिनका  जन्म २५ दिसम्बर १९७४ को हुआ।
 मुसलमान माँ  और हिन्दू पिता की  संतान नगमा  सभी धर्मो का सम्मान करती है. अपनी मिश्रित धार्मिक प्रवर्ति के कारन उन्होंने  कुरान , भगवतगीता , बाइबल सभी का अध्यन किया है। सन  १९९० में १६ साल की  उम्र में उन्होंने अभिनेता सलमान खान के साथ बागी नाम की  सफलतम हिंदी फ़िल्म से फ़िल्म जगत में अपनी जोरदार एंट्री की थी । हिंदी , तेलगु , तमिल ,कन्नड़ , मलयालम , भोजपुरी , बंगाली , भोजपुरी , पंजाबी और मराठी सभी फिल्मो में उल्लेखनीय कार्य किया।  तमिल में  प्रसंशको ने  तो उनका एक मंदिर ही बना दिया और भोजपुरी सिनेमा में तो वह भोजपुरी फिल्मो की माधुरी दीक्षित कही जाती है। सन २००५ में भोजपुरी फ़िल्म दूल्हा मिलाल दिलदार  के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार प्राप्त हुआ।   अप्रैल  २००४ में उन्होंने कांग्रेस पार्टी के लिए आँध्रप्रदेश में प्रचार किया था , कांग्रेस पार्टी की समर्थक नगमा को भाजपा ने लुभाने की बहुत कोशिश  की, परन्तु वे कांग्रेस पार्टी की स्टार प्रचारक थी।   धर्मनिरपेक्षता , कमजोर  और गरीब वर्ग के उद्धार के लिए प्रतिबध्द नगमा को सन  २००७ में राज्य सभा  सीट के लिए  नामित किया गया था।   राजीव गांधी   की प्रशंसक होने के कारण उन्होंने कोंग्रेस को ही प्रमुख रखा, नगमा एक राजनीतियज्ञ और अभिनेत्री के तौर पर सफल एवं सक्रीय भूमिका में है।
इसी तरह कई अभिनेत्रिया है जो सिने  परदे से निकलकर राजनीति की दुनिया में आयी है। आगे बात करते है बंगाली और हिंदी की  सफल अभिनेत्री और बंगाल की महान अदाकारा सुचित्रा की बेटी  मुनमुन  सेन की, जो भारतीय सिनेमा की प्रमुख अभिनेत्री रही है। २८ मार्च १९४८ को कोलकत्ता में   जन्मी मुनमुन सेन ने हिंदी के अलावा भी बंगला तमिल और मराठी फिल्मों में भी काम किया है कला के अलावा मुनमुन सेन को सामजिक कार्यो में भी रूचि थी, यही कारण है कि उन्होंने शादी से पहले ही एक बच्चे को गोद ले लिया था। अपने बोल्ड और   सेक्सी अंदाज के लिए मशहूर रही मुनमुन सेन एक सफल अभिनेत्री के  तौर पर कभी स्थापित नहीं हो सकी थी।  सन २०१४ में पश्चिम बंगाल के बांकुड़ा लोकसभा सीट से तृणमूल की उमीदवार के तौर पर उन्होंने अपना टिकिट दाखिल किया है। चूँकि यह महान बंगाली अदाकारा की बेटी हैं  तो इसी वजह से राज्य की जनता से उन्हें बहुत स्नेह मिलता है। उन्होंने यह उम्मीद जतायी है कि यदि उन्हें जनसमर्थन प्राप्त होता है तो इस नए किरदार में वह लोगों के दुःख दर्द को जानने का मौका मिलेगा और वह उनके लिए कुछ अच्छा करना चाहेंगी।

      इस तरह  ५   ओक्टुबर १९६९ को जन्मी बंगला अभिनेत्री, निर्देशक , और डाइरेक्टर  शताब्दी राय ने भी तृणमूल कोंग्रेस से ही राजनीती में अपने कदम बढ़ाएं है  और सफलता पूर्वक राजनीति में सक्रीय है , इसी कड़ी बंगाल के रंगमंच की कलाकार अर्पित घोष भी राजनीति में अपनी सक्रियता बनाये हुए है। बंगाल का एक और नाम अभिनेत्री  संध्या राय ने तृणमूल कांग्रस से अपना  मार्च २०१४ में नामांकन दाखिल किया था.

 हाल ही में बॉलीबुड की जानी मानी मॉडल एवं अभिनेत्री गुलपनाग जिनका जन्म ३ जनवरी १९७९ को हुआ है, उन्होंने भी राजनीति की  तरफ रुख किया है। गुलपनाग पूर्व में मिस इंडिया रह चुकी है। शानदार, सशक्त अभिनय करने  वाली गुलपनाग चित्रपट के मामले में बहुत चूजी रही है ,इन्हे क्रिटिक्स चॉइस सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार प्राप्त हुआ है।  गुलपनाग अभिनय के साथ साथ सामजिक कार्यो से जुडी हुई थी। गुलपनाग भ्रष्टाचार ,वंशवाद और अपराधी राजनीति के आंदोलनो में सक्रिय  रही है, इन्होने १४ मार्च २०१४ को आप पार्टी के नामांकन  दाखिल किया था  यह भी सबसे कम उम्र की अभिनेत्री है। जिन्होंने राजनीति में अपने कदम बढ़ाये है।
    यह सफ़र तो यहीं ख़त्म नहीं होता, किन्तु सभी अभिनेत्रियां , एक अभिनेत्री के रूप में सभी के दिलों पर  राज कर रही है किन्तु हम तो यही चाहेंगे कि यह सभी चमकते सितारे राजनीति के गलियारो को सकारात्मक ऊर्जा और नयी रौशनी से रौशन कर दे।  यहाँ भी उसी चमक के साथ लोगो के दिलो पर राज करें और समाज में में अपने महत्वपूर्ण कार्यों में अपना योगदान प्रदान कर सकें। शुभकामनाओ सहित।
-------- शशि पुरवार 


Thursday, October 22, 2015

रामभरोसे राम के भरोसे

इस साल दशहरा मैदान पर रावण जलाने की तैयारियां बड़े जोर शोर से की जा रहीं थी. पहले तो कई दिनों तक रामलीला होती थी फिर रावण दहन किया जाता था. अब काहे की राम लीला काहे का रावण, अब तो बस जगंल में मंगल है. राम भरोसे के भरोसे सारा रावण दहन हो जाता है. राम भरोसे नाम की ही नहीं काम का भी राम भरोसे है. पंडाल का काम हो या जनता की सेवा राम भरोसे के बिना पत्ता नहीं हिलता है. हर बार जेबें गर्म, मुख में पान का बीड़ा रहता था किन्तु इस बार जैसे उसके माई बाप आपस में गुथम गुथम कर रहें हैं.  बड़े बेमन  से वह रावण दहन के कार्य में हिस्सा ले रहे थे. मित्र सेवक राम से रहा नहीं गया बोले – भाई इतने ठन्डे क्यूँ हो क्या हुआ है .
अब का कहे देश में रावण राज्य ही चल रहा है. जिसे देखों, जब देखो हर पल गुटर गूं करते रहते हैं.
क्यूँ, भाई क्या हुआ.
अब पहले जैस बात कहाँ है, यह दशहरा पर मैदान बड़ा गुलजार रहता था, रामायण के पात्र समाज को अच्छा सन्देश देते थे. राम हजारो में थे तो रावण एक, कलयुग में राम ढूँढने से भी नहीं मिलते हैं. सबरे के सबरे रावण है. कल तक रामभरोसे थे अब सारा दूध पी लिया और रामभरोसे को राम के भरोसे ही छोड़ दिया.
हाँ भाई सच कहत हो, देखो राम जी तो चले गए लेकिन आज के रावण राम मंदिर के नाम पर आज भी अयोध्या जलाते हैं.
और नहीं तो का, जनता की कौन सोचत है  सभी अपना अपना चूल्हा जलाते है और अपनी अपनी रोटी सेकतें हैं. धुआं तो जनता की आँखों में धोका जात है.
इतने वर्ष हो गए हमने कोई जात पात नहीं मानी, सभी  धर्म के लिए ईमानदारी से काम किया, किन्तु अब कोई हमें पानी भी नहीं पिलाता है. आजकल काहे का रावण काहे की माफ़ी, प्रदुषण पर बैन है, तो जाने दो मन का रावण जला दे वही बहुत है.  ऐसे कलयुगी रावण का क्या किया जाये, गॉंव में काँव काँव शुरू रहती है..... शहर में धम्म धम्मा धम्म, ऐसी मौज मस्ती जैसे अपने घर के बगीचे में टहल रहें है और घर के बर्तन बाहर जाकर नगाड़ा बजाते है. ई दशहरा भी कोई राजनीती होगी. सब धर्म के नाम फरमान जारी होंगे, कुछ लाला अपना कन्धा सकेंगे. थोड़े बर्तन बजायेंगे और डाक्टर नयी फ़ौज को जमा करने  के लिए तैयार रहेंगे, लो जी हो गया दशहरा. फिर से राम ही रावण बनकर आपस में लड़ रहे हैं. तो जीतने वाला भी रावण ही होगा. बस हाल होगा तो बेचारे राम भरोसे का, जो राम के भरोसे ही पेट की आग शांत करने का प्रयास करता है और अब वह न घर का रहा है न घाट का. अब कलयुग है तो कलयुग के राम सूट बूट वाले है. वह अपनी सेना को नहीं खुद को ही ज्यादा देखते हैं. त्रेता युग में जो हो गया सो हो गया, आज वह के राम बने रावण वनवास जाते नही है, विभीषण को भेज देते हैं. आखिर वही ततो आया था उनके पास भोजन मांगने.

      अब कोई त्यौहार पहले जैसा नहीं रहा, घर में बैठकर दो चार घंटे टीवी देख लो. अभाशी दुनिया घूम लो, ट्विटर से जबाब तलब कर लो, हो गया दशहरा. फिर काहे इतना पैसा एक रावण को जलाने में लगायें, लाखो लोगों के पेट भर खाना खिला दे तो पुन्य तो मिलेगा, इस देश में न जाने कितने विभीषण अभी भी है जो त्रेता युग के राम भरोसे ही अपना धर्म निभा रहें हैं.
  शशि पुरवार



Monday, October 19, 2015

फेसबुकी फ़ेसलीला


फेसबूकी फेसलीला  

पुनः चलते है फेसबुक की हसीन वादियों में, मैंने आपसे वादा किया था, आपको फेसबुक की गलियों में जरुर घुमाएंगे. हर रंग की तरह यहाँ भी अनेक रंग बिखरे हुए हैं, अजी तीज त्यौहार तो निकल गए यहाँ के त्यौहार समाप्त ही नहीं होते है,  जैसे जैसे  दशहरा पास आ रहा है यहाँ की गलियां राम नाम से सरोवर है. भारी- भरकम शब्दों के साथ राम का गुणगान, शबरी के बेर, रावण का दहन हमें त्रेतायुग के दर्शन करा देता है, सारी रामलीला इस आभाषी दुनिया में सिमट जाती है, किन्तु यहाँ की रामलीला जैसी रामलीला कहीं नहीं होती है.
       कौन कहता है त्रेता युग मिट गया, किन्तु वह तो भारी भरकम शब्दों का श्रृंगार करके यहाँ  जीवित है.  लोग अपना ज्ञान भरी भरी शब्दों को ढूंढकर, सजाकर वजन में प्रस्तुत कर रहें हैं. किन्तु फिर भी यह कलयुग है जहाँ सब कुछ संभव है, एक तरफ राम नाम दूसरी तरफ राम के भेष में रावण.  चित्रपट के बदलते रंगों की तरह यहाँ हर पल रंग बदलती मृगतृष्णा है.
        रामलीला का अर्थ भी यहाँ बदल कर कलयुगी फेसलीला हो गया है. हाल ही समाचार पत्रों में पढ़ा कि कई महिलाये इस आभाषी दुनिया के रावण के झांसे में आकर घर छोड़कर चली गयीं. और जल्दी ही सुबुद्धि खाकर,  सुबह का भूला शाम को भटक कर घर  वापिस आ गया.  यह नयी रामलीला के तोते समझ से परे हैं. कलयुग में राम कहाँ रावण से भरी रामलीला है. यहाँ न सीता का अपहरण किया जाता है अपितु कई सीता खुद बा खुद काल का ग्रास बनने को तैयार है. अब कौन समझाए यह त्रेता युग नहीं कलयुग है भाई, यहाँ तो रोज रावण जन्म लेते हैं रोज ब्लोक किये होते है, चुनावी हार हो या राजनीती हार, इसके बाद का  वनवास निश्चित होता है. किन्तु फिर नयी सुबह  नयी नयी राजनीती को गरमाने के लिए तैयार रहती है. यहाँ कौन राजा है कौन रैंक ज्ञात ही नहीं होता है, सिर्फ नयी चमक, नयी कहानी रोज गरमाती है, कहीं सुबकियाँ कहीं आजादी अपने रंग दिखाती है. संवाद के तीर हो या त्योहारों की आवाजाही, चार कमरे की दीवारों से खुली छोटी सी खिड़की के बाहर दुनियाँ की रंगीनियाँ छिपी हुई है. इस कलयुग में इस रंग के बिना जीवन बेरंग हैं.छद्म भेष में यहाँ रोज रावण मिलेंगे, हमारे एक महान कहे जाने वाले सीधे साधे इंसान ऐसे राम बनते हैं, कि बिना उनकी सीता के वह कुछ नहीं वहीँ दूसरी तरफ छिछोरी हरकतें, इसे क्या कहेंगे. बेहतर है यहाँ शब्द वाणों से किसी और को आहत करने की जगह खुद के भीतर का रावण दहन किया जाये.. जय श्री राम .
 ---- शशि पुरवार

Friday, October 9, 2015

फेसबुक बनाम जिंदगी



ओह सुबह हो गयी...  जल्दी से गुड मोर्निंग कह दूं, .... ओह हो अभी अभी  मंजन किया है  ... जरा कोलगेट स्माइल दिखा दूँ .... आज तो बाहर डिनर है ... आज मैंने क्या खाया पहले जल्दी से जरा शेयर तो कर दूं .. दो चार पंक्ति भी लिख दूं ... वाह वाह लाइक पर लाइक और इतने सारे कमेंट्स ..... आनंद आ गया ... मै तो छा गया ... अपना छाया चित्र भी बदल लेता हूँ ......फेसबुक ने तो जिंदगी के मायने बदल दिए हैं, कौन कहता है कि  मै परवाह नहीं करता ..... माँ के साथ चित्र .. दादी के जन्मदिन की तस्वीर ...... भेले ही दादी – माँ  को ज्ञात ही ना हो कि आज उनका जन्मदिन इतनी धूम  धाम से मनाया गया है ... तस्वीरे क्या बयाँ कर रही है और हकीकत क्या है.....  यह तो अल्लाह ही जाने .... पर एक बात तो साफ़ हो गयी है  दादी आज फेमस हो गयी .है ....... बेटा वाह वाही लूट  रहा है ... दादी इसी बात से खुश है चलो उसके साथ किसी ने एक तस्वीर तो खीचीं है  ....! भले घर में किसी को गुड मोर्निंग या गुड नाईट नहीं कहेंगे किन्तु फेसबुक को  कहना नहीं भूलते ... अब तो दिन  रात बस माला जपते रहो और कहो ---फेसबुक बाबा की जय .

                  कौन कहता है दुनिया सिमट  गयी है  लोग बदल  गए हैं ,भाई अब तो जिंदगी एक खुली किताब हो गयी है.
परियों की कथाओं की तरह एक नयी दुनियाँ ने जन्म लिया और सबको अपने मोहपाश मे ऐसा  बाँधा की कोई भी इससे बच नहीं पाया  जिंदगी के मायने बदल गए हैं जीवन बंद कमरों से निकलकर बाहरी दुनिया से जुड़ गया है. हाँ जी हम बात कर रहे है सोशल मिडिया फेसबुक की. जो आजकल घुसपैठ की तरह हमारे जीवन में घुस गया है .
हाँ जी यह वही  फेसबुक है .... जिसने आम आदमी को भी आज खास बना दिया है, या यों कहे  कि सुपरस्टार बना दिया है . शुरू शुरू में चर्चा थी फेसबुक आया है, अमीरों के चोचले ......कब आम जीवन की जरुरत बन गए किसी को भनक नहीं नहीं पड़ी . अकेले घर में बैठे बैठे लोग जहाँ अपने अड़ोसी पडोसी से कट गए वहीँ फेसबुक के जरिये पूरी दुनियाँ से जुड़ गए हैं, कितना सच है कितना झूठ कोई नहीं जानता किन्तु झूठ का बड़ा सा मायाजाल ऐसा  फैला हुआ है जिसकी  चमक में सब धुंधला पड़ गया है. एक ऐसा नशा जो सर चढ़ कर बोलता है .

                        ऐसी बात नहीं है कि यहाँ सिर्फ धोखा ही है ..... फेसबुक भी अनेक रंगों से सजा मायाजाल है अच्छाई है तो  बुराई भी ... फेसबुक हर भाषा में मौजूद है ..लोगों की जरुरत के अनुसार इसे किसी भी भाषा में लिख सकतें है . और लोग इसकी उँगलियों पर नाच रहे हैं .लोग हिंदी भी सीख रहें है , हिंदी लिख रहें हैं ... एक बात की बहुत हैरानी होती है .... हिंदी में खुद को महान दिखाना भी नहीं भूलते हैं  , भेड़ चाल  की तरह भारी भारी  शब्दों का प्रयोग  ..क्लिष्ट भाषा ... भले ही पूर्णतः समझ में नहीं आये ... पन्ने पर पन्ने भरते चले जायेंगे,  उफ़ पढ़ कर कई बार ऐसा लगने लगता है कि जो भाषा आम आदमी की है  ... वह तो उसकी समझ से भी बाहर हो गयी. खैर .... कलयुग सच में कलयुग ही है. किन्तु डिक्सनरी से भारी शब्दों को ढूंढकर लिखना कोई मजाक नहीं है बड़ी मेहनत लगती है . हर त्यौहार पर फेसबुक के पन्ने भारी भरकम शब्दों से सजे अपनी ठसक दिखाते रहतें है .
              आज बंद कमरों में बैठे जोड़े आपस में तो बात नहीं करते  है, किन्तु फेसबुक पर विचारों का आदान प्रदान  जरुर शुरू रहता है .... जहाँ कई बुराईया व धोखा धडी बढ़ी है वहीँ कुछ  अच्छा पक्ष भी है।  अच्छे लोगों से मिलना जुड़ना   विचारों का आदान प्रदान  हर क्षेत्र की उपलब्धि की कहानी कहता है .

                     लिखने पढने और अन्य क्षेत्र में रूचि रखने वालों के लिए यह खुला मंच है जहाँ उसे बहुत कुछ सीखने को मिलता है .... और कुछ अच्छे लोगो का सानिध्य  भी प्राप्त होता है . जब अच्छाई है तो बुराई भी दो  कदम आगे चल रही है .कई धूर्त लोग तो यहाँ गुरु बनकर ज्ञान बाँटते नजर आते है .भले उतना ज्ञान ही ना हो , यहाँ हर कोई महान है   चमकता सितारा है .सब कुछ आभासी है. आभासी दुनिया का  ऐसा दलदल में जहाँ कोई सितारा अंधेरों में खो जाता है तो कोई नयी रौशनी ग्रहण करके आसमान में चमकता रहता है ...जो भी है जैसा भी है यह फेसबुक हमारा है जिसके बिना लोगों की साँसे थमने लगती  हैं . धीरे धीरे ग्रसित कर रहा यह रोग अंततः किस स्थिति में ले जायेगा कहना असंभव है ...विद्यार्थी और छोटे बच्चों को भी इस रोग  ने अपनी चपेट में ले लिया है एक तरह से बच्चों का भविष्य दौंव पर लगा हुआ है पढाई से विमुख होते यह बच्चे सोसल मिडिया की चपेट में बुरी तरह फँस रहे हैं उन्हें भविष्य की चिंता ही नहीं है मिडिया का आकर्षण उन्हें चोरी चुपके कई गलत  मार्ग दिखा रहा है .....इससे आज महिलाएं भी दूर नहीं है ..अपनी ज्ञान पिपासा को शांत करने के लिए यह मिडिया जितना कारगर है उतना ही गलत कृत्य को अंजाम .देने का जिम्मेदार भी है ....... इस आभासी दुनिया के मायाजाल में फिलहाल पूरी दुनियाँ रम  गयी है . हर कोई भोले शंकर को भूलकर  दिन रात भजन  गा रहा है –
वाह वाह  अब आप जरा फेसबुक पर हर त्यौहार कमाल भी  तो देखिये,
लो जी भइया  अब तो होली भी आ गयी, जे बात...  अब तो हर तरफ आनंद ही  आनंद है, नजरें  तस्वीरों में गड़ी रहेंगी, और  अपनी आँखे  सेकेंगी, बिना पानी और बिना रंग के शब्दों की होली कहीं देखि है भइया , नहीं देखि हो तो फेसबुक पर आ जाओ, शब्दों की मार, रंगबिरंगी  तस्वीरों की बौझार, आभाषी दुनियां का जमकर प्यार , आय  हाय, ऐसी होली के क्या कहने, घर बैठे पूरी दुनियां के संग होली खेल रहें है, और दुनियां आपको होली खेलते हुए देख भी रही हैं, जिन्होंने बाहर होली नहीं खेली वह तो घर बैठकर जो होली खेल रहें है उसका  होली का असीम सुख चारदीवारी के अंदर ले रहें है. घर वालों को तो नहीं  किन्तु दुनियां को तो होली का आनंद लोगों ने दिखा. ही दिया है  फेसबुक बाबा की जय .
                 

फेसबुक सिर्फ सामान्य लोगों के लिए ही नहीं अपितु कलाकार , राजनीतिज्ञ , मिडिया सभी  को एक सूत्र में  पिरोने का कार्य कर रहा है. सभी यहाँ  अपना  अपना साम्राज्य स्थापित करने में  लगे हुए हैं।  दोस्ती के नाम पर स्वार्थ की अंधी दौड़ जारी है।  कहतें  है स्वतंत्र देश में सभी को वैचारिक स्वतंत्रता प्राप्त होती है, किन्तु यह भी  देखा गया है कि अपने विचार को अबगत करना कुछ लोगों को बहुत भारी पड़ा है जिसका फायदा राजनीतीक दल ने भली भांति उठाया है.उदारहण के लिए कुछ नेताओ ने अपनी अपनी पार्टी का यहाँ प्रचार शुरू किया और कुछ को लपेटे में लिया , भाई केजरीवाल को ही ले लीजिये , यहाँ तो अण्णा हजारे का भी पन्ना बना था जिसे पब्लिक ने सर माथे पर बैठायाखूब राजनीती खेली गयी दोस्ती और दुशमनी यहाँ भी अपने पांव पसार चुकी हैं, भाई फेसबुक नया है  इंसान की फितरत तो वहीँ हैं ना,   जिसे   ब्रम्हा भी आ जाएँ तो नहीं बदल सकतें हैं
--शशि पुरवार 

Tuesday, October 6, 2015

रंग जमाया - छोटी बहर

मन को जिसने
फिर भरमाया

जादू ऐसा
दिल पिघलाया

लगता हमको
प्यारा साया

सखी सहेली
पास बुलाया

महफ़िल में अब
रंग जमाया

हर कोई फिर
दौड़ा आया
-शशि पुरवार
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Monday, September 28, 2015

डिजिटल इंडिया



हमारे सपनों का शहर, हमारे सपनों का देश,  आज जैसे सारे स्वप्न साकार होने की ड्योढ़ी पर खड़े हैं. यह सोच कर ही सुखद प्रतीत होता है कि भारत को डिजिटल रूप देने के कयास और फिर प्रयास शुरू हो गयें हैं. प्रधानमंत्री योजना के अनुसार पेपर लेस कार्य करना कितना अच्छा होगा, देश में कागजों की रद्दी कम हो जाएगी। यहाँ वहां फ़ाइल के ढेर फिर नजर नहीं आयेंगे, हमारे इर्द गिर्द की दुनियाँ,  जादुई  दुनियाँ  बन जाएगी. सरकारी टेबलों पर एक कागज नहीं होगा, फाइलों के पीछे काम के बोझ का मारा बाबू भी नजर नहीं आयेगा. अप टू डेट सरकारी अफसर डिजिटल कार्य में आँखे गडाए नजर आयेंगे. इधर फॉर्म भरो उधर  दो  मिनिट में फॉर्म जमा हो जायेगा, दुनिया किसी फेंटेसी से कम नहीं होगी.   दो मिनिट वाली मैगी  तो आउट हो गयी है किन्तु  दो मिनिट वाला यह कार्य सिर चढ़ कर बोलेगा.

   योजना अति सुन्दर है, किन्तु करोड़ो की आबादी वाले देश में यह सपना सार्थक कैसे होगा, भारत का गॉँव  हो या शहर बिजली की असीम कृपा बनी रहती है.  तीन चार  घंटे की लोड शेडिंग कम नहीं होती है, कभी तेज बरसात हुई या तेज हवाएँ चली, सबसे पहले बिजली के  तार ही  टूटते हैं.  सिर्फ मेट्रो शहर को छोड़ दीजिये बाकी देश का कमोवेश यही हाल चाल है. हाय हाय के नारे लगाने के बाद भी बिजली की समस्या कायम हैं, उस पर डिजिटल कार्य, अब ईश्वर ही जाने, कैसे संभव होगा, बढती आबादी, कम सुविधायें, हमारे देश में रेंग रेंग कर आगे बढ़ने की प्रवृति आज भी कायम है. अजी बिजली छोडिये, गॉँव  में शोचालय भी नहीं है, करीब  पिचयान्वे  करोड़ की आबादी वाले देश में मोबाइल उपभोक्ता करीब इक्कीस  करोड़ के आस पास हैं, आज जनता मोबाइल नेट वर्क के नाम से परेशान है, गॉँव  में चले जाओ तो नेटवर्क मिलना दूभर हो जाता है पर  बेचारे मोबाइल धारक की भाग दौड़ उसे वजन घटाने में जरुर सहायक होती है, भले नेटवर्क नहीं मिला किन्तु  कुछ वजन तो कम हुआ. पहले लोग घर की चार दीवारी में बैठकर दूरभाष से वार्ता किया करते थे और आज छोटा सा मोबाइल हाथों में लेकर, घर क्या सड़कों पर भी जोर जोर से बोलते नजर आ जातें है, कभी कभी समझ ही नहीं आता कि सामने वाला कानों में स्पीकर लगाकर बात कर रहा है या पागल है, जो अकेले अकेले  बड़बड़ाते  हुए चल रहा है. सामने वाले तक भले ही बात न पहुँची हो किन्तु अडोस पड़ोस की चलती फिरती काया व दीवारें  जरुर सब सुन लेती हैं. फेसबुक और ट्विटर पर न बैठ पाने के दुःख में कई लोगों की सांसे जैसे रुक जाती है, लोग पूनम के चाँद की तरह नेटवर्क के जुड़ने के लिए साँसे रोककर  उसके तार जुड़ने की राह देखतें है, जैसे बिना नेटवर्क के उनका  खाना- पीना बहाल हो गया था, ऐसे में डिजिटल तकनीक कैसे कार्य करेगी हमारे छोटे से दिमाग में जैसे दही जमना प्रारंभ हो गया है.

       पेपर लेस वर्क की बातें करने के साथ ही सरकारी मजमों को फरमान सुनाया गया कि अब से सारा कार्य कंप्यूटर पर होगा, अब सरकारी नौकरशाही का आदेश तो सरकारी दफ्तरों  में लागू होना लाजमी था, एक किस्सा याद आ रहा है, कचहरी में  भी क़ानूनी दस्तावेज कंप्यूटर की निधि बन चुके हैं, एक महत्वपूर्ण केस पर जज साहब फैसला सुना रहे थे, जजमेंट कंप्यूटर पर अपनी तेज गति के साथ टाइप किया जा रहा था कि अचानक बिजली विभाग की मेहरबानी हुई और बत्ती गुल, अजी गुल हुई तो हुई, सारा जजमेंट भी गायब हो गया, हमारे यहाँ तकनिकी सामान की कोई गारंटी नहीं होती है और ऊपर से सरकारी,सामान, तौबा तौबा... अब जज साहब को काटो तो खून नहीं, एक तरफ कार्य की भरमार, दूसरी तरफ तकनीकी  मार, अगर कमोवेश यही हाल रहा तो काहे का डिजिटल इंडिया, डिजिट ही गायब हो जायेंगे.  
   
               वक़्त की बर्बादी  से देश तरक्की करेगा या पिछ्डेगा यह तो वक़्त की बताएगा।  देश में स्पेक्ट्रम की भी कमी है, बेरोजगारी भी है, जो लोग अंतरजाल और डिजिटल तकनीक से दूर हैं उन्हें कैसे जोड़ेंगे,  भारत आधी से ज्यादा आबादी पीली रेखा के नीचे आती है, जहाँ दो जून खाना सुलभ नहीं है वहां यह तकनीक कैसे कार्य करेगी, डिजिटल तकनीक के माध्यम से चोरी, कालाबाजारी बढ़ने की सम्भावना है, गरीब तबका बैंक में अपना पैसा जमा कराता है, जब सभी कार्य डिजिटल होंगे तो बैंक में भी शुरू ओ जायेगा. हाल ही में एक वायका हुआ, एटीएम से पैसा निकालना सभी को नहीं आता है, गॉंव के एक व्यक्ति ने एटीएम से पैसा निकालने में वहीँ के गार्ड्स से मदद ली, हर बार उसी की सहायता से पैसा निकालता था, बाद में उसी गार्ड ने उसका एटीएम खाली कर दिया, जिन लोगों के पास नेट या डिजिटल सुविधाएँ नहीं है उन्हें दूसरों को पैसा देकर यह कार्य करवाना पड़ता है. हमारे यहाँ कम उपभोक्ता नेट का इस्तेमाल करतें है जो उपभोक्त्ता  नेट उपयोग करतें है वह स्पीड की समस्या से ग्रस्त हैं. परेशानियां काल के मुँह की तरह मुह बाये खड़ी है, निदान क्या होगा  यह नीति तय करेगी।  पूरे भारत को पहले साक्षर होना  आवश्यक है , तीसरी दुनियां की तरह धनवान भी होना जरुरी है, घर के पैसे को घर में रखना और तरक्की करना किसी बनिया से सीखा जाये तो सफलता के पैमाने बढ़  जायेंगे। खैर हम अड़ंगा नहीं लगा रहे है , डिजिटल इंडिया बन गया तो आधी समस्या कम हो जाये यही कामना हृदय में है 
   जय भारत। --  
 शशि पुरवार 

Monday, September 21, 2015

मन खो रहा संयम


आस्था के नाम पर,
बिकने  लगे हैं भ्रम
कथ्य को विस्तार दो ,
यह आसमां है कम .

लाल तागे में बंधी
विश्वास की कौड़ी
अक्ल पर जमने लगी, ज्यों
धूल भी थोड़ी
नून राई, मिर्ची निम्बू
द्वार पर कायम

द्वेष, संशय, भय हृदय में
जीत कर हारे
पत्थरों को पूजतें, बस
वह हमें तारे
तन भटकता, दर -बदर
मन खो रहा संयम.

मोक्ष दाता को मिली है
दान में शैया
पेंट ढीली कर रहे, कुछ
भाट के भैया
वस्त्र भगवा बाँटतें,
गृह, काल. घटनाक्रम .
- शशि  पुरवार

Saturday, September 19, 2015

तिलिस्मी दुनियाँ



काटकर इन जंगलो को
तिलिस्मी दुनियाँ बसी है 
वो फ़ना जीवन हुआ, फिर
पंछियों की बेकसी है.

चिलचिलाती धूप में, ये
पाँव जलते है हमारे
और आँखें देखती है
खेत के उजड़े नज़ारे
ठूँठ की इन बस्तियों में
पंख जलना बेबसी है

वृक्ष  गमलों में लगे जो
आज बौने हो गए है
आम पीपल और बरगद 
गॉंव भी कुछ खो गए है
ईंट गारे के  महल  में
खोखली रहती हँसी है

तीर सूखे  है नदी के
रेत का फिर आशियाँ है
जीव - जंतु लुप्त हुए जो
अब नहीं नामो- निशाँ है
चाँद पर जाने लगे हम
गर्द में धरती फँसी है
-- शशि पुरवार



Monday, September 14, 2015

विश्व फलक पर चमक रही है हिंदी



1४ सितम्बर हिंदी दिवस है लेकिन हिंदी दिवस एक दिन या एक महीने के लिए नहीं अपितु हिंदी दिवस रोज मनाएँ। हिंदी सिर्फ भाषा नहीं मातृभाषा है, हिंदी का विकास हमारा विकास है। शान से कहें हिंदी है हम। हिंदी दिवस पर विशेष शुभकामनाएँ।


विश्व फलक पर चमक रही है
हिंदी  मधुरम भाषा
कोटि कोटि जन के नैनों की
सुफल हुई अभिलाषा.

बागिया में वह खिलती

सखी- सहेली के संग -संग
गले सभी के मिलती
पुष्पित होती, हँसते गाते
मन की कोमल आशा ।

यह सूफी  मुस्काई

तुलसी के अँगना में उतरी
बन दोहा -चौपाई
झूल प्रकृति के पलने में
प्रतिदिन, गढ़ती परिभाषा।

गागर में सागर भरती

हिंदी  का रस पान करें
निज भाषा अपनी है, हम
हिंदी का सम्मान करें
एक सूत्र में सबको बाँधे
हिंदी  देशज भाषा।


                                       - शशि पुरवार 
 

Wednesday, September 9, 2015

हर पल रोना धोना क्या



हँस कर जीना सीख लिया 
हर पल रोना धोना क्या

धीरे धीरे कदम बढ़ा
डर कर पीछे होना क्या

जीवन की इस बगियाँ में
काँटों को भी ढोना क्या

दुःख सुख तो है एक नदी
क्या पाना फिर खोना क्या

मिल जाये खुशियाँ सारी
थककर केवल  सोना क्या.

सखी सहेली  जब मिल बैठें
मस्ती का यह कोना क्या

दुनियादारी भूल गए
मीठे का फिर दोना क्या 
 --  शशि पुरवार 

Sunday, September 6, 2015

हे प्रिय हस्ताक्षर





नित हिंदी के पाँव पखारो
हे प्रिय हस्ताक्षर,
बिखरें, जग के हर कोने में
उसके स्वर्णाक्षर

सरस-सुगम, उन्नत ये भाषा
संस्कृति की बानी है
अंग्रेजी की सर्द धरा पर
ये, अनुसंधानी है

ज्ञान ज्योति की अलख जगाते
हिंदी अंत्याक्षर
नित हिंदी के पाँव पखारो
हे प्रिय हस्ताक्षर

गरिमामयी, हिन्द की रोली
रंगो को अपनाएँ
मनमोहक शब्दों के मोती
मिल प्रतिबिम्ब बनाएँ

गीत-गजल औ छंद-विधाएँ
हिंदी अमृताक्षर
नित हिंदी के पाँव पखारो
हे प्रिय हस्ताक्षर

हिंदी का सत्कार करें, हो
जन जन की अभिलाषा
गाँव-शहर हर आँगन के
सँग, बने राष्ट्र की भाषा

सीना तान, गर्व से बोलें
हम हिंदी साक्षर

नित हिंदी के पाँव पखारो
हे प्रिय हस्ताक्षर

-- शशि पुरवार

Tuesday, August 18, 2015

मन प्रांगण बेला महका। .

मन, प्रांगण बेला महका
याद तुम्हारी आई 
इस दिल के कोने में बैठी 
प्रीति, हँसी-मुस्काई।

नोक झोंक में बीती रतियाँ 
गुनती रहीं तराना 
दो हंसो का जोड़ा बैठा 
मौसम लगे सुहाना

रात चाँदनी, उतरी जल में 
कुछ सिमटी, सकुचाई।

शीतल मंद, पवन हौले से 
बेला को सहलाए 
पाँख पाँख, कस्तूरी महकी  
साँसों में घुल जाए। 

कली कली सपनों की बेकल 
भरने लगी लुनाई 

निस  दिन झरते, पुष्प धरा पर 
चुन कर उसे उठाऊँ 
रिश्तों के यह अनगढ़ मोती 
श्रद्धा सुमन चढ़ाऊँ

रचे अल्पना, आँख शबनमी 
दुलहिन सी शरमाई।    
     --- शशि पुरवार 

Tuesday, August 4, 2015

फेसबुकी बौछार




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           आजकल व्यंग विधा अच्छी खासी प्रचलित हो गयी है. व्यंगकारों ने अपने व्यंग का ऐसा रायता फैलाया है, कि बड़े बड़े व्यंगकार हक्के बक्के रह गए, अचानक इतने सारे व्यंगकारों का जन्म कैसे हुआ, आपके इस रहस्य की गुत्थी हम सुलझाते है, इसका जन्मदाता फेसबुक है. जिसने अनगिनत व्यंगकारों को अपनी गोदी में खिलाया, लिखना पढना सिखाया और उन्हें आसमान पर बीठा दिया.अजी भेड़ चाल सब जगह कायम है तो फेसबुक पीछे कैसे रह सकता है.


           यहाँ भी हमारे देखते देखते नए व्यंगकारों की अच्छी खासी जमात खड़ी हो गयी है. जिसे देखों मुर्गे की एक टांग लिए हर किसी की चिकोटी काट रहा है, कोई कविता को लेकर फिरके कस रहा है कोई किसी के फैशन की धज्जियाँ उड़ा  है. कोई महिलाओं की तस्वीरें देखकर गिरा पड़ा हुआ है तो कोई पुरुष अपनी हर अदा दिखाने के लिए रोज तस्वीरें ऐसे बदलता हैं जैसे विश्व सुंदरी अपने अलग अलग पोज दुनियाँ को दिखाना चाहती है,  हमारे यहाँ के चम्मच मोटे थुलथुले शरीर में भी सौन्दर्य की सुंदरी वाली परिकाष्ठा अपनी बैचेन नजरों से देखतें हैं. ऐसे फीता काटने वालों की कोई कमी नहीं है.
          हाल ही मै भारत वर्ल्ड कप में हार गया तो सारा ठीकरा अनुष्का शर्मा के सर पर फोड़ा गया, आखिर यह गुत्थी सुलझी ही नहीं कि बालकनी में बैठी हुई अनुष्का मैच कैसे हरा सकती है या फिर हमारे क्रिकेटरों का ध्यान मैच से ज्यादा विराट कोहली और अनुष्का शर्मा पर लगा हुआ था. वैसे भी जनता  यदि इंसान को भगवान बनाएगी तो यही हाल होगा. एक किस्सा और जहन में ध्यान आ रहा है, कुछ पुरुष ऐसे भी है जिनकी उम्र अपने अंतिम पड़ाव पर  है और वह नजरें सेकने से लेकर  महिलाओं पर कुदृष्टि डालने से बाज नहीं आतें हैं, नाम नहीं लेना चाहूंगी, बुजुर्ग हस्तियाँ इस तरह के कार्य करके युवा पीडी को क्या सन्देश दे रहीं है, जहाँ भरोसा कायम होना चाहिए वहां ऐसी बचकानी हरकतें , आखिर पूजने वाला उन्हें क्या दर्जा प्रदान करेगा. ऐसी हरकतों पर धज्जिया उडाना कोई हमारे कुएँ के मेढकों से सीखे.
           यही हाल कमोवेश लगभग फेसबुक पर भी मौजूद है. घर से दुनीया को जोड़ने वाली खिड़की पर सभी की नजर है, यहाँ भी रायता फ़ैलाने वालों की कमी नहीं है. कौन किससे चोंच लड़ा रहा है, कौन किसका अच्छा मित्र शुभचिंतक है, खोजी नजरें अपना कार्य करके आग लगाने का कार्य बखूबी पूर्ण शिद्दत से निभातीं है, आखिर व्यंग और कटाक्ष में हमारे जैसा सिस्टम मिलना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन हैं.
               एक दिन ऐसे ही अचानक हमारे जादुई बक्से की खिड़की खुली और सन्देश मिला क्या बात है आप बहुत बहुत सुन्दर हैं, हर तरफ छाई हुई हैं, जहाँ देखिये छप रहीं है. आखिर  इन जनाब का हाजमा किस बात से बिगड़ा, कुछ समझ नहीं आया, ऐसे लोगों को कोई क्या जबाब दे सकता है.  एक और हमारे भलेमानस शुभचिंतक है, जो कहते है सतर्क रहो आगे बढ़ाने वाले ही आपको पटकनी देंगे, कुछ प्यारे सखा सहेली आगे बढ़ने से इतना नाराज हो गए कि कमतर दिखाने का कार्य पूर्ण शिद्दत से करने लगे और व्यंग के सारे रंग हमें लगाने लगे, उन्हें यह समझ ही नहीं आया इससे उनकी ही कलई   खुली है हम तो वहीँ अपनी कछुए वाली निति चले जा रहें हैं. क्यूंकि हमें तो रेस में कोई रूचि ही नहीं है .
         आजकल मानसून के बदमिजाज मौसम की तरह व्यंग बारिश कहीं भी शुरू हो जाती है. व्यंग विधा में आये नए नए कई रचनाकारों ने बड़े बड़े रचनाकारों के कान काटना शुरू कर दियें हैं. हरिशंकर परसाई जी के व्यंग नए कदमों को अपनी सिद्धहस्त कला का ज्ञान प्रदान करतें हैं. किन्तु अचानक फेसबुकी स्टार बने हुए व्यंकारों ने अपनी स्वयं की विधा को ईजाद कर लिया है, स्वयं को नामचीन व्यंगकार कहने वाले फेसबूकी व्यंगकारों ने हर किसी को अपने लपेटे में लेना प्रारंभ कर दिया है. वे वहां सर्वप्रथम संपादक को ढूंढते हैं , उनसे मित्रता बढ़ाते हैं और बार बार निवेदन करके मित्रता की खातिर खुद को स्थापित करने का प्रयास करतें है, हाल ही में एक किस्सा हुआ, हमने अभी अभी व्यंग विधा की गलियों में अपने पैर रखे, गाहे बगाहे पाठकों ने स्वागत किया, तो जनाब सिखने के बहाने हमने अपनी कलम घिसना प्रारंभ कर दी. हमारे प्रिय संपादकों को लेखन पसंद आया तो उन्होंने हमारी कलम को एक कुर्सी प्रदान कर सम्मान से नवाज दिया, खैर हमने स्वयं को विधार्थी मान कर कुर्सी को गुरु बनाना उचित समझा, किन्तु यह क्या फेसबुक के कई नए व्यंगकारों की नजर हमारी कुर्सी पर पड़ी और उन्होंने चाट में चुपचाप मक्खन लगाना प्रारंभ कर दिया, हमारी रचना को भी छपवा दीजिये, आप हमारी मित्र है, आपका बहुत नाम है ...आपको हर कोई छापता है  वैगेरह वैगेरह ... मित्रता की खातिर हमने उन्हें संपादकों के संपर्क की जानकारी प्रदान कर की, किन्तु वह सामग्री भेजने के बाद भी प्रकाशित नहीं हुई . तो उन्ही नामचीन रचनाकारों के बीच हम अमित्र होने लगे क्यूंकि हमारा यह दोष है कि उनकी रचना प्रकाशित नहीं हुई. लो भाई नेकी भी की और कुएं में धकलने की तैयारी भी हमारी ही की गयी है . हम तो यही कहंगे कर्म करते रहिये फल की चिंता ना कीजिये . शुक्र है हमें कुर्सी का चस्का नहीं लगा और ना ही मक्खन की डालियाँ हमें भगवान बना सकीं . हम तो वह पैदल है जो सिर्फ चलना जानता है. बाकी के दौंव पेंच खेलने के लिए अन्य लोग है तो यह कार्य उन्ही के जिम्मे छोड़तें हैं. आसमान में चमक रहे फेसबूक के हर रंग का आनंद लेतें हैं . 
 -- शशि पुरवार 

Monday, August 3, 2015

-- दर्शन से प्रदर्शन तक






                      हिंदी काव्य की बहती  धारा में  जन जन ओत प्रोत है, हिंदी के बढ़ते चलन और योगदान के लिए सबका प्यारा फेसबुक अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर रहा है. हिंदी की इतनी उपजाऊ धरती में कविताओं की लहलहाती फसल, हर उम्र के लोगों को आकर्षित कर रही है.किन्तु यह क्या देखते देखते यह लहलहाती फसल अचानक गाजर घास के जैसी फैलने लगी है. विद्वजन और साहित्यकार सभी चिंतित है, अचानक से इतने सारे रचनाकार कहाँ से आ गयें है. यह अच्छी बात है. फेसबुक एक शाला की तरह बन गया है. लिखना पढ़ना कोई बुरी आदत नहीं है, किन्तु यहाँ तो सभी ज्ञानी बड़े- बड़े कलमकारों को मात देने लेगे हैं. फेसबुकिया बुखार के चलते नौसिखिये वाह - वाही  सुन -सुन कर स्वयं  को ज्ञानी समझने लगें हैं, कोई भी रचनाकार क्यूँ न हो, रचना में नुक्स निकालना उनकी आदत में शुमार हो गया है, जो नौसिखिया हो, उसे सिखाओं भले ही आधा कचरा ज्ञान ही बाँटो, यदि कोई बड़ा साहित्यकार निकल जाये तो बत्तीसी  दिखा कर खिसक लो.  हाल ही में एक मजेदार  किस्सा  हुआ, हमारी रचना पर टिप्पणी के साथ साथ चाट बक्से में मीन मेख निकाली गयी --  शब्दों पर ज्ञान बाँटा गया, लय ताल की बारीकियाँ समझाई गयीं, खैर आदतन हमने विनम्र भाव से कहा --
 हमें तो ठीक प्रतीत हो रहा है. हम अपने साहित्यिक मित्रों से चर्चा करेंगे. साथ ही यह भी कह  दिया यह सभी प्रकाशित है, इस पर शोध किया गया है .फिर भी आपकी सलाह - शब्द पर विचार करेंगे .

जनाब गर्व में गुब्बारे की तरह फूल गए और सीना चौड़ा करके बोले -- मै बड़े बड़े रचनाकार और उस्तादों के साथ रहता हूँ आपको जरुर ज्ञान दूंगा .उनसे भी चर्चा करूँगा. 

         अगले दिन क्षमा के साथ  हमें  विजय घोषित कर दिया गया. जब हमने उन जनाब से पूछा आप क्या करतें है तो उत्तर मिला अभी २ रचना ही लिखी हैं. लिखना सीख रहें है. अब ऐसे ज्ञान पर हँसे या मूर्खता  पर शोध करें पर ज्ञान दे. ऐसा भी क्या डींगे हाँकना कि स्वयं पर सवालिया निशान खड़े हो जाएँ .

                   फेसबुक कोई अलग दुनियाँ नहीं है, जग के सारे जालसाज लोग भी इसमें शामिल है.  बड़े- बड़े रचनाकार ग़ालिब, गुलजार, नईम, जावेद अख्तर सभी यहाँ मौजूद है लेकिन दुःख की बात यह है कि इन सभी महान विभूतियों के साथ नए स्थापित रचनाकार की रचनाएँ किसी न किसी  लम्पट लोगों द्वारा उनके नाम से फेसबुक पर प्रकाशित मिल जाएँगी. फेसबुक क्या अन्य पत्र पत्रिकाओं में भी हुनर के यह गुर नजर आतें हैं , यानि चोरी भी और सीना जोरी भी. दुनिया गोल है प्राणी कहीं न कहीं टकरा ही जातें हैं. इसी प्रकार यह रचनाएँ  जब उसके असली रचनाकार के सम्मुख  किसी दूसरे के नाम से सामने दिखती है तो उसके दुःख की कोई सीमा नहीं होती है. फेसबुकी बुखार ने लोगों के होश उड़ा रखें हैं. ग्लैमर का नया क्षेत्र जहाँ आसमान भी है तो नए परिदों का आशियाँ भी बन गया है. दर्शन और प्रदर्शन सभी का बोल बाला है,  ऊँची दूकान और फीके पकवान की तरह अब  दर्शन  खोटे वाला मामला अब व्यंगकारों ने दाखिल कर लिया है . आगे आगे देखतें है यह फेसबुकिया  बुखार क्या क्या रंग दिखलाता है. इसी कड़ी में आपसे अगले महीने मिलूंगी तब तक के लिए हम इस आसमान की रंगीनी बारिश का आनंद लेने जातें हैं.

                          -- शशि पुरवार
अट्ठहास में प्रकाशित व्यंग साभार।
  
 

समीक्षा -- है न -

  शशि पुरवार  Shashipurwar@gmail.com समीक्षा है न - मुकेश कुमार सिन्हा  है ना “ मुकेश कुमार सिन्हा का काव्य संग्रह  जिसमें प्रेम के विविध रं...

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