तिलिस्मी दुनियाँ
काटकर इन जंगलो को
तिलिस्मी दुनियाँ बसी है
वो फ़ना जीवन हुआ, फिर
पंछियों की बेकसी है.
चिलचिलाती धूप में, ये
पाँव जलते है हमारे
और आँखें देखती है
खेत के उजड़े नज़ारे
ठूँठ की इन बस्तियों में
पंख जलना बेबसी है
वृक्ष गमलों में लगे जो
आज बौने हो गए है
आम पीपल और बरगद
गॉंव भी कुछ खो गए है
ईंट गारे के महल में
खोखली रहती हँसी है
तीर सूखे है नदी के
रेत का फिर आशियाँ है
जीव - जंतु लुप्त हुए जो
अब नहीं नामो- निशाँ है
चाँद पर जाने लगे हम
गर्द में धरती फँसी है
-- शशि पुरवार
शशि पुरवार Shashipurwar@gmail.com समीक्षा है न - मुकेश कुमार सिन्हा है ना “ मुकेश कुमार सिन्हा का काव्य संग्रह जिसमें प्रेम के विविध रं...
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बहुत ही बेहतरीन रचना..,,
ReplyDeleteतीर सूखे है नदी के
ReplyDeleteरेत का फिर आशियाँ है
जीव - जंतु लुप्त हुए जो
अब नहीं नामो- निशाँ है
चाँद पर जाने लगे हम
गर्द में धरती फँसी है
…चाँद पर भले ही आज जाना असंभव नहीं रहा, लेकिन वहां जीने के लिए दाना पानी मिले यह असंभव ही है, उसके लिए हमारी धरती पर ही आखिर में लौटना होता है फिर क्यों इस दिशा में हम क्यों पिछड़ जाने की भूल करते आ रहे है यह गंभीर चिंतन का विषय है सबके लिए
…
वृक्ष गमलों में लगे जो
ReplyDeleteआज बौने हो गए है
आम पीपल और बरगद
गॉंव भी कुछ खो गए है
ईंट गारे के महल में
खोखली रहती हँसी है
बेहतरीन रचना
बहुत बढ़िया
ReplyDeleteविकास के नाम पर हम प्रकृति से खिलवाड़ करेंगे तो परिणाम भयावह अवश्यम्भावी हैं..बहुत सुन्दर और प्रभावी गीत...
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (20-09-2015) को "प्रबिसि नगर की जय सब काजा..." (चर्चा अंक-2104) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'