Monday, April 18, 2016
Tuesday, April 12, 2016
कुण्डलियाँ भरे कैसी यह सुविधा ?
1
सुविधा के साधन बहुत, पर गलियाँ हैं तंग
भीड़ भरी सड़कें यहाँ, है शहरों के रंग
है शहरों के रंग, नजर ना पंछी आवे
तीस मंजिला फ्लैट, गगन को नित भरमावे
बिन आँगन का नीड, हवा पानी की दुविधा
यन्त्र चलित इंसान, भरे कैसी यह सुविधा।
पीरा मन का क्षोभ है, सुख है संचित नीर
दबी हुई चिंगारियाँ, ईर्ष्या बनती पीर
ईर्ष्या बनती पीर, चैन भी मन का खोते
कटु शब्दों के बीज, ह्रदय में अपने बोते
कहनी मन की बात, तोष है अनुपम हीरा
सहनशील धनवान , कभी न जाने पीरा।
दबी हुई चिंगारियाँ, ईर्ष्या बनती पीर
ईर्ष्या बनती पीर, चैन भी मन का खोते
कटु शब्दों के बीज, ह्रदय में अपने बोते
कहनी मन की बात, तोष है अनुपम हीरा
सहनशील धनवान , कभी न जाने पीरा।
---- शशि पुरवार
Friday, April 8, 2016
कुण्डलियाँ
मँहगाई की मार से, खूँ खूँ जी बेहाल
आटा गीला हो गया, नोंचे सर के बाल
नोचे सर के बाल, देख फिर खाली थाली
महँगे चावल दाल, लाल पीली घरवाली
शक्कर, पत्ती, दूध, न होती रोज कमाई
टैक्स भरें धमाल, नृत्य करती महँगाई।
----- शशि पुरवार
----- शशि पुरवार
---
Monday, April 4, 2016
रात में जलता बदन अंगार हो जैसे।
जिंदगी जंगी हुई,
तलवार हो जैसे
पत्थरों पर घिस रही,
वो धार हो जैसे।
पत्थरों पर घिस रही,
वो धार हो जैसे।
निज सड़क पर रात में
जब देह कांपी थी
काफिरो ने हर जगह
फिर राह नापी थी
जब देह कांपी थी
काफिरो ने हर जगह
फिर राह नापी थी
कातिलों से घिर गया
संसार हो जैसे।
है द्रवित मंजर यहाँ
छलती गरीबी है
आबरू को लूटता
संसार हो जैसे।
है द्रवित मंजर यहाँ
छलती गरीबी है
आबरू को लूटता
वह भी करीबी है।
आह भी, निकला हुआ
इक वार हो जैसे.
आह भी, निकला हुआ
इक वार हो जैसे.
आँख में पलता रहा है
रोज इक सपना
जून भर भोजन मिले
घर,द्वार हो अपना।
रोज इक सपना
जून भर भोजन मिले
घर,द्वार हो अपना।
रात में जलता बदन
अंगार हो जैसे .
अंगार हो जैसे .
--- शशि पुरवार
Friday, April 1, 2016
मूर्खता का रिवाज
मूर्ख दिवस मनाने का रिवाज काफी पुराना है, लोग पलकें बिझाये १ अप्रैल की राह देखते हैं. वैसे तो हम लोग साल भर मूर्ख बनते रहतें है किन्तु फिर भी हमने अपने लिए एक दिन निर्धारित कर लिया है, भाई कहने के लिए हो जाता है कि १ अप्रैल था। हम तो अच्छे वाले फूल हैं जो साल भर खुद को फूल बनाते हैं।
अब आप सोचेंगे स्वयं को मूर्ख बनाना भी कोई बहुत बड़ा कार्य है,नहीं कोई ऐसा क्यों करना चाहेगा। लेकिन कटु सत्य है भाई , आजकल तो अंतरजाल ने लोगों को मूर्ख बनाने का अच्छा जरिया प्रस्तुत किया है. अलग अलग पोज की तस्वीरें, उन पर शब्दों की टूटी फूटी मार, हजारों के लाइक्स, वाह- वाह, अच्छों - अच्छों को चने के झाड़ पर चढ़ा देते हैं। व्यक्ति फूल कर पूरा फूल बन जाता है। न बाबा ना,हम किसी को मूर्ख नहीं बनाएंगे।
भाई अंग्रेज तो चले गए लेकिन अपने सारे खेल यहीं छोड़ गए और देशी लोगों ने उसे बड़ी शिद्दत से अपनाया है। खेल अपने अलग अलग रूपों में जारी है. आज देश की जनता छलावे में आकर रोज फूल बन रही है. जनता तो रोज नित नए सपने दिखाए जाते हैं, रोज नयी खुशबु भरा अखबार आँखों में नयी चमक पैदा करता है। राम राज्य आएगा की तर्ज पर, राम राज्य तो नहीं किन्तु रावण और अराजकता का राज्य चलने लगा है। नए नए सर्वेक्षण होते हैं। हम तो पहले भी मूर्ख बनते थे आज भी बनते है। अच्छे दिन आयंगे परन्तु अच्छे दिन आते ही नहीं है। हम हँसते हँसते मूर्ख बनते हैं, मूर्खता और मुस्कुराने का सीधा साधा रामपेल है। सपने दिखाने वाले अपने सफ़ेद पोश कपड़ों में नए चेहरे के साथ विराजमान हो जाते हैं। साथ ही साथ आयाराम गयाराम का खेल अपने पूरे उन्माद पर होता है।
आजकल व्यापारी भी बहुत सचेत हो गएँ है. बहती गंगा में हर कोई हाथ धोता है। एक बार हम आँखों के डाक्टर के पास गए, उन्होंने परचा बना कर आँखों का नया कवच धारण करने का आदेश दिया। हम कवच बनवाने दुकान पर गए , आँख का कवच यानि चश्मा, हमें लम्बा चौड़ा बिल थम दिया गया । २००० का बिल देखकर हम बहुचक्के रह गए।
अरे भाई ये क्या किया इतना मंहगा .......... आगे सब कुछ हलक में अटक गया. चश्मे का व्यापारी बोला - भाई साल भर में १०,००० के कपडे लेते हो और फेंक देते हो, किन्तु चश्मे के लिए काहे सोचते हो. वह तो सालभर वैसा ही चलता है , न रंग चोखा न फीका। भैया जान है तो जहान है। अब का कहे हर कोई जैसे उस्तरा चलाने के लिए तैयार बैठा है । भेल खाओ भेल बन जाओ।
त्यौहार पर हर व्यापारी मँजे हुए रंग लगाता है,तो फल - फूल ,तरकारी कहाँ पीछे रहने वाले है। आये दिन मौका देखकर व्यापारी चौका लगा देते हैं। जहाँ भी नजर घुमाओ हर हर दिन हँसते हँसते आप मूर्ख बनते है और बनते भी रहेंगे।
हमारी पड़ोसन खुद को बहुत होसियार समझती थी, सब्जी वाले से भिन्डी सब्जी खरीदी और ऊपर से २-४ भिन्डी पर हाथ साफ़ कर ऐसी प्रतिक्रिया दी जैसे किला फतह कर लिया हो. काहे तरकारी वाले को बेवकूफ समझा है का, वह तो पहले ही डंडी मार कर अपना काम कर लेता है , १ किलो में तीन पाँव देकर बाकी की रसभरी बातों में उलझा देता है। कहता है ---" अरे माई हम ईमानदार है कम नहीं देंगे, लो ऊपर से ले लो चार भिन्डी"। भिन्डी न हुई पर हालत टिंडी हो गयी।
हर तरफ हर रिश्ते में मूर्खता का साम्राज्य फैला हुआ है। पति - पत्नी, माँ -पिता, भाई -बहन एक दूसरे को भी मूर्ख बनाते हैं. न बात न चीत, लो युद्ध कायम है. तरकश हमेशा तैयार होता है। बिना वजह शक पैदा करना,आज की हवा का असर है। मीडिया रोज सावधान इंडिया जैसे कार्यक्रम पूरी शिद्दत से प्रस्तुत करता है, जनता भोली -भाली बेचारी, पूरी तन्मयता से कार्यक्रम का सुखद आनंद लेती है। क्राइम जो न करे वह भी इसकी लपेट में दम तोड़ता है। कुछ करने को रहा नहीं तो आजकल भौंडे प्रोग्राम और ख़बरें हर तरफ सांस ले रही हैं। हर तरफ मूर्खो का बोलबाला है।
नए ज़माने की नयी हवा बहुत बुद्धिमान है। स्वयं को मूर्ख साबित करो, एक दो काम का बैंड बजा दो को बॉस की आँख- कान से ऐसा धुँआ निकलेगा कि वह चार बार सोचेगा इस मूर्ख को काम देने से तो अच्छा है खुद मूर्ख बन जाओ।
अब देखिये हाल ही बात है बजट प्रस्तुत किया गया। जनता पूरी आँखे बिछा कर बैठी थी, हमारे काबिल नेताओं की घमासान बातों का जनता रसपान कर रही थी। अंत में यही हुआ किसी को लाठी और किसी की भैंस। टैक्स के नाम पर एक कान पकडे तो दूसरे खींच लिए, इतने कर लगाये कि कुर्ते की एक जेब में पैसा डालो तो दूसरी जेब से बाहर आ जाये। पीपीएफ को भी नहीं छोड़ा। महँगाई के नाम पर रोजमर्रा की वस्तुएं और चमक गयी, बेजार चीजें नीचे लुढक गयी। अब टीवी फ्रिज जैसी वस्तुएं भोजन में कैसे परोसें, क्या पता दिन बदलेंगे और हम यही भोजन करने लगेंगे।
एक बात अबहुँ समझ नहीं आई, गरीबों को मुफ्त में मोबाइल, गैस का कनेक्शन सुविधा देंगे। किन्तु रिचार्ज कौन करेगा ? सिलेंडर हवा भरकर चलेगा ? भोजन कहाँ से उपलब्ध होगा ? भाई जहाँ चार दाने अनाज नहीं है वहां इन वस्तुओं से कौन सा खेल खेलेंगे? हमरी खुपड़िया में घुस ही नहीं रहा है। वो का है कि हमने खुद को इतना मूर्ख बनाया कि गधा आज समझदार प्राणी हो गया है। अंग्रेजो का भला हो अब हम मूर्ख नहीं है। फूल है फूल। न गोभी का फूल, न गुलाब का फूल, पूरी दुनिया में प्राणी सबसे अच्छे फूल. लोग तो उल्लू बनाते है आप ऊल्लू मत बनिए। ओह हो! आज तो १ अप्रैल है। मूर्ख दिवस पर न उल्लू , न गुल्लू , न फूल बनो भाई अप्रैल फूल बनो ! अप्रैल फूूूल ~!
-- शशि पुरवार
Tuesday, March 22, 2016
फागुन के अरमान
छेड़ो कोई तान सखी री
फागुन का अरमान सखी री
कुसुमित डाली लचकी जाए
कूके कोयल आम्बा बौराये
गुंचों से मधुपान
सखी री
गोप गोपियाँ छैल छबीले
होठों पर है छंद रसीले
प्रेम रंग का भान
सखी री
नीले पीले रंग गुलाबी
बिखरे रिश्ते खून खराबी
गाउँ कैसे गान
सखी री
शीतल मंद पवन हमजोली
यादों में सजना की हो ली
भीगा है मन प्रान
सखी री
पकवानों में भंग मिली है
द्वारे द्वारे धूम मची है
सतरंगी परिधान
सखी री
फागुन का अरमान सखी री
- शशि पुरवार
आप सभी मित्रों को सपरिवार होली की रंग भरी शुभकामनाएँ।
Wednesday, March 16, 2016
धुआँ धुआँ होती व्याकुलता
धुआँ धुआँ होती व्याकुलता
प्रेम राग के गीत सुनाओ
सपनों की मनहर वादी है
पलक बंद कर ख्वाब सजाओ
सपनों की मनहर वादी है
पलक बंद कर ख्वाब सजाओ
लोगों की आदत होती है
दुनियाँ के परपंच बताना प्रेम त्याग अब बिसरी बातें
बदल रहा है नया जमाना।
घायल होते संवेदन को
निजता का इक पाठ पढ़ाओ।
धुआँ धुआँ होती व्याकुलता
प्रेम राग के गीत सुनाओ .
निजता का इक पाठ पढ़ाओ।
धुआँ धुआँ होती व्याकुलता
प्रेम राग के गीत सुनाओ .
दूर देश में हुआ बसेरा
अलग अलग डूबी थी रातें
कहीं उजेरा, कहीं चाँदनी
चुपके से करती है बातें
जिजीविषा, जलती पगडण्डी
तपते क़दमों को सहलाओ.
अलग अलग डूबी थी रातें
कहीं उजेरा, कहीं चाँदनी
चुपके से करती है बातें
जिजीविषा, जलती पगडण्डी
तपते क़दमों को सहलाओ.
धुआँ धुआँ होती व्याकुलता
प्रेम राग के गीत सुनाओ.
प्रेम राग के गीत सुनाओ.
ममता, करुणा और अहिंसा
भूल गया जग मीठी वाणी
आक्रोशों की नदियाँ बहती
हिंसा की बंदूकें तानी
झुलस रहा है मन वैशाली
भावों पर काबू पाओ
धुआँ धुआँ होती व्याकुलता
प्रेम राग के गीत सुनाओ
भूल गया जग मीठी वाणी
आक्रोशों की नदियाँ बहती
हिंसा की बंदूकें तानी
झुलस रहा है मन वैशाली
भावों पर काबू पाओ
धुआँ धुआँ होती व्याकुलता
प्रेम राग के गीत सुनाओ
--- शशि पुरवार
Saturday, March 5, 2016
" जिंदगी हमसे मिली रेलगाड़ी में "
जिंदगी हमसे मिली थी
रेलगाड़ी में
रेलगाड़ी में
बोझ काँधे पर उठाये
क्षीण साडी में.
कोच में फैला हुआ
कचरा उठाती है
हेय नजरें झिड़कियां
दुत्कार पाती है.
पट हृदय के बंद है इस
मालगाड़ी में
तन थकित, उलझी लटें
कुछ पोपला मुखड़ा
झुर्रियों ने लिख दिया
संघर्ष का दुखड़ा
उम्र भी छलने लगी
बेजान खाड़ी में
आँख पथराई , उदर की
आग जलती है
मंजिलों से बेखबर
बदजात चलती है
जिंदगी दम तोड़ती
गुमनाम झाडी में.
-- शशि पुरवार
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