जिंदगी जंगी हुई,
तलवार हो जैसे
पत्थरों पर घिस रही,
वो धार हो जैसे।
पत्थरों पर घिस रही,
वो धार हो जैसे।
निज सड़क पर रात में
जब देह कांपी थी
काफिरो ने हर जगह
फिर राह नापी थी
जब देह कांपी थी
काफिरो ने हर जगह
फिर राह नापी थी
कातिलों से घिर गया
संसार हो जैसे।
है द्रवित मंजर यहाँ
छलती गरीबी है
आबरू को लूटता
संसार हो जैसे।
है द्रवित मंजर यहाँ
छलती गरीबी है
आबरू को लूटता
वह भी करीबी है।
आह भी, निकला हुआ
इक वार हो जैसे.
आह भी, निकला हुआ
इक वार हो जैसे.
आँख में पलता रहा है
रोज इक सपना
जून भर भोजन मिले
घर,द्वार हो अपना।
रोज इक सपना
जून भर भोजन मिले
घर,द्वार हो अपना।
रात में जलता बदन
अंगार हो जैसे .
अंगार हो जैसे .
--- शशि पुरवार
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (05-04-2016) को "जय बोल, कुण्डा खोल" (चर्चा अंक-2303) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
nice
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना बधाई हो
ReplyDeleteअति सुंदर
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