shashi purwar writer

Monday, April 4, 2016

रात में जलता बदन अंगार हो जैसे।



जिंदगी जंगी हुई,
तलवार हो जैसे
पत्थरों पर  घिस रही,

वो धार हो जैसे। 

निज सड़क पर रात में
जब  देह कांपी थी 
काफिरो ने  हर जगह 
फिर राह नापी थी 
कातिलों से घिर गया 
संसार हो जैसे।


है द्रवित मंजर यहाँ 
छलती गरीबी है 
आबरू को लूटता 
वह भी करीबी है। 
आह भीनिकला हुआ 
इक वार हो जैसे.

आँख में पलता रहा है 
रोज इक सपना 
जून भर भोजन मिले 
घर,द्वार  हो अपना। 
रात में जलता बदन 
अंगार हो जैसे .
 --- शशि पुरवार 

4 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (05-04-2016) को "जय बोल, कुण्डा खोल" (चर्चा अंक-2303) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

    ReplyDelete
  2. बहुत सुन्दर रचना बधाई हो

    ReplyDelete

आपकी प्रतिक्रिया हमारे लिए अनमोल है। हमें अपने विचारों से अवगत कराएं। सविनय निवेदन है --शशि पुरवार

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