-- मुहावरों का मुक्तांगन एक अरण्य काल
(एक अध्ययन)
मुहावरे और नवगीत का उदगम स्थल एक ही है - वह है जन चेतना। नवगीत में जनचेतना का जो पैनापन है उसे मुहावरों के द्वारा ही सघनता से व्यक्त किया जा सकता है।
आदरणीय निर्मल शुक्ल जी का संग्रह एक और अरण्य काल, लगभग सभी गीतों में, मुहावरों के सटीक प्रयोग के लिये आकर्षित करता है। ये मुहावरे उनके गीतों के साथ जुड़कर गीत के कथ्य को विलक्षण अर्थ प्रदान करते हैं। संग्रह के कुछ मुहावरे पूर्व प्रचलित हैं- जैसे कान पकना, हाथ पाँव फूलना और गले तक पानी पहुँचना आदि, और कुछ उनके द्वारा स्वंयं भी रचे गए हैं जैसे - लपटों में सनी बुझी, स्वरों के नक्कारे भरना आदि।
संग्रह के पहले अनुभाग प्रथा के अंतर्गत बाँह रखकर कान पर सोया शहर सामाजिक विसंगतियों, संवादहीनता, निष्क्रियता, संवेदनहीनता और पारंपरिक बंधनों पर करारा प्रहार है. परंपराओं के नाम पर एक ही ढर्रे पर चल रही जिंदगी की जटिलता को व्यक्त करता हुआ यह गीत शोषित वर्ग की व्यथाओं को व्यक्त करता है। व्यथाएँ भी इतनी कि जिनका लेखा जोखा करते उँगलियाँ घिस जाती हैं. संघर्ष करते करते कमर टूट कर दोहरी हो जाती है, सारी उम्मीदें टूट जाती हैं और बदलाव की कोई सूरत नजर नहीं आती।
इस गीत में ऊँगलियाँ घिसना, हाथ पाँव फूलना, कान पर हाथ रखकर सोना, कमर का टूटना और कमर का दोहरा हो जाना इन पाँच मुहावरों का प्रयोग कथ्य को सघनते से संप्रेषित करने में सफल रहा है।
परंपरा के नाम पर पुरानी प्रथाओं को ढोते रहने का दर्द उँगलियाँ घिसने जैसे मुहावरे में बड़ी ही कुशलता से किया है -
सिलसिले स्वीकार अस्वीकार के गिनते हुए ही
उँगलियाँ घिसती रही हैं उम्र भर
इतना हुआ बस
बदलाव की कोई सूरत नजर न आने पर उम्मीद के हाथ पाँव फूलना निराशा और थकान की पराकाष्ठा को व्यक्त करता है। इसी प्रकार प्रगति और विकास के किसी भी विचार को न सुनने और न गुनने वाले शहर को बाँह रखकर कान पर सोया शहर कहना बहुत ही कुशल प्रयोग है।
कुछ थोड़े से लोग जो लोग समाज में सुधार और उसके विकास के लिये विशेष रूप से काम करते हैं समाज द्वारा उनकी उपेक्षा और अवमानना के कारण विकास और सुधार दिखाई नहीं देता। दिखाई देती है तो केवल उनकी थकान - कुछ पंक्तियाँ देखें-
उद्धरण हैं आज भी जो रंग की संयोजना के
टूटकर दोहरा गई उनकी कमर
इतना हुआ बस
प्रथा खंड का ही अन्य गीत हैं आंधियाँ आने को हैं- में काठ होते स्वर और ढोल ताशे बजना मुहावरों का प्रयोग है। आज लोकतान्त्रिक व्यवस्था में संघर्ष की खुरदुरी जमीं पर झूझते हुए निम्न वर्ग की आवाज कहीं दब सी जाती है. कागजी कार्यवाही, चर्चा, मंत्रणा औपचारिक वार्ता के साथ संपन्न हो जाती है. पन्नो में दबी हुई आवाज व आक्रोश की आँधी को कब तक रोका जा सकता हैं. प्रतिरोध की बानगी को यहाँ मुहावरे बेहद खूबसूरती से बयां कर रहे है. यथास्थिति से जूझते हुए मन के सहने की पराकाष्ठा जब समाप्त होने लगती है, तब स्वरों में जड़ता का संकेत प्रतिरोध का ताना बाना पहनने लगता है. और तूफ़ान के आने से पूर्व, तूफ़ान का संकेत मिलने लगता है. इतने व्यापक मनोभावों को मुहावरों की सहायता से दो पंक्तियों में कह दिया गया है
" काठ होते स्वर" अचानक
खीजकर कुछ बड़बड़ाये
आँधियाँ आने को हैं.
सुनो पत्ते खड़खड़ाए
आँधियाँ आने को हैं
इसी खंड के तीसरे गीत तलुवो के घाव में हमारा परिचय फिर कुछ मुहावरों से होता है जैसे – कंधे पर अलसाना, पंजों का अनमना स्वभाव कसना, तलवे घिसना ये मुहावरे संघर्षशील व्यक्ति के संवेदनशील मन की मार्मिक व्यथा को तो व्यक्त करते हैं -
कुछ पंक्तियाँ देखें-
शाम हुई दिन भर की धूप झड़ी कोट से
तकदीरें महँगी हैं जेब भरे नोट से
घिसे हुए तलवों से दिखते हैं घाव
इसी कड़ी में अगला गीत है गर्म हवा का दंगल। इस छोटे से गीत में हमें कुछ और सटीक मुहावरे मिलते हैं। सन्नाटे से पटना, बंदर-बाँट करना और थाल बजाना ये मुहावरे न केवल कथ्य को प्रभावशाली बनाते हैं बल्कि, हमारे सांस्कृतिक रीति रिवाजों की भी झलते देते हैं
बौनों की हिकमत तो देखो चूम रहे मेघों के गाल
कागज की शहतीरें थामे बजा रहे सबके सब थाल
अगले गीत ''ऋतुओं के तार'' में रेत होना, ऋतुओं के तार उतरना, चिकनी चुपड़ी बातें करना आदि मुहावरों का सटीक प्रयोग हुआ है।
सुर्ख हो गई धवल चाँदनी लेकिन चीख पुकार नहीं है
.....
स्थिति अब इन चिकनी चुपड़ी बातों को तैयार नहीं है
मेंहदी कब परवान चढ़ेगी शीर्षक अगले गीत में परवान चढ़ना और दम भरना मुहावरों का रोचक प्रयोग है।
अन्नपूर्णा की किरपा नामक अगले गीत के मुहावरे राह निहारना, बातों बात, ताड़ होना, हाथ पीले होना और तीत होना गीत के कथ्य को विशेष रूप से संप्रेषित करते हैं. अभिशप्त और अभावग्रस्त जीवन की त्रासदी को उजागर करते हुए इस नवगीत में किस्मत की मार झेल रहे लोगों के कुछ अनछुए पहलुओं को वाणी मिली है. ऐसे पहलू जहाँ केवल दो जून भोजन की ही आस रहते है और जहाँ हर पल भय से भरा हुआ रहता है
कुछ पंक्तियाँ देखें-
बचपन छूटा ताड़ हो गई नन्हकी बातों बात
रही सही जीने की इच्छा ले गए पीले हाथ
बोल बतकही दाना पानी सारा तीत हुआ
अगले गीत बहुत साक्षर हुई हवाएँ मे रचनाकार कहता है- शिक्षित होना विकास के लिये आवश्यक है, किन्तु साक्षरता के साथ दिखावे और कुटिलता का भी विकास होता है जिसे हम चुपचाप देखते हैं लेकिन कुछ कर नहीं सकते। इन्हीं भावनाओं को व्यक्त करते हुए किस्से हीर फ़क़ीर के , शतरंगी चालें, मुँह माँगा दाम गढ़ना आदि मुहावरे, बदलते समय की विभिन्न स्थियों को व्यक्त करने में सफल रहे हैं। इसी प्रकार एक अन्य गीत है - बड़ा गर्म बाजार में साँसों का बचाखुछा होना, औने पौने दाम, साँठ-गाँठ करना, का पकना, जबान का खाली जाना और फटी आँखों से देखना आदि मुहावरों के द्वारा बरगद के रूप में पुरानी पीढ़ी की आशा निराशा और अकेलेपन को सहज और स्वाभाविक रूप से चित्रित किया गया है।
खट खट सुनते सुनते “पक गए दरवाजों के कान”
आहट सगुनाहट सब कोरी /खाली गयी जबान
रही ताकती दालानों को / “आँखें फटी फटी” .
लकड़ी वाला घोड़ा शीर्षक से अगले नवगीत में गिनी चुनी साँसें, ऊँचे मुँह बातें बचकानी और गले तक पानी पहुँचना मुहावरे मिलते कथ्य को सम्प्रेषणीय बनाने में सहायक होते हैं।
ऊँचे मुँह बातें बचकानी , गले गले तक पहुँचा पानी, इतनी एक कहानी
.गले गले तक पहुँचा पानी इतनी एक कहानी
अगले तीन गीतों धड़ से चिपके पाँव, हर तरफ शीशे चढ़े हैं तथा तलुवों में अटकी जमीन में कंधे पर सलीब रखना, परछाईं द्वारा लीना जाना, धड़ से पाँव चिपकना, सिर विहीन होना इसके बाद वाले गीत हर तरफ शीशे चढ़े हैं में आँख में नमी होना, रक्त भीगे मुखौटे, तलुवों में जमीन अटकना आदि अनेक प्रचलित एवं नवीन मुहावरों का रोचक प्रयोग मिलता है।
अगले अनुभाग कथा के सात गीतों में पहले अनुभाग प्रथा की अपेक्षा मुहावरों की सघनता कुछ कम है। रेत से जलसन्धि नमक गीत में फेरा पड़ना / दृष्टि न टिकना / क्षितिज के पार और डूबना उतराना द्वारा यह कहने की सफल चेष्टा हुई है कि संघर्ष की खुरदुरी जमीन पर चाहे आँखे कितनी भी थकी हो किन्तु कल्पना, अभिलाषाओं का आकाश बहुत बड़ा है, सपने आँखों में फिर भी पलते हैं. लहरों का नाद चाहे जितना बड़ा हो किन्तु मन की कोमल आशा छुपती नहीं है. कहकहों के बीच शीर्षक से एक अन्य गीत में मन साथ रखना, रात भरना आदि मुहावरों का प्रयोग मिलता है।
दर्द दे जाता किसी का /अनमने मन साथ रखना
अब नहीं भाता सुलगते /दिन निकलना, रात भरना।
यह समय की विडम्वना है कि दर्द सहने कि शक्ति एक समय के बाद क्षीण हो जाती है. मासूमियत जब जब चोट खा जाती है तब मनुष्य उस बोझिल त्रासदी के बाद सुख- सुकून की कामना करता है, जब कि आधुनिक जीवन में चैन और सुकून के पल कहीं ओझल हो गए हैं। इन्हीं भावों को मुहावरों के माध्यम से गीत में सुंदर अभिव्यक्ति मिली है।
संग्रह के तीसरे और अंतिम खंड के तीन गीतों में से पहले और अंतिम गीत में मुहावरों का भरपूर प्रयोग है। पहले गीत दूषित हुआ विधान में आग पीकर धुआँ उगलना, उड़ान थकना, हाथ खींचना, पाँव पड़ना, हल्कान होना आदि मुहावरों का प्रयोग मिलता है।
पर्यावरण के प्रति सचेत करते हुए दूषित हुआ विधान शीर्षक गीत में ये पंक्तियाँ देखें-
धुआँ मंत्र सा उगल रही है चिमनी पीकर आग
भटक गया है चौराहे पर प्राणवायु का राग
रहे खाँसते ऋतुएँ मौसम दमा करे हलकान
इस खंड और संग्रह के अंतिम गीत गणित नहीं सुधरी में धूल फाँकना, गाज गिरना, ताल ठोंकना, धरी रह जाना, दाँव गढ़ना, कंकरीट होना, हरा भरा होना, खरी खरी सुनना, भेंट चढ़ जाना आदि अनेक मुहावरों का सफल प्रयोग हुआ है।
घर आँगन माफिया हवाएँ गहरे दाँव गढ़ें
माटी के छरहरे बदन पर कोड़े बहुत पड़े
कंकरीट हो गई व्यवस्था पल में हरी भरी
एक अन्य पंक्ति में पंचतत्व में ढला मसीहा सुनता खरी खरी कहर कर वे सामाजिक विसंगतियों पर करारा प्रहार करते हुए कहते हैं कि आज जैसे ईश्वकर भी निर्विकार हो गए हैं. वे भी पंचतत्व में ढल चुके है।
संग्रह में सबसे अधिक मुहावरों का प्रयोग पहले खंड प्रथा में किया गया है। केवल दो एक गीत ही ऐसे हैं जिनमें मुहावरों का प्रयोग नहीं हुआ है। केवल दो तीन स्थानों पर ही मुहावरों को दोहराया गया है। कुछ प्रचलित मुहावरों को ज्यों का त्यों अपनाया गया है तो कुछ में नया पन लाने की कोशिश भी दिखाई देती है- उदाहरण के लिये छोटा मुँह बड़ी बात के स्थान पर ऊँचा मुँह बचकानी बात। अनेक नये मुहावरों का प्रयोग भी किया गया है जिनमें से कुछ का प्रयोग आगे चलकर प्रचलित हो सकता है।
कुल मिलाकर मुहावरे इस संग्रह की जान हैं और एक अरण्यकाल मुहावरों का ऐसा मुक्तांगन है जिसमें अनेक अर्थ, भावना, कथ्य और संवेदना के पंछी दाना चुग रहे हैं और स्वयं को समृद्ध कर रहे हैं।
शशि पुरवार