Friday, February 15, 2019
Wednesday, February 13, 2019
१
शहरों की यह जिंदगी, जैसे पेड़ बबूल
मुट्ठी भर सपने यहाँ, उड़ती केवल धूल
उड़ती केवल धूल, नींद से जगा अभागा
बुझे उदर की आग, कर्म ही बना सुहागा
कहती शशि यह सत्य, गूढ़ डगर दुपहरों की
कोमल में के ख्वाब, सख्त जिंदगी शहरों की
२
चाँदी की थाली सजी, फिर शाही पकवान
माँ बेबस लाचार थी, दंभ भरे इंसान
दंभ भरे इंसान, नयन ना गीले होते
स्वारथ का सामान, बोझ रिश्तों का ढोते
कहती शशि यह सत्य, शिथिल बगिया का माली
शब्द प्रेम के बोल, नहीं चाँदी की थाली
३
धरती भी तपने लगी, अंबर बरसी आग
आँखों को शीतल लगे, फूलों वाला बाग़
फूलों वाला बाग़, सुवासित तन मन होता
धूप में जला बदन, हरित खेमे में सोता
कहती शशि यह सत्य, प्रकृति पल पल मरती
मत काटो हरित वन, लगी तपने यह धरती
४
हम तुम बैठे साथ में, लेकिन पसरा मौन
सन्नाटे को चीर कर, गंध बिखेरे कौन
गंध बिखेरे कौन, अजब रिश्तों का मेला
मौन करे संवाद, अबोलापन ही खेला
कहती शशि यह सत्य, हृदय रहता है गुमसुम
छेड़ो कोई तान, साथ जब बैठें हम तुम
५
दिल में इक तूफ़ान है, भीगे मन के कोर
पत्थर से टकरा गई, लहरें कुछ कमजोर
लहरें कुछ कमजोर, विलय सागर में होती
गहरे तल में झाँक, छिपे हैं कितने मोती
कहती शशि यह सत्य, तमाशे हैं महफ़िल में
बंद हृदय का द्वार, दफ़न पीड़ा है दिल में
६
मन में जब लेने लगी, शंकाएँ आकार
सूली पर फिर चढ़ गया, इक दूजे का प्यार
इक दूजे का प्यार, फूल ना खिलने पाएँ
चुभते शूल हजार, शब्द जहरी बन जाएँ
कहती शशि यह सत्य, दरार पड़ी दरपन में
प्रेम बहुत अनमोल, भरे जो खुशियाँ मन में
शशि पुरवार
शहरों की यह जिंदगी, जैसे पेड़ बबूल
मुट्ठी भर सपने यहाँ, उड़ती केवल धूल
उड़ती केवल धूल, नींद से जगा अभागा
बुझे उदर की आग, कर्म ही बना सुहागा
कहती शशि यह सत्य, गूढ़ डगर दुपहरों की
कोमल में के ख्वाब, सख्त जिंदगी शहरों की
२
चाँदी की थाली सजी, फिर शाही पकवान
माँ बेबस लाचार थी, दंभ भरे इंसान
दंभ भरे इंसान, नयन ना गीले होते
स्वारथ का सामान, बोझ रिश्तों का ढोते
कहती शशि यह सत्य, शिथिल बगिया का माली
शब्द प्रेम के बोल, नहीं चाँदी की थाली
३
धरती भी तपने लगी, अंबर बरसी आग
आँखों को शीतल लगे, फूलों वाला बाग़
फूलों वाला बाग़, सुवासित तन मन होता
धूप में जला बदन, हरित खेमे में सोता
कहती शशि यह सत्य, प्रकृति पल पल मरती
मत काटो हरित वन, लगी तपने यह धरती
४
हम तुम बैठे साथ में, लेकिन पसरा मौन
सन्नाटे को चीर कर, गंध बिखेरे कौन
गंध बिखेरे कौन, अजब रिश्तों का मेला
मौन करे संवाद, अबोलापन ही खेला
कहती शशि यह सत्य, हृदय रहता है गुमसुम
छेड़ो कोई तान, साथ जब बैठें हम तुम
५
दिल में इक तूफ़ान है, भीगे मन के कोर
पत्थर से टकरा गई, लहरें कुछ कमजोर
लहरें कुछ कमजोर, विलय सागर में होती
गहरे तल में झाँक, छिपे हैं कितने मोती
कहती शशि यह सत्य, तमाशे हैं महफ़िल में
बंद हृदय का द्वार, दफ़न पीड़ा है दिल में
६
मन में जब लेने लगी, शंकाएँ आकार
सूली पर फिर चढ़ गया, इक दूजे का प्यार
इक दूजे का प्यार, फूल ना खिलने पाएँ
चुभते शूल हजार, शब्द जहरी बन जाएँ
कहती शशि यह सत्य, दरार पड़ी दरपन में
प्रेम बहुत अनमोल, भरे जो खुशियाँ मन में
शशि पुरवार
Saturday, February 2, 2019
धूप आँगन की
नमस्कार मित्रों आपसे साझा करते हुए बेहद प्रसन्नता हो रही है कि--
शशि पुरवार का दूसरा संग्रह * " धूप आँगन की " ** भी बाजार में उपलब्ध है।
धूप आँगन की " जैसे आँगन में चिंहुकती हुई नन्ही परी की अठखेलियां, कभी
ठुमकना तो कभी रूठ जाना,कभी नेह की गुनगुनी धूप में पिघलता हुआ मन है ,
कभी यथार्थ की कठोर धरातल पर पत्थरों सा धूप में सुलगता हुआ तन है . कभी
बंद पृष्ठों में महकते हुए मृदु एहसास हैं तो कहीं मृगतृष्णा की सुलगती
हुई रेतीली प्यास है। कहीं स्वयं के वजूद की तलाशती हुई धूप है तो कहीं
विसंगतियों में सुलगती हुई धूप की आग है । हमारे परिवेश में बिखरे हुए
संवेदना के कण है - धूप का आँगन
क्यों न अपने स्नेह की नर्म धूप से सहला दें। आओ इक सुन्दर सा आकाश बना ले।
हमारे प्रयास आपके दिलों ने इक छोटा सी जगह बना ले। आंगन की धूप को आप
अपने हृदय से लगा ले. हम आपके प्यार को अपना आकाश बना ले। आंगन की धूप से
सुप्त कणों को जगा दे।
शशि पुरवार
शशि पुरवार का दूसरा संग्रह * " धूप आँगन की " ** भी बाजार में उपलब्ध है।
धूप आँगन की " जैसे आँगन में चिंहुकती हुई नन्ही परी की अठखेलियां, कभी
ठुमकना तो कभी रूठ जाना,कभी नेह की गुनगुनी धूप में पिघलता हुआ मन है ,
कभी यथार्थ की कठोर धरातल पर पत्थरों सा धूप में सुलगता हुआ तन है . कभी
बंद पृष्ठों में महकते हुए मृदु एहसास हैं तो कहीं मृगतृष्णा की सुलगती
हुई रेतीली प्यास है। कहीं स्वयं के वजूद की तलाशती हुई धूप है तो कहीं
विसंगतियों में सुलगती हुई धूप की आग है । हमारे परिवेश में बिखरे हुए
संवेदना के कण है - धूप का आँगन
क्यों न अपने स्नेह की नर्म धूप से सहला दें। आओ इक सुन्दर सा आकाश बना ले।
हमारे प्रयास आपके दिलों ने इक छोटा सी जगह बना ले। आंगन की धूप को आप
अपने हृदय से लगा ले. हम आपके प्यार को अपना आकाश बना ले। आंगन की धूप से
सुप्त कणों को जगा दे।
शशि पुरवार
Friday, January 11, 2019
Monday, January 7, 2019
फगुनाहट ले आना
नए साल तुम कलरव वाली
इतराहट ले आना
आँगन के हर रिश्तें में
गरमाहट ले आना
दुर्दिन वाली काली छाया फिर
घिरने ना पायें
सोना उपजे खलियानों में
खुशहाली लहरायें
सबकी किस्मत हो गुड़ धानी
नरमाहट ले आना
नए साल तुम कलरव वाली
इतराहट ले आना
हर मौसम में फूल खिलें पर
बंजर ना हो धरती
फुटपाथों पर रहने वाले
आशा कभी न मरती
धूप जलाए, नर्म छुअन सी
फगुनाहट ले आना
नए साल तुम कलरव वाली
इतराहट ले आना
ठोंगी कपटी लोगों के तुम
टेढ़े ढंग बदलना
बूढ़े घर की दीवारों के
फीके रंग बदलना
जर्जर होती राजनीति की
कुछ आहट ले आना
नए साल तुम कलरव वाली
इतराहट ले आना
भाग रहे सपनों के पीछे
बेबस होती रातें
घर के हर कोने में रखना
नेह भरी सौगातें
धुंध समय की गहराए पर
मुस्काहट ले आना
नए साल तुम कलरव वाली
इतराहट ले आना
आँगन के हर रिश्तों में
गरमाहट ले आना
शशि पुरवार
Thursday, December 20, 2018
हम आंगन के फूल
आंगन के हर फूल से, करो न इतना मोह
जीवन पथ में एक दिन, सहना पड़े बिछोह
सहना पड़े बिछोह, रीत है जग की न्यारी
होती हमसे दूर, वही जो दिल को प्यारी
कहती शशि यह सत्य, रंग बदलें उपवन के
फूल हुए सिरमौर, ना महकते आंगन के
चाहे कितनी दूर हो, फिर भी दिल के पास
राखी पर रहती सदा, भ्रात मिलन की आस
भ्रात मिलन की आस, डोर रेशम की जोड़े
मन में है विश्वास , द्वार से मुख ना मोड़े
कहती शशि यह सत्य, मथो तुम मन की गाहे
इक आँगन के फूल, मिलन हो जब हम चाहें
शशि पुरवार
जीवन पथ में एक दिन, सहना पड़े बिछोह
सहना पड़े बिछोह, रीत है जग की न्यारी
होती हमसे दूर, वही जो दिल को प्यारी
कहती शशि यह सत्य, रंग बदलें उपवन के
फूल हुए सिरमौर, ना महकते आंगन के
चाहे कितनी दूर हो, फिर भी दिल के पास
राखी पर रहती सदा, भ्रात मिलन की आस
भ्रात मिलन की आस, डोर रेशम की जोड़े
मन में है विश्वास , द्वार से मुख ना मोड़े
कहती शशि यह सत्य, मथो तुम मन की गाहे
इक आँगन के फूल, मिलन हो जब हम चाहें
शशि पुरवार
Saturday, November 17, 2018
बूढ़ा हुआ अशोक
बरसों से जो खड़ा हुआ था
बूढ़ा हुआ अशोक
बूढ़ा हुआ अशोक
हरी भरी शाखों पर इसकी
खिले हुए थे फूल
लेकिन मन के हर पत्ते पर
जमी हुई थी धूल
आँख समय की धुँधली हो गई
आँख समय की धुँधली हो गई
फिर भी ना कोई शोक
मौसम की हर तपिश सही है
फिर भी शीतल छाँव
जो भी द्वारे उसके आया
लुटा नेह का गॉँव
बारिश आंधी लाख सताए
पर झरता आलोक
आज शिराओं में बहता है
पानी जैसा खून
अब शाखों को नोच रहें हैं
अपनों के नाखून
बूढ़े बाबा की धड़कन में
ये ही अपना लोक
बरसों से जो खड़ा हुआ था
बूढ़ा हुआ अशोक
बूढ़ा हुआ अशोक
शशि पुरवार
Saturday, October 20, 2018
दर्द तीखे हँस रहे
खेल है यह जिंदगी के
टूटना मुझको नहीं है
बंद हों जब द्वार सारे
हौसला भी कुछ वहीं है
क्यों परीक्षा ले रहा रब
हर कदम पर इम्तिहां है
तोड़ती निष्ठुर हवाएं
पास साहिल भी कहाँ है
दूर तक जाना मुझे, पर
रास्ता दुर्गम मही है
बंद हों जब द्वार सारे
हौसला भी कुछ वहीं है
बेबसी मुझको सताती
नाँव पथ में डगमगाती
पंख मेरे कट रहें हैं
जिंदगी भी लड़खड़ाती
शूल पाँवों में चुभें, फिर
नित संभलना भी यहीं है
बंद हों जब द्वार सारे
हौसला भी कुछ वहीं है
शब्द मन में उड़ रहें है
भाव हिय में फँस रहें है
तन शिथिल कैसे चलूँ मै
दर्द तीखे हँस रहें है
क्या खता मेरी बता दे
बात दिल की अनकहीं है
बंद हों जब द्वार सारे
हौसला भी कुछ वहीं है
खेल है यह जिंदगी के
टूटना मुझको नहीं है
बंद हों जब द्वार सारे
हौसला भी कुछ वहीं है
शशि पुरवार
२० / ११/ २१०८
टूटना मुझको नहीं है
बंद हों जब द्वार सारे
हौसला भी कुछ वहीं है
क्यों परीक्षा ले रहा रब
हर कदम पर इम्तिहां है
तोड़ती निष्ठुर हवाएं
पास साहिल भी कहाँ है
दूर तक जाना मुझे, पर
रास्ता दुर्गम मही है
बंद हों जब द्वार सारे
हौसला भी कुछ वहीं है
बेबसी मुझको सताती
नाँव पथ में डगमगाती
पंख मेरे कट रहें हैं
जिंदगी भी लड़खड़ाती
शूल पाँवों में चुभें, फिर
नित संभलना भी यहीं है
बंद हों जब द्वार सारे
हौसला भी कुछ वहीं है
शब्द मन में उड़ रहें है
भाव हिय में फँस रहें है
तन शिथिल कैसे चलूँ मै
दर्द तीखे हँस रहें है
क्या खता मेरी बता दे
बात दिल की अनकहीं है
बंद हों जब द्वार सारे
हौसला भी कुछ वहीं है
खेल है यह जिंदगी के
टूटना मुझको नहीं है
बंद हों जब द्वार सारे
हौसला भी कुछ वहीं है
शशि पुरवार
२० / ११/ २१०८
Thursday, September 20, 2018
विकलांगता
विकलांगता ख्याल आते ही
मन में सहानुभूति जन्म लेती है
कहीं वितृष्णा, कहीं लापरवाही
कहीं बेचारगी, कभी दुत्कार।
यह अपरिपक्व मन के विकार है
शरीर या मन का विकृत अंग जिसे
काट नहीं सकतें, सहला सकतें है
अपने नर्म हाथों से, प्रेम भरी बातों से।
जीवन की खूबसूरती पर
उनका भी हक है।
उनका भी हक है।
विकलांगता,
अभिशाप नहीं, मन का छोटा सा विकार है।
अभिशाप नहीं, मन का छोटा सा विकार है।
जो तन से परे मन को विक्षिप्त करता है।
जीवन लाचार नहीं, वरदान है।
भीख मत मांगो जिंदगी से ,
लड़ो अपने मन की अपंगता से।
बेचारगी तोड़ देगी सम्बल तुम्हारा
पर मत लड़ो खुद से,
लड़ो मन की परतों में छुपे हुए भय से,
लड़ो मन की परतों में छुपे हुए भय से,
गिर पड़े गर अपनी नजर में तो
फिर कैसे उठोगे ।
कुछ कर गुजरने की चाह गर दिल में है
तो छू लो आसमान को
पाँव तले होगी जमीं
पाँव तले होगी जमीं
तुम्हारे मजबूत इरादों की,
जीत लोगे जंग हालातों से
विकलांगता अभिशाप नहीं है। अपितु
प्रेम की नरम छुअन बदल देगी
किसी एक का जीवन
शशि पुरवार
किसी एक का जीवन
शशि पुरवार
Monday, September 17, 2018
हौसलों के गीत - गजल
जिंदगी अनमोल है नित, हौसलों के गीत गाना
हर कमी तन की भुलाकर, साथ जग के मुस्कुराना
जिस्म गर विकलांग है तो, तुम बदलना सोच अपनी
लिख सकोगे नव इबारत, भाग्य हाथों से बनाना
तन अपाहिज है नहीं मन, मर्ज को ताकत बनाओ
जग हँसे या मीत रूठे, पीर को मत गुनगुनाना
दर्द की मीठी लहर, जब, देह मन को चीर देगी
टूटना मत, नित सँभलना, ख्वाब आँखों में सजाना
राह पथरीली बहुत ही, हर कदम पर इंतिहाँ है
समय के निष्ठुर पहर पर, दीप आशा के जलाना
हर कमी तन की नहीं, मन की हमेशा सोच होती
नजरिया जग का बदलना, और खुल कर मुस्कुराना।
शशि पुरवार
हर कमी तन की भुलाकर, साथ जग के मुस्कुराना
जिस्म गर विकलांग है तो, तुम बदलना सोच अपनी
लिख सकोगे नव इबारत, भाग्य हाथों से बनाना
तन अपाहिज है नहीं मन, मर्ज को ताकत बनाओ
जग हँसे या मीत रूठे, पीर को मत गुनगुनाना
दर्द की मीठी लहर, जब, देह मन को चीर देगी
टूटना मत, नित सँभलना, ख्वाब आँखों में सजाना
राह पथरीली बहुत ही, हर कदम पर इंतिहाँ है
समय के निष्ठुर पहर पर, दीप आशा के जलाना
हर कमी तन की नहीं, मन की हमेशा सोच होती
नजरिया जग का बदलना, और खुल कर मुस्कुराना।
शशि पुरवार
Subscribe to:
Posts (Atom)
समीक्षा -- है न -
शशि पुरवार Shashipurwar@gmail.com समीक्षा है न - मुकेश कुमार सिन्हा है ना “ मुकेश कुमार सिन्हा का काव्य संग्रह जिसमें प्रेम के विविध रं...
https://sapne-shashi.blogspot.com/
-
मेहंदी लगे हाथ कर रहें हैं पिया का इंतजार सात फेरो संग माँगा है उम्र भर का साथ. यूँ मिलें फिर दो अजनबी जैसे नदी के दो किनारो का...
-
हास्य - व्यंग्य लेखन में महिला व्यंग्यकार और पुरुष व्यंग्यकार का अंतर्विरोध - कमाल है ! जहां विरोध ही नही होना चाहिए वहां अ...
-
साल नूतन आ गया है नव उमंगों को सजाने आस के उम्मीद के फिर बन रहें हैं नव ठिकाने भोर की पहली किरण भी आस मन में है जगाती एक कतरा धूप भी, ...
linkwith
http://sapne-shashi.blogspot.com