Thursday, April 4, 2019
Thursday, March 21, 2019
भीगी चुनरी चोली
फागुन की मनुहार सखी री
गंध पत्र ऋतुओं ने बाँटे
उपवन पड़ा हिंडोला
चटक नशीले टेसू ने फिर
प्रेम रंग है घोला
गंध पत्र ऋतुओं ने बाँटे
मादक सी पुरवाई
पतझर बीता, लगी उमड़ने
मौसम की अंगड़ाई
छैल छबीले रंग फाग के
मन भी मेरा डोला
चटक नशीले टेसू ने फिर
प्रेम रंग है घोला।
राग बसंती,चंग बजाओ
उमंगो की पिचकारी
धरती से अम्बर तक गूंजे
खुशियों की किलकारी
अनुबंधों का प्रणय निवेदन
फागुन का हथगोला
अनुबंधों का प्रणय निवेदन
फागुन का हथगोला
चटक नशीले टेसू ने फिर
प्रेम रंग है घोला।
मनमोहक रंगो से खेलें
खूनी ना हो होली
द्वेष मिटाकर जश्न मनाओ
भीगी चुनरी चोली
चंचल हिरणी के नैनो में
सुख का उड़न खटोला
चटक नशीले टेसू ने फिर
प्रेम रंग है घोला
Monday, March 11, 2019
गुनगुनी सी धूप आँगन की - पुस्तक समीक्षा
मेरे दूसरे संग्रह की समीक्षा लिखी थी इंदौर से विजय सिंह चौहान जी ने और यह समीक्षा अंतर्जाल पर प्रतिलिपि , मातृभाषा , दिव्योथान एवं नवभारत समाचार पत्र सभी पोर्टल पर प्रकाशित है , आप भी यहाँ पढ़ सकतें हैं
आभार आ. विजय सिंह चौहान जी
गुनगुनी सी : धूप आंगन की
साहित्य यात्रा : धूप आंगन की , सात खण्ड में विभक्त एक ऐसा गुलदस्ता है
जिसमें साहित्यिक क्षेत्र की विभिन्न विधाअों के फूलों की गंध को एक साथ महसूस करके उसका आनन्द लिया जा सकता है । भारतवर्ष की ख्यात लेखिका श्रीमति शशि पुरवार ने इस गुलदस्ते को आकार दिया है। हिन्दी साहित्य जगत में श्रीमति शशि पुरवार एक सशक्त हस्ताक्षर है ।
इन्दौर में जन्मी शशि पुरवार ने यहीं के गुजराती साईंस कॉलेज से
विज्ञान की उपाधि प्राप्त की है तदन्तर एम् ए , एवं कंप्यूटर में होनेर्स डिप्लोमा किया है . मालवा की माटी में ही साहित्य का बीजारोपण हुआ जो आज एक वटवृक्ष के रूप में हमारे सम्मुख है. विसंगतियों के खिलाफ अपने प्रयासों के लिये शशि पुरवार को महिला और बाल विकास मंत्रालय द्वारा 2016 में ‘भारत की 100 वूमन्स अचीवर ऑफ इण्डिया‘ नामक सम्मान से नवाजा गया है । आप गीत, आलेख, व्यंग्य, गजल, कविता, कहानी व अन्य विधाओं में अपनी संवेदना व्यक्त करती रही है ।
विज्ञान की उपाधि प्राप्त की है तदन्तर एम् ए , एवं कंप्यूटर में होनेर्स डिप्लोमा किया है . मालवा की माटी में ही साहित्य का बीजारोपण हुआ जो आज एक वटवृक्ष के रूप में हमारे सम्मुख है. विसंगतियों के खिलाफ अपने प्रयासों के लिये शशि पुरवार को महिला और बाल विकास मंत्रालय द्वारा 2016 में ‘भारत की 100 वूमन्स अचीवर ऑफ इण्डिया‘ नामक सम्मान से नवाजा गया है । आप गीत, आलेख, व्यंग्य, गजल, कविता, कहानी व अन्य विधाओं में अपनी संवेदना व्यक्त करती रही है ।
" धूप आंगन की " मुझे अपनी सी व सुहानी सी लगती है . कभी कोयल की कूक तो कभी पायल की रूनझून मन को गुदगुदाने लगती है । संवेदनाए भी जीवन की झर धूप में, नेह छांव की तलाश करती नजर आती है । गजल खण्ड में लगभग 24 गजलें धूप आंगन के ईद र्गिद मंडराती है , कभी इश्क का जखीरा पिघलता है, तो कभी आंगन में लगा नीम ढेरो उपहार देने के बाद भी मुरझाता सा प्रतीत होता है ।
मधुवन मे महकते हुए फूल हो या गजल के करिश्में , हर रचना में
रचनाकार की कोमल संवेदनाअों का उठता ज्वार, समुद्र से गहरे विचार को
दर्शाता है. बनावटी रिश्तों की कसक हर आंगन में होती है लेकिन इस आँगन
की धूप ने स्पष्ट किया है कि ‘हर नियत पाक नहीं होती‘ है व वक्त लुटेरा बनकर सबको लूटता है. ज्ञान का दीप भी धरूँ मन में, जिंदगी फिर गुलाब हो जाए जैसी गजलों के नाजुक शेर की यह पंक्तियाँ पूर्णत: गुलिस्तां की महक को समेटने में सफल रही है.
रचनाकार की कोमल संवेदनाअों का उठता ज्वार, समुद्र से गहरे विचार को
दर्शाता है. बनावटी रिश्तों की कसक हर आंगन में होती है लेकिन इस आँगन
की धूप ने स्पष्ट किया है कि ‘हर नियत पाक नहीं होती‘ है व वक्त लुटेरा बनकर सबको लूटता है. ज्ञान का दीप भी धरूँ मन में, जिंदगी फिर गुलाब हो जाए जैसी गजलों के नाजुक शेर की यह पंक्तियाँ पूर्णत: गुलिस्तां की महक को समेटने में सफल रही है.
रचनाकार के मन में हिन्दी के प्रति जन्में अगाध श्रद्वा भाव ने हिन्दी को विभिन्न उपमा, अलंकार में श्रंृगारित करते हुए बेहद सुन्दर उद्गार प्रेषित किये है . यह प्रेम उनकी रचना मे नजर आता है. गजल के यह शेर देखें
कि सात सुरों का है ये संगम,
मीठा सा मधुपान है, हिन्दी ।
फिर वक्त की नजाकत, दिल की यादें, और सांसों में बसी हो क्या, यहां आते
आते धूप आंगन की; जाडों में गुनगुनी धूप का अहसास दिलाती है तथा संवेदनाअों की कोमल धूप थोडी देर अौर आंगन में बैठने के लिए मजबूर करती है । इस साहित्यिक यात्रा में जैसे जैसे धूप तेज होती है वैसे-वैसे गर्मी की ,उष्णता भी महसूस होने लगती है . ऐसी ही एक गजल है जिसके शेर
है
घर का बिखरा नजारा अौर है व
गिर गया आज फिर मनुज,
कितना नार को कोख में मिटा लाया‘
शेर पढकर धूप की चुभने का अहसास होता है . आहिस्ता-आहिस्ता गजल में
प्रेम की फुलवारी फिर से महकने लगती है कि हौसलों के गीत गुनगुनाअो ।
कि सात सुरों का है ये संगम,
मीठा सा मधुपान है, हिन्दी ।
फिर वक्त की नजाकत, दिल की यादें, और सांसों में बसी हो क्या, यहां आते
आते धूप आंगन की; जाडों में गुनगुनी धूप का अहसास दिलाती है तथा संवेदनाअों की कोमल धूप थोडी देर अौर आंगन में बैठने के लिए मजबूर करती है । इस साहित्यिक यात्रा में जैसे जैसे धूप तेज होती है वैसे-वैसे गर्मी की ,उष्णता भी महसूस होने लगती है . ऐसी ही एक गजल है जिसके शेर
है
घर का बिखरा नजारा अौर है व
गिर गया आज फिर मनुज,
कितना नार को कोख में मिटा लाया‘
शेर पढकर धूप की चुभने का अहसास होता है . आहिस्ता-आहिस्ता गजल में
प्रेम की फुलवारी फिर से महकने लगती है कि हौसलों के गीत गुनगुनाअो ।
एक बात और कहना चाहूगा कि गजल खण्ड को पढते-पढते आखों कहीं नम होती है तो कहीं ह्रदय को मानिसक सुकुन मिलता है . संवेदनाएँ हमारे ही परिवेश को रेखांकन करती हुई अपने ही इर्द गिर्द होने का अहसास कराती है ।
संवेदनाअों की वाहिका, धूप आंगन से होते हुए ‘लघुकथा‘ खण्ड में प्रवेश करती है जहां सामाजिक ताना-बाना, रौशनी की किरण बनकर ; हर एक लघुकथा के माध्यम से दिव्य संदेश की वाहिका बनकर पाठकों तक पहुंचती है । लघुकथा खण्ड में समाज में हुए मानसिक पतन, जीवन का सच, गरीब कौन, दोहरा व्यक्तित्व तथा विकृत मानसिकता, स्वाहा और ममता आदि लघुकथाएँ समाज को सार्थक संदेश देती है । जीवन की तपिश में जाडो की नर्म धूप सा अहसास होता है . संग्रह के लघुकथा खण्ड में जब नया रास्ता, आईना दिखाता है तोअर्न्तमन का सुकून संवेदना के रूप में बाहर झलकता है । समाज में व्याप्तअंधविश्वास ,खोखले रिवाजों के बीच सलोनी के चेहरे पर आई मुस्कान पढ करअर्न्तमन तृप्त हो जाता है । बडी कहानी खण्ड में " नया आकाश " आम गृहणीकी मनोदशा का मार्मिक चित्रण हैं , यह कहानी हर किसी गृहणी को अपनी हीसंवेदनाओं का अहसास कराती है . कहानी के अंत में नारी सम्मान पर जीवनसाथी द्वारा दिये गये संदेश अपनी दिव्यता की महक छोडतें है कि "नारी
का काम सृजन करना ही है, मन में आत्मविश्वास हो तो नारी कुछ भी कर सकती है. हर नारी के अंदर कोई न कोई प्रतिभा होती है, जिसे बाहर लाना चाहिये‘ अपनी पत्नी पर गर्वीली आंखों में आई चमक का बख्ूाबी वर्णन किया है ।
का काम सृजन करना ही है, मन में आत्मविश्वास हो तो नारी कुछ भी कर सकती है. हर नारी के अंदर कोई न कोई प्रतिभा होती है, जिसे बाहर लाना चाहिये‘ अपनी पत्नी पर गर्वीली आंखों में आई चमक का बख्ूाबी वर्णन किया है ।
विभिन्न विधाअों में किया गया लेखन; जब व्यंग्यता की ओर बढता है तोलगता है कि व्यंग्य का चुटीलापन रचनाकार के लेखन की हर विधा मे नजर आता है फिर चाहे वह लघुकथा हो, कविता हो या व्यंग्य; हर पल संवेदना के गहरे बादल मंडराते है।
बोझ वाली गली में टोकरे ही टोकरे‘ में साहित्य जगत का टोकरा व प्रकाशक वसंपादक के टोकरे में अलादीन का चिराग तथा स्वयं अपने काम के टोकरे सेपरेशानी को बेहद चुटीले अंदाज में पेश किया है । अडोस-पडोस का दर्द वविचारों में मिलावट, हिंदी की कुडंली में साढे साती के चलते हिंगलिश मेंथोडी सी विंग्लिश का नव प्रयोग को जहाँ समाज का आईना दिखाता है वहीं
समाज की विसंगतियों पर प्रहार करके सामाजिक खोखली मानसिकता को व्यक्तकरता है.
समाज की विसंगतियों पर प्रहार करके सामाजिक खोखली मानसिकता को व्यक्तकरता है.
गजल, लघुकथा, बडी कहानी व व्यंग्य में गुनगुनाने के बाद जब साहित्ययात्रा आलेख के माध्यम से शिक्षित बन अधिकार जाने महिलाएँ , बाल शोषणसमाज का विकृत दर्पण, आत्महत्याओं पर विचारोत्तेजक आलेख, लेखक की विद्वता व संवेदनशीलता को परीलक्षित करते है ।
जीवन उस रेत के समान है जिसे मुटठी में जितना बाँधना चाहें वह उतना हीफिसलती जाती है । सकारात्मक जीवन जीने के लिए तथा बेहतर जीवन बनाने के लिये कर्मशील होना आवश्यक है और नकारत्मकता को सदैव दूर रखना चाहिए. खाली दिमाग शैतान का घर होता है ; अपना शौक को पूरा करें ये कुछ ऐसी नसीहते है जो सीधे सरल और सहज रूप से इन लेखों के माध्यम से कही गई है । जो आम आदमी को निराशा के गर्त से बाहर आने मे मददगार सिद्ध होती हैं .
सकारात्मक सोच को प्रवाहिर करते शशि पुरवार जी के लेख आज के दौर मेंज्यादा प्रासांगिक नजर आते है । साहित्यिक यात्रा के अगले चरण में डायरीके पन्नों से ; बाल काल की समेटी हुई कवितायें है . इन कविताओं कोपढकर महसूस होता है कि बालमन में ही संवेदनाए जन्म लेकर नव आकाश कानिर्माण करेगीं. देश के ख्यात कवियों की शैली की झलक मुझे इन रचनाअों नेनजर आई है। सर्वप्रथम लिखी हुई कविता " कहाँ हूँ मैं " ने ही लेखिका केमन मे जन्में भाव ने कवि ह्रदय की गहन संवेदनाओं के पंख पसारने तभी शुरू कर दिये थे .
इन पन्नों में नारी के अस्तित्व पर जहाँ सवाल उठें है वहीं छलनी हो रहे,आत्मा के तार, चित्कारता हदय करे पुकार है। कभी रूह तक कंपकंपाता दर्दहै तो कभी आशा की किरण भी समाहित है । झकझोरते हुए जज्बात हैं तो कहीं खारे पानी की सूखती नदी है. कभी शब्दों की छनकती गूँज है तो कभी सन्नाटे में पसरी आवाजे चहुं ओर बिखरी नजर आती है । इसी खण्ड में तलाश को तलाशते हुए रेखांकन बरबस ही नजरों में ठहर जाते हैं . अौर संवेदना के अतल सागर डूब कर अनुभूतियों में गोते लगाते है, तो कभी श्वासोच्छवास की दीर्ध ध्वनि व ह्रदय की धडकनों की पदचाप सुनाई पडती है।
काव्य की बात हो और चांद से संवाद न हो यह मुमकिन नहीं है . चांद से अकेले में संवाद करती हुई शशि पुरवार जी की बालपन की रचना में सौंदर्य व प्रेम की पराकाष्ठा नजर आती है . ह्रदय चाँद में डूबा हुआ विलिन होने के लिए मचलता है. प्रेम व संवेदना की कोमल वाहिका चांद के साथ साथ बेटियों पर भी अपना ममत्व न्यौछावर करती है। अनगिनत उपमा, अलंकार और श्रृंगार से श्रंृगारित काव्य खण्ड में मन रसमय होकर तल्लीन हो जाता है . जब चिडियों सी चहकती , हिरनों सी मचलती बेटियां हमें खिलखिलाने के लिये मजबूर करती है।
इस खण्ड मे भूख , चपाती अकेला आदमी, सपने , जीवन की तस्वीर पढ कर जहाँ मानसिक क्षुधा शांत होती है वहीं हिय में अनगिनत प्रश्न मन को विचलित भी करतें है . संग्रह में लेखक ने रचनाअों के माध्यम से सामाजिक मुद्दों व कोमल संवेदनाअों पर खुला प्रहार किया है. सभी मुद्दों को बेहद नजाकत के साथ प्रस्तुत किया है । कहतें है ना कि कडवी गोली खिला दी अौर
कडवाहट का अहसास भी नही हुआ. कुल मिलाकर 168 पृष्ठों में समाई धूप ऑंगन की : एक एेसी साहित्य यात्रा है जो विराम नहीं होती है अपितु सतत एक झरने की भांति अर्न्तमन में अनगिनत प्रश्नों को छोडकर बहती रहती है , वहीं कोमल धूप दिल दिमाग पर छाकर नेह सा अहसास भी कराती । एक लेखक की सार्थकता इसी बात से सिद्व हो जाती है कि उसकी रचना व्यक्ति के मन मस्तिष्क पर अपनी अमिट छाप छोडने में सक्षम है । किताब में रेखांकित रचनाएँ खण्ड के अनुरूप है जो अक्षर के साथ भावों को एकाकार करती है
।
बेहद सधे हाथों से किया रेखांकन कल्पना लोक की सैर कराता हुआ आम आदमी को उसकी पृष्ठभूमि से जोड़ता है . हर पृष्ठ पर चढती बेल का रेखंाकन पुस्तक में मूल रूप से समाहित आशावाद का प्रतीक है । इस पुस्तक में रचनाकार के साथ हर पृष्ठ पर भावों की नवीनता पाठकों में रूचि पैदा करती है । मुख
पृष्ठ से लेकर पुस्तक के मूल नाम " धूप आँगन की " के अनुरूप शशि पुरवार का यह संग्रह यथा नाम तथा गुण सूत्र को सार्थक करता है । दिल्ली पुस्तक सदन द्वारा सुन्दर मुद्रण से धूप आंगन की साहित्य यात्रा को मुकम्मल मंजिल मिली । संक्षिप्त रूप में यह पुस्तक मील का पत्थर साबितहोगी। पुस्तक का मूल्य ३९५ ( हार्ड बाउंड ) व पेपर बैक का
मूल्य १९५कडवाहट का अहसास भी नही हुआ. कुल मिलाकर 168 पृष्ठों में समाई धूप ऑंगन की : एक एेसी साहित्य यात्रा है जो विराम नहीं होती है अपितु सतत एक झरने की भांति अर्न्तमन में अनगिनत प्रश्नों को छोडकर बहती रहती है , वहीं कोमल धूप दिल दिमाग पर छाकर नेह सा अहसास भी कराती । एक लेखक की सार्थकता इसी बात से सिद्व हो जाती है कि उसकी रचना व्यक्ति के मन मस्तिष्क पर अपनी अमिट छाप छोडने में सक्षम है । किताब में रेखांकित रचनाएँ खण्ड के अनुरूप है जो अक्षर के साथ भावों को एकाकार करती है
।
बेहद सधे हाथों से किया रेखांकन कल्पना लोक की सैर कराता हुआ आम आदमी को उसकी पृष्ठभूमि से जोड़ता है . हर पृष्ठ पर चढती बेल का रेखंाकन पुस्तक में मूल रूप से समाहित आशावाद का प्रतीक है । इस पुस्तक में रचनाकार के साथ हर पृष्ठ पर भावों की नवीनता पाठकों में रूचि पैदा करती है । मुख
पृष्ठ से लेकर पुस्तक के मूल नाम " धूप आँगन की " के अनुरूप शशि पुरवार का यह संग्रह यथा नाम तथा गुण सूत्र को सार्थक करता है । दिल्ली पुस्तक सदन द्वारा सुन्दर मुद्रण से धूप आंगन की साहित्य यात्रा को मुकम्मल मंजिल मिली । संक्षिप्त रूप में यह पुस्तक मील का पत्थर साबितहोगी। पुस्तक का मूल्य ३९५ ( हार्ड बाउंड ) व पेपर बैक का
है।
बे
हद सुन्दर संग्रह हेतु शशि पुरवार को कोटि कोटि बधाई। उनकी कलम यूँ ही अनवरत चलती रहे व समाज को लाभान्वित करें।
विजयसिंह चौहान
Friday, February 15, 2019
Wednesday, February 13, 2019
१
शहरों की यह जिंदगी, जैसे पेड़ बबूल
मुट्ठी भर सपने यहाँ, उड़ती केवल धूल
उड़ती केवल धूल, नींद से जगा अभागा
बुझे उदर की आग, कर्म ही बना सुहागा
कहती शशि यह सत्य, गूढ़ डगर दुपहरों की
कोमल में के ख्वाब, सख्त जिंदगी शहरों की
२
चाँदी की थाली सजी, फिर शाही पकवान
माँ बेबस लाचार थी, दंभ भरे इंसान
दंभ भरे इंसान, नयन ना गीले होते
स्वारथ का सामान, बोझ रिश्तों का ढोते
कहती शशि यह सत्य, शिथिल बगिया का माली
शब्द प्रेम के बोल, नहीं चाँदी की थाली
३
धरती भी तपने लगी, अंबर बरसी आग
आँखों को शीतल लगे, फूलों वाला बाग़
फूलों वाला बाग़, सुवासित तन मन होता
धूप में जला बदन, हरित खेमे में सोता
कहती शशि यह सत्य, प्रकृति पल पल मरती
मत काटो हरित वन, लगी तपने यह धरती
४
हम तुम बैठे साथ में, लेकिन पसरा मौन
सन्नाटे को चीर कर, गंध बिखेरे कौन
गंध बिखेरे कौन, अजब रिश्तों का मेला
मौन करे संवाद, अबोलापन ही खेला
कहती शशि यह सत्य, हृदय रहता है गुमसुम
छेड़ो कोई तान, साथ जब बैठें हम तुम
५
दिल में इक तूफ़ान है, भीगे मन के कोर
पत्थर से टकरा गई, लहरें कुछ कमजोर
लहरें कुछ कमजोर, विलय सागर में होती
गहरे तल में झाँक, छिपे हैं कितने मोती
कहती शशि यह सत्य, तमाशे हैं महफ़िल में
बंद हृदय का द्वार, दफ़न पीड़ा है दिल में
६
मन में जब लेने लगी, शंकाएँ आकार
सूली पर फिर चढ़ गया, इक दूजे का प्यार
इक दूजे का प्यार, फूल ना खिलने पाएँ
चुभते शूल हजार, शब्द जहरी बन जाएँ
कहती शशि यह सत्य, दरार पड़ी दरपन में
प्रेम बहुत अनमोल, भरे जो खुशियाँ मन में
शशि पुरवार
शहरों की यह जिंदगी, जैसे पेड़ बबूल
मुट्ठी भर सपने यहाँ, उड़ती केवल धूल
उड़ती केवल धूल, नींद से जगा अभागा
बुझे उदर की आग, कर्म ही बना सुहागा
कहती शशि यह सत्य, गूढ़ डगर दुपहरों की
कोमल में के ख्वाब, सख्त जिंदगी शहरों की
२
चाँदी की थाली सजी, फिर शाही पकवान
माँ बेबस लाचार थी, दंभ भरे इंसान
दंभ भरे इंसान, नयन ना गीले होते
स्वारथ का सामान, बोझ रिश्तों का ढोते
कहती शशि यह सत्य, शिथिल बगिया का माली
शब्द प्रेम के बोल, नहीं चाँदी की थाली
३
धरती भी तपने लगी, अंबर बरसी आग
आँखों को शीतल लगे, फूलों वाला बाग़
फूलों वाला बाग़, सुवासित तन मन होता
धूप में जला बदन, हरित खेमे में सोता
कहती शशि यह सत्य, प्रकृति पल पल मरती
मत काटो हरित वन, लगी तपने यह धरती
४
हम तुम बैठे साथ में, लेकिन पसरा मौन
सन्नाटे को चीर कर, गंध बिखेरे कौन
गंध बिखेरे कौन, अजब रिश्तों का मेला
मौन करे संवाद, अबोलापन ही खेला
कहती शशि यह सत्य, हृदय रहता है गुमसुम
छेड़ो कोई तान, साथ जब बैठें हम तुम
५
दिल में इक तूफ़ान है, भीगे मन के कोर
पत्थर से टकरा गई, लहरें कुछ कमजोर
लहरें कुछ कमजोर, विलय सागर में होती
गहरे तल में झाँक, छिपे हैं कितने मोती
कहती शशि यह सत्य, तमाशे हैं महफ़िल में
बंद हृदय का द्वार, दफ़न पीड़ा है दिल में
६
मन में जब लेने लगी, शंकाएँ आकार
सूली पर फिर चढ़ गया, इक दूजे का प्यार
इक दूजे का प्यार, फूल ना खिलने पाएँ
चुभते शूल हजार, शब्द जहरी बन जाएँ
कहती शशि यह सत्य, दरार पड़ी दरपन में
प्रेम बहुत अनमोल, भरे जो खुशियाँ मन में
शशि पुरवार
Saturday, February 2, 2019
धूप आँगन की
नमस्कार मित्रों आपसे साझा करते हुए बेहद प्रसन्नता हो रही है कि--
शशि पुरवार का दूसरा संग्रह * " धूप आँगन की " ** भी बाजार में उपलब्ध है।
धूप आँगन की " जैसे आँगन में चिंहुकती हुई नन्ही परी की अठखेलियां, कभी
ठुमकना तो कभी रूठ जाना,कभी नेह की गुनगुनी धूप में पिघलता हुआ मन है ,
कभी यथार्थ की कठोर धरातल पर पत्थरों सा धूप में सुलगता हुआ तन है . कभी
बंद पृष्ठों में महकते हुए मृदु एहसास हैं तो कहीं मृगतृष्णा की सुलगती
हुई रेतीली प्यास है। कहीं स्वयं के वजूद की तलाशती हुई धूप है तो कहीं
विसंगतियों में सुलगती हुई धूप की आग है । हमारे परिवेश में बिखरे हुए
संवेदना के कण है - धूप का आँगन
क्यों न अपने स्नेह की नर्म धूप से सहला दें। आओ इक सुन्दर सा आकाश बना ले।
हमारे प्रयास आपके दिलों ने इक छोटा सी जगह बना ले। आंगन की धूप को आप
अपने हृदय से लगा ले. हम आपके प्यार को अपना आकाश बना ले। आंगन की धूप से
सुप्त कणों को जगा दे।
शशि पुरवार
शशि पुरवार का दूसरा संग्रह * " धूप आँगन की " ** भी बाजार में उपलब्ध है।
धूप आँगन की " जैसे आँगन में चिंहुकती हुई नन्ही परी की अठखेलियां, कभी
ठुमकना तो कभी रूठ जाना,कभी नेह की गुनगुनी धूप में पिघलता हुआ मन है ,
कभी यथार्थ की कठोर धरातल पर पत्थरों सा धूप में सुलगता हुआ तन है . कभी
बंद पृष्ठों में महकते हुए मृदु एहसास हैं तो कहीं मृगतृष्णा की सुलगती
हुई रेतीली प्यास है। कहीं स्वयं के वजूद की तलाशती हुई धूप है तो कहीं
विसंगतियों में सुलगती हुई धूप की आग है । हमारे परिवेश में बिखरे हुए
संवेदना के कण है - धूप का आँगन
क्यों न अपने स्नेह की नर्म धूप से सहला दें। आओ इक सुन्दर सा आकाश बना ले।
हमारे प्रयास आपके दिलों ने इक छोटा सी जगह बना ले। आंगन की धूप को आप
अपने हृदय से लगा ले. हम आपके प्यार को अपना आकाश बना ले। आंगन की धूप से
सुप्त कणों को जगा दे।
शशि पुरवार
Friday, January 11, 2019
Monday, January 7, 2019
फगुनाहट ले आना
नए साल तुम कलरव वाली
इतराहट ले आना
आँगन के हर रिश्तें में
गरमाहट ले आना
दुर्दिन वाली काली छाया फिर
घिरने ना पायें
सोना उपजे खलियानों में
खुशहाली लहरायें
सबकी किस्मत हो गुड़ धानी
नरमाहट ले आना
नए साल तुम कलरव वाली
इतराहट ले आना
हर मौसम में फूल खिलें पर
बंजर ना हो धरती
फुटपाथों पर रहने वाले
आशा कभी न मरती
धूप जलाए, नर्म छुअन सी
फगुनाहट ले आना
नए साल तुम कलरव वाली
इतराहट ले आना
ठोंगी कपटी लोगों के तुम
टेढ़े ढंग बदलना
बूढ़े घर की दीवारों के
फीके रंग बदलना
जर्जर होती राजनीति की
कुछ आहट ले आना
नए साल तुम कलरव वाली
इतराहट ले आना
भाग रहे सपनों के पीछे
बेबस होती रातें
घर के हर कोने में रखना
नेह भरी सौगातें
धुंध समय की गहराए पर
मुस्काहट ले आना
नए साल तुम कलरव वाली
इतराहट ले आना
आँगन के हर रिश्तों में
गरमाहट ले आना
शशि पुरवार
Thursday, December 20, 2018
हम आंगन के फूल
आंगन के हर फूल से, करो न इतना मोह
जीवन पथ में एक दिन, सहना पड़े बिछोह
सहना पड़े बिछोह, रीत है जग की न्यारी
होती हमसे दूर, वही जो दिल को प्यारी
कहती शशि यह सत्य, रंग बदलें उपवन के
फूल हुए सिरमौर, ना महकते आंगन के
चाहे कितनी दूर हो, फिर भी दिल के पास
राखी पर रहती सदा, भ्रात मिलन की आस
भ्रात मिलन की आस, डोर रेशम की जोड़े
मन में है विश्वास , द्वार से मुख ना मोड़े
कहती शशि यह सत्य, मथो तुम मन की गाहे
इक आँगन के फूल, मिलन हो जब हम चाहें
शशि पुरवार
जीवन पथ में एक दिन, सहना पड़े बिछोह
सहना पड़े बिछोह, रीत है जग की न्यारी
होती हमसे दूर, वही जो दिल को प्यारी
कहती शशि यह सत्य, रंग बदलें उपवन के
फूल हुए सिरमौर, ना महकते आंगन के
चाहे कितनी दूर हो, फिर भी दिल के पास
राखी पर रहती सदा, भ्रात मिलन की आस
भ्रात मिलन की आस, डोर रेशम की जोड़े
मन में है विश्वास , द्वार से मुख ना मोड़े
कहती शशि यह सत्य, मथो तुम मन की गाहे
इक आँगन के फूल, मिलन हो जब हम चाहें
शशि पुरवार
Saturday, November 17, 2018
बूढ़ा हुआ अशोक
बरसों से जो खड़ा हुआ था
बूढ़ा हुआ अशोक
बूढ़ा हुआ अशोक
हरी भरी शाखों पर इसकी
खिले हुए थे फूल
लेकिन मन के हर पत्ते पर
जमी हुई थी धूल
आँख समय की धुँधली हो गई
आँख समय की धुँधली हो गई
फिर भी ना कोई शोक
मौसम की हर तपिश सही है
फिर भी शीतल छाँव
जो भी द्वारे उसके आया
लुटा नेह का गॉँव
बारिश आंधी लाख सताए
पर झरता आलोक
आज शिराओं में बहता है
पानी जैसा खून
अब शाखों को नोच रहें हैं
अपनों के नाखून
बूढ़े बाबा की धड़कन में
ये ही अपना लोक
बरसों से जो खड़ा हुआ था
बूढ़ा हुआ अशोक
बूढ़ा हुआ अशोक
शशि पुरवार
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