shashi purwar writer

Sunday, January 19, 2014

माहिया - बदली ना बरसी



धरती भी तपती है
बदली ना बरसी
वो छिन छिन मरती है .

सपनो में रंग भरो
नैना  सजल हुये
जितने भी जतन करो।

यह चंदा मेरा है
ज्यूँ सूरज निकला
लाली ने आ घेरा है।
माँ जैसी बन जाऊं
छाया हूँ उनकी
कद तक पहुच न पाऊं।
सब भूल रहे बतियाँ
समय नहीं मिलता
कैसे बीती रतियाँ
फिर डाली ने पहने
रंग भरे नाजुक
ये फूलो के गहने .
 डाली डाली  महकी
भौरों की गुंजन
क्यों चिड़िया ना चहकी।
 --------- शशि पुरवार
१/१० / २०१३

6 comments:

  1. धरा का हर कण तरसता, बूँद आती,
    काश बादल की सरसता बरस जाती।

    ReplyDelete

  2. सब भूल रहे बतियाँ
    समय नहीं मिलता
    कैसे बीती रतियाँ

    फिर डाली ने पहने
    रंग भरे नाजुक
    ये फूलो के गहने .

    डाली डाली महकी
    भौरों की गुंजन
    क्यों चिड़िया ना चहकी
    सुन्दर गहन अर्थों से सजी माहिया लिखने में आपका जबाब नहीं |आभार

    ReplyDelete

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