shashi purwar writer

Friday, December 19, 2014

चीखती भोर




चीखती भोर
दर्दनाक मंजर
भीगे हैं कोर


तांडव कृत्य
मरती संवेदना
बर्बर नृत्य


आतंकी मार
छिन गया जीवन
नरसंहार


मासूम साँसें
भयावह मंजर
बिछती लाशें


मसला गया 
निरीह बालपन 
व्याकुल मन
 फूटी   रुलाई
पथराई  सी आँखें
दरकी  धरा


१६ -  १७ दिसम्बर कभी ना भूलने वाला दिन है ,  पहले निर्भया  फिर बच्चों की चीखें ---  क्या  मानवीय संवेदनाएं   मरती जा रहीं है।  आतंक का यह कोहरा कब छटेगा।
    मौन  श्रद्धांजलि

Tuesday, December 16, 2014

सम्मान


सम्मान --
आज जगह जगह अखबारों में भी चर्चा है फलां फलां को सम्मान मिलने वाला है और हमारें फलां महाशय भी बड़े खुश हैं. वे  अपने मुंह  मियां मिट्ठू बने जा रहें है ----  एक ही गाना   गाये जा रहें है  .......... हमें तो सम्मान मिल रहा है .........
भाई,  सम्मान मिल रहा है, तो क्या अब तक लोग आपका अपमान कर रहें थे, लो जी लो यह तो वही बात हो गयी, महाशय जी ने पैसे देकर सम्मान लिया है और बीबी गरमा गरम हुई जा रहीं है .
ये २ रूपए के कागज के लिए इतना पैसा खर्च किया, कुछ बिटवा को दे देते, हमें कछु दिला देते। …… पर जे तो होगा नहीं। …
हाय कवि से शादी करके जिंदगी बर्बाद हो गयी। ………। दिन भर कविता गाते रहतें है , लोग भी वाह वाह करे को बुला लेते हैं, कविता से घर थोड़ी चलता है. अब जे सम्मान का हम का करें, आचार डालें ……। हाय री किस्मत कविता सुन सुन पेट कइसन भरिये……।
             अब क्या किया जाए, कवि  महोदय अपने सम्मान को सीने से चिपकाए फिर रहें हैं, फिर  बीबी रोये , मुन्ना रोये  चाहे जग रोये या  हँसे, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ेगा क्यूंकि भाई कविता की जन्मभूमि यह संवेदनाएं ही तो हैं. संवेदना के बीज से उत्पन्न कविता वाह वाह की कमाई तो करती ही है।  प्रकाशक रचनाएँ मांगते हैं , प्रकाशित करतें है, कवि की रचनाएँ अमिट हो जाती है, कवि भी अमर हो जाता है, पर मेहनताना कोई नहीं देता …………। फिर एक कवि का दर्द कोई कैसे  समझ सकता। वाह रे कविता सम्मान।
-- शशि पुरवार

Friday, December 12, 2014

"माँ सहेली खो गई है "






छोड़कर बच्चे गए जब
माँ अकेली हो गई  है
टूटकर बिखरी नहीं वो
इक पहेली हो गई है

स्वप्न आँखों में सजे थे
पुत्रवधू घर आएगी
दीप खुशियों के जलेंगे
सुख बिटिया का पायेगी

गाज सपनो पर गिरी, जब  
माँ सहेली खो गई है

पूछता कोई नहीं अब
दरकिनारा कर लिया है
मगन है सब जिंदगी में
बस सहारा हर लिया है।

गॉंव में रहती अकेली
माँ चमेली सो गई है
 
धुंध सी छायी हुई है
नेह, रिशतों के दरमियाँ
गर्म साँसें ढूंढती है
यह हिम बनी खामोशियाँ

दिन भयावह बन डराते
शब करेली हो गई  है
टूटकर बिखरी नहीं वो
इक पहेली हो गई है
-----  शशि पुरवार

समीक्षा -- है न -

  शशि पुरवार  Shashipurwar@gmail.com समीक्षा है न - मुकेश कुमार सिन्हा  है ना “ मुकेश कुमार सिन्हा का काव्य संग्रह  जिसमें प्रेम के विविध रं...

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