Monday, February 23, 2015

अब कहाँ जाएँ।





बाहर की आवाजों का शोर,
सड़क रौंदती
गाड़ियों की चीख
जैसे मन की पटरी पर
धड़धड़ाती हुई रेलगाड़ी
और इन सब से बेचैन मन
शोर शराबे से दूर,
एक बंद कमरे में
छोड़ा मैंने बोझिल मन को ,
निढाल होते तन के साथ
नर्म बिस्तर की बाहों में
शांति से बात करने के लिए
पर अब पीछा कर रही थीं
श्वासोच्छवास की दीर्घ ध्वनि
धड़कनों की पदचाप
बंद पलकों में
चहलकदमी करने लगीं पुतलियाँ
उमड़ते हुए विचारों की भीड़
करने लगी कोलाहल
अंतर की हवा में ज्यादा प्रखर है प्रदुषण
खुद से भागते हुए
शांति की तलाश में अब कहाँ जाएँ।
- शशि पुरवार

11 comments:

  1. कहीं नहीं ई ये शान्ति सिवाए मन के ... मन के अन्दर ही झांकना होगा ...

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  2. सच यदि अपने मन में शांति न हो तो कहीं और शांति की तलाश बेमानी हैं ..
    बहुत बढ़िया चिन्तनकारी प्रस्तुति

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  3. प्रशंसनीय

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  4. सार्थक प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (24-02-2015) को "इस आजादी से तो गुलामी ही अच्छी थी" (चर्चा अंक-1899) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  5. बहुत सुंदर और लाजवाब रचना।

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  6. खुद से भागते हुए
    शांति की तलाश में अब कहाँ जाएँ।
    ...बहुत खूब...खुद से भाग कर शांति कहाँ मिलेगी...बहुत भावपूर्ण अभिव्यक्ति...

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  7. बेटी पर केंद्रित अभिव्यक्ति हेतु बधाई।

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