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Saturday, September 19, 2015

तिलिस्मी दुनियाँ



काटकर इन जंगलो को
तिलिस्मी दुनियाँ बसी है 
वो फ़ना जीवन हुआ, फिर
पंछियों की बेकसी है.

चिलचिलाती धूप में, ये
पाँव जलते है हमारे
और आँखें देखती है
खेत के उजड़े नज़ारे
ठूँठ की इन बस्तियों में
पंख जलना बेबसी है

वृक्ष  गमलों में लगे जो
आज बौने हो गए है
आम पीपल और बरगद 
गॉंव भी कुछ खो गए है
ईंट गारे के  महल  में
खोखली रहती हँसी है

तीर सूखे  है नदी के
रेत का फिर आशियाँ है
जीव - जंतु लुप्त हुए जो
अब नहीं नामो- निशाँ है
चाँद पर जाने लगे हम
गर्द में धरती फँसी है
-- शशि पुरवार



6 comments:

  1. बहुत ही बेहतरीन रचना..,,

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  2. तीर सूखे है नदी के
    रेत का फिर आशियाँ है
    जीव - जंतु लुप्त हुए जो
    अब नहीं नामो- निशाँ है
    चाँद पर जाने लगे हम
    गर्द में धरती फँसी है
    …चाँद पर भले ही आज जाना असंभव नहीं रहा, लेकिन वहां जीने के लिए दाना पानी मिले यह असंभव ही है, उसके लिए हमारी धरती पर ही आखिर में लौटना होता है फिर क्यों इस दिशा में हम क्यों पिछड़ जाने की भूल करते आ रहे है यह गंभीर चिंतन का विषय है सबके लिए

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  3. वृक्ष गमलों में लगे जो
    आज बौने हो गए है
    आम पीपल और बरगद
    गॉंव भी कुछ खो गए है
    ईंट गारे के महल में
    खोखली रहती हँसी है

    बेहतरीन रचना

    ReplyDelete
  4. विकास के नाम पर हम प्रकृति से खिलवाड़ करेंगे तो परिणाम भयावह अवश्यम्भावी हैं..बहुत सुन्दर और प्रभावी गीत...

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  5. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (20-09-2015) को "प्रबिसि नगर की जय सब काजा..." (चर्चा अंक-2104) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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