थका थका सा दिन
थका थका सा
दिन है बीता
दौड़ -भाग में बनी रसोई
थकन रात
सिरहाने लेटी
नींद नहीं आँखों में सोई
रोज पकाऊ
दिनचर्या की
घिसी पिटी सी परिपाटी
नेह भरे
झरनों से वंचित
सम्बन्धो की सूखी घाटी
कजरारी
बदली ने आकर
नर्म धूप की लटें भिगोई
साँस साँस पर
चढ़ी उधारी
रहने का भी नहीं ठिकाना
संध्या के
होठों पर ठहरा
ठंडे संवादों का बाना
उमर निगोड़ी
नदी किनारे
जाने किन सपनों में खोई
नहीं आजकल
दिखते कागा
पाहुन का सन्देश सुनाते
स्वारथ के
इस अंधे युग में
कातिल धोखे मिलने आते
गन्ने की
बदली है सीरत
फाँखे भी है छोई छोई।
--- शशि पुरवार
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आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (06-12-2015) को "रही अधूरी कविता मेरी" (चर्चा अंक-2182) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत सुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteबहुत सुन्दर नवगीत।
ReplyDelete" उमर निगोड़ी
ReplyDeleteनदी किनारे
जाने किन सपनों में खोई "
वाह ! अति सुन्दर गीत ....
- शून्य आकांक्षी