पर्व खुशियों के मनाने का बहाना है
डोर उमंगो की बढाओ गीत गाना है १
घुल रही है फिर हवा में गंध सौंधी सी
माँ के हाथों की रची खुशबु खजाना है ३
संग बच्चों के सभी बूढ़े मिले छत पर
उम्र पीछे छोड़कर बचपन बुलाना है। ४
देखना हैं जोर कितना आज बाजू में
लहकती नभ में पतंगे काट लाना है ५
संग चाचा के खड़ी चाची कहे हँसकर
पेंच हमसे भी लड़ाओ आजमाना है। ६
पेंच हमसे भी लड़ाओ आजमाना है। ६
गॉँव में सजने लगें संक्रांत के मेले
संस्कृति का हाट से रिशता पुराना है ७
उड़ रही नभ में पतंगे, धर्म ना देखें
फिर कहे शशि प्रेम का बंधन निभाना है ८
-- शशि पुरवार
Nice feeling thats brings some memories which we have loss in busy life .
ReplyDeleteवाह ... मा के हाथों वाला शेर तो बहुत ही ख़ूबसूरत बैन पड़ा है ... लाजवाब ग़ज़ल
ReplyDeleteआपकी इस प्रस्तुति की लिंक 26-01-2017को चर्चा मंच पर चर्चा - 2585 में दिया जाएगा
ReplyDeleteधन्यवाद
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शुक्रवार 27 जनवरी 2017 को लिंक की गई है.... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteसंक्रांति पर्व का पूरा समां बाँध दिया आपने शशि जी ! बहुत सुन्दर रचना है ! बधाई आपको !
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