shashi purwar writer
Wednesday, June 8, 2022
तोड़ती पत्थर
तोड़ती पत्थर
वह तोड़ती पत्थर;
देखा मैंने उसे इलाहाबाद के पथ पर-
वह तोड़ती पत्थर।
कोई न छायादार
पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार;
श्याम तन, भर बंधा यौवन,
नत नयन, प्रिय-कर्म-रत मन,
गुरु हथौड़ा हाथ,
करती बार-बार प्रहार:-
सामने तरु-मालिका अट्टालिका, प्राकार।
चढ़ रही थी धूप;
गर्मियों के दिन,
दिवा का तमतमाता रूप;
उठी झुलसाती हुई लू
रुई ज्यों जलती हुई भू,
गर्द चिनगीं छा गई,
प्रायः हुई दुपहर :-
वह तोड़ती पत्थर।
देखते देखा मुझे तो एक बार
उस भवन की ओर देखा, छिन्नतार;
देखकर कोई नहीं,
देखा मुझे उस दृष्टि से
जो मार खा रोई नहीं,
सजा सहज सितार,
सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी झंकार।
एक क्षण के बाद वह काँपी सुघर,
ढुलक माथे से गिरे सीकर,
लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा-
"मैं तोड़ती पत्थर।"
सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
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सूर्यकांत त्रिपाठी निराला
Thursday, March 17, 2022
गंधों भीगा दिन
हरियाली है खेत में, अधरों पर मुस्कान
रोटी खातिर तन जला, बूँद बूँद हलकान
अधरों पर मुस्कान ज्यूँ , नैनों में है गीत
रंग गुलाबी फूल के, गंध बिखेरे प्रीत
गंध समेटे पाश में, खुशियाँ आईं द्वार
सुधियाँ होती बावरी, रोम रोम गुलनार
अंग अंग पुलकित हुआ, तम मन निखरा रूप
प्रेम गंध की पैंजनी, अधरों सौंधी धूप
अंग अंग पुलकित हुआ, तम मन निखरा रूप
प्रेम गंध की पैंजनी, अधरों सौंधी धूप
खूब लजाती चाँदनी, अधरों एक सवाल
सुर्ख गुलाबी फूल ने, खोला जिय का हाल
गंधों भीगा दिन हुआ, जूही जैसी शाम
गीतों की प्रिय संगिनी, महका प्रियवर नाम
अधरों पर मुस्कान ज्यूँ , नैनों में है गीत
रंग गुलाबी फूल के, गंध बिखेरे प्रीत
गंध समेटे पाश में, खुशियाँ आईं द्वार
सुधियाँ होती बावरी, रोम रोम गुलनार
अंग अंग पुलकित हुआ, तम मन निखरा रूप
प्रेम गंध की पैंजनी, अधरों सौंधी धूप
अंग अंग पुलकित हुआ, तम मन निखरा रूप
प्रेम गंध की पैंजनी, अधरों सौंधी धूप
खूब लजाती चाँदनी, अधरों एक सवाल
सुर्ख गुलाबी फूल ने, खोला जिय का हाल
गंधों भीगा दिन हुआ, जूही जैसी शाम
गीतों की प्रिय संगिनी, महका प्रियवर नाम
शशि पुरवार
Tuesday, March 8, 2022
बाँधो न नाव इस ठाँव, बंधु! निराला
आज आपके साथ साझा करते हैं निराला जी का बेहद सुंदर नवगीत जो प्रकृति के ऊपर लिखा गया है, लेकिन यह किसी नायिका का प्रतीत होता है.
निराला
बाँधो न नाव इस ठाँव, बंधु!
पूछेगा सारा गाँव, बंधु!
यह घाट वही जिस पर हँसकर,
वह कभी नहाती थी धँसकर,
आँखें रह जाती थीं फँसकर,
कँपते थे दोनों पाँव बंधु!
वह हँसी बहुत कुछ कहती थी,
फिर भी अपने में रहती थी,
सबकी सुनती थी, सहती थी,
देती थी सबके दाँव, बंधु!
Sunday, March 6, 2022
महक उठी अँगनाई - shashi purwar
चम्पा चटकी इधर डाल पर
महक उठी अँगनाई
उषाकाल नित
धूप तिहारे चम्पा को सहलाए
पवन फागुनी लोरी गाकर
फिर ले रही बलाएँ
निंदिया आई अखियों में और
सपने भरे लुनाई .
श्वेत चाँद सी
पुष्पित चम्पा कल्पवृक्ष सी लागे
शैशव चलता ठुमक ठुमक कर
दिन तितली से भागे
नेह अरक में डूबी पैंजन -
बजे खूब शहनाई.
-शशि पुरवार
Friday, March 4, 2022
छैल छबीली फागुनी - shashi purwar
छैल छबीली फागुनी, मन मयूर मकरंद
ढोल, मँजीरे, दादरा, बजे ह्रदय में छंद। 1
मौसम ने पाती लिखी, उड़ा गुलाबी रंग
पात पात फागुन धरे, उत्सव वाले चंग। 2
फगुनाहट से भर गई, मस्ती भरी उमंग
रोला ठुमरी दादरा, लगे थिरकने अंग। 3
फागुन आयो री सखी, फूलों उडी सुगंध
बौराया मनवा हँसे, नेह सिक्त अनुबंध। 4
मौसम में केसर घुला, मदमाता अनुराग
मस्ती के दिन चार है, फागुन गाये फाग। 5
फागुन में ऐसा लगे, जैसे बरसी आग
अंग अंग शीतल करें, खुशबु वाला बाग़.6
फागुन लेकर आ गया, रंगो की सौगात
रंग बिरंगी वाटिका, भँवरों की बारात7
हरी भरी सी वाटिका, मन चातक हर्षाय
कोयल कूके पेड़ पर, आम सरस ललचाय। 8
सूरज भी चटका रहा, गुलमोहर में आग
भवरों को होने लगा, फूलों से अनुराग 1०
चटक नशीले मन भरे, गुलमोहर में रंग
घने वृक्ष की छाँव में, मनवा मस्त मलंग 1१
धरती भी तपने लगी, अम्बर बरसी आग
आँखों को शीतल लगे, फूलों वाला बाग़ 1२
शशि पुरवार
Sunday, February 27, 2022
चलना हमारा काम है- शिवमंगल सिंह सुमन
नमस्कार मित्रों
आज से एक नया खंड प्रारंभ कर रही हूं जिसमें हम हमारे हस्ताक्षरों की खूबसूरत रचनाओं का आनंद लेंगे.
इसी क्रम में आज शुरुआत करते हैं . शिवमंगल सिंह सुमन की रचना "चलना हमारा काम है ", जीवन को जोश , गति व हौसला प्रदान करती हुई एक रचना
गति प्रबल पैरों में भरी
फिर क्यों रहूं दर दर खडा
जब आज मेरे सामने
है रास्ता इतना पडा
जब तक न मंजिल पा सकूँ,
तब तक मुझे न विराम है,
चलना हमारा काम है।
कुछ कह लिया, कुछ सुन लिया
कुछ बोझ अपना बँट गया
अच्छा हुआ, तुम मिल गई
कुछ रास्ता ही कट गया
क्या राह में परिचय कहूँ,
राही हमारा नाम है,
चलना हमारा काम है।
जीवन अपूर्ण लिए हुए
पाता कभी खोता कभी
आशा निराशा से घिरा,
हँसता कभी रोता कभी
गति-मति न हो अवरूद्ध,
इसका ध्यान आठो याम है,
चलना हमारा काम है।
इस विशद विश्व-प्रहार में
किसको नहीं बहना पडा
सुख-दुख हमारी ही तरह,
किसको नहीं सहना पडा
फिर व्यर्थ क्यों कहता फिरूँ,
मुझ पर विधाता वाम है,
चलना हमारा काम है।
मैं पूर्णता की खोज में
दर-दर भटकता ही रहा
प्रत्येक पग पर कुछ न कुछ
रोडा अटकता ही रहा
निराशा क्यों मुझे?
जीवन इसी का नाम है,
चलना हमारा काम है।
साथ में चलते रहे
कुछ बीच ही से फिर गए
गति न जीवन की रूकी
जो गिर गए सो गिर गए
रहे हर दम,
उसी की सफलता अभिराम है,
चलना हमारा काम है।
फकत यह जानता
जो मिट गया वह जी गया
मूंदकर पलकें सहज
दो घूँट हँसकर पी गया
सुधा-मिक्ष्रित गरल,
वह साकिया का जाम है,
चलना हमारा काम है।
शिवमंगल सिंह सुमन
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“जब मूर्खता को मिला मंच : महामूर्ख सम्मेलन का व्यंग्य”
आज महामूर्ख सम्मलेन अपनी पराकाष्ठा पर था। सम्मलेन में मौजूद मूर्खो की संख्या देखकर हम सम्मेलन के मुरीद हो गए. हमें एहसास हुआ कि हम मूर्...
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गेंहू ------- Wheat (disambiguation) गेहूँ लोगो का मुख्य आहार है .खाद्य पदार्थों में गेहूँ का महत्वपूर्ण स्थान है , सभी प्...
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🏆 Shashi Purwar — Honoured as 100 Women Achievers of India | Awarded by Maharashtra Sahitya Academy & MP Sahitya Academy

