Saturday, August 3, 2019

"धूप लिखेंगे छाँव लिखेंगे


"धूप लिखेंगे छाँव लिखेंगे " आ. रविन्द्र उपाध्याय जी के गीत गजलों का  संग्रह है, प्रथम  खंड में  गीत  व द्वितीय  खंड में गजलों का अतिविशिष्ट  संकलन है।  प्रथम गीत  खंड में ४४ गीतों का समावेश है,  गीत एक से बढ़कर एक अपनी विशेष रसानुभूतिविशिष्टता का  अहसास कराते हैं. सीप में बंद मोती जैसे अनुपम गीत, विचारों को झकझोरते है.  

आ. रविन्द्र उपाध्याय जी के संग्रह  "धूप लिखेंगे छाँव लिखेंगे "  में गीतों की सादगी, सहजतासरल अभिव्यक्तिअनूठे बिम्ब कथ्य का सम्प्रेषणस्वरों की तल्खीसच्चाई,शब्दों का संचयफक्कड़पन  गीतों की विशेषता हैं.  जैसा कि नाम से प्रतीत होता है धूप लिखेंगे छाँव लिखेंगेकवि ने जीवन की सभी संवेदनाओं को खूबसूरती से गीतों में समेटा है। संवेदनाओं की पृष्ठभूमि से जन्मे गीतसंघर्षों  व खुशियों के कोलाहल में दबी हुई आह को,  बेहद खूबसूरती  सम्प्रेषित करते हैं। गीतों में बिम्बशिल्प सहजता, सम्प्रेषण विलक्षण हैपाठकों से सार्थक संवाद करते हुए गीत मंजिल की तरफ बढ़ते कदमों का दिलकश निमंत्रण है.

      संग्रह के  शीर्षक गीत  में ही कवि ने अपनी मंशा को व्यक्त किया है खुशियों के मधुमास के अतिरिक्त जीवन के अंधेरोंउदासीनता, निष्क्रियता, संघर्ष  को भी लयात्मक स्वर प्रदान कियें हैं. कवि के गीतों में विशेष संकल्पधर्मी चेतना का स्वर है. यथास्थिति  से पलायन न करना, दृढ़ इक्छाशक्ति से परिस्थितियों के संग चलते हुए गतिशील रहने का आनंद ही कुछ और है.  पाठकों से सार्थक संवाद करते गीतों की कुछ  बानगी देखिये ---
 
धूप लिखेंगेछाँव लिखेंगे / मंजिल वाली राह लिखेंगे 
खुशियों के कोलाहल में जो / दबी -दबी हैआह लिखंगे 
हम विरुद्ध हर दमन -दम्भ के /होकर -बेपरवाह लिखंगे। 

 
शब्द को जब आचरण आचरण का बल मिलेगा /
अर्थ को विश्वास का सम्बल मिलेगा सामना सच का करेंगे /मुँह सिलेगा
हृदय से हुंकारिए -पर्वत हिलेगा 

  जीवन में कुछ कर दिखाने की ललक इंसान के भीतर होनी चाहिए, सकारात्मक ऊर्जा से भरती गीत की यह पंक्तियाँ जीवन को बिंदास, भय मुक्त जीने की तरफ प्रेरित करती हैं। 

 
फूँक कर चलने में /खतरे का नहीं है डरमगर 
तेज चलने का मजा कुछ और है। 
धधक कर जो जल गया /पा गया इतिहास में वह ठौर है.  


४ गा रहे झरने कहीं पर / कहीं मरुथल की तपन है
थकन है, गति की तृषा भी / लगी मंजिल की लगन है

समय के साथ सामाजिक मूल्य भी परिवर्तित हुए हैं. सलोनेपन, सहज कोमलता, भाव अभिव्यक्ति  की जगह कुटिलता मूल्यों पर हावी होने लगी है. संवादहीनता, बंधन, गति को बाध्य करते है. यह परिवर्तन कहीं न कहीं मूल्यों को खोखला कर रहा है. मानवीय प्रवृति है कि जितना मिलता है, उससे ज्यादा की कामना करते हैं, संघर्षों में खटते हुए छांछ भी बिलोते हैं तो नवनीत की चाह, हिलकोरे मारती है. सभ्य कहे जाने वाले समाज में बनावटीपन, विकृता व्याप्त है. विडम्बना है कि मजहब के नाम पर लोगों को दो दलों में विभाजित किया गया है. मुखड़े पर मुखौटे लगे हैं,  कलुषित विचारों से हद्रय के भाव जैसे तीत हो गयें है. आदमी धन से बड़ा हो गया किन्तु कद से छोटा ही रह गया है. सामाजिक विसंगतियों पर  करारा प्रहार करती हुई कवि की कलम विसंगतियों की परते उधेड़ती है. रिश्तों में मधुरता की जगह द्वेष की तपन व्याप्त है, ऐसे में कवि की संवेदना राग –विराग दोनों भावों को कुछ इस प्रकार व्यक्त करती है .
तपन भरा परिवेश, किस तरह /इसको शीत लिखूँ ?
जीवन गध हुआ है/ कहिये कैसे गीत लिखूँ ?
अपना साया भी छलिया /किसको फिर मीत लिखूँ ?
क्रुन्दन को किस तरह भला /सुमधुर संगीत लिखूँ ?
जीवन है उपहार ,इसे / मे कैसे क्रीत लिखूँ ?

रोक रोने परयहाँ हँसना मना है / कहाँ जाएँवर्जना  वर्जना  है 
ठोकरों में दर- ब -दर है भावना / आदमी के सिर चढ़ी है वर्जना.
ठोकरों में दर –बदर है भावना /आदमी के सिर चढ़ी है तर्कना
द्वेष मन में अधर पर शुभकामना है
ख्वाब सभी बुलबुले हुए/ हसरते भी हो गई हवा
पीर पार कर रही हदें / निगोड़ी कहाँ हुई दवा .
छाँछ को भी छ्छा रहे हम/ उनको नवनीत चाहिए.
किस मिजाज की चली हवा /बुरी तरह बंटे हुए लोग
भीतर है भेद भयानक / ऊपर से सटे हुए लोग .
मजहब को मलिन कर रहे / करुणा से कटे हुए लोग
जनहित का जाप कर रहे / थैलियों में बंटे हुए लोग .

बाहर से सब भरा भरा /अंतर्घट रीता का रीता
मुखड़े की जगह मुखौटा है / कद से आदमी छोटा है
सारे रिश्ते ज्यों लाल मिर्च /लाली ऊपर , भीतर तीता
कितना निष्फल ,कितना दारुण /जो समय अभी तक बीता .


सुर्खियाँ ढो रही वहशत / प्रीत खातिर हाशियें हैं
मेमनों के मुखौटे में / घूमते अब भेडिये हैं
गहन है पहचान संकट / हर तरफ बहरूपिये हैं .

६ माँगना न गीत अब गुलाब के /जिंदगी की हर तरफ बबूल
बैठ गए जिसके भी भरोसे / झोंक गया आँखों में धूल.
७ दरमियाँ दो दिलों के बहुत फासला / छू रही है शिखर छल कपट की कला .


 कई बादल सिर्फ गरजते है बरसते नहीं है, कुछ इसी तरह के लोग भी समाज में होते है जो राई का पहाड़ बनाते हैं, किन्तु कर्म – युग धर्मिता का निर्वाह नहीं करते हैं. धर्म और कर्म में युगों सा फासला प्रतीत होता है. ऐसे में स्वस्थ समाज की कामना कैसे की जा सकती है. कवि धर्म अपने मार्ग से विचलित नहीं होता है अपितु समाज को कर्म हेतु प्रेरित करता है. मानव जाति के हित के लिए कवि की चिंता महसूस की जा सकती है, तूफ़ान के भय से हार जाना बुजदिली है. कवि के स्वरों में आव्हान है, जो सदी के सुख की कामना करता है .

         किनारे ही बैठ केवल कुलबुलाना है / कि साथी ,पार जाना है
 रात काली नदी के पार सूरज है चमकता /अग्नि में ही स्नात हो औजार में लोहा बदलता
लू – लपट में गुलमुहर –सा खिलखिलाना है / हमें अब पार जाना है
मछलियों सा पुलिन पर ही छटपटाना है / कि साथी पार जाना है

 २
 चलों, कहीं बैठें, कुछ बात करें/ फुर्सत को मीठी सौगात करें
तितली –भौरा बन नाचें –गायें /चौकन्ने लोगों को चौकायें
एक चमत्कार अकस्मात करें
रुढियों के बंधन झकझोर चलें / कंचन दिन –कस्तूरी रात करें .
नेकियों के दिन बहुरे /बंद हो बदी
यह नई सदी बने /स्नेह की सदी
उत्सवों में अब न कभी / घुले त्रासदी
सुविधाओं की खातिर / बिके न खुदी .
घोर काली रात में, यह / एक दीपक जल रहा है
नींद में है लोग, पर यह / जागता प्रतिपल रहा है .
बस किताबों में लिखा सद्भाव पढ़िए
धर्म भाषा जाती का टकराव डरिये.

प्रेम एक शास्वत काव्यानुभूति है, प्रेम की कोमल अनुभूतियों को, शब्दों का, कोमल जामा पहनाना सरल नहीं होता है. प्रेम निवेदन, प्रणय भाव, प्रकृति सौन्दर्य, मधुमास, ऋतुराज का जादू , कवि का प्रकृति  प्रेम, ह्रदय का बच्चों सा मचलना, मौसमी रंगत की अनुपम छटा, भिन्न भिन्न रंग नवगीतों में अपनी ताजगी, कोमलता का अहसास कराते हुए सीधे ह्रदय में उतरते हैं. प्रकृति और प्रेम की सुगंध, सहज बिम्ब पाठकों को बरबस आकर्षित कर मन को प्रफुल्लित करती हैं .

१ हरसिंगार –टहनी पर चाँदी के फूल खिले / जाने किन सुधियों में औचक यह होंठ हिले
झड़ते हैं फूल खिले /मिट जाता रंग भले / ख़त्म नहीं होते पर खुशबु के सिलसिले

२ चन्दनगंधी हवा चली / मधुमास आ गया
वृन्त वृन्त में खिलने का / विश्वास आ गया 
कुसुमित हो गयी आज / सुधियों की क्यारी
भिगो रही मन, किसकी / आँखों की पिचकारी
स्मृति में परदेशी / कितने पास आ गया
सेमल के फूल लाल लाल /कितने लाल लाल
रंग दिए फागुन ने / मौसम के गाल
घोल रहा अमृत सा कोकिल स्वर / झूम रही बौर लदी डाल
बोल रहे ढोल कहीं तक धिन –तक /झनक रहे झील और ताल  
बतरस में भींग रहा है पनघट / लगाता ठहाके चौपाल


पतझरी मनहूसियत के दिन गए / हर नयन में उग रहे sapne नए
ठूंठ में भी पल्लवन की लालसा / अजब है ऋतुराज का जादू
शूल सहमे –से खिले इतने सुमन /हर तरफ हँसता हुआ है हरापन
उठा रहा है स्वर पिकी का गगन तक / छलकता है अनुराग हर सू .

प्रकृति के सानिध्य में, बरखा का मौसम हर वर्ग को रोमांचित करता है . ह्रदय में जैसे बचपन हिलोलता है, कुछ ऐसा ही कवि का ह्रदय, बच्चों सी कोमल चाहना करता है, कोमल बालपन में डूबी हुई सुधियाँ, शब्दों के माध्यम से कुछ यूँ छलकी हैं.

बादल भैया, बादल भैया – पानी दो
लू लपटों से व्याकुल धरती / इसको छाँव हिमानी दो
मेढक की मायूसी देखो / रिमझिम बरखा पानी दो
गर्जन तर्जन बहुत हो चुका / सुखदा सरस कहानी दो.
प्यासी धरती का आमंत्रण / बादल आये
मगन मयूरी का मधु नर्तन / बादल आये
भीगी भीगी यह पुरवाई /सुधियों ने फिर ली अंगडाई
बाहर यह तन भीग रहा है / भीगे भीतर मन का मधुबन /बादल आये. 
   
           इस संग्रह में गीतों की  भाषा, कथ्य की प्रस्तुति, अनूठे बिम्ब सहजता पाठकों को आकर्षित करते हैं. गीतों में कहीं भी उदासी का भाव नजर  नहीं आता हैं अपितु  गीतों के  सकारात्मक भाव उदासी को मधुरम बना रहें  हैं। नकारात्मकता को कुछ इस तरह सम्प्रेषित किया गया है कि वह विचारों को झकझोरकर, सकारात्मकता का मार्ग दिखाती है।   कवि ने जीवन की हर बारीकियों को संजीगदगी से बयां  है. यह कवि की दूरदर्शिता है कि गीत समय के साथ  चलते हुए समय के गीत प्रतीत होते हैं. जो अमिट  बन बड़े है. संग्रह का  एक -एक गीत  संवेदनाओं के अनुपम मोती हैं।  गीत पाठक को उसकी पृष्ठभमि से जोड़ते हैं, शब्दों का संचय इतना सुन्दर है कि  कहीं भी शब्द जबरन ठूंसे हुए प्रतीत नहीं होते हैं अपित गीतों की लयात्मकता, शिल्प , कसावट , गेयता पाठकों को बांधे रखती है. सहज रसानुभूति से लबरेज गीत स्पंदित करते हैं. शब्दों में आग है जो आशा की मशाल को जलाये रखने में सक्षम है. गीतों में  एक कशिश है, ताजगी है, जो इस संग्रह को विशिष्ट बनाती है . आ. रविन्द्र उपाध्याय जी के गीतों को जितनी बार पढ़ा जाये सहज रसानुभूति स्मृतियों में सहेजती है.  गीत के बारे में  जितना कहें कम प्रतीत  होता है, संग्रह जितने बार भी पढ़ा जाये ताजगी का अहसास देता है. बेहद उत्कृष्ट संग्रह है, आ. रवीन्द्र उपाध्याय जी को श्रेष्ठ संग्रह हेतु कोटि कोटि हार्दिक बधाई व शुभकामनाएँ।  
--- शशि पुरवार   

  


Monday, July 29, 2019

पुष्प कुटज के


श्वेत चाँदनी पंख पसारे 
उतरी ज्यों उपवन में 
पुष्प कुटज के जीवट लगते 
चटके सुन्दर, वन में

श्वेत श्याम सा रूप सलोना 
फूल सुगन्धित काया 
काला कड़वा नीम चढ़ा है 
ग्राही शीतल माया
छाल जड़ें और बीज औषिधि 
व्याधि हरे जीवन में 
पुष्प कुटज के जीवट लगते 
चटके सुन्दर, वन में

बियावन जंगल के साथी 
पर्वत तक छितराये 
आग उगलती जेठ धूप में 
खिलकर जश्न मनाये
वृक्ष अजेय जीवनी ताकत
साधक संजीवन में 
पुष्प कुटज के जीवट लगते 
चटके सुन्दर, वन में

छोटा द्रुम फूलों से लकदक 
अवमानित सा रहता 
पाषाणों का वक्ष चीरकर 
रस का झरना बहता
चट्टानों को चीर बनाते 
ये शिवलोक विजन में 
पुष्प कुटज के जीवट लगते 
चटके सुन्दर, वन में
शशि पुरवार





Thursday, July 18, 2019

माँ --- तांका

1
स्नेहिल मन
सहनशीलता है
खास गहना
सवांरता जीवन
माँ के अनेक रूप .
...

2
माँ  प्रिय सखी
राहें हुई आसान
सुखी जीवन
परिवार के लिए
त्याग दिए सपने .

3
माता के रूप
सोलह है शृंगार
नवरात्री में
गरबे की बहार
 झरता माँ का प्यार .
-----शशि पुरवार

Wednesday, July 3, 2019

सांठ गाँठ का चक्कर

 सांठ गाँठ का चक्कर 

आनंदी अपने काम में व्यस्त थी।  सुबह सुबह मिठाई की दुकान को साफ़ स्वच्छ करके करीने से सामान सजा रही थी।  दुकान में बनते गरमा गरम पोहे जलेबी की खुशबु नथुने में भरकर जिह्वा को ललचा ललचा रही थी। खाने के शौक़ीन ग्राहकों का हुजूम सुबह सुबह उमड़ने लगता था। आनंदी के दुकान की मिठाई व पकवान खूब प्रसिद्ध थे। जितने प्रेम से वह  ग्राहक को खिलाकर सम्मान देती थी। उतनी ही कुशलता  से वह दुकान का  कार्यभार संभालती थी।  उतनी ही गजब की निडर व  आत्मविश्वासी थी.  पति के निधन के बाद अपने मजबूत कंधो पर दुकान की जिम्मेदारी कम उम्र में संभाली थी।  वही अपने बच्चों अच्छे से पाल रही थी। अच्छे उतने ही सरल या कहे भोले भंडारी थे। अासपास के लोग उन्हे स्नेह व सम्मान से अम्मा जी कहकर बुलाते थे. उम्र ढलने लगी थी पर चेहरे का नूर कम नहीं हुआ था।  बेटे के साथ आज भी दुकान पर बैठना उसकी आदत थी। 

 खैर आज दुकान पर भीड़ कुछ ज्यादा ही थी कि फूड विभाग वाले जाँच के लिए आ टपके । वह कहते हैं न जहाँ गुड़ होगा मक्खी भिनभिनायेंगी।  जब दुकान इतनी मशहूर है तो खाने वालों की नजर से कैसे बचती। फ़ूड विभाग वाले आये दिन दुकान पर आ धमकते थे।  

"अम्मा जी प्रणाम , हमें भी चाय नाश्ता करवा दो। "

उन्हें देखते की अम्मा जी मन ही मन बुदबुदायी - आ गए मुये भिखारी।  जब देखो तब जीभ लपलपा जाती है।  लेकिन ऊपर से जबरन मुस्कान चिपका कर पोहा जलेबी की प्लेट के साथ मिठाई का डब्बा भी थमाकर बोली - आज के बाद आए  तो देख लूंगी।  आँखों में गुस्सा भरा था। लेकिन इससे ज्यादा कुछ नहीं कर सकी. 

 अफसर हीरा लाल नीपे खिसोरते , खिसियानी हँसी हँसते  , उँगलियों को चाटते हुए बगल वाली दुकान में सरक लिए। 

   अम्मा जी अपने निडर व तेज स्वाभाव के कारण वहां के मोहल्ले में चर्चित थी। पति के निधन के बाद जब से दुकान संभाली मजाल  है कोई बिना पैसे के डकार भी ले।  फिर यह फ़ूड विभाग वालों का चक्कर क्या था, समझना जरुरी था। हुआ यो कि --

 शुरू शुरू में हीरालाल जब सामान की जाँच करने अपने मातहत कर्मियों के साथ आया।  सामान ख़राब होने का सवाल ही नहीं था।  अम्मा जी की देख रेख में उम्दा सामान का उपयोग किया जाता था।  लेकिन हीरालाल अभी अभी बदली होकर आया था जो  खाने - पीने का शौक़ीन था ।  आदतन बेफिक्री  से बोला - 

" सामान तो ठीक है , अम्मा जी कुछ मिठाई दे दो , फ़ूड का  प्रमाणपत्र कल मिल जायेगा।  " 

उसके ऐसा कहते ही साथ आया हुआ आदमी तेजी से बाहर निकल गया।  वह समझ गया कि आज साहब ने शेर के मुंह में हाथ डाल लिया है।  अब चमचो को क्या पड़ी है कि साहब को बचाएं। उन्हें अपनी लंगोट सँभालने की ही फिक्र होती है। 

   आनंदी ने अंदर मिठाई का डिब्बा पैक करके दिया और पैसे मांगे।  तो हीरालाल की आँखें बड़ी हो गयी बोला - 

अम्मा जी आप बड़ी भोली है, अभी तो बात हुई; कल फटाफट काम हो जायेगा  .... आगे कुछ बोल पाता  कि अम्मा माजरा समझ गयी।  तेजी से  दुकान के बाहर निकल जो गाली गलौज करके चिल्लाना शुरू किया कि हीरालाल की हवाईयां भी उड़ने लगी। 

" अरे जा रे हरामी ,पैसे माँगता है , तेरे बाप का माल है क्या।  हमरी गलती नहीं है तो किस बात के पैसे।  अच्छा सामान है ग्राहक भगवान है व आज गवाह भी  है। .... अम्मा जी का रौद्र होता रूप व जमा होती भीड़ देखकर उसने सफाई से बात पलट दी , बच्चों के लिए ले रहा था...  चलता हूँ। 

 जाते जाते खा जाने वाली निगाहों से आनंदी को देखा।  मन ही मन में बैर लिए हीरालाल के दिल में बदले की आग भभक रही थी। अब वह मौके की ताक में बैठा था।  जल्दी ही मौके की तलाश पूरी हुई।  आखिर वह दिन आ ही गया जब कार्य को अंजाम देना था। अम्मा जी अपने बड़े बेटे के साथ १५ दिन तीरथ करने चली गयी। भोले भंडारी को सब समझा कर गयी, शेष अपने भरोसे के कारीगर को बोल गयी सब संभाल ले।  

 हीरालाल को दुकान पर आया देखकर भोला मुस्कुरा कर बोला - नमस्ते साहब  आईये।  वह हमेशा देखता आ रहा था कि सामान देखकर नाश्ता करके जाते हैं  तो जल्दी से आवभगत कर दी। नाश्ता कराने के बाद गोदाम में ले गया।  

और भोला आज अकेले हो , 
हाँ साहब अम्मा कल ही गांव गयी है फिर तीरथ करने जाएगी।  कारीगर आज छुट्टी पर है। .. 
पर हीरालाल अपनी चौकन्नी निगाहों से सुराख़ ढूंढ रहा था। 
वहां एक कोने में शक्कर का बोरा रखा था जिसमे चींटी चल रही थी।  उसने जल्दी से अपने साथ आदमियों को समझाया व सब रवाना हो गए।  अगले दिन एक आदमी ने आकर रजिस्ट्री दी व भोला के हस्ताक्षर ले लिए।  दुकान भोला के नाम पर थी।  

दो  दिन बाद पुलिस वारंट के साथ हाजिर थी  और भोला को पकड़ कर ले गयी।  चलो दुकान बंद करो , खराब सामान का उपयोग करके जनता के साथ खिलवाड़ करते  हो।  लाइसेंस रद्द होता है चलो हवालात में ..!

सब अफरा तफरी थी, इज्जत जा बट्टा लग जायेगा। अम्मा जी को खबर लगी तो  उलटे पैर  लौट आयी , सारे तीरथ का फल का फल यहीं मिला था। आज बलि का बकरा तैयार था।  

" आओ अम्मा जी " - हीरालाल की आवाज में खनक थी। 

" यह तो नाइंसाफी है, साहब  " - अम्मा जी ने विरोध करना चाहा। 
" अम्मा जी आवाज नीचे रखो, हम क्या कर सकतें है , तुम्हारे बेटे ने कागज साइन करके  कोर्ट का सम्मन ले लिया था कार्यवाही तो होगी।  जिसने लिया है उसी पर होगी।  दुकान का मालिक भी है "

अम्मा जी ने सर पीट लिया।  सोचा था  बेटे के नाम दुकान करके  जिम्मेदारी से मुक्त होगी ।पर यह  एक बेटे का बाप  बन  गया पर अकक्ल दो कौड़ी की भी नहीं आयी। मन को शांत रखकर बोली - बाबू कुछ तो तोड़ होगा इस चक्रव्यूह से बाहर आने का। .. "

अब इतने दिनों से समझा रहे थे, पर  अब उसकी मुक्ति के सारे रास्ते बंद है। "
ऐसा न कहो बाबू किस बात का बदला ले रहे हो। .. 

नहीं अब मामला हमारे हाथ से निकल गया है पुलिस वाले मामला देख रहे है उनसे ही मिलो जाकर..

बेचारी रोती पीटती पुलिस थाने गयी।  वहां भोला देखकर रोने लगा - अम्मा देखो जबरजस्ती बंद कर दिया।  बेटे को जेल में कैसे रहने देती।  मामला कोर्ट तक चला जाता तो बचाना मुश्किल था।  

उसने सब बातें वहां के हवलदार को बताई।  लेकिन उसने भी हाथ खड़े कर दिए। -
"  अम्मा कोर्ट का मामला बन रहा है  कल कोर्ट में ले जायेंगे उससे पहले कुछ कर सकती हो तो कर लो "

एक समझदार  पुलिस वाला ही ऐसी सलाह दे सकता था कल सुबह तक का समय है।  अब अम्मा ने अपनी पहचान निकाली , बड़ा बेटा २-४ गुंडों व पहचान वालो  को लेकर थाने में आया। बड़े आदमी व वहां के नेता से  थानेदार पर दबाब बनाकर  मामला रफा दफा करवाया।  

हीरालाल और पुलिसवालों की सांठ सांठ थी , उन्होंने मिलकर योजना बनायीं थी , मामला निपटाने में अम्मा ने  खूब पापड़ बेले और किसी तरह भोला को बाहर लेकर आयी।  भोला तो बाहर आ गया था लेकिन थानेदार व हीरालाल अम्मा के स्थायी ग्राहक बन गए थे जिन्हें हर महीने मिठाई का डब्बा व नाश्ता पानी करवाना अम्मा की मज़बूरी बन गयी थी।  आग उगलने वाली जीभ शक्कर की चाशनी पड़ जाने से काली हो गयी थी। दबी जुबान में यही आशीष झरते थे - 

मुये कीड़े पड़ेंगे तेरे मुँह में....  ! 

शशि पुरवार 


Thursday, May 30, 2019

गीत के वटवृक्ष









२४ मार्च २०१९ को आदरणीय मधुकर गौड़ जी के निधन की खबर ने स्तब्ध कर दिया। इस वर्ष साहित्य जगत के कई मजबूत स्तंभ व सितारे विलीन हो गए। मधुकर गौड़ जी गीत को समपर्पित ऐसा व्यक्तित्व, जिनका नाम स्वर्णिम अक्षरों में अंकित हुआ है, व जिनका साहित्यिक योगदान युगों युगों तक याद रखा जायेगा, अपनी अंतिम साँस तक निर्विकार भाव से वे साहित्य की सेवा करते रहे।

जब भी गीत की बात होगी तो मधुकर गौड़ का नाम लेना अनिवार्य होगा। मधुकर गौड़ जी साहित्य जगत के ऐसे स्तम्भ थे जिन्होंने विषम परिस्थितियों में भी गीत की मशाल को अकेले अपने दृढ़ संकल्प द्वारा जलाये रखा। अपनी साँस के अंतिम समय तक वे गीत के लिये ही जिये और मजबूती से अपनी मशाल को थामे रहे। उनका व्यक्तित्व व कृतित्व इतना विशाल था कि उनके बारे में लिखना सूरज को दिया दिखाने जैसा है। मेरा संपर्क उनके गत १०-११ वर्ष पहले हुआ था जब उन्होंने गीत पढ़कर खूब लिखने हेतु प्रेरित किया था। उनके द्वारा सम्पादित गीत संकलन ऐसा अप्रतिम सागर था जिसमें अनगिन मोती जड़े थे। जिन्हे पढ़कर मेरी जिज्ञासु सुधा शांत होती रही। जितना उन्हें जाना उतना नतमस्तक हुई।

आदरणीय मधुकर गौड़ ने गत पाँच दशकों से अंतिम साँस तक पूर्ण निष्ठा, निस्वार्थ भाव से स्वयं को साहित्य के लिये समर्पित कर दिया था। गीत विरोधी समय में भी वे बेख़ौफ़ अडिग खड़े थे। एक ऐसा सिपाही जो सिर्फ गीत नहीं अपितु सम्पूर्ण कविता व साहित्य के लिये अकेले अपने दृढ़ संकल्प द्वारा अडिग खड़ा था। गीत उनकी साँस में बसता था। देश भर के गीतकारों को उन्होंने एक मंच पर लाकर खड़ा कर दिया था। सफल संपादक, समीक्षक, सफल गीतकार के साथ वे बेहतरीन सकारात्मक व्यक्तित्व के स्वामी भी थे।

उनके गद्य, सृजन, संवादों व दैनिक कार्यों में भी गीत की करतल धारा बहती थी। जब वे बोलना शुरू करते थे तो जैसे सरस्वती उनकी वाणी से बोलती थी। गीत के प्रति अगाढ़ निष्ठा, प्रेम, समर्पण ही विषम पलों में उनके जीवन का आधार था। गत पाँच दशकों से उन्होंने निरंतर लेखन, संपादन, समीक्षक और संयोजन द्वारा साहित्य की सेवा की है। उन्होंने गीत, गजल, दोहे, मुक्तक सभी विधा में लेखन किया। राजस्थानी भाषा में भी उन्होंने साहित्य सृजन किया। अनगिनत साहित्यिक कृतियाँ, संग्रहों का सृजन व संपादन किया।

वे एक व्यक्ति नहीं अपितु पूर्ण संस्था थे। गीत का ऐसा सिपाही जिसने हारना सीखा ही नहीं था। अदम्य साहस, अकम्पित आस्था, सकारात्मक ऊर्जा से लबरेज गौड़ जी ने राजिस्थान की माटी से बम्बई तक रचना संसार का स्वर्णिम युग तैयार किया। अहिन्दी भाषी प्रदेश में रहकर उन्होंने नव आयाम स्थापित किये। यह सफर स्वर्णिम अक्षरों में अंकित हो गया। गौड़ जी ने मुंबई में "नगर ज्योति" की स्थापना करके साहित्य का संस्कार शील, सुदृढ़ मंच तैयार किया था। इसके अतिरिक्त उन्होंने "साहित्य भारती", "राजस्थानी पत्रकार लेखक संघ" की भी स्थापना की और सतत ३० वर्षों से छंदसिक रचनाओं व गद्य समवेत पत्रिका " सार्थक "का सफल संपादन व प्रकाशन किया। सार्थक के माध्यम से उन्होंने गीत की अलख को जगाये रखा। बिना किसी सहयोग के वे निरंतर सार्थक का सृजन करते रहे।

सार्थक के माध्यम से उन्होंने गीत को प्रोत्साहित किया। समय के श्रेष्ठ गीतकारों के साथ नव गीतकारों व रचनाकारों को भी उन्होंने आत्मिक स्नेह द्वारा अपने साथ जोड़ा। वे सफल व उम्दा साहित्यकार थे वहीँ उनके संपादन की कसौटी की धार भी उतनी ही तेज थी। देश भर के अनगिनत साहित्यकारों के श्रेष्ठ गीत का काव्य संग्रह करके ऐसा गुलदस्ता तैयार किया तो समय के साथ महकता रहेगा।

उन्होंने अगिनत अनुपम, अमिट, अप्रतिम संकलन सम्पादित व प्रकाशित किये। ६ गीत नवांतर, १० गजल नवांतर, बीसवीं सदी के श्रेष्ठ गीत, १९६२ में इक्कीस हस्ताक्षर समेत अनगिनत रजिस्थानी छंद संग्रह व गीत नवांतर, गजल नवांतर व व्यंग्य नवांतर इत्यादि का संपादन व प्रकाशन किया। उनका सृजन संसार इतना वृहद है कि कुछ पंक्ति में समेटना मुश्किल है। उन्होंने रचनाकार की उम्र नहीं उनके समसामयिक लेखन को महत्व दिया। उनके सम्पादित किये लगभग सभी संग्रह मेरे पास है। संग्रह में एक एक चुनिंदा मोती कहें या हीरा, स्वर्णिम अक्षरों में पन्नों में जड़ा हुआ अंकित है । संग्रह के गीत समय के साथ चलते हुए स्वर्णिम युग का आगाज कर रहें हैं। उनमे शामिल रचनाकार अपने गीतों के साथ अजेय हो गए। आदरणीय मधुकर गौड़ के शब्दों में -
मेरी रजा जनजीवन है, मेरा तीरथ हिंदुस्तान
मेरा प्यार सभी के हक में मेरा ईश्वर है

इंसान गौड़ जी केवल गीत ही नहीं अपितु सम्पूर्ण कविता की लड़ाई लड़ रहे थे। स्पष्टवादी, झुझारू ऊपर से कड़क व हृदय से उतने ही नरम व्यक्तिव के स्वामी थे। उनके ही शब्दों में -
श्रेष्ठ कविता की लड़ाई लड़ रहें है हम सभी
गीत के माथे नवांतर जड़ रहें है हम सभी।

उन्हें गीतों से बेहद प्रेम था या यह कहे कि गीत उनकी साँसों में बसता था। समय के साथ गीत पर अलग अलग स्वर उठे। जैसे जनगीत, प्रगीत, जनवादी गीत, अगीत, नवगीत आदि किन्तु वे गीत की मशाल थामे अनवरत चलते रहे। वे कहते थे - आज गीत को नए परिवर्तनों के समागम में भी नए नाम दिए जाने लगे हैं किन्तु गीत शाश्वत रूप आधार हो। गीतों में अन्तस् की जीवंतता रही है। अवरोध व अंतर्विरोध उनके दृढ़ संकल्प को डिगा नहीं सके। उनके ही शब्दों में -
साहस मुझको श्लोक लिखाते निष्ठा उनको याद दिलाती
संकल्पों की भरी सभा में गरिमा आकर राह दिखाती

उन्होंने अंतिम समय तक गीत को गीत ही माना। वे कहते थे कि- "गीत नवगीत क्या होता है। गीत ने नया चोला पहन लिया है। गीत समय के साथ नए परिवर्तन को अपने में समाहित करता आ रहा है। समय व परिवेश को गीत ने तीव्रता से ग्रहण किया है। गीत तो गीत है। सर्वार्थ पूर्ण और नित्य प्रति, समाज व राष्ट्र का निर्माण गीत है। गीत लय व छंद का महर्षि है।"

खेमेबाजी को उन्होंने उनके काम में अड़ंगा नहीं लगाने दिया। वे किसी विवादमें नहीं पड़े अपितु सरल हृदय से अपनी बात कही। ७० के बाद आये परिवर्तनों पर उन्होंने कहा कि "परिवेश के आधार पर नए अंतर ही हर विधा का नवांतर है।"

संघर्ष व स्वर्णिम अजेय कर्म का पथ आसान नहीं था। उनके भावों में संघर्ष की कहानी साफ़ झलकती है - उनके शब्दों में -
आंधी के तेवर देखें है तूफानों से टकराया हूँ
घनघोर बरसते पानी में, नौका लेकर आया हूँ।

गौड़ जी ने और सार्थक ने नि:स्वार्थ भाव के पक्ष में स्वंय को खड़ा किया था । उन्होंने कई आलेख भी लिखे। गीत के पक्ष में हमेशा अपना मोर्चा संभाले रखा। वे कहते थे कि धरती कर कण कण में गीत बसा है। छंद में रचे-बसे गीत के हस्ताक्षर मधुकर गौड़ जी सदा गीत के लिये चिंतित रहे। वे कहते थे कि गीत सनातन है व सदैव गीत ही रहेगा। गीत ही सत्य है व सत्य ही गीत। गीत तो उनके कण कण में बसा था। इनके ही शब्दों में -
गाते गाते गीत मरूँ मैं, मरते मरते गाऊँ
तन को छोडू भले धरा पर, गीत साथ ले जाऊँ।

गीत के प्रति अगाध निष्ठा प्रेम, व समर्पण ने उन्हें विषम पलों में भी उनके जीवन का आधार दिया। अस्वस्था के बाबजूद उनके सृजन साहित्य की मशाल जलती रही। निधन के कुछ समय पहले तक वे कह रहे थे नवांतर ७ का प्रकाशन करना है जिसमें पुरानी पीढ़ी के साथ नव पीढ़ी के भी गीत शामिल हो। सार्थक का विशेष अंक का प्रकाशन करना है। मौत भी मुझे डरा नही सकती। उनका उत्साह ऊर्जा से लबरेज थे। उनकी जिवटता उनके शब्दों से झलकती थी कि -
मौत भले ही थक जाये पर जीवन का थकना मुश्किल है
साँसो के इस क्रम में जाने किस गलियारे मंजिल है

कुछ समय विषम परिस्थिति व बीमारी से झुझते हुये आक्सिजन मास्क हटाकर काम करने लगते थे। उन्हें मना किया तो कहने लगे - डाक्टर कहते है आराम करो, पर मै तो इसके बिना जी नही सकता। मुझे अभी बहुत कार्य करना है। अपने कष्ट की भनक भी उन्होनें किसी को लगने नही दी। जब भी वाणी के फूल झरे उर्जा से लबरेज थे। उनकी कृष होती काया में भी अपार शक्ति व साहस था। कहतें है कि निष्ठावान व्यक्ति टूट तो सकता है पर झुक नही सकता। वे समय के आगे भी नहीं झुके। उनका एक मुक्तक उनकी जुबानी -
एक आदत सी है मुझमें बांकपन की टूट जाता हूँ मगर झुकता नहीं हूँ
स्नेह वश आँकों अगर, बिन मोल ले लो किंतु सिक्कों के लिये बिकता नही हूँ

उनके समकालीन गीतकारों ने उन्हें अनगिन नामों से नवाजा था- जैसे गीत गंगा का नया भगीरथ, गीत के विजय रथ के अप्रतिम सारथी, गीत के वटवृक्ष, गीत के पर्याय इत्यादि। सत्य भी है एक अजेय योद्धा जिसनें गीत के खातिर जीवन के मोह, सुख व वैभव को तवज्जो नही दी। उनके साहित्सतिक सफर में उनकी धर्मपत्नी व परिजनों के अमूल्य योगदान को सदै‌व नतमस्तक करते थे।
वे एक मशाल बनकर ही तो जलते रहे - उनके ही शब्दों में
जिंदगी का मोल देने के लिये बढता रहा हूँ
अौर लाने भोर जग में, रात बन ढलता रहा हूँ

मधुकर गौड़ के गीत, जीवन व साहित्य जगत में संवेदनाओं की अनुपम अभिव्यक्ति को महत्वपूर्ण बनाते है। समय के साथ चलते हुए गीत जीवट व जिजिषिवा के धनी, उदारता व नम्रता के आदर्श है।आदरणीय गौड़ जी से परिचय के दौरान जितना भी उन्हें जाना उतना ही नतमस्तक होती चली गयी। गीत विधा के प्रति अटूट लगाव के अतिरिक्त उनमें विशिष्ट गुण था। वे जो भी ठान लेते थे उसे विषम परिस्थिति में भी पूर्ण करते थे। गीताम्बरी का प्रकाशन भी उसी दौरान हुआ। कर्मठ दृढ़ निश्चयी व संकल्प वृती गौड़ जी का जन्म १० अक्टूबर १९४२ को रणबांकुरो की बलिदानी राजस्थानी मिट्टी चूरू अंचल में हुआ था। भावुक प्रेमिल हृदय जितना गीतों में बहता था उतने ही पाँव यथार्थ के कठोर धरातल पर रहकर सृजनशील रहे। उन्होंने जो भोगा, महसूसा उसे गीतों में वाणी दी। संपादन कार्य में व्यस्त रहते हुए स्वयं भी सृजनरत रहे।

१९७६ में छपे उनके प्रथम गीत संग्रह "समय धनुष" को नेशनल अकादमी मुंबई ने पुरस्कृत सर्वश्रेष्ठ संग्रह घोषित किया। १९९० में प्रकाशित उनका पाँचवा काव्य संकलन " अंतस की यादें " को महारष्ट्र राज्य साहित्य अकेदमी ने काव्य के सर्वोच्च पुरस्कार संत नामदेव देकर सम्मानित किया। गीत वंश उनका वृहद व बहुचर्चित गीत संग्रह है, उसे भी महाराष्ट्र अकादमी द्वारा सम्मानित किया गया। उन्हें अनगिनत सम्मानों से नवाजा गया जिसमे सर प्रतिभा सिंह पाटिल द्वारा श्रेष्ठ साहित्यकार सम्मान, श्रेष्ठ साहित्य सेवा सम्मान, मानद श्री की उपाधि, निराला सम्मान समेत अनगिनत दर्जनों सम्मान शामिल है।

उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं- मधुकर गौड़ का रचना संसार गीत और गीत-१ (१९६८), समय के धनुष (१९७६), गुलाब (मुक्तक व रुबाई - १९८६), अश्वों पर (बहु प्रशंसित गद्य कवितायेँ १९९०), अंधकार में प्रकाश (गद्य संकलन), अंतस की यादें (१९९० काव्य संकलन), पहरुए गीतों के (गीत संग्रह - १९९५), गीत वंश (गीत संग्रह १९९७), देश की पुकार (राष्ट्रिय गीत), साथ चलते हुए (गजल दोहे म मुक्तक २००१), बावरी (आत्मिक प्रेम कथा दोहे रुबाई २००२), श्रीरामरस (दोहा संकलन २००५), साँस साँस में गीत (गीत संग्रह२००७), गीत गंगा का नया भगीरथ, चुप न रहो (गीत संग्रह २०१५), गीताम्बरी (२०१६) समेत कई राजस्थानी संग्रह भी शामिल है।

दर्जनों सम्पादित गीत गजल संग्रह व नवांतर उनके रचना संसार को समेटना जैसे सागर को गागर में भरना है। उनके गीतों में जिंदगी के अनेक बिम्ब व स्वर समाहित है। उनकी रचनाएँ जीवन के विविध रंगो को समेटे हुए इंद्रधनुषी आकाश बनाती है। कर्मठता उनमे रंग भरती है। सतत बहते जाना और इतिहास बनाना उनकी जीवटता की पहचान थी। उनके शब्दों में -
आदमी ही जब लहु के साथ चलता है
दोस्त मेरे तब नया इतिहास बनता है

उनकी बहु चर्चित कृति बावरी का उल्लेख भी आवश्यक है। मधुकर गौड़ जी की कृति बावरी जो आत्मिक प्रेम काव्य की अभिव्यक्ति है जिसमे १५२ द्वोपदियों में प्रेम की पीर व अंतस की गहराई से निःसृत प्रेम - दीवानी मीरा की अनुभूति की गूंज है। कवि के शब्दों में यह प्रेम के श्लोक है, जिसने साँस साँस में उसे जिया है। प्रेम की सनातन अभिव्यक्ति है। एक बानगी देखें -
मै माटी की पूतली, तू धड़कन तू जान
मै पूजा तू मूर्ति, मै काया तू प्राण
झर झर आँसूं की झड़ी, मै भीगी दिन रात
ऐसी भीगी मेह में, हो गयी खुद बरसात।

बहुत कम लोग होते हैं जो अपने मूल्यों, आदर्शों के साथ अवांछित अवरोधों को चुनौती देते हुए निरंतर आगे बढ़ते रहते हैं। कुछ लोग ऐसे होते हैं जिनका व्यक्तित्व वंदनीय व अनुकरणीय होता है। साधन, सुविधा और सहयोग के अभाव में भी उन्होंने अविचल अविरल बहते हुए अपने धेय्य को पूर्ण किया। उनका व्यक्तित्व व कृतित्व हमेशा नव रचनाकारों व गीतकारों को प्रेरणा, दृढ़संकल्प व ऊर्जा की संजीवनी प्रदान करता रहेगा।

एक गुरु, पिता, मित्र बनकर उनका स्नेह आशीष मुझे भी प्राप्त हुआ। उनके सृजन साहित्य के सागर में समाहित रचनाओं के अनमोल मोती हमें सदैव मार्गदर्शन प्रदान करते रहेंगे। उनके गीत, गजल, दोहे व उनके शब्द हमें सदैव सुवासित करते रहेंगे। वे अपने वृहद साहित्य व शब्दों से माध्यम से सदैव हमारे बीच सुवासित रहेंगे। उनका ही एक बंद उन्हें अर्पित करती हूँ

जीते रहे अब तलक दिलदार की तरह
पढ़ते रहे हैं लोग हमें अखवार की तरह
सब साथ हो गए तो रहे सारी जिंदगी
आकर के हम गए नहीं बहार की तरह।

गीत के सशक्त हस्ताक्षरआदरणीय मधुकर गौड़ सर को मेरा कोटि कोटि नमन व विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करती हूँ।
शशि पुरवार

समीक्षा -- है न -

  शशि पुरवार  Shashipurwar@gmail.com समीक्षा है न - मुकेश कुमार सिन्हा  है ना “ मुकेश कुमार सिन्हा का काव्य संग्रह  जिसमें प्रेम के विविध रं...

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