Tuesday, April 16, 2019

महामूर्ख सम्मेलन


 मूर्खदेव जयते 

आज महामूर्ख सम्मलेन अपनी पराकाष्ठा पर था।  सम्मलेन में  मौजूद मूर्खो की संख्या देखकर हम सम्मेलन के मुरीद हो गए. हमें  एहसास हुआ कि हम मूर्खानगरी के नागरिक है , दुनिया ही मूर्खो की है तो हम कहाँ से पृथक हुए।  खरबूजे को देख खरबूजा ही रंग बदलता है , किन्तु यहाँ हर रंग अपने सिर पर मूर्खो का ताज सजाने को आमादा है।


 सम्मेलन में शामिल सभी महामूर्खो ने अपनी-अपनी मूर्खता की पराकाष्ठा का परिचय श्रोताओं को दिया।  आयोजन समिति द्वारा सभी गणमान्यों  व जनता से  जुडी  हस्तियों को अलग-अलग अलंकरणों से नवाजा गया।  आयोजन समिति
द्वारा सभी गणमान्यों सहित राजनीति, शिक्षा, चिकित्सा, समाजसेवा, प्रशासन आदि से जुड़े हस्तियों को अलग-अलग अलंकरणों से नवाजा गया।  राजनेता शंकर  खैनी को महामूर्ख शिरोमणि, शिक्षा में अशिक्षित देवधर  महामूर्ख रत्‍‌नेश्वर,  चिकित्सा में छोला छाप सेवक को मूर्ख  सम्राट,  मूर्ख शिसरोमणि,   महामूर्ख मातर्ड,   मूर्खाधिपति,   मूर्खनंदन आदि अनंत उपाधियाँ लगभग कर कार्य क्षेत्र में बांटी गयी है।  सबकी चर्चा  करने में शर्मा  जी शर्मा रहे थे।  आज पहला अध्याय ही पढ़ने का मन है।

हमारे महामूर्ख शिरोमणि ने सम्मान उपाधि मिलते ही अपने खुशफहम शब्दों व आत्ममुग्धता के द्वारा आवरण की परतें उखाड़ना शुरू कर दी।

   नेता जी बेहद खुश अपने मूर्ख होने की पराकाष्ठा का वर्णन कर रहे थे -
सबरी जनता वाकई मूर्ख है तभी तो जनता को मूर्ख बनाने वाले  नेता का गिरेबान; आज हाथ में आ ही गया।  आज अंततः मूर्ख शिरोमणि की उपाधि से नवाजा जाना; उनके कर्म क्षेत्र का सम्मान है।  वैसे भी कर्म तो कुछ करते नहीं हैं , बस ससुरी जबान का पैसा खातें है लेकिन अब वह जबान भी फिसलती
रहती है।  आज  जब देश पर संकट छाया है तब भी खैनी जी को खैनी खाने से  फुर्सत नहीं  है , बिना बात के बबाल मचा रखा है. पक्ष विपक्ष से ज्यादा चर्चा में रहने के लिए ऐसे बोलबच्चन कहने पड़ते है।   पक्ष क्या बिपक्ष  क्या सभी एक थाली के चट्टे बट्टे है।  आप किसी भी देश में देखें जनता और
सत्ता का सम्बन्ध एक दूजे के साथ सिर्फ पैसा फेंक तमाशा देख जैसा ही है।

  जिसे देखो काटने पर तुला है और बेवक़ूफ़ जनता हर बार मोलभाव करके गद्दी का भार सौंपती है और कुछ ही दिन में उकता कर जमीन पर पड़ी दरी खींचने का भरकस प्रयास करने लगती है।  अब ज्यादा तारीफ़ करने के चक्कर में खैनी जी
की जबान वाकई पूर्णतः फिसलने लगी।

ससुरे बगल वाले का टटुआ दबा देंगे। मारधाड़ में निपुण लोग अपना काम करते रहे। इधर हाल ही में सरहद पर छींटा कशी हुई और पडोसी राज्य के महा मूर्ख  छिपानन्द कहने लगे हमने तो बारिश देखी ही नहीं है; हमारे यहाँ बारिश के कोई निशान शेष नहीं है ।  लो जी उनके सेर को सवा सेर भी मिल गया ,

जनता के मूर्ख सम्राट  सामने आकर बोलबच्चन के मंत्र पढ़ने लगे  :-
आज तेज आंधी तूफान में हमारी फसलें तबाह हुई है।  आकाश पर मंडराते काळा बादल फट गए और यहाँ गड्ढा हो गया। बारिश हुई तो धरती पानी निगल गयी। लेकिन सोना नहीं मिला।  रोज रोज फावड़ा लेकर सोना ढूंढ रहें है , ससुरा मिल जाये तो गुपच लेंगे।


इधर मुर्खाधिपति अपना माइक लेकर सामने आ गए - आज के ताजा समाचार -

यही वह आदमी है जो दिन में भी चार चार फैनी खाकर सोता रहता है। आज जलेबी खाने में लगा हुआ है।  आप इसको हमारे कैमरे में देख सकतें है।  इसका ध्यान दूसरे मूर्खो पर है ही नहीं।  अरे  बादल फटे तो झट से वहां पहुँच गया कि शायद गड्ढे में इसे पुराना पुरखो का धन मिल सकता है।

दूसरे हमारे मूर्ख सम्राट है जिन्हें समझ ही नहीं आता है कि बादल फटने से गड्ढा ही होगा , छप्पन भोग का छींका नहीं फूटा है। जब देखो सम्राट अक्सर धरने पर बैठ जाते हैं ,  साथ ही अन्नपूर्णा माता का अपमान न करते हुए चुपचाप जूस की सिप लगाते रहतें है।


आज सारे अडोसी - पडोसी  मूर्खों के सरताज सम्मलेन में शामिल होने आ रहें है। जब आग जले तो हाथ सेंक  लेना चाहिए।  गेंद  किस पाले में जाएगी वह समय पर तय करेंगे। अभी मूर्ख मणिताज का सवाल है।

इधर दूसरी तरफ महामूर्ख चिंतामणि ने अपने बखान शुरू कर दिए -  

हमने पहले ही कहा था शनि की महादशा है , आज राहु ने अपना घर बदल लिया है , शनि भारी है  उथलपुथल मची रहेगी।  मन को शांत रखें , लाल वस्त्र धारण करें , लाल
ही खाएं , लाली लगाएं , लाल  पिए और  लाल  हो जाएँ।

दिन में दो बार स्नान करें फिर जलपान करें , पडोसी को जल देना बंद करे इससे आपके घर में जल संचय होगा , फिर उसे बाँटना।  मंगल  भड़क  सकता है ; सूर्य पश्चिम में घूमने गएँ है ;  चंद्र आपको दर्शन देंगे , आज ताज को सर पर धारण रखें शीघ्र परीक्षा का निकाल होगा।  आज खेल आर या पार होगा।  हम
ही जीतेंगे।  ऐसी उच्च कोटि  के विचार छोटे से दिमाग में समां ही नहीं
रहे थे।
हमने जिज्ञासा वश प्रश्न उछाल दिया - प्रभु आगे का संक्षिप्त में हाल  बताएं - ताज किसे मिलेगा या नहीं।


उत्तर मिला - अभी  फिल्म जारी है ; आप अपना ध्यान केंद्रित करें ,
यह मंत्र पढ़ने से आप जल्दी मूर्ख बनने की प्रक्रिया पूर्ण करेंगे और आपको जल्दी ही मोती जड़ित शिरोमणि  से नवाजा जायेगा।

ओम मूर्ख मुर्खस्वः, तस्सः मुखर मुरेनियम
मूर्खो देवस्वः धी महि. दियो मोह न मूर्खो दयाः

मूर्ख देव जयते। मूर्ख: मूर्खो : स्वाहा


शशि पुरवार

Thursday, April 4, 2019

बिगड़े से हालात

कुर्सी की पूजा करें, घूमे चारों धाम
राजनीति के खेल में , हुए खूब बदनाम

दीवारों को देखते, करते खुद से बात
एकाकी परिवार के , बिगड़े से हालात

एकाकी मन की उपज, बिसरा दिल का चैन
सुख का पैमाना भरो , बदलेंगे दिन रैन

मोती झरे न आँख से, पथ में बिखरे फूल
सुख पैमाना तोष का , सूखे शूल बबूल

शशि पुरवार


Thursday, March 21, 2019

भीगी चुनरी चोली

फागुन की मनुहार सखी री
उपवन पड़ा हिंडोला 
चटक नशीले टेसू ने फिर 
प्रेम रंग है घोला 

गंध पत्र ऋतुओं ने बाँटे 
मादक सी पुरवाई  
पतझर बीता, लगी  उमड़ने 
मौसम  की अंगड़ाई 

छैल छबीले रंग फाग के 
मन भी मेरा डोला 
चटक नशीले टेसू ने फिर 
प्रेम रंग है घोला। 

राग बसंती,चंग बजाओ 
उमंगो की पिचकारी 
धरती से अम्बर तक गूंजे 
खुशियों की किलकारी

अनुबंधों का प्रणय निवेदन
फागुन का हथगोला 
चटक नशीले टेसू ने फिर 
प्रेम रंग है घोला। 
  

मनमोहक रंगो से खेलें 
खूनी ना हो होली 
द्वेष मिटाकर जश्न मनाओ 
भीगी चुनरी चोली 

चंचल हिरणी के नैनो में 
सुख का उड़न खटोला 
चटक नशीले टेसू ने फिर 
प्रेम रंग है घोला 
शशि पुरवार

आपको होली की रंग भरी हार्दिक शुभकामनाएँ


लोकमत समाचार महाराष्ट्र में आज प्रकशित 

Monday, March 11, 2019

गुनगुनी सी धूप आँगन की - पुस्तक समीक्षा

मेरे दूसरे संग्रह की समीक्षा लिखी थी इंदौर से विजय सिंह चौहान जी ने और यह समीक्षा अंतर्जाल पर प्रतिलिपि , मातृभाषा , दिव्योथान एवं नवभारत समाचार पत्र सभी पोर्टल पर प्रकाशित है , आप भी यहाँ पढ़ सकतें हैं

आभार आ. विजय सिंह चौहान जी
गुनगुनी सी : धूप आंगन की

साहित्य यात्रा : धूप आंगन की , सात खण्ड में विभक्त एक ऐसा गुलदस्ता है

जिसमें साहित्यिक क्षेत्र की विभिन्न विधाअों के फूलों की गंध को एक साथ महसूस करके उसका आनन्द लिया जा सकता है । भारतवर्ष की ख्यात लेखिका श्रीमति शशि पुरवार ने इस गुलदस्ते को आकार दिया है। हिन्दी साहित्य जगत में श्रीमति शशि पुरवार एक सशक्त हस्ताक्षर है ।
इन्दौर में जन्मी शशि पुरवार ने यहीं के गुजराती साईंस कॉलेज से
विज्ञान की उपाधि प्राप्त की है तदन्तर एम् ए , एवं कंप्यूटर में होनेर्स डिप्लोमा किया है . मालवा की माटी में ही साहित्य का बीजारोपण हुआ जो आज एक वटवृक्ष के रूप में हमारे सम्मुख है. विसंगतियों के खिलाफ अपने प्रयासों के लिये शशि पुरवार को महिला और बाल विकास मंत्रालय द्वारा 2016 में ‘भारत की 100 वूमन्स अचीवर ऑफ इण्डिया‘ नामक सम्मान से नवाजा गया है । आप गीत, आलेख, व्यंग्य, गजल, कविता, कहानी व अन्य विधाओं में अपनी संवेदना व्यक्त करती रही है ।
" धूप आंगन की " मुझे अपनी सी व सुहानी सी लगती है . कभी कोयल की कूक तो कभी पायल की रूनझून मन को गुदगुदाने लगती है । संवेदनाए भी जीवन की झर धूप में, नेह छांव की तलाश करती नजर आती है । गजल खण्ड में लगभग 24 गजलें धूप आंगन के ईद र्गिद मंडराती है , कभी इश्क का जखीरा पिघलता है, तो कभी आंगन में लगा नीम ढेरो उपहार देने के बाद भी मुरझाता सा प्रतीत होता है ।
मधुवन मे महकते हुए फूल हो या गजल के करिश्में , हर रचना में
रचनाकार की कोमल संवेदनाअों का उठता ज्वार, समुद्र से गहरे विचार को
दर्शाता है. बनावटी रिश्तों की कसक हर आंगन में होती है लेकिन इस आँगन
की धूप ने स्पष्ट किया है कि ‘हर नियत पाक नहीं होती‘ है व वक्त लुटेरा बनकर सबको लूटता है. ज्ञान का दीप भी धरूँ मन में,­ जिंदगी फिर गुलाब हो जाए जैसी गजलों के नाजुक शेर की यह पंक्तियाँ पूर्णत: गुलिस्तां की महक को समेटने में सफल रही है.
रचनाकार के मन में हिन्दी के प्रति जन्में अगाध श्रद्वा भाव ने हिन्दी को विभिन्न उपमा, अलंकार में श्रंृगारित करते हुए बेहद सुन्दर उद्गार प्रेषित किये है . यह प्रेम उनकी रचना मे नजर आता है. गजल के यह शेर देखें
कि सात सुरों का है ये संगम,
मीठा सा मधुपान है, हिन्दी ।
फिर वक्त की नजाकत, दिल की यादें, और सांसों में बसी हो क्या, यहां आते
आते धूप आंगन की; जाडों में गुनगुनी धूप का अहसास दिलाती है तथा संवेदनाअों की कोमल धूप थोडी देर अौर आंगन में बैठने के लिए मजबूर करती है । इस साहित्यिक यात्रा में जैसे जैसे धूप तेज होती है वैसे-वैसे गर्मी की ,उष्णता भी महसूस होने लगती है . ऐसी ही एक गजल है जिसके शेर
है
घर का बिखरा नजारा अौर है व
गिर गया आज फिर मनुज,
कितना नार को कोख में मिटा लाया‘
शेर पढकर धूप की चुभने का अहसास होता है . आहिस्ता-आहिस्ता गजल में
प्रेम की फुलवारी फिर से महकने लगती है कि हौसलों के गीत गुनगुनाअो ।
एक बात और कहना चाहूगा कि गजल खण्ड को पढते-पढते आखों कहीं नम होती है तो कहीं ह्रदय को मानिसक सुकुन मिलता है . संवेदनाएँ हमारे ही परिवेश को रेखांकन करती हुई अपने ही इर्द गिर्द होने का अहसास कराती है ।
संवेदनाअों की वाहिका, धूप आंगन से होते हुए ‘लघुकथा‘ खण्ड में प्रवेश करती है जहां सामाजिक ताना-बाना, रौशनी की किरण बनकर ; हर एक लघुकथा के माध्यम से दिव्य संदेश की वाहिका बनकर पाठकों तक पहुंचती है । लघुकथा खण्ड में समाज में हुए मानसिक पतन, जीवन का सच, गरीब कौन, दोहरा व्यक्तित्व तथा विकृत मानसिकता, स्वाहा और ममता आदि लघुकथाएँ समाज को सार्थक संदेश देती है । जीवन की तपिश में जाडो की नर्म धूप सा अहसास होता है . संग्रह के लघुकथा खण्ड में जब नया रास्ता, आईना दिखाता है तोअर्न्तमन का सुकून संवेदना के रूप में बाहर झलकता है । समाज में व्याप्तअंधविश्वास ,खोखले रिवाजों के बीच सलोनी के चेहरे पर आई मुस्कान पढ करअर्न्तमन तृप्त हो जाता है । बडी कहानी खण्ड में " नया आकाश " आम गृहणीकी मनोदशा का मार्मिक चित्रण हैं , यह कहानी हर किसी गृहणी को अपनी हीसंवेदनाओं का अहसास कराती है . कहानी के अंत में नारी सम्मान पर जीवनसाथी द्वारा दिये गये संदेश अपनी दिव्यता की महक छोडतें है कि "नारी
का काम सृजन करना ही है, मन में आत्मविश्वास हो तो नारी कुछ भी कर सकती है. हर नारी के अंदर कोई न कोई प्रतिभा होती है, जिसे बाहर लाना चाहिये‘ अपनी पत्नी पर गर्वीली आंखों में आई चमक का बख्ूाबी वर्णन किया है ।


विभिन्न विधाअों में किया गया लेखन; जब व्यंग्यता की ओर बढता है तोलगता है कि व्यंग्य का चुटीलापन रचनाकार के लेखन की हर विधा मे नजर आता है फिर चाहे वह लघुकथा हो, कविता हो या व्यंग्य; हर पल संवेदना के गहरे बादल मंडराते है।
बोझ वाली गली में टोकरे ही टोकरे‘ में साहित्य जगत का टोकरा व प्रकाशक वसंपादक के टोकरे में अलादीन का चिराग तथा स्वयं अपने काम के टोकरे सेपरेशानी को बेहद चुटीले अंदाज में पेश किया है । अडोस-पडोस का दर्द वविचारों में मिलावट, हिंदी की कुडंली में साढे साती के चलते हिंगलिश मेंथोडी सी विंग्लिश का नव प्रयोग को जहाँ समाज का आईना दिखाता है वहीं
समाज की विसंगतियों पर प्रहार करके सामाजिक खोखली मानसिकता को व्यक्तकरता है.

गजल, लघुकथा, बडी कहानी व व्यंग्य में गुनगुनाने के बाद जब साहित्ययात्रा आलेख के माध्यम से शिक्षित बन अधिकार जाने महिलाएँ , बाल शोषणसमाज का विकृत दर्पण, आत्महत्याओं पर विचारोत्तेजक आलेख, लेखक की विद्वता व संवेदनशीलता को परीलक्षित करते है ।

जीवन उस रेत के समान है जिसे मुटठी में जितना बाँधना चाहें वह उतना हीफिसलती जाती है । सकारात्मक जीवन जीने के लिए तथा बेहतर जीवन बनाने के लिये कर्मशील होना आवश्यक है और नकारत्मकता को सदैव दूर रखना चाहिए. खाली दिमाग शैतान का घर होता है ; अपना शौक को पूरा करें ये कुछ ऐसी नसीहते है जो सीधे सरल और सहज रूप से इन लेखों के माध्यम से कही गई है । जो आम आदमी को निराशा के गर्त से बाहर आने मे मददगार सिद्ध होती हैं .

सकारात्मक सोच को प्रवाहिर करते शशि पुरवार जी के लेख आज के दौर मेंज्यादा प्रासांगिक नजर आते है । साहित्यिक यात्रा के अगले चरण में डायरीके पन्नों से ; बाल काल की समेटी हुई कवितायें है . इन कविताओं कोपढकर महसूस होता है कि बालमन में ही संवेदनाए जन्म लेकर नव आकाश कानिर्माण करेगीं. देश के ख्यात कवियों की शैली की झलक मुझे इन रचनाअों नेनजर आई है। सर्वप्रथम लिखी हुई कविता " कहाँ हूँ मैं " ने ही लेखिका केमन मे जन्में भाव ने कवि ह्रदय की गहन संवेदनाओं के पंख पसारने तभी शुरू कर दिये थे .

इन पन्नों में नारी के अस्तित्व पर जहाँ सवाल उठें है वहीं छलनी हो रहे,आत्मा के तार, चित्कारता हदय करे पुकार है। कभी रूह तक कंपकंपाता दर्दहै तो कभी आशा की किरण भी समाहित है । झकझोरते हुए जज्बात हैं तो कहीं खारे पानी की सूखती नदी है. कभी शब्दों की छनकती गूँज है तो कभी सन्नाटे में पसरी आवाजे चहुं ओर बिखरी नजर आती है । इसी खण्ड में तलाश को तलाशते हुए रेखांकन बरबस ही नजरों में ठहर जाते हैं . अौर संवेदना के अतल सागर डूब कर अनुभूतियों में गोते लगाते है, तो कभी श्वासोच्छवास की दीर्ध ध्वनि व ह्रदय की धडकनों की पदचाप सुनाई पडती है।

काव्य की बात हो और चांद से संवाद न हो यह मुमकिन नहीं है . चांद से अकेले में संवाद करती हुई शशि पुरवार जी की बालपन की रचना में सौंदर्य व प्रेम की पराकाष्ठा नजर आती है . ह्रदय चाँद में डूबा हुआ विलिन होने के लिए मचलता है. प्रेम व संवेदना की कोमल वाहिका चांद के साथ साथ बेटियों पर भी अपना ममत्व न्यौछावर करती है। अनगिनत उपमा, अलंकार और श्रृंगार से श्रंृगारित काव्य खण्ड में मन रसमय होकर तल्लीन हो जाता है  . जब चिडियों सी चहकती , हिरनों सी मचलती बेटियां हमें खिलखिलाने के लिये मजबूर करती है।
इस खण्ड मे भूख , चपाती अकेला आदमी, सपने , जीवन की तस्वीर पढ कर जहाँ  मानसिक क्षुधा शांत होती है वहीं हिय में अनगिनत प्रश्न मन को विचलित  भी करतें है . संग्रह में लेखक ने रचनाअों के माध्यम से सामाजिक मुद्दों व कोमल संवेदनाअों पर खुला प्रहार किया है. सभी मुद्दों को बेहद नजाकत के साथ प्रस्तुत किया है । कहतें है ना कि कडवी गोली खिला दी अौर
कडवाहट का अहसास भी नही हुआ. कुल मिलाकर 168 पृष्ठों में समाई धूप ऑंगन की : एक एेसी साहित्य यात्रा है जो विराम नहीं होती है अपितु सतत एक झरने की भांति अर्न्तमन में अनगिनत प्रश्नों को छोडकर बहती रहती है , वहीं कोमल धूप दिल दिमाग पर छाकर नेह सा अहसास भी कराती । एक लेखक की सार्थकता इसी बात से सिद्व हो जाती है कि उसकी रचना व्यक्ति के मन मस्तिष्क पर अपनी अमिट छाप छोडने में सक्षम है । किताब में रेखांकित रचनाएँ खण्ड के अनुरूप है जो अक्षर के साथ भावों को एकाकार करती है

बेहद सधे हाथों से किया रेखांकन कल्पना लोक की सैर कराता हुआ आम आदमी को उसकी पृष्ठभूमि से जोड़ता है . हर पृष्ठ पर चढती बेल का रेखंाकन पुस्तक में मूल रूप से समाहित आशावाद का प्रतीक है । इस पुस्तक में रचनाकार के साथ हर पृष्ठ पर भावों की नवीनता पाठकों में रूचि पैदा करती है । मुख
पृष्ठ से लेकर पुस्तक के मूल नाम " धूप आँगन की " के अनुरूप शशि पुरवार का यह संग्रह यथा नाम तथा गुण सूत्र को सार्थक करता है । दिल्ली पुस्तक सदन द्वारा सुन्दर मुद्रण से धूप आंगन की साहित्य यात्रा को मुकम्मल मंजिल मिली । संक्षिप्त रूप में यह पुस्तक मील का पत्थर साबितहोगी। पुस्तक का मूल्य ३९५ ( हार्ड बाउंड ) व पेपर बैक का 
मूल्य १९५
है।
बे
हद सुन्दर संग्रह हेतु शशि पुरवार को कोटि कोटि बधाई। उनकी कलम यूँ ही 
अनवरत चलती रहे व समाज को लाभान्वित करें।

विजयसिंह चौहान




Friday, February 15, 2019

धरती माँगे पूत से,

धरती माँगे पूत से, दुशमन का संहार 
इक इक कतरा खून का, देंगे उस पर वार 

कतरा कतरा बह रहा, उन आँखों से खून 
नफरत की इस आग में, बेबस हुआ सुकून 


दहशत के हर वार का, देंगे कड़ा जबाब 
नहीं सुनेंगे आज हम , छोडो चीनी,कबाब

शशि पुरवार


Wednesday, February 13, 2019


शहरों की यह जिंदगी, जैसे पेड़ बबूल
मुट्ठी भर सपने यहाँ, उड़ती केवल धूल
उड़ती केवल धूल, नींद से जगा अभागा
बुझे उदर की आग, कर्म ही बना सुहागा
कहती शशि यह सत्य, गूढ़ डगर दुपहरों की
कोमल में के ख्वाब, सख्त जिंदगी शहरों की



चाँदी की थाली सजी, फिर शाही पकवान
माँ बेबस लाचार थी, दंभ भरे इंसान
दंभ भरे इंसान, नयन ना गीले होते
स्वारथ का सामान, बोझ रिश्तों का ढोते
कहती शशि यह सत्य, शिथिल बगिया का माली
शब्द प्रेम के बोल, नहीं चाँदी की थाली

धरती भी तपने लगी, अंबर बरसी आग
आँखों को शीतल लगे, फूलों वाला बाग़
फूलों वाला बाग़, सुवासित तन मन होता
धूप में जला बदन, हरित खेमे में सोता
कहती शशि यह सत्य, प्रकृति पल पल मरती
मत काटो हरित वन, लगी तपने यह धरती

हम तुम बैठे साथ में, लेकिन पसरा मौन
सन्नाटे को चीर कर, गंध बिखेरे कौन
गंध बिखेरे कौन, अजब रिश्तों का मेला
मौन करे संवाद, अबोलापन  ही खेला
कहती शशि यह सत्य, हृदय रहता है गुमसुम
छेड़ो कोई तान, साथ जब बैठें हम तुम


दिल में इक तूफ़ान है, भीगे मन के कोर
पत्थर से टकरा गई, लहरें कुछ कमजोर
लहरें कुछ कमजोर, विलय सागर में होती
गहरे तल में झाँक, छिपे हैं कितने मोती
कहती शशि यह सत्य, तमाशे हैं महफ़िल में
बंद हृदय का द्वार,  दफ़न पीड़ा है दिल में

मन में जब लेने लगी, शंकाएँ आकार
सूली पर फिर चढ़ गया, इक दूजे का प्यार
इक दूजे का प्यार, फूल ना खिलने पाएँ
चुभते शूल हजार,  शब्द जहरी बन जाएँ
कहती शशि यह सत्य, दरार पड़ी दरपन में
प्रेम बहुत अनमोल, भरे जो खुशियाँ मन में

 शशि पुरवार









Saturday, February 2, 2019

धूप आँगन की

मस्कार मित्रों आपसे साझा करते हुए बेहद प्रसन्नता  हो रही है कि--

   शशि पुरवार का दूसरा संग्रह  * " धूप आँगन की " ** भी बाजार में उपलब्ध है।

धूप आँगन की " जैसे आँगन में चिंहुकती हुई नन्ही परी की अठखेलियां, कभी
ठुमकना तो कभी रूठ जाना,कभी नेह की गुनगुनी धूप में पिघलता हुआ मन है ,
कभी यथार्थ की कठोर धरातल पर पत्थरों सा धूप में सुलगता हुआ तन है . कभी
बंद पृष्ठों में महकते हुए मृदु एहसास हैं  तो कहीं मृगतृष्णा की सुलगती
हुई रेतीली प्यास है। कहीं स्वयं  के वजूद की तलाशती हुई धूप है तो  कहीं
विसंगतियों में सुलगती हुई  धूप की आग है ।  हमारे परिवेश में बिखरे हुए
संवेदना के कण है - धूप    का आँगन

क्यों न अपने स्नेह की नर्म धूप से सहला दें।  आओ इक सुन्दर सा आकाश बना ले।
हमारे प्रयास आपके दिलों ने इक छोटा सी जगह बना ले।  आंगन की धूप को आप
अपने हृदय से लगा ले. हम आपके प्यार को अपना आकाश बना ले। आंगन की धूप से
सुप्त कणों को जगा दे।

शशि पुरवार

Friday, January 11, 2019









तन्हाई मुझको रास आने लगी है

याद की खशबू भी गहराने लगी है
पास होकर भी दूर हैं वह मुझसे
परछाई मुझे गले लगाने लगी है

शशि पुरवार

Monday, January 7, 2019

फगुनाहट ले आना


नए साल तुम कलरव वाली 
इतराहट ले आना 
आँगन के हर रिश्तें में 
गरमाहट ले आना


दुर्दिन वाली काली छाया फिर 
घिरने ना पायें 
सोना उपजे खलियानों में 
खुशहाली लहरायें

सबकी किस्मत हो गुड़ धानी
 
नरमाहट ले आना 
नए साल तुम कलरव वाली 
इतराहट ले आना


हर मौसम में फूल खिलें पर
बंजर ना हो धरती 
फुटपाथों पर रहने वाले 
आशा कभी न मरती

धूप जलाए, नर्म छुअन सी 
फगुनाहट ले आना 
नए साल तुम कलरव वाली 
इतराहट ले आना

ठोंगी कपटी लोगों के तुम 
टेढ़े ढंग बदलना 
बूढ़े घर की दीवारों के 
फीके रंग बदलना

जर्जर होती राजनीति की 
कुछ आहट ले आना 
नए साल तुम कलरव वाली 
इतराहट ले आना

भाग रहे सपनों के पीछे 
बेबस होती रातें 
घर के हर कोने में रखना 
नेह भरी सौगातें

धुंध समय की गहराए पर 
मुस्काहट ले आना 
नए साल तुम कलरव वाली 
इतराहट ले आना

आँगन के हर रिश्तों में 
गरमाहट ले आना 

शशि पुरवार 

Thursday, December 20, 2018

हम आंगन के फूल

आंगन के हर फूल से,  करो न इतना मोह 
जीवन पथ में एक दिन, सहना पड़े बिछोह 
सहना पड़े बिछोह, रीत है जग की न्यारी 
होती हमसे दूर, वही जो दिल को प्यारी 
कहती शशि यह सत्य, रंग बदलें उपवन के 
फूल हुए सिरमौर, ना महकते आंगन के 

चाहे कितनी दूर हो, फिर भी दिल के पास 
राखी पर रहती सदा, भ्रात मिलन की आस 
भ्रात मिलन की आस, डोर रेशम की जोड़े 
मन में है विश्वास , द्वार से मुख ना मोड़े 
कहती शशि यह सत्य, मथो तुम मन की गाहे 
इक आँगन के फूल, मिलन हो जब हम चाहें 

शशि पुरवार




समीक्षा -- है न -

  शशि पुरवार  Shashipurwar@gmail.com समीक्षा है न - मुकेश कुमार सिन्हा  है ना “ मुकेश कुमार सिन्हा का काव्य संग्रह  जिसमें प्रेम के विविध रं...

https://sapne-shashi.blogspot.com/

linkwith

http://sapne-shashi.blogspot.com