shashi purwar writer

Friday, September 13, 2013

अक्स लगा पराया




मेरा  ही अंश
मुझसे ही  कहता
मै हूँ तोरी ही छाया
जीवन भर
मै तो प्रीत निभाऊँ
क्षणभंगुर माया।


जीवन संध्या
सिमटे हुए पल
फिर तन्हा डगर
ठहर गयी
यूँ दो पल नजर
अक्स लगा पराया


शांत जल में
जो मारा है कंकर
छिन्न भिन्न लहरें
मचल गयी
पाषाण बना हुआ
मेरा ही प्रतिबिम्ब .


चंचल रवि
यूँ मुस्काता आया
पसर गयी धूप
कण कण में
विस्मित है प्रकृति
चहुँ और है छाया।


चांदनी रात
छुपती परछाईयाँ
खोल रही है पन्ने
 महकी यादें
दिल की घाटियों मे
घूमता बचपन।

 ६
जन्म से  नाता
मिली परछाईयाँ
मेरे ही अस्तित्व की
खुली तस्वीर
उजागर करती
सुख दुःख की छाँव।


नन्हे   कदम
धीरे से बढ़ चले
चुपके से पहने
पिता के जूते
पहचाना सफ़र
बने उनकी छाया। 

---- शशि  पुरवार





6 comments:

  1. स्मृतियों की राह में ले जाते शब्द, सुन्दर रचना।

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  2. सुंदर स्मृतियों का सृजन ! बेहतरीन रचना, !!

    RECENT POST : बिखरे स्वर.

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  3. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
    आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टी का लिंक कल शनिवार (14-09-2013) को "यशोदा मैया है मेरी हिँदी" (चर्चा मंचः अंक-1368)... पर भी होगा!
    हिन्दी दिवस की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...!
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  4. यादों के झुरमुट से लिखीं भावपूर्ण रचनाएं ...

    ReplyDelete

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