हाइकु – गागर में सागर के समान
हाइकु क्या है
हाइकु मूलतः जापान की लोकप्रिय विधा है. जापानी संतो द्वारा लिखी जाने वाली लोकप्रिय काव्य विधा, जिसे जापानी संत बाशो द्वारा विश्व में प्रतिष्ठित किया गया था. हाइकु विश्व की सबसे छोटी लघु कविता कही जाती है. एक ऐसा लघु पुष्प जिसकी महक, अन्तःस वातावरण को सुगंधित करती है. हाइकु अपने आप में सम्पूर्ण है. हाइकु कविता ५ + ७ + ५ = १७ वर्ण के ढाँचे में लिखी जाती है. कवि बाशो के कथनानुसार – “जिसने ५ हाइकु लिखें है वह कवि, जिसने १० हाइकु लिखें है वह महाकवि है”
५ -७-५ यह तीन पक्तियों में लम्बी कविता का निचोड़ होता है, सहजता, सरलता, ग्राहिता, संस्कार हाइकु के सौन्दर्य, उसकी आत्मा है. सपाट बयानी हाइकु में हरगिज मान्य नहीं है. गद्य की एक पंक्ति को तीन पंक्तियों में तोड़ कर लिख देने से हाइकु कविता नहीं बनती है, हाइकु देखने में जितने सरल प्रतीत होतें है वास्तव में उतने सरल नहीं है, किन्तु मुश्किल भी नहीं है, हाइकु का सृजन एक काव्य साधना है . सच्चा हाइकुकार वह है जो हाइकु के माध्यम से गहन कथ्य को बिम्ब और नवीनता द्वारा सफलता पूर्वक संप्रेषित करता है. काव्य साधना के बिना हाइकु लिखना असंभव है. हाइकु जितने बार भी पढ़े जायें विचारों की गहन परतों को खोलते है, हाइकु में फूलों सी सुगंध व नाजुकता होती है. हाइकु का मूल आधार प्रकृति है, इसीलिए कुछ विद्वान इसे प्रकृति काव्य भी कहतें हैं. साहित्य ग्रहण करने के गुणधर्म के कारण स्वयं को परिवेश ढाल लेता है. साहित्य काव्य में समयानुसार परिवर्तन होते रहतें है. हाइकु ने भी यह बदलाव देखे गयें है. अब हाइकु सिर्फ प्रकृति परक नहीं है अपितु सामाजिक विसंगतियां, संवेदनाओंके मध्य सेतु बनकर जुड़ें हैं.
हाइकु विश्व की सभी समृद्ध भाषा में रचे जाने लगे हैं . भारत में सर्वप्रथम गुरु रविन्द्रनाथ टैगोर ने १९१६ में अपनी जापानी यात्रा के बाद लिखे “ जापानी जात्री” नमक सफरनामे में बंगाली भाषा में हाइकु की जानकारी प्रदान की थी . भारत में हाइकु काव्य को हिंदी साहित्य ने बाहें फैला कर स्वीकार किया है.आज हाइकु विधा बहुत समृद्ध हो चुकी है, हिंदी के पांचवे दशक में हाइकु रचना के कुछ सन्दर्भ मौजूद हैं किन्तु अज्ञेय द्वारा रचित “ अरी ओ करुणा प्रभाकर “ ( प्र. प्र. १९५९ को विधिवत मान्यता मिली है जिसमे जापानी हाइकु के कुछ भावानुवाद / छायावाद एवं कुछ लघु कविताएँ शामिल है.
हिंदी हाइकु का महत्वपूर्ण अध्याय डा. सत्यभूषण वर्मा के हाइकु अभियान के बाद प्रारंभ हुआ है. डा. वर्मा जे. एन यू . दिल्ली में जापानी भाषा के विभागाध्यक्ष थे. जापानी हाइकु और हिंदी कविता विषय पर शोध के साथ साथ आपने १९७८ में “ भारतीय हाइकु क्लब की स्थापना की और अक अंतर्देशीय लघु “ हाइकु पत्र “ का प्रकाशन भी किया . आज हाइकु विधा बेहद लोकप्रिय हो चुकी है.
शिल्प की दृष्टी से हाइकु सिर्फ ५- ७ – ५ खांचे में लिखे हुए सिर्फ वर्ण नहीं है. कथ्य में कसावट, गहनता, अर्थ, बिम्ब सम्पूर्णता स्पष्ट होना आवश्यक है. वस्तु और शिल्प द्वारा हाइकु की गरिमा और शालीनता बनाये रखना हाइकुकार का प्रथम धर्म है. हाइकु के नाम पर फूहड़ता प्रस्तुत नहीं होनी चाहिए.
हाइकु तीनों पंक्तियाँ पृथक होकर भी सम्पूर्ण कविता का सार संप्रेषित करती हैं. हाइकु काव्य की सामयिकता स्वयं सिद्ध है. अब हाइकु हिंदी में स्थायी रूप से स्थापित होने की ओर अग्रसर है, कई हाइकुकारों के हाइकु काव्य संकलन सराहे गए हैं, हाइकु अतुकांत और तुकांत दोनों की प्रकार से लिखे जा रहें हैं. किन्तु कथ्य में कसावट और काव्य की गरिमा भी उतनी ही महत्वपूर्ण हैं. कई हाइकुकार कभी पहली २ पंक्ति या अंतिम दो पंक्ति यह तो कभी पहली या अंतिम पंक्ति में तुकांत हाइकु का निर्माण करतें है.हाइकु गागर में सागर के समान है.हाइकु प्रकृति की अंतर अनुभूतियों को संप्रेषित करने में सक्षम है. काव्यात्मकता और लयात्मकता हाइकु के श्रृंगार हैं.
हाइकु में प्रकृति के सौन्दर्य के विविध रंग हाइकुकारों द्वारा उकेरे गयें है, कहीं पलाश दूल्हा बना है, कहीं धूप कापी जांचती है, कहीं घाटियाँ हँसी है, हाइकु के नन्हे नन्हे चमकीले तारें मन के अम्बर पर सदैव टिमटिमाते रहतें हैं . प्रकृति की गोद में इतनी सुन्दरता है कि अपलक उसके सौन्दर्य को निराहते रहो, लिखते रहो, फिर भी अंत नहीं होगा. कवियों द्वारा प्रकृति के सौदर्य अनुपम छटा उनकी कल्पना शक्ति के द्वारा ही संभव है.
प्रकृति के अलग अलग रंगों की कुछ बानगी देखिये ---
नभ गुंजाती/ नीड़ – गिरे शिशु पे /मंडराती माँ --- डा. भगवती शरण अग्रवाल
रजनी गंधा / झाड़ में समेटे हैं / हजारों तारे – डा. सुधा गुप्ता
घाटियाँ हँसी / अल्हड किशोरी – सी / चुनर रंगी – रामेश्वर काम्बोज “ हिमांशु “
सौम्य सजीले / दुल्हे का रूप धरे / आये पलाश – शशि पुरवार
ले अंगडाई / बीजों से निकलते / नवपत्रक – शशि पुरवार
धूप जांचती / र्रुतुओं की शाला में / जाड़े की काँपी – पूर्णिमा वर्मन
सूर्य के पांव / चूमकर सो गए / गॉंव के गॉंव – जगदीश व्योम
हाइकु में प्रकृति के रंग के अलावा हाइकुकारों ने फूल- पत्ते , पेड़ – पौधे , पशु –पक्षी ,भ्रमर, अम्बर – पृथ्वी, मानवीय संवेदना, प्रेम , पीर, रिश्ते – नाते, राग – रंग, सपर्श और भी न जाने कितने विषयों पर हाइकु का जन्म हुआ है. वेदना- वियोग की पीड़ा के भी प्रकार होतें हैं, कभी पीड़ा असहनीय होती है तो कभी उस पीड़ा में पुनर्मिलन की आशा भी सुकून प्रदान करती है. प्रेम करने वाले कई अनुभूतियों से दो चार होतें हैं. विचारों के मंथन के बाद ही हाइकु अमृत बनकर बाहर निकलता है. वियोग पुरुष हो या पकृति दोनों के लिए पीड़ादायक होता है. इस सन्दर्भ में कुछ हाइकु के कुछ उदारहण प्रासंगिक होंगे --
पीर जो जन्मी / बबूल सी चुभती / स्वयं की साँसे – शशि पुरवार
सुबक पड़ी / कैसी थो वो निष्ठुर / विदा की घडी – भावना कुँवर
ठहरी नहीं / बरसती रही थी / आँखें रेत में – डा. मिथिलेश दीक्षित
आज भी ताजा / यौवन के फुलों में / यादों की गंध – डा. भगवतशरण अग्रवाल
ठूंठ बनकर/ सन्नाटे भी कहतें/ पास न आओ – शशि पुरवार
इक्कीसवी सदी के अंत में हाइकुकारों की ऐसी जमात भी आई थी जिसने बाशो के कथन “कोई भी विषय हाइकु के लिए उपयुक्त है “ की गंभीरता को न समझकर .. मनमाने ढंग अर्थ निकालकर हाइकु लिखने आरंभ कर दिए थे , अर्थ का अनर्थ हो रहा था, हाइकु काव्य सौन्दर्य से दूर जाकर जनचेतना के नाम पर गध्य से जुड़ने लगा था. किन्तु इस दशक में हाइकुकारों द्वारा साधना करके उम्दा हाइकु रचे गयें हैं.
नए नए बिम्ब, गेयता, तुकांतता गहन कथ्य के साथ उम्दा हाइकु कहीं कहीं आशा की मशाल भी बना है, कठिनाई में भी आशा की किरण फूटती है हाइकुकारों का नया दल भविष्य के लिए आश्वस्त करता है . वर्तमान में अनेक पत्र पत्रिकाएं हाइकु के महत्व को स्वीकार कर चुकीं है. कई पत्रिकाएं हाइकु विशेषांक निकाल चुकी है, कई पत्रिकाएं हाइकु को नियमित स्थान भी प्रदान करती हैं . हिंदी चेतना ( अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका ) ,वीणा ( इंदौर, म.प्र.), उदंती ( रायपुर, छ.ग.), अविराम साहित्यिकी( ट्रे.
कड़ी धूप में / मशाल लिए खड़ा / तनहा पलाषा.
सन्दर्भ - सरस्वती सुमन पत्रिका - अन्य पत्रिकाएं