Tuesday, January 13, 2015
Thursday, January 1, 2015
उम्मीदें हैं कुछ खास
नववर्ष के हाइकु
१
नव उल्लास
नव उल्लास
उम्मींदों का सूरज
मीठी सुवास
२
धूप सोनल
गुजरा हुआ कल
स्वर्णिम पल
३
नवउल्लास
खिड़की से झाँकता
वेद प्रकाश
४
स्वर्ण किरण
रोम रोम निखरे
धरा दुल्हन
५
गुजरा वक़्त
जीवन की परीक्षा
ना लागे सख्त
-- शशि पुरवार
नवगीत -
नये वर्ष से है ,हम सबको
उम्मीदें कुछ खास
आँगन के बूढ़े बरगद की
झुकी हुई डाली
मौसम घर का बदल गया, फिर
विवश हुआ माली
ठिठुर रहे है सर्द हवा में
भीगे से अहसास
दरक गये दरवाजे घर के
आँधी थी आयी
तिनका तिनका उजड़ गया फिर
बेसुध है माई
जतन कर रही बूढी साँसे
आये कोई पास
चूँ चूँ करती नन्हीं चिड़िया
समझ नहीं पाये
दुनियाँ उसकी बदल गयी है
कौन उसे बताये
ऊँची ऊँची अटारियों पे
सूनेपन का वास
नए वर्ष का देख आगवन
पंछी गाते गीत
बागों की कलियाँ भी झूमे
भ्रमर का संगीत
नयी ताजगी ,नयी उमंगें
मन में है उल्लास
नये वर्ष से है हम सबको
उम्मीदें कुछ खास।
शशि पुरवार
समस्त ब्लॉगर परिवार और स्नेहिल मित्रों को सपरिवार नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ
अनुभूति पत्रिका में प्रकाशित गीत -
Friday, December 19, 2014
चीखती भोर
१
चीखती भोर
दर्दनाक मंजर
भीगे हैं कोर
२
तांडव कृत्य
मरती संवेदना
बर्बर नृत्य
३
आतंकी मार
छिन गया जीवन
नरसंहार
४
मासूम साँसें
भयावह मंजर
बिछती लाशें
५
मसला गया
निरीह बालपन
व्याकुल मन
६
फूटी रुलाई
पथराई सी आँखें
दरकी धरा
१६ - १७ दिसम्बर कभी ना भूलने वाला दिन है , पहले निर्भया फिर बच्चों की चीखें --- क्या मानवीय संवेदनाएं मरती जा रहीं है। आतंक का यह कोहरा कब छटेगा।दरकी धरा
मौन श्रद्धांजलि
Tuesday, December 16, 2014
सम्मान
भाई,
सम्मान मिल रहा है, तो क्या अब तक लोग आपका अपमान कर रहें थे, लो जी लो यह
तो वही बात हो गयी, महाशय जी ने पैसे देकर सम्मान लिया है और बीबी गरमा
गरम हुई जा रहीं है .
ये २ रूपए के कागज के लिए इतना पैसा खर्च किया, कुछ बिटवा को दे देते, हमें कछु दिला देते। …… पर जे तो होगा नहीं। …
-- शशि पुरवार
Friday, December 12, 2014
"माँ सहेली खो गई है "
मगन है सब जिंदगी में
बस सहारा हर लिया है।
गॉंव में रहती अकेली
गॉंव में रहती अकेली
धुंध सी छायी हुई है
नेह, रिशतों के दरमियाँ
गर्म साँसें ढूंढती है
यह हिम बनी खामोशियाँदिन भयावह बन डराते
शब करेली हो गई है
टूटकर बिखरी नहीं वो
इक पहेली हो गई है
----- शशि पुरवार इक पहेली हो गई है
Monday, November 24, 2014
रूखे रूखे आखर
हस्ताक्षर
की
कही
कहानी
चुपके से गलियारों ने
मिर्च मसाला, बनती खबरे
छपी सुबह अखबारों में.
चुपके से गलियारों ने
मिर्च मसाला, बनती खबरे
छपी सुबह अखबारों में.
राजमहल
में बसी रौशनी
भारी भरकम खर्चा है
महँगाई ने बाँह मरोड़ी
झोपड़ियों की चर्चा है
भारी भरकम खर्चा है
महँगाई ने बाँह मरोड़ी
झोपड़ियों की चर्चा है
रक्षक भक्षक
बन
बैठे
है
खुले आम दरबारों में.
खुले आम दरबारों में.
अपनेपन
की
नदियाँ
सूखी,
सूखा खून शिराओं में
रूखे रूखे आखर झरते
कंकर फँसा निगाहों में
बनावटी है मीठी वाणी
उदासीन व्यवहारों में.
सूखा खून शिराओं में
रूखे रूखे आखर झरते
कंकर फँसा निगाहों में
बनावटी है मीठी वाणी
उदासीन व्यवहारों में.
किस
पतंग
की
डोर कटी
है
किसने पेंच लडाये है
दांव पेंच के बनते जाले
सभ्यता पर घिर आये है
किसने पेंच लडाये है
दांव पेंच के बनते जाले
सभ्यता पर घिर आये है
आँखे
गड़ी
हुई
खिड़की
पर
होंठ नये आकारों. में.
होंठ नये आकारों. में.
------ शशि पुरवार
Monday, November 17, 2014
नन्ही परी
दादा - दादी ,नाना -नानी , भूले दुख के सब अंधियारे
बचपन के संग डूब गए , फैले हैं सुख के उजियारे
बुआ -फूफा, सौम्या -अवनि ,बोलें हम भी है अभिलाषी
नटखट गुड़ियाँ ने छेड़ी हैं , बजी सबके मन झंकार
वाट्स आप बाबा के जरिये , सभी मिलकर बाँटें प्यार
दादी पम्मो , घर के सारे, नाते - रिश्ते, जीता है बचपन
किलकारी से गूँज रहा है देखो, अब अपना घर - आँगन
-- शशि पुरवार Monday, November 10, 2014
कच्चे मकान
१
सघन वन
व्योम तले अँधेरा
क्षीण किरण।
२
कच्चे मकान
खुशहाल जीवन
गॉंव, पोखर
३
सुख की ठॉंव
हरियाली जीवन
म्हारा गॉंव
४
चूल्हा औ चौका
घर घर से उड़ती
सौंधी खुशबु
५
वो पनघट
पनिहारिन बैठी
यमुना तट
६
खप्पर छत
गोबर से लीपती
अपना मठ
७
ठहर गया
आदिवासी जीवन
टूटे किनारे .
८
बिखरे पत्ते
तूफानों से लड़ते
जर्जर तन
९
दीप्त किरण
अमावस की रात
लौ से हारी
१०
अल्लहड़ पन
डुबकियाँ लगाती
कागजी नाव
११
शीतल छाँव
आँगन का बरगद
पापा का गाँव
शीतल छाँव
आँगन का बरगद
पापा का गाँव
१ २
अकेलापन
तपता रेगिस्तान
व्याकुल मन
१३
गर्म हवाएँ
जलबिन तड़पें
मन, मछली
Monday, November 3, 2014
साक्षात्कार के हमाम में ………… -- अट्टहास पत्रिका में
आदमी खुद पर हँसे। खुलकर ठहाके लगाये। अपनी हरकतों (लेखन) पर चुटकी कसे। यह सुनने में भले ही मुस्कुराने का कार्य लगता हो लेकिन अट्ठहास हम जैसे युवा रचनाकार को भी अपने कटघरे में खड़ा कर सकता है। जब यह कहा गया तो मुझे अजीब लगा। लेकिन कलम उठाने के बाद अपने अंदर के समीक्षक बनने का यह सुनहरा मौका मैंने छोड़ना उचित नहीं समझा। लेखन में सीधे व्यंग्य को दायरे समेट रखा है , इसमें दो राय हो सकती। लीजिये हाजिर है शशि पुरवार के साथ उनके जबाब और पत्रिका के एडिटर से हुई वार्ता ( साक्षात्कार )--- अट्ठहास पत्रिका में प्रकाशित साक्षात्कार आप सभी के लिए यहाँ भी ----
प्रश्न १
आप व्यंग्य के बारे क्या कहना चाहेंगी । व्यंग्य अच्छा है या बुरा ?
उत्तर --
सर्वप्रथम मै यही कहूँगी कि कोई भी चीज अच्छी या बुरी नहीं होती है , उसे अच्छा या बुरा बनाने वाले हम और आप ही होते है, या तो फिर बुरी लोगों की नजरें होतीं है। )
व्यंग्य संस्कृत भाषा का शब्द है जो ‘अज्ज’ धातु में ‘वि’ उपसर्ग और ‘ण्यत्’ प्रत्यय के लगाने से बनता है। व्यंजना शक्ति के सन्दर्भ में व्यंगार्थ के रूप में इसका प्रयोग होता है। ।
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने व्यंग्य की परिभाषा देते हुए कहा र्है “व्यंग्य कथन की एक ऐसी शैली है जहाँ बोलने वाला अधरोष्ठों में मुस्करा रहा हो और सुनने वाला तिलमिला उठे।” यानी व्यंग्य तीखा व तेज - तर्रार कथन होता है जो हमेशा सोद्देश्य होता है और जिसका प्रभाव तिलमिला देने वाला होता है।
व्यंग्य का प्रयोग आदि काल से होता आ रहा है, कबीर ने भी धार्मिक आडम्बरों व मूर्ति पूजा का खंडन व्यंगात्मक शैली में ही किया था , मुसलमान हिन्दू दोनों समुदाय के लिए उन्होंने जो लिखा वह करारा व्यंग्य था
प्रश्न ३ --
सोशल मिडिया में व्यंग्य का क्या स्थान है ? महिला व्यंग्यकारों की इसमें क्या भागीदारी है ?
उ- सोशल मिडिया सदैव समाज पर हावी रहा है. बदलाव के बाद जब व्यंग्य, हास्य नाटक , हास्य कवि सम्मलेन प्रस्तुत हुए, तब लोगों ने खुले मन उसकी वाह वाही की, जल्दी ही कविसम्मेलन, हास्य नाटकों ने लोगों के दिलों में अपनी सुरक्षित जगह बना ली थी, धीरे धीरे व्यंग्य का स्वरुप बदला और हास्य को शामिल करके व्यंग्य विधा का पक्ष बहुत मजबूत हो गया है। महत्वपूर्ण कथ्य हल्के -फुल्के अंदाज में प्रस्तुत होने लगे और पाठक - श्रोता वर्ग पर अपनी गहरी छाप छोड़ने लगे। किन्तु वही भेड़चाल यहाँ भी शुरू हो गयी और यही पतन का कारण भी बनी है। टी आर पी बढ़ाने के चक्कर में, हास्य व्यंग्य के नाम पर भोंडापन दिखाया जाने लगा. सस्ती लोकप्रियता की होड़ में सब औंधे मुँह गिरने लगे , एक समय ऐसा भी आया जब परिवार के साथ बैठकर यह सब देखना शर्मनाक हो गया।
महिलाएं हर क्षेत्र में कार्य कर रही है तो लाजमी है, वह सफल व्यंग्यकार के रूप में भी सक्रीय है और उनकी भागीदारी व्यंग्य क्षेत्र में भी है. मिडिया में कई हास्य कलाकारा है, जो अपने अच्छे व्यक्तिव और कला के कारण अस्तिव में आई है और उन्होंने सम्मानजनक स्थिति में कार्य किया है।
प्रश्न ४ -- आज हास्य व्यंग्य की मौजूदा स्थिति क्या है ? क्या साहित्य में भी व्यंग्य प्रचलित है
उ- जी हाँ, आज हास्य व्यंग्य को कथा जगत में भी खासा पसंद किया जाता है और खासा प्रचलित है। साहित्यजगत ने सदैव परिवर्तन को स्वीकारा है, साहित्य गतिशील है, वह सदैव वर्तमान के परिवेश को व्यक्त करता है। हास्य का समावेश गीत, गजल , व्यंग्य , कविता , लगभग सभी विधाओं में है . जन - मानस तक अपनी बात को प्रभावशाली ढंग से पहुँचाना कोई गलत बात नहीं है , बशर्ते उसमे भौंड़ापन ना हो।
उ- जी हाँ, आज हास्य व्यंग्य को कथा जगत में भी खासा पसंद किया जाता है और खासा प्रचलित है। साहित्यजगत ने सदैव परिवर्तन को स्वीकारा है, साहित्य गतिशील है, वह सदैव वर्तमान के परिवेश को व्यक्त करता है। हास्य का समावेश गीत, गजल , व्यंग्य , कविता , लगभग सभी विधाओं में है . जन - मानस तक अपनी बात को प्रभावशाली ढंग से पहुँचाना कोई गलत बात नहीं है , बशर्ते उसमे भौंड़ापन ना हो।
प्रश्न ५ -- हास्य व्यंग्य का समाज से कोई सरोकार है ?
उ-
उ-
बिलकुल
, व्यंग्य का समाज से सरोकार है , भाई जो समाज में घटित हो रहा है , वही तो
दिखाया जायेगा। इसमें काल्पनिक वार्ता का तो कोई स्थान ही नहीं होता है। एक
साहित्यकार, रचनाकार , व्यंग्यकार समाज के दर्पण होते है , वह समाज को उसी
का आइना दिखाते है। बिना सामाजिक सरोकार के तो सभी विधाएँ पंगु हो जाएगी।
प्रश्न ६
क्या आप खुद को एक सफल व्यंग्यकार मानती है ? क्या आपको व्यंग्य लिखना पसंद है या व्यंग्य लिखना आपकी मज़बूरी है ?---
नहीं, मै स्वयं को एक रचनाकार मानती हूँ। मै व्यंग्यकार नहीं हूँ , ना ही मेरी मज़बूरी है कि मै मज़बूरी में कोई कार्य करूँ . हाँ ........ व्यंग्य को बेहद पसंद करती हूँ , मुझे भी व्यंग्य विधा पसंद है, जब पढ़ना या सुनना शुरू करो तो , अंत समय कब आता है ज्ञात ही नहीं होता और वातावरण हल्का फुल्का रुचिकर बना रहता है , हल्का फुल्का अंदाज अंत तक रचना में अपनी जिज्ञासा बनाये रखता है। मै सिर्फ व्यंग्य नहीं लिखती हूँ किन्तु मेरी रचनाओ में व्यंग्य का हल्का सा समावेश जरूर होता है , कथन को अपने मंतव्य तक पहुँचाने के लिए व्यंग्य एक सशक्त व सफल माध्यम है। यदि रचनाओं में सिर्फ सपाटबयानी , उबाऊपन होगा तो कहाँ आनंद आएगा , पाठक पन्ने फाड़ कर फ़ेंक देंगे और श्रोता टमाटर फेकेंगे।
पाठक तक अपना मंतव्य पहुचाने के लिए, रचना में थोड़ा सा तीखापन व्यंग्यात्मकता जरूर प्रस्तुत करती हूँ। यह समय की माँग है। पाठको को व्यंग्य पसंद आता है और थोड़ी सी चुटकी बजनी चाहिए भी चाहिए। मेरी एक रचना है जिसमे ; आज जिस परिवेश में परिवार टूटने लगे है,जहाँ बच्चों का माता -पिता के साथ अनुचित व्यवहार हो रहा है, उन्हें अपने माता पिता अधेड़ उम्र बोझ प्रतीत होते है.… वक़्त बहुत बदल गया , नारी की अस्मिता आज सरे बाजार लुटने लगी है आदि बातों को मेरी दो कुंडलियों में मैंने थोड़ी सी छींटाकशी की है।
क्या आप खुद को एक सफल व्यंग्यकार मानती है ? क्या आपको व्यंग्य लिखना पसंद है या व्यंग्य लिखना आपकी मज़बूरी है ?---
नहीं, मै स्वयं को एक रचनाकार मानती हूँ। मै व्यंग्यकार नहीं हूँ , ना ही मेरी मज़बूरी है कि मै मज़बूरी में कोई कार्य करूँ . हाँ ........ व्यंग्य को बेहद पसंद करती हूँ , मुझे भी व्यंग्य विधा पसंद है, जब पढ़ना या सुनना शुरू करो तो , अंत समय कब आता है ज्ञात ही नहीं होता और वातावरण हल्का फुल्का रुचिकर बना रहता है , हल्का फुल्का अंदाज अंत तक रचना में अपनी जिज्ञासा बनाये रखता है। मै सिर्फ व्यंग्य नहीं लिखती हूँ किन्तु मेरी रचनाओ में व्यंग्य का हल्का सा समावेश जरूर होता है , कथन को अपने मंतव्य तक पहुँचाने के लिए व्यंग्य एक सशक्त व सफल माध्यम है। यदि रचनाओं में सिर्फ सपाटबयानी , उबाऊपन होगा तो कहाँ आनंद आएगा , पाठक पन्ने फाड़ कर फ़ेंक देंगे और श्रोता टमाटर फेकेंगे।
पाठक तक अपना मंतव्य पहुचाने के लिए, रचना में थोड़ा सा तीखापन व्यंग्यात्मकता जरूर प्रस्तुत करती हूँ। यह समय की माँग है। पाठको को व्यंग्य पसंद आता है और थोड़ी सी चुटकी बजनी चाहिए भी चाहिए। मेरी एक रचना है जिसमे ; आज जिस परिवेश में परिवार टूटने लगे है,जहाँ बच्चों का माता -पिता के साथ अनुचित व्यवहार हो रहा है, उन्हें अपने माता पिता अधेड़ उम्र बोझ प्रतीत होते है.… वक़्त बहुत बदल गया , नारी की अस्मिता आज सरे बाजार लुटने लगी है आदि बातों को मेरी दो कुंडलियों में मैंने थोड़ी सी छींटाकशी की है।
सारे वैभव त्याग के, राम गए वनवास
सीता माता ने कहा, देव धर्म ही ख़ास
देव धर्म ही ख़ास, नहीं सीता सी नारी
मिला राम का साथ, सिया तो जनक दुलारी
कलयुग के तो राम, जनक को ठोकर मारे
होवे धन का मान, अधर्मी हो गए सारे.
व्यंग्य का उपयोग
सार्थक और सही दिशा में होगा तो कारगर सिद्ध होगा। आज जीवन को मुस्कान
और हास्य पलों की जरुरत है. यह अंदाज बेहद अलग हल्का फुल्का रोचक है।
आज के व्यस्त जीवन में जहाँ लोग हँसना भी भूल गए है, महत्वकांशा उनके जीवन पर हावी हो चुकी है. ऐसे समय में परिवार तो क्या, उनके पास खुद के लिए भी वक़्त नहीं होता है। मनोरंजन के नाम पर भी मारधाड़ , कुटिलता परोसी जा रही है। ऐसे में हास्य रस का स्वाद लेना लोग जैसे भूलते जा रहे है। पहले जो समय था ,जहाँ हंसी ठिठोली व्याप्त थी। हास्य कविसम्मेलन के आयोजन होते रहते थे , गंभीर वार्ता सहजता से होती थी, धीरे धीरे सभी धूमिल सी हो गयी है। आज ऐसे पलों में व्यंग रचनाएँ ठन्डे फाहे के समान है, जो कहीं न कहीं अधरों पर मुस्कान ले आती है। मेरा यह मानना है कि जीवन में ऐसा तड़का जरूर लगाईये ,जिससे जीवन आसान होते जाए। आज के समय में कम शब्दों में अपनी बात पाठक तक पंहुचा सकें यही प्रयास रहता है .
जंग दौलत की छिड़ी है रार क्या
आदमी की आज है दरकार क्या १
जालसाजी के घनेरे मेघ है
हो गया जीवन सभी बेकार क्या२
लुट रही है राह में हर नार क्यों
झुक रहा है शर्म से संसार क्या ३
प्रश्न --व्यंग्य लिखना कितना जरुरी है ,? मज़बूरी से ज्यादा। …………?
आज व्यंग्य के सरताज
व्यंग्य और हास्य के बीच पर्दा खींच रहे है , किन्तु यह दोनों ही एक दूसरे से
पूरक है, अब आप ही बताइये जहाँ गंभीर कार्य की रूप रेखा बन रही है,माहौल
में तनातनी है, वहां मधुर संगीत सुनाने से कुछ नहीं होने वाला ऐसी स्थिति
में व्यंगात्मक दो टूक बात ही कड़वी गोली का काम करती है और जहाँ शादी
होगी वहां शहनाई की जगह ताली बजाने से कुछ नहीं होने वाला है। यही
पर्दा हास्य और व्यंग को पूरक बनता है.
गीत -गजल,
संगीत सुनने के लिए एक मौसम के अनुरूप मौहोल की भी जरुरत होती है , व्यंग
उस केक्टस के समान है जो कभी भी किसी भी स्थति में जन्म लेकर सार्थक होता
है. किन्तु आज व्यंग से हास्य क्षीण होता जा रहा है , आजकल यह देखने में आ
रहा है कि भेड़चाल की तरह व्यंग तीखे - कड़वेपन के साथ प्रस्तुत होने लगा
है य़ह उचित नहीं है , व्यंग्य ऐसा होना चाहिए जिसमे हास्य का समावेश हो, पाठक
मुस्कुराते - गुदगुदाते हुए व्यंग्य का आनंद ले , बातों ही बातों में गहरी
गंभीर बात ऐसे सामने आए कि उसकी आने की आहट का पता नहीं चले , यह कार्य
हास्य व्यंगकार की कुशलता पर निर्भर होता है. हँसी - हँसी मे बात करते करते गंभीर मुद्दों की तरफ ध्यान
आकृष्ट करने की बड़ी चुनोती है। हास्य के जरिये व्यंगात्मक शैली में ऐसे सहज
भाव से चोट करना कि किसी को पता भी न चले यही हास्य व्यंग्य रचनाकार की
कसोटी है। हास्य व्यंग्य की सीढ़ी है। सीधासादा
व्यंग्य आलोचना बन कर रह जाता है। अच्छे व्यंग्य लेखक की पहचान यह है की
उसका लेखन पठनीय और रोचक हो। जिसे पढ़ कर लोग जीने का होसला कर सकें।
Monday, October 20, 2014
झूल रहे कंदील हवा में ......! नवगीत
हुई विलीन कहाँ, ना जाने
वह खुशियों की दुनिया
तारे गिनती बैठी है
आँगन में छोटी मुनियाँ
शायद कोई तारा टूटे
खुशियाँ घर मेंआएँ
-- शशि पुरवार
१९ /९ /१३
आप सभी ब्लोगर मित्रों सपरिवार दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ।
आप सभी ब्लोगर मित्रों सपरिवार दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ।
Thursday, October 9, 2014
यादों के झरोखों से ---
पटना का वह घर जहाँ बचपन ने उड़ान भरी थी,पटना बाद में तो कभी नहीं जा ही
सकी, जिनके साथ वो हसीन यादें जुड़ीं थी वो तो कब से तारे बन गए. आज ४०
वर्षों बाद भी बाहर से यह घर वैसा ही खड़ा है कुछ परिवर्तन नहीं दिखा। २०-
२५ कमरों का यह घर जहाँ चप्पे चप्पे पर बचपन की अनगिन यादें जुडी है।
चुपके से तहखाने में छुप जाना, आँगन में खेलना ...... गंगा जी जो घर से
ज्यादा दूर नहीं थी, नित गंगा जी में डुबकी लगाना ……… आज यादों की आंधी
ने अतीत के पन्नों को पलटना शुरू कर दिया है. सोचा आपसे साझा करूँ।
मन में ख्वाहिश थी उस जगह पर जाकर यादों को थोड़ा ताजा करूँ। आज अचानक दिवाली से पूर्व मेरे प्यारे कजिन भाई उसने ख़ास मेरे लिए पटना जाकर यह तस्वीर ली और मुझे भेजी। हम बचपन में साथ रहते थे बहुत सुखद अहसास था. आज यह घर तो हमारा नहीं रहा किन्तु यादें आज भी उतनी ही अपनी है. तब दिवाली बहुत ख़ास होती थी. रतजगा होता था.२ दिन तक मिठाईयां बाँटते थे अब यह सब यादें तस्वीरों में कैद होकर वक़्त में धूमिल हो गई है. कुछ पंक्तियाँ जहन में उभर रही है हालांकि यादों की आंधी के यह उड़ते तिनके भर है ----
मन में ख्वाहिश थी उस जगह पर जाकर यादों को थोड़ा ताजा करूँ। आज अचानक दिवाली से पूर्व मेरे प्यारे कजिन भाई उसने ख़ास मेरे लिए पटना जाकर यह तस्वीर ली और मुझे भेजी। हम बचपन में साथ रहते थे बहुत सुखद अहसास था. आज यह घर तो हमारा नहीं रहा किन्तु यादें आज भी उतनी ही अपनी है. तब दिवाली बहुत ख़ास होती थी. रतजगा होता था.२ दिन तक मिठाईयां बाँटते थे अब यह सब यादें तस्वीरों में कैद होकर वक़्त में धूमिल हो गई है. कुछ पंक्तियाँ जहन में उभर रही है हालांकि यादों की आंधी के यह उड़ते तिनके भर है ----
छज्जों की पुरानी लकड़ी अपने दुर्भाग्य की
कहानी कह रही है
उस पर उग आई लावारिस घास
जैसे कब्ज़ा किये हुए बैठी है
पपड़ाती इन दीवारों से जुड़ा है
एक सुखद अहसास
कभी झरोखें से झाँकना
बालकनी पर लटकना
घूम घूम कर हर कमरों में
अपने होने के अहसास को
दर्ज कराना,
कभी शैतानियाँ, कभी नादानियां
वक़्त पंख लगाकर उड़ गया और
यह मकान आज भी उन्ही यादों को समेटे
बस इसी इन्तजार में खड़ा है कि
कभी तो जंग लग गए ताले टूटेंगे
कोई तो आएगा इन दीवारों पर पुनः
रंगरोगन कराने, जर्जर हो रहे छज्जों को
गिरने से बचाकर उसके अस्तित्व को मिटने से बचाने .........!
-- शशि पुरवार
आज सोमवार से पहले ही पोस्ट लगा दी , मन चंचल आज नियम कायदे तोड़ देना चाहता है - मेरी यादों में आपको भी शामिल करने का मन हुआ।
कहानी कह रही है
उस पर उग आई लावारिस घास
जैसे कब्ज़ा किये हुए बैठी है
पपड़ाती इन दीवारों से जुड़ा है
एक सुखद अहसास
कभी झरोखें से झाँकना
बालकनी पर लटकना
घूम घूम कर हर कमरों में
अपने होने के अहसास को
दर्ज कराना,
कभी शैतानियाँ, कभी नादानियां
वक़्त पंख लगाकर उड़ गया और
यह मकान आज भी उन्ही यादों को समेटे
बस इसी इन्तजार में खड़ा है कि
कभी तो जंग लग गए ताले टूटेंगे
कोई तो आएगा इन दीवारों पर पुनः
रंगरोगन कराने, जर्जर हो रहे छज्जों को
गिरने से बचाकर उसके अस्तित्व को मिटने से बचाने .........!
-- शशि पुरवार
आज सोमवार से पहले ही पोस्ट लगा दी , मन चंचल आज नियम कायदे तोड़ देना चाहता है - मेरी यादों में आपको भी शामिल करने का मन हुआ।
Monday, October 6, 2014
क्षणिकाएँ - माहिया - माँ
१
माँ तुम हो
शक्तिस्वरूपा
माँ तुम हो
शक्तिस्वरूपा
मेरी भक्ति का संसार
माँ से ही प्रारंभ
यह जीवन
माँ ही उर्जा का संचार
२
नीड बनाने में कितनी
खो गयी थी माँ
उड़ गए
पंछी घोसलों से
पंछी घोसलों से
फिर तन्हा हो गयी है माँ
-- शशि पुरवार
-----------------------
१६ / ९ /१३
माहिया --
१
न्यौछावर करती है
माँ घर में खुशियाँ
खुद चुन चुन भरती है
२
बच्चों की शैतानी
माँ बचपन जीती
नयनों झरता पानी
३
ममता की माँ धारा
पावन ज्योति जले
मिट जाए अँधियारा
४
माँ जैसी बन जाऊँ
छाया हूँ उनकी
कद तक न पहुँच पाऊँ
५
चंदन सा मन महके
ममता का आँचल
खिलता, बचपन चहके।
६
माँ जैसी बन जाऊं
छाया हूँ उनकी
कद तक न पहुंच पाऊं
-- शशि पुरवार
२९ सितंबर २०१४
माँ जैसी बन जाऊं
छाया हूँ उनकी
कद तक न पहुंच पाऊं
माहिया --
१
न्यौछावर करती है
माँ घर में खुशियाँ
खुद चुन चुन भरती है
२
बच्चों की शैतानी
माँ बचपन जीती
नयनों झरता पानी
३
ममता की माँ धारा
पावन ज्योति जले
मिट जाए अँधियारा
४
माँ जैसी बन जाऊँ
छाया हूँ उनकी
कद तक न पहुँच पाऊँ
५
चंदन सा मन महके
ममता का आँचल
खिलता, बचपन चहके।
६
माँ जैसी बन जाऊं
छाया हूँ उनकी
कद तक न पहुंच पाऊं
-- शशि पुरवार
२९ सितंबर २०१४
माँ जैसी बन जाऊं
छाया हूँ उनकी
कद तक न पहुंच पाऊं
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