जयकृष्ण राय तुषार के नवगीत संग्रह "सदी को सुन रहा हूँ मैं" की सहज अभिव्यक्ति और सरल शैली विशेष रसानुभूति का आभास कराती है। पाठकों से संवाद स्थापित करते हुए गीत तरलता से दिलों में अपनी गेयता की पदचाप छोड़ते हैं। और जन जन की मुखर वाणी बन नए उपमान प्रस्तुत करते हैं। अनेक समसामयिक गीत जनमानस की समस्याओं को इंगित करते हुए अपना पाठक के साथ सीधा तादात्मय स्थापित करते हैं।
आज के बोझिल व्यस्त वातावरण में जब मधुर संवाद धूमिल होने लगे हैं। अपराधिक गतिविधियाँ बढ़ रही हैं, लोग दहशत के साये में जीने के लिए बाध्य हैं, संसार गरीबी और बेकारी से त्रस्त है और देश में फैली अराजकता और उथल पुथल हर किसी को व्याकुल कर रही है, गीतकार की संवेदना से निकली वाणी, संवेदना के धरातल पर पाठक के अंतःस्थल को छूती है। कवि का हृदय, संगम की पावन भूमि पर पड़ने वाले कदमों को शांति का सन्देश भी देता है और उनके सुख की कामना भी करता है। संकलन का प्रथम गीत ओ मेरे दिनमान एक ऐसा ही गीत है।
नए साल में नयी सुबह ले
ओ मेरे दिनमान निकलना
संगम पर आने से पहले
मेलजोल की धारा पढना
अनगढ़ पत्थर
छेनी लेकर
अकबर पन्त निराला गढ़ना
सबकी किस्मत रहे दही गुड
नहीं किसी की खोटी लाना
बस्ती गाँव
शहर के सारे
मजलूमों को रोटी लाना
फिर फिर राहू ग्रहण लायेगा
साथ लिए किरपान निकलना
गीतकार ने त्योहारों और ऋतुओं को अपनी कविता का प्रमुख विषय बनाया है। बसंती मौसम का केवल सौंदर्य-वर्णन ही नहीं किया है बल्कि उसके कल्याणकारी स्वरूप से त्रासदी झेल रहे लोगों के जीवन में सुख की याचना भी की है, गीत में मुखरित हुई इन मोहक पंक्तियों को देखिये-
अब की शाखों पर बसंत तुम
फूल नहीं रोटियाँ लाना
युगों युगों से प्यासे होठों को
अपना मकरंद पिलाना
साँझ ढले स्लम की देहरी पर
उम्मीदों के दिए जलाना
माँ का रिश्ता हर रिश्तों से पृथक और अनमोल रिश्ता होता है। माँ की ममता का आकलन नहीं किया जा सकता है। माँ खुद के अस्तिव को मिटाकर, बिना स्वार्थ, के सिर्फ स्नेह लुटाना जानती है। यहाँ माँ के पावन रूप को गीतकार ने गंगा नदी की उपमा प्रदान की है। गंगा नदी और माँ निस्वार्थ बच्चों को अपने अंक में समेट कर रखती है, फिर भी मानव जाति उसकी क़द्र नहीं कर सकी है। कवि के ह्रदय से निकली हुई इन सटीक पंक्तियोँ को देखें जिनमें, माँ के प्रति असीम प्रेम भाव उमड़ पड़ा है-
मेरी ही यादों में खोयी
अक्सर तुम पागल होती हो
माँ तुम गंगाजल होती हो
हम तो नहीं भागीरथ जैसे
कैसे सर से कर्ज उतारें
तुम तो खुद ही गंगाजल हो
तुमको हम किस जल से तारें
थककर बैठी हुई
उम्र की इस ढलान पर
कभी बहा करती थी
यह गंगा उफान पर
प्रेम एक शास्वत काव्यात्मक अनुभूति है, जिसे नकारा नहीं जा सकता है, इसमें कोमल अनुभूतियों के पनपने के लिए उपजाऊ भूमि आसानी से तैयार नहीं होती है। विरोधी, चुभन भरी हवा अपना रंग जमाने के लिए लालायित रहती है। इस संग्रह में प्रेम की लोकरंजक अनुभूति को नवगीत में सुन्दरता और कलात्मकता के साथ प्रस्तुत किया गया है। बेटी, प्रेयसी, पत्नी रोजमर्रा के कार्यो में उलझी नारी के विविध रूपों, उनकी पीड़ा, समर्पण, सौन्दर्य का गीतकार ने कलात्मक वर्णन किया है। प्रेम के ये बसंती रंग, जीवन की परंपरा को आलोकित कर उसे जीवन के धरातल से जोड़तें हैं। भिन्न भिन्न भावों की पृथक पृथक अभिव्यति की बानगी देखें जो नयी ताजगी का अहसास कराते हुए सीधे दिल में उतरती है।
साँझ चूल्हे के धुएँ में
लग रहा चेहरा तुम्हारा
ज्यों घिरा हो बादलों में
एक टुकड़ा चाँद प्यारा
रोटियों के शिल्प में है
हीर राँझा की कहानी
शाम हो या दोपहर हो
हँसी, पीढ़ा और पानी
याद रहता है तुम्हें सब
कि कहाँ किसने पुकारा
रंग- गुलालों वाला मौसम
कोई मेरा गाल छू गया
खुली चोंच से जैसे कोई
पंछी मीठा ताल छू गया
जाने क्या हो गया चैत में
लगी देह परछाई बोने
पीले हाथ लजाती आँखें
भरे दही-गुड, पत्तल-दोने
सागर खोया था लहरों में
एक अपरिचित पाल छू गया
प्रेम गीत है, चिडिया है और सुगंध भी है, जयशंकर तुषार के नवगीतों में प्रेम के ये सहज बिम्बात्मक स्वर प्रकृति को अपने में समेटे हुए पाठक के मन को गुदगुदाते हैं।
अक्षरों में खिले फूलों सी
रोज साँसों में महकती है
ख्वाब में आकर मुंडेरों पर
एक चिड़िया सी चहकती है
फिर गुलाबी धूप तीखे
मोड़ पर मिलने लगी है
यह जरा सी बात पूरे
शहर को खलने लगी है
रेशमी जुड़े बिखरकर
गाल पर सोने लगे हैं
गुनगुने जल एडियों को
रगड़कर धोने लगे हैं
बिना माचिस के प्रणय की
आग फिर जलने लगी है
सुबह उठकर हलद चन्दन
देह पर मलने लगी है
तुषार जी के गीतों में राजनितिक और सामाजिक विसंगतियों पर प्रहार करते हुए यथार्थ में पाँव भी जले हैं। इन गीतों की अभिव्यक्ति, लय, गेयता और शिल्प कथ्य के अनुरूप परिवर्तित होता है। तुषार जी के लंबे गीत (जो कम से कम ४ अंतरे के हैं) भी अपनी बात ठीक से प्रेषित करते दिखाई देते हैं। वे लम्बे होते हुए भी नीरस और उबाऊ होने से बचे रहे हैं। राजनितिक और सामाजिक विसंगतियों के कठिन समय में गीतकार की कलम पलायनवादी, निराशावादी बनकर नहीं चली है अपितु विसंगतियों की परतें खोल रहीं है
१
चुप्पी ओढ़ परिंदे सोये
सारा जंगल राख हुआ
वन-राजों का जुर्म हमेशा ही
जंगल में माफ़ हुआ
२
तानाशाही झुक जाती जब
जनता आगे आती है
हथकड़ियों जेलों से कोई
क्रांति कहाँ रुक जाती है
कहाँ अहिंसा से लड़ने की
हिम्मत है तलवारों में
३
रातें होतीं कोसोवी सी
दिन लगते हैं वियतनाम से
सर लगता है अब प्रणाम से
हवा बह रही अंगारे सी
दैत्य सरीखे हँसते टापू
नंगी पीठ गठरियाँ उन पर
नोनिहाल हो रहे कबाड़ी
आप चलाते गाँव-गाँव में
उम्मीदों की आँगनबाड़ी
४
सोई है यह राज्यव्यवस्था
मुँह पर पानी डालो
खून हमारा बर्फ हो रहा
कोई इसे उबालो
५
कालिख पुते हुए हाथों में
दिए दिवाली के
कापालिक की कैद सभी
मंतर खुशहाली के
फूलों की घाटी में मौसम की
हथेलियाँ रँगी खून से
इस संग्रह के गीतो की भाषा मुहावरेदार हिंदी है। बोलचाल में प्रयुक्त होने वाले शब्दों के अतिरिक्त आंचलिक शब्दों का प्रयोग पाठक को उसकी माटी से जोड़ता है। दैनिक जीवन के प्रचलित कई शब्दों से गीत पाठक के आसपास ही घूमते मालूम होते हैं। मकई पान, रोटी, किरपान, बौर आम, सरसों, गेहूँ, रथ, पल्लू, केसर, परदे, संवस्तर, मादल ,गंगाजल, लॉन कुर्सी, पुलोवर, शावर, डाकिया, रिसालों, चूड़ियाँ, मजदूर, गाझ, चिंगारी, तितली, हरियाली, गुलदस्ता, स्लम, दिया, तिथियाँ, गिरगिट, तालमखाना, पोखर, जूडे, चाय, दर्पण, अजनबी, मेंहंदी, निठल्ले, मोरपंख, स्कूल, कलम, गुस्ताख, कॉफ़ी, दालान, यज्ञ, अर्ध्य, भगवान् , कमीना, सफीना, वालमार्ट, जोंक, तिजोरी, मंहगी गैस, डीजल, टिफिन, कांजीवरम सिल्क, ब्रत ,आरती, पूजा, निर्जला, गोदरेज, टू जी, थ्री जी, दलाल, टोल टैक्स, लाल किला, शापिंग माल, नाख़ून, कैनवास, रिबन, रंगोली, राजमिस्त्री, अनशन, टापू, चाकू, गुर्दा, धमनी, कठपुतली, दफ्तर, कंकड़, यजमान, गारंटी, खनखनाती, फोन टॉस, पंडे, वेद, तुलसी ,सागरमाथा, गेंदा, गुडहल, लैम्पपोस्ट, न्याय सदन, दियासलाई, कालिख, बेताल, लैपटॉप, केलेंडर इत्यादि शब्दों का सहजता से उपयोग हुआ है। यह शब्द कहीं भी जबरन ठूँसे हुए प्रतीत नहीं हुए हैं, न ही इन शब्दों से गीत की गेयता, शिल्प और लय पर कोई प्रभाव पड़ा है।
युग्म शब्दों का भी नवगीत में बेहद सहजता से सुन्दर प्रयोग हुआ है । दही-गुड, मघई-पान, छेनी-पत्थर, हल्दी-उबटन, नीले-पीले, फूल- टहनियाँ, सुग्गा-दाना, कुशल-क्षेम, लय-गति, वंशी-मादल, घूसर मिटटी, लू-लपट, रिश्ते-नाते, घुटन-बेबसी, हँसते-गाते, बाप-मतारी, बीबी-बच्चे, गंध-कस्तूरी, पल-छिन, खून-पसीना, भौंरे- फूल, काशी-मदीना, सिताब-दियारा, राग-दरबारी, साँझ-चूल्हा, हीर-राँझा, राजा-रानी, आँधी-पानी, कूड़ा-कचरा, कोर्ट-कचहरी, सत्य-अहिंसा, दाना-पानी, मुखिया-परधानो, चिरई-चुनमुन, अपने-अपने, जंतर-मंतर, भाग्य-विधाता, ओझा-सोखा, घर-आँगन, ढोल-मँजीरे, आँख-मिचोनी , पूजित पूजित, आन-बान, साँझ-सुबहो, दफ्तर-थकान, घर-गिरस्ती ,सौ-सौ, पूजा-हवन, कण कण, सँवरा-निखरा, चंपा-चंपा, चम्पई-उँगलियों, धुआँ- धुंध, चिहुंक-चिहुंक, यमुना-गंगा, जन-गन मन, दूध-मलाई, पान-सुपारी, जादू-टोने, तंत्र-मंत्र, चढ़ते-उतरते, साधू-सन्यासी, पल-भर, पक्ष-विपक्ष, सत्य-अहिंसा, लूट-डकैती, दया-धर्म, भूख-बेगारी, जाती-धरम कौवे-चील, हार-जीत, अनेक शब्द सामान्य परिवेश के आसपास घूमते हुए पाठक की बोली का अहसास कराते हैं। सामान्य जन के आसपास घूमते हुए गीतों में बोल चाल के शब्दों का भरपूर प्रयोग हुआ है। कुछ कुछ शब्दों के बिम्ब बहुत सुन्दर प्रतीत हुए हैं ।
तुषार जी का यह संकलन एक बार पढ़कर रख देने वाला नहीं है अपितु गीतों की ताजगी का अहसास पाठक को बारम्बार महसूस होता है। जहाँ गीतों में कसावट और गेयता पाठक को बाँधे रखने में सक्षम है। वहीं सहज रसानुभूति इन्हें स्मृतियों में सहेजती है। इन्हें पढना सुखद अनुभूति है। ताजगी से भरपूर इस संकलन हेतु तुषार जी को हार्दिक बधाई।
--------------------------------------------------------------------------------------गीत- नवगीत संग्रह - सदी को सुन रहा हूँ मैं, रचनाकार- जयकृष्ण राय तुषार, प्रकाशक- साहित्य भण्डार ५० , चाहचन्द , इलाहबाद - २०११०३२, प्रथम संस्करण-२०१४, मूल्य- रूपये ५०, पृष्ठ १२६, ISBN- ९७८-८१-७७७९-३४३-७, परिचय- शशि पुरवार