Friday, August 2, 2013
Thursday, August 1, 2013
यूँ बदल गए मौसम।
1
क्यूँ तुम खामोश रहे
पहले कौन कहे
दोनों ही तड़प सहें ।
2
आसान नहीं राहें
पग- पग पे धोखा
थामी तेरी बाहें ।
3
सतरंगी यह जीवन
राही चलता जा
बहुरंगी तेरा मन ।
4
साँचे ही करम करो
छल करना छोड़ो
उजियारे रंग भरो ।
5
बीते कल की बतियाँ
महकाती यादें
है आँखों में रतियाँ ।
6
ये पीर पुरानी है
यूँ बदले मौसम
खुशियाँ नूरानी है ।
७
है खुशियों को जीना
हँसता चल राही
दुःख आज नहीं पीना ।
८
मन में सपने जागे
पैसे की खातिर
क्यूँ हर पल हम भागे?
९
है दिल में जोश भरा
मंजिल मिलती है
दो पल ठहर जरा ।
१०
झम झम बरसा पानी
मौसम बदल गए
क्यूँ रूठ गई रानी ?
११
क्यों मद में होते हो
दो पल का जीवन
क्यों नाते खोते हो ।
१२
है क्या सुख की भाषा
हलचल है दिल में
क्यों टूट रही आशा ।?
१३
दिन आज सुहाना है
कल की खातिर क्यों
फिर आज जलाना है ।
----शशि पुरवार
क्यूँ तुम खामोश रहे
पहले कौन कहे
दोनों ही तड़प सहें ।
2
आसान नहीं राहें
पग- पग पे धोखा
थामी तेरी बाहें ।
3
सतरंगी यह जीवन
राही चलता जा
बहुरंगी तेरा मन ।
4
साँचे ही करम करो
छल करना छोड़ो
उजियारे रंग भरो ।
5
बीते कल की बतियाँ
महकाती यादें
है आँखों में रतियाँ ।
6
ये पीर पुरानी है
यूँ बदले मौसम
खुशियाँ नूरानी है ।
७
है खुशियों को जीना
हँसता चल राही
दुःख आज नहीं पीना ।
८
मन में सपने जागे
पैसे की खातिर
क्यूँ हर पल हम भागे?
९
है दिल में जोश भरा
मंजिल मिलती है
दो पल ठहर जरा ।
१०
झम झम बरसा पानी
मौसम बदल गए
क्यूँ रूठ गई रानी ?
११
क्यों मद में होते हो
दो पल का जीवन
क्यों नाते खोते हो ।
१२
है क्या सुख की भाषा
हलचल है दिल में
क्यों टूट रही आशा ।?
१३
दिन आज सुहाना है
कल की खातिर क्यों
फिर आज जलाना है ।
----शशि पुरवार
Saturday, July 27, 2013
सुख की धारा
१
सुख की धारा
रेत के पन्नो पर
पवन लिखे .
२
दुःख की धारा
अंकित पन्नो पर
डूबी जल में -
-
२
मन पाखी सा
चंचल ये मौसम
सावन आया
३
रात चांदनी
उतरी मधुबन
पिय के संग .
------शशि पुरवार
१९ जुलाई १३
सुख की धारा
रेत के पन्नो पर
पवन लिखे .
२
दुःख की धारा
अंकित पन्नो पर
डूबी जल में -
-
२
मन पाखी सा
चंचल ये मौसम
सावन आया
३
रात चांदनी
उतरी मधुबन
पिय के संग .
4
दिल का दिया
यादों से जगमग
ख्वाब चुनाई .
5
तन्हाईयों में
सर्द यह मौसम
शूल सा चुभा
यादों से जगमग
ख्वाब चुनाई .
5
तन्हाईयों में
सर्द यह मौसम
शूल सा चुभा
------शशि पुरवार
१९ जुलाई १३
Friday, July 26, 2013
Monday, July 22, 2013
Sunday, July 21, 2013
उड़ गयी फिर नींदे ....!
1
था दुःख को तो जलना
अब सुख की खातिर
है राहो पर चलना ।
2
रिमझिम बदरा आए
पुलकित है धरती
हिय मचल मचल जाए । .
3
है
मन जग का मैला
बेटी को मारे
पातक दर-दर फैला ।
4
इन कलियों का खिलना
सतरंगी सपने
मन पाखी- सा मिलना ।
5
थी जीने की आशा
थाम कलम मैंने
की है दूर निराशा ।
6
अब काहे का खोना
बीते ना रैना
घर खुशियों का कोना
।
7
भोर सुहानी आई
आशा का सूरज
मन के अँगना लाई।
8
पाखी बन उड़ जाऊँ
संग तुम्हारे मैं
गुलशन को महकाऊँ । -------- शशि पुरवार
Friday, July 19, 2013
प्रकृति और मानव
१
जल जीवन
प्रकृति औ मानव
अटूट रिश्ता
२
जगजननी
धरती की पुकार
वृक्षारोपण
३
मानुष काटे
धरा का हर अंग
मिटते गाँव .
४
पहाड़ो तक
पंहुचा प्रदूषण
प्रलयंकारी
५
केदारनाथ
बेबस जगन्नाथ
मानवी भूल
६
काले धुँए से
चाँद पर चरण
काला गरल .
७
जलजले से
विक्षिप्त है पहाड़
मौन रुदन
८
कम्पित धरा
विषैली पोलिथिन
मनुज फेकें
९
सिंधु गरजे
विध्वंश के निशान
अस्तित्व मिटा .
१०
अप्रतिम है
प्रकृति का सौन्दर्य
चिटके गुल .
-------- शशि पुरवार
जल जीवन
प्रकृति औ मानव
अटूट रिश्ता
२
जगजननी
धरती की पुकार
वृक्षारोपण
३
मानुष काटे
धरा का हर अंग
मिटते गाँव .
४
पहाड़ो तक
पंहुचा प्रदूषण
प्रलयंकारी
५
केदारनाथ
बेबस जगन्नाथ
मानवी भूल
६
काले धुँए से
चाँद पर चरण
काला गरल .
७
जलजले से
विक्षिप्त है पहाड़
मौन रुदन
८
कम्पित धरा
विषैली पोलिथिन
मनुज फेकें
९
सिंधु गरजे
विध्वंश के निशान
अस्तित्व मिटा .
१०
अप्रतिम है
प्रकृति का सौन्दर्य
चिटके गुल .
-------- शशि पुरवार
Thursday, July 18, 2013
बहता पानी ...!
१
बहता पानी
विचारो की रवानी
हसीं ये जिंदगानी
सांझ बेला में
परिवार का साथ
संस्कारों की जीत .
२
बरसा पानी
सुख का आगमन
घर संसार तले
तप्त ममता
बजती शहनाई
बेटी हुई पराई .
३
हाथों में खेनी
तिरते है विचार
बेजोड़ शिल्पकारी
गड़े आकार
आँखों में भर पानी
शिला पे चित्रकारी .
४
जग कहता
है पत्थर के पिता
समेटे परिवार
कुटुंब खास
दिल में भरा पानी
पिता की है कहानी .
--------- शशि पुरवार
१३ ,७ .१ ३
Tuesday, July 16, 2013
प्रकृति ने दिया है अपना जबाब ,
प्रकृति की
नैसर्गिक चित्रकारी पर
मानव ने खींच दी है
विनाशकारी लकीरें,
सूखने लगे है जलप्रताप, नदियाँ
फिर
एक जलजला सा
समुद्र की गहराईयों में
और प्रलय का नाग
लीलने लगा
मानव निर्मित कृतियों को.
धीरे धीरे
चित्त्कार उठी धरती
फटने लगे बादल
बदल गए मौसम
बिगड़ गया संतुलन,
ये जीवन, फिर
हम किसे दोष दे ?
प्रकृति को ?
या मानव को ?
जिसने
अपनी
महत्वकांशाओ तले
प्राकृतिक सम्पदा का
विनाश किया।
अंततः
रौद्र रूप धारण करके
प्रकृति ने दिया है
अपना जबाब ,
मानव की
कालगुजारी का,
लोलुपता का,
विध्वंसता का,
जिसका
नशा मानव से
उतरता ही नहीं .
और
प्रकृति उस नशे को
ग्रहण करती नहीं .
--शशि पुरवार
१२ -७ - १ ३
१२ .५ ५ am
Sunday, July 14, 2013
दर्द कहाँ अल्फाजों में है
अश्क आँखों में औ
तबस्सुम होठो पे है
सूखे गुल की दास्ताँ
अब बंद किताबो में है
बीते वक़्त का वो लम्हा
कैद मन की यादों में है
दिल में दबी है चिंगारी
जलती शमा रातो में है
चुभन है यह विरह की
दर्द कहाँ अल्फाजों में है
नश्वर होती है रूह
प्रेम समर्पण भाव में है
अविरल चलती ये साँसे
रहती जिन्दा तन में है
खेल है यह तकदीर का
डोर खुदा के हाथो में है
शशि पुरवार
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