shashi purwar writer

Wednesday, October 29, 2025

सामाजिक मीम पर व्यंग्य कहानी अदद करारी खुश्बू

 अदद करारी खुशबू 

शर्मा जी अपने काम में मस्त  सुबह सुबह मिठाई की दुकान को साफ़ स्वच्छ करके करीने से सजा रहे थे ।  दुकान में बनते गरमा गरम पोहे जलेबी की खुशबु नथुने में भरकर जिह्वा को ललचा ललचा रही थी। अब खुशबु होती ही है ललचाने के लिए , फिर गरीब हो या अमीर खींचे चले आते है।   खाने के शौक़ीन ग्राहकों का हुजूम सुबह सुबह उमड़ने लगता था। खाने के शौक़ीन लोगों के मिजाज भी कुछ अलग ही होते हैं।   कुछ  गर्मागर्म पकवानों को खाते हैं कुछ करारे करारे नोटों को आजमाते हैं।  अब आप कहेंगे नोटों आजमाना यानि कि खाना। नोट आज की मौलिक जरुरत है।  प्रश्न उठा कि नोट  कौन खा सकता है। अजी बिलकुल खाते है , कोई ईमानदारी की सौंधी खुशबू का दीवाना होता है तो कोई भ्रष्टाचार की करारी खुशबू का।   हमने तो  बहुत लोगों को  इसके स्वाद का आनंद लेते हुए देखा है।  ऐसे लोगों को ढूंढने की जरुरत नहीं पड़ती अपितु ऐसे लोग आपके सामने स्वयं हाजिर हो जाते हैं। खाने वाला ही जानता है कि खुशबू  कहाँ से आ रही है। जरा सा  इर्द गिर्द नजर घुमाओ , नजरों को नजाकत से उठाओ कि  चलते फिरते पुर्जे नजर आ जायेंगे।  

   हमारे शर्मा जी के  दुकान के पकवान खूब प्रसिद्ध है।  बड़े प्रेम से लोगों  को प्रेम से खिलाकर अपने जलवे दिखाकर पकवान  परोसते हैं।  कोर्ट कचहरी के चक्कर उन्हें रास नहीं आते।  २-४ लोगों को हाथ में रखते है।  फ़ूड विभाग वालों का खुला हुआ मुँह भी रंग बिरंगे पकवानो से भर देते हैं।  आनंद ही आनंद व्याप्त है।  खाने वाले  भी जानते है कहाँ कितनी चाशनी मिलेगी। 

 फ़ूड विभाग के पनौती लाल को और क्या चाहिए।  गर्मागर्म पोहा जलेबी के साथ करारा स्वाद उनके पेट को गले तक भर देता है।  उन्हें  मालूम है  जहाँ गुड़ होगा मक्खी भिनभिनायेंगी।  पकवान की खुशबू  में मिली करारी खुशबू का स्वाद उनकी जीभ की तृषा  शांत करता है।  आजकल लोगों में  मातृ भक्त  ईमानदारी कण कण में बसी थी।  यह ईमानदारी करारी खुशबू के प्रति वायरल की तरह फैलती जा रही है।  आजकल के वायरस भी सशक्त है तेजी से संक्रमण करते है। संक्रमण की बीमारी ही ऐसी है जिससे कोई नहीं बच सकता है।  

   शर्मा जी के भाई  गुरु जी कॉलेज में प्रोफेसर है।  वैसे गुरु जी डाक्टर हैं किन्तु डाक्टरी अलग प्रकार से करते है।  उनकी डाक्टरी के किस्से कुछ अलग ही है।  अपने भाई पनौतीलाल से उन्होंने बहुत कुछ सीखा , उसमे सर्वप्रथम था करारी खुशबू का स्वाद लेना व स्वाद देना।  यह भी एक कला है जिसे करने के साधना करनी होगी।   

वह डाक्टरी जरूर बने पर मरीज की सेवा के अतिरिक्त सब काम करतें है।  कॉलेज में प्रोफेसर की कुर्सी हथिया ली।   किन्तु पढ़ाने के अतिरिक्त सब काम में महारत हासिल है  और बच्चे भी उनके कायल है।  मसलन एडमिशन करना , बच्चों को पास करना , कॉलेज के इंस्पेक्शन करवाना , कितनी सीटों से फायदा करवाना ...  जैसे अनगिनत काम दिनचर्या में शामिल है। जिसकी लिस्ट भी रजिस्टर में दर्ज न हो।   हर चीज के रेट फिक्स्ड है।  जब बाजार में इंस्टेंट  वस्तु उपलब्ध हो तो खुशबू कुछ ज्यादा  ही करारी हो जाती है।  ऐसे में बच्चे भी खुश हैं ;  वह भी नारे लगाते रहते है कि  हमारे प्रोफेसर साहब जिन्दावाद। गुरु ने ऐसा स्यापा फैलाया है कि कोई भी परेशानी उन तक नहीं पंहुच पाती।  विद्यार्थी का हुजूम उनके आगे - पीछे रहता है।  गुरु जी को नींद में करारे भोजन की आदत है। स्वप्न भी उन्हें सोने नहीं देते।  जिजीविषा कम नहीं होती।  नित नए तरीके ढूंढते रहते है। 

 उनका जलवा ऐसा कि नौकरी मांगने वाले मिठाई के डब्बे लेकर खड़े रहते है।  उनका डबल फायदा हो रहा था।  असली मिठाई पनौती लाल की दुकान में बेच कर मुनाफा कमाते व करारी मिठाई सीधे मर्तबान में चली जाती थी।  यानी पांचो उंगलिया घी में थी।  

 एक बार उन्होंने सोचा अपनी करीबी रिश्तेदार का भला कर दिया है।  रिश्तेदारी है तो कोई ज्यादा पूछेगा नहीं।  अपना भी फायदा उसका भी भला हो जायेगा।  भलाई की आग में चने सेंकना गुरु जी की फितरत थी। 

 अपनी  रिश्तेदार इमरती को काम दिलाने के लिए महान बने गुरु जी ने उसे अपने कॉलेज में स्थापित कर दिया। उसका  सिर्फ एक ही काम था कॉलेज में होने वाले इंस्पेक्शन व अन्य कार्यों के लिए  हस्ताक्षर करना और कुर्सी की शोभा बढ़ाना।  महीने की तय रकम की ५००० रूपए। 

  गुरु जी पान खाकर लाल जबान लिए घूमते थे।  बेचारी इमरती को देते थे ५००० रूपए और शेष २५००० अपनी जेब में।  यह गणित समझने वालों के लिए मुश्किल हो सकता है चलो हम आसान कर देते हैं।  गुरु जी अपने करारे कामों के लिए इतने मशहूर थे कि बच्चों से लेकर स्टाफ तक; उनकी जी हुजूरी करता है।  ऐसे में गुरु जी लोगों से ठेके की तरह काम लेते और  गऊ  बनकर सेवा धरम करते। रकम की बात दो दलों से करते स्वयं बिचौलिए बने रहते।   दूध की मलाई पूरी खाने के बाद ही दूध का वितरण करते थे ।  करारी खुशबू की अपनी एक अदा है।  जब वह आती है तो रोम रोम खिल उठता है जब जाती है तो जैसे बसंत रूठ गया हो। 

 दोनो भाई मिल जुलकर गर्मागर्म खाने के शौक़ीन  थे।  इधर कुछ दिनों से इमरती को मन के खटका होने लगा कि कम पगार के बाबजूद गुरु जी की  पांचो उँगलियाँ  घी में है और  वह स्वयं सूखी  रोटी खा रही है।  इंसान की फितरत होती है जब भी वह अपनी तुलना दूसरों से करता है उसका तीसरा नेत्र अपने आप खुल जाता है।  भगवान शिव के तीसरे नेत्रों में पूरी दुनिया समायी है , पर जब एक स्त्री अपना तीसरा नेत्र खोलती है तो  उससे कुछ  भी छुपाना नामुमकिन है। वह समझ गयी कि दाल में कुछ काला ही नहीं  पूरी दाल ही काली है।  खूब छानबीन करने के बाद गुरु जी क्रियाकर्म धीरे धीरे नजर आने लगे।  कैसे गुरु जी उसका फायदा उठाया है।  उसके नाम पर  लोगों से ४०००० लेते थे बदले में ५००० टिका देते है। शेष अपने मर्तबान में डालते थे। 

   इतने समय से काम करते हुए वह भी होशियार हो चली थी , रिश्तेदारी को अलग रखने का मन बनाकर अपना ब्रम्हास्त्र निकाला।  आने वाले परीक्षा के समय अपना बिगुल बजा दिया , काम के खिलाफ अपनी  संहिता लगा दी।  

" इमरती समझा करो , ऐसा मत करो "

" क्यों गुरु भाई आप तो हमें कुछ नहीं देते हैं फ़ोकट में काम करवा रहे हो  "

 " देता तो हूँ ज्यादा कहाँ मिलता है , बड़ी मुश्किल से पैसा निकलता है , चार चार महीने में बिल पास होता है "

" झूठ मत बोलो , मुझे सब पता चल गया है, आज से मै आपके लिए कोई काम नहीं करुँगी।  "

अब गुरु जी खिसियानी बिल्ली की तरह खम्बा नोच रहे थे।  सोचा था करीबी रिश्तेदार है।  कभी दिया कभी नहीं दिया तो भी फर्क नहीं पड़ेगा।  बहुत माल खाने में लगे हुए थे।  पर उन्हें क्या पता खुशबू सिर्फ उन्हें ही नहीं दूसरों तक भी पहुँचती है।  

इमरती की बगावत ने उनके होश उड़ा दिए , बात नौकरी पर आन पड़ी।  आला अफसर सिर्फ करारे काम ही देखना पसंद करते हैं उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि करारे व्यंजन में उपयोग होने वाली सामग्री कैसी है। यहाँ  हर किसी को अपनी दुकान चलानी है।   कहतें है जब मुंह को खून लग जाये तो उसकी प्यास बढ़ती रहती है। यही हाल जिब्हा का भी है।  तलब जाती ही नहीं। 

 इमरती के नेत्र क्या खुले गुरु जी की  जान निकलने  लगी।  गुरु जी इमरती को चूरन चटा रहे थे किन्तु यहाँ इमरती ने ही उन्हें चूरन चटा दिया।  कहते हैं न सात दिन सुनार के तो एक दिन लुहार का।  आज इमरती चैन की नींद सो रही थी।  कल का सूरज  नयी सुबह लेकर आने वाला था। सत्ता हमेशा एक सी नहीं चलती है। उसे एक दिन बदलना ही पड़ता है।      

  गुरु जी के होश उड़े हुए थे। उन्हें समझ में आ गया उनकी ही बिल्ली उन्ही से माउं कर रही है।  करारी खुशबू ने अब उनका जीना हराम कर रखा था।  खुशबू को कैद करना नामुमकिन है।  इमरती को आज गर्मागर्म करारी जलेबी का तोहफा दिया।  भाई होने की दुहाई दी।  रोजी रोटी का वास्ता दिया और चरणों में लोट गए।

  खुशबू जीत गयी थी।  अब मिल बांटकर खाने की आदत ने अपनी अपनी दुकान खोल ली  और अदद खुशबू का करारा साम्राज्य अपना विस्तार ईमानदारी से कर रहा था। जिससे बचना कठिन ही नहीं नामुमकिन है। दो सौ मुल्कों की पुलिस भी उसे कैद करने असमर्थ है।  करारी खुशबू   का फलता फूलता हुआ साम्राज्य विकास व समाज को कौन सी  कौन दिशा में ले जायेगा।

    यह सब कांड देखकर शर्मा जी को हृदयाघात का ऐसा दौरा पड़ा कि  परलोक सिधार गए।  सुबह गाजे बाजे के साथ उनकी यात्रा निकाली गयी।  उनके करारे प्रेम को देखकर लोगों ने उन्हें नोटों की माला पहनाई।  नोटों से अर्थी सजाई। फूलों के साथ लोगों ने नोट चढ़ाये।  लेकिन आज यह नोट उनके किसी काम के नहीं थे।  उनकी अर्थी पर चढ़े हुए नोट जैसे आज मुँह चिढ़ा रहे थे। आज उनमे करारी खुशबू नदारत थी।  
   
शशि पुरवार 

Tuesday, October 28, 2025

“जब मूर्खता को मिला मंच : महामूर्ख सम्मेलन का व्यंग्य”





आज महामूर्ख सम्मलेन अपनी पराकाष्ठा पर था।  सम्मलेन में  मौजूद मूर्खो की संख्या देखकर हम सम्मेलन के मुरीद हो गए. हमें  एहसास हुआ कि हम मूर्खानगरी के नागरिक है , दुनिया ही मूर्खो की है तो हम कहाँ से पृथक हुए।  खरबूजे को देख खरबूजा ही रंग बदलता है , किन्तु यहाँ हर रंग अपने सिर पर मूर्खो का ताज सजाने को आमादा है।


 सम्मेलन में शामिल सभी महामूर्खो ने अपनी-अपनी मूर्खता की पराकाष्ठा का परिचय श्रोताओं को दिया।  आयोजन समिति द्वारा सभी गणमान्यों  व जनता से  जुडी  हस्तियों को अलग-अलग अलंकरणों से नवाजा गया।  आयोजन समिति
द्वारा सभी गणमान्यों सहित राजनीति, शिक्षा, चिकित्सा, समाजसेवा, प्रशासन आदि से जुड़े हस्तियों को अलग-अलग अलंकरणों से नवाजा गया।  राजनेता शंकर  खैनी को महामूर्ख शिरोमणि, शिक्षा में अशिक्षित देवधर  महामूर्ख रत्‍‌नेश्वर,  चिकित्सा में छोला छाप सेवक को मूर्ख  सम्राट,  मूर्ख शिसरोमणि,   महामूर्ख मातर्ड,   मूर्खाधिपति,   मूर्खनंदन आदि अनंत उपाधियाँ लगभग कर कार्य क्षेत्र में बांटी गयी है।  सबकी चर्चा  करने में शर्मा  जी शर्मा रहे थे।  आज पहला अध्याय ही पढ़ने का मन है।

हमारे महामूर्ख शिरोमणि ने सम्मान उपाधि मिलते ही अपने खुशफहम शब्दों व आत्ममुग्धता के द्वारा आवरण की परतें उखाड़ना शुरू कर दी।

   नेता जी बेहद खुश अपने मूर्ख होने की पराकाष्ठा का वर्णन कर रहे थे -
सबरी जनता वाकई मूर्ख है तभी तो जनता को मूर्ख बनाने वाले  नेता का गिरेबान; आज हाथ में आ ही गया।  आज अंततः मूर्ख शिरोमणि की उपाधि से नवाजा जाना; उनके कर्म क्षेत्र का सम्मान है।  वैसे भी कर्म तो कुछ करते नहीं हैं , बस ससुरी जबान का पैसा खातें है लेकिन अब वह जबान भी फिसलती
रहती है।  आज  जब देश पर संकट छाया है तब भी खैनी जी को खैनी खाने से  फुर्सत नहीं  है , बिना बात के बबाल मचा रखा है. पक्ष विपक्ष से ज्यादा चर्चा में रहने के लिए ऐसे बोलबच्चन कहने पड़ते है।   पक्ष क्या बिपक्ष  क्या सभी एक थाली के चट्टे बट्टे है।  आप किसी भी देश में देखें जनता और
सत्ता का सम्बन्ध एक दूजे के साथ सिर्फ पैसा फेंक तमाशा देख जैसा ही है।

  जिसे देखो काटने पर तुला है और बेवक़ूफ़ जनता हर बार मोलभाव करके गद्दी का भार सौंपती है और कुछ ही दिन में उकता कर जमीन पर पड़ी दरी खींचने का भरकस प्रयास करने लगती है।  अब ज्यादा तारीफ़ करने के चक्कर में खैनी जी
की जबान वाकई पूर्णतः फिसलने लगी।

ससुरे बगल वाले का टटुआ दबा देंगे। मारधाड़ में निपुण लोग अपना काम करते रहे। इधर हाल ही में सरहद पर छींटा कशी हुई और पडोसी राज्य के महा मूर्ख  छिपानन्द कहने लगे हमने तो बारिश देखी ही नहीं है; हमारे यहाँ बारिश के कोई निशान शेष नहीं है ।  लो जी उनके सेर को सवा सेर भी मिल गया ,

जनता के मूर्ख सम्राट  सामने आकर बोलबच्चन के मंत्र पढ़ने लगे  :-
आज तेज आंधी तूफान में हमारी फसलें तबाह हुई है।  आकाश पर मंडराते काळा बादल फट गए और यहाँ गड्ढा हो गया। बारिश हुई तो धरती पानी निगल गयी। लेकिन सोना नहीं मिला।  रोज रोज फावड़ा लेकर सोना ढूंढ रहें है , ससुरा मिल जाये तो गुपच लेंगे।


इधर मुर्खाधिपति अपना माइक लेकर सामने आ गए - आज के ताजा समाचार -

यही वह आदमी है जो दिन में भी चार चार फैनी खाकर सोता रहता है। आज जलेबी खाने में लगा हुआ है।  आप इसको हमारे कैमरे में देख सकतें है।  इसका ध्यान दूसरे मूर्खो पर है ही नहीं।  अरे  बादल फटे तो झट से वहां पहुँच गया कि शायद गड्ढे में इसे पुराना पुरखो का धन मिल सकता है।

दूसरे हमारे मूर्ख सम्राट है जिन्हें समझ ही नहीं आता है कि बादल फटने से गड्ढा ही होगा , छप्पन भोग का छींका नहीं फूटा है। जब देखो सम्राट अक्सर धरने पर बैठ जाते हैं ,  साथ ही अन्नपूर्णा माता का अपमान न करते हुए चुपचाप जूस की सिप लगाते रहतें है।


आज सारे अडोसी - पडोसी  मूर्खों के सरताज सम्मलेन में शामिल होने आ रहें है। जब आग जले तो हाथ सेंक  लेना चाहिए।  गेंद  किस पाले में जाएगी वह समय पर तय करेंगे। अभी मूर्ख मणिताज का सवाल है।

इधर दूसरी तरफ महामूर्ख चिंतामणि ने अपने बखान शुरू कर दिए -  

हमने पहले ही कहा था शनि की महादशा है , आज राहु ने अपना घर बदल लिया है , शनि भारी है  उथलपुथल मची रहेगी।  मन को शांत रखें , लाल वस्त्र धारण करें , लाल
ही खाएं , लाली लगाएं , लाल  पिए और  लाल  हो जाएँ।

दिन में दो बार स्नान करें फिर जलपान करें , पडोसी को जल देना बंद करे इससे आपके घर में जल संचय होगा , फिर उसे बाँटना।  मंगल  भड़क  सकता है ; सूर्य पश्चिम में घूमने गएँ है ;  चंद्र आपको दर्शन देंगे , आज ताज को सर पर धारण रखें शीघ्र परीक्षा का निकाल होगा।  आज खेल आर या पार होगा।  हम
ही जीतेंगे।  ऐसी उच्च कोटि  के विचार छोटे से दिमाग में समां ही नहीं
रहे थे।
हमने जिज्ञासा वश प्रश्न उछाल दिया - प्रभु आगे का संक्षिप्त में हाल  बताएं - ताज किसे मिलेगा या नहीं।


उत्तर मिला - अभी  फिल्म जारी है ; आप अपना ध्यान केंद्रित करें ,
यह मंत्र पढ़ने से आप जल्दी मूर्ख बनने की प्रक्रिया पूर्ण करेंगे और आपको जल्दी ही मोती जड़ित शिरोमणि  से नवाजा जायेगा।

ओम मूर्ख मुर्खस्वः, तस्सः मुखर मुरेनियम
मूर्खो देवस्वः धी महि. दियो मोह न मूर्खो दयाः

मूर्ख देव जयते। मूर्ख: मूर्खो : स्वाहा


शशि पुरवार

आप दूसरी पोस्ट भी व्यंग्य कहानी पढ़ सकते हैं --

https://sapne-shashi.blogspot.com/2019/05/blog-post_27.html

Wednesday, September 13, 2023

समीक्षा -- है न -

 





शशि पुरवार 

Shashipurwar@gmail.com

समीक्षा है न - मुकेश कुमार सिन्हा 




है ना “ मुकेश कुमार सिन्हा का काव्य संग्रह  जिसमें प्रेम के विविध रंग बड़ी ख़ूबसूरती से समेटे हुए है 


मुकेश कुमार सिन्हा बेहद संवेदनशील कवि है।वे विज्ञान के विद्यार्थी रहे है उन्होंने प्रेम  के अनेक रूपों को गणितीय अंदाज़ में प्रस्तुत करके एक नया प्रयोग किया है.


प्रेम की कोमल संवेदनशीलता,   प्रेम का अपवर्तनांक नामक कविता  , प्रेम के हर त्रिकोण व  समय को रेखांकित कर रही है।रेखाओं का गमन,  रसायन विज्ञान का आकर्षण, अपरिवर्तित किरण या  दो कप चाय की उष्णता में प्रेम का क्रिस्पी होना, ह्रदय की धड़कनो का बढ़ना .,,  व चाय की पत्ती सा उबलता मन … सारे पैरामीटर  को नज़रों के सम्मुख प्रस्तुत करता है.


 मुकेश सिन्हा की कविताओं का कहन सहजता व सरलता से लब्ध है।यह अंदाज  ह्रदय पाठकों के अंतस को छूने में सक्षम है।


“सुनो न “  कोमल शब्दों में पुकारती प्रेम आवाज , एक अंतहीन सफर पर ले जाती है।  प्रेम कब कहाँ कैसे हो जाये कह नहीं सकते लेकिन उस प्रेम को विविध रूपों में अभिव्यक्त करके मुकेश ने प्रेम व विज्ञानं को का रासायनिक मिश्रण तैयार किया है जो अतुकांत कविता में नए आयाम स्थापित करता है।  


प्रेम युद्ध ही तो है.। सुनो ना ये ही इंतज़ार ख़त्म नहीं होता। तुम देर से आए और मैं बन गया मील  का पत्थर । सुनो ना ह्रदय  के जज्बात को खगोलीय पिंडों से जोड़ना और उसके चक्कर लगाना बिम्बो का अप्रतिम उदाहरण है।कितबी बातों को प्रेमिका के साथ करने के बाद मुकेश ने उसे अपनी कविता के ढाला है जैसे उस प्रेम को हृदय तल से जी रहें हो। 


 सुन भी लिया करो, मेरी लोड स्टार सुन रही हो न। .।इतनी नज़ाकत से उलाहना व मिठास का रंग कविता में भरा है जैसे ह्रदय को चीर कर रख दिया है।  


थिरकते  तारों की आग़ोश में।  बर्फ़ हो चुका सीना । मेरे तोंद को  उंगली में दबाकर ,,, मोटे  हो जैसे शब्दों का प्रयोग व  बेशक मत मानो प्रेम है तुमसे ।  किसी फ़िल्मी चरित्र को चरितार्थ करता है स्टील आय लव हर .। प्रेम की पराकाष्ठा के विविध आयाम है। 


देह की यात्रा भी नायिका के लिए गुलाब की पंखुड़ी भरा प्रेम प्रणय निवेदन, वहीँ  नायिका का  बातों को पूर्ण विराम लगाकर रोकना नजाकत से प्रेम की अभिव्यक्ति और कल्पना की पराकाष्ठा ,  एक कोमल दुनिया में प्रवेश करती है.



प्रेम की भूल भुलैया।  चश्मे की डंडिया । प्रेम के विविध रूप अभिव्यक्ति की कोमल संवेदनाएं हैं। 


यदि मुकेश को प्रेम का गणितीय गुरु कहे  विस्मय न होगा।  उन्होंने कविता में  गणित, विज्ञान ,रसायन फिजिक्स ,जूलॉजी के अनगिनत शब्दों को कविता में डाल कर नया सुंदर प्रयोग किया है। जो अपने अलग बिम्ब प्रस्तुत करता है शायद ऐसा पहली बार हुआ है.


मुकेश कुमार सिंह की कविताएँ जितनी कोमल है उतनी ही विज्ञान की गणितीय एक्वेशन  को सॉल्व करके नए आयाम भी स्थापित करती है।  भाषा और शैली की सहज सरल अभिव्यक्ति पाठकों को बाँधने में सक्षम है


बोसा, पिघलता कोलेस्ट्रोल , एहसासों का आवेग , असहमति , ब्यूटी लाई इन बिहोल्डर्स आइज  प्रेम की नयी परिभाषा को व्यक्त करती है.


पीड़ा और दर्द खींचकर भी उम्मीद का अभिमन्यु , स्मृतियों को जीवित करना । स्पर्श करके  की प्रेम के भूगोल को समझना, स्किपिंग रोप से प्रेम का ग्रैंड ट्रंक रोड बनाना और प्रेम की उम्मीदों को अनंत तक ले जाने में कविताएँ सक्षम है। 


गोल्ड फ्लैग किंग साइज़ की कश की बात  हो या उम्रदराज़ प्रेम की अभिव्यक्ति। हमें  सोचने पर विवश करती है आख़िर मुकेश कितनी बारीकियों से  इन्हे अपनी रचनाओं में रेखांकित करते हैं। प्रेम उम्र से परे होता है और उसे बेहद ख़ूबसूरती से बयां किया गया है। मुकेश सिन्हा की एक खासियत है कि वे वे गहन कथित को हल्के फुल्के अंदाज़ में इस तरह कह जाते हैं कि वो हृदय में चुभते नहीं अपितु धड़कनों को धड़कने पर मजबूर करते है।  


प्रेम रोग ,ब्लड प्रेशर गोली  एम्लो डोपिंग ,कॉकटेल, एंजियोप्लास्टी, एंटीबायोटिक, पाईथोगोरस प्रमेय  शब्दों का प्रयोग,टू हॉट टू हैंडल , समकोण त्रिभूज अनगिनत शब्द  का कविता में प्रयोग  सफलतापूर्वक नए आयाम और स्थापित करता है।  यह हमारी कल्पना से परे हैं कि विज्ञान के ये शब्द हम कविता में प्रेम के प्रतीक के।  रूप में उपयोग करेंगे।  प्रेम और गणितीय अंदाज़ का प्रेमी  मुकेश ही ऐसी कविता लिख सकतें हैं 


पहला खंड प्रेम स्पेशल संग्रह  “ है ना “ प्रेम  कवितायेँ ,  बर्फ़ होती सवेदना की विस्फोट पंखुरी  खुशबु  पाठकों को बाँधने में सक्षम है। दूसरे खंड कोई अन्य कविताएँ विस्थापन उम्र के पड़ाव।  पिता  व बेटे  की उम्मीदें अपने  ख़ास अंदाज़ में बहुत कुछ कहती है। अमीबा हो गयी मरती हुई संवेदनाएं, प्रोटोप्लाज़्म के  ढेर में सिमटी हुई ज़िंदगी,  अनगिनत  छोटी i कविताएँ बेहद ख़ूबसूरती से प्रेम के विविध रंगों को पाठकों  के समक्ष प्रस्तुत कर रही है। 


कुल मिलाकर संग्रह है ना  बहुत ही  कोमल प्रेम की सुंदर अभिव्यक्ति है।उनके इस संग्रह में विज्ञान के समीकरण व शब्दावली का यह रूप बेहद पसंद आया। जहाँ बच्चे  विज्ञान और गणित , रसायन को लेकर भयभीत होते हैं वहीं मुकेश की रचनाएँ बेहद प्यारे रंग घोलकर हमें आकर्षित करती है विज्ञान कठिन कहाँ  है वह तो सहज  प्रेम की  अभिव्यक्ति है।  


मुकेश कुमार सिन्हा को उनके संग्रह है न के लिए बहुत बहुत बधाइयाँ और शुभकामनाएं।  यूँ नये नये रंग अपनी रचनाओं में बिखेरते रहे।  मेरी शुभकामनाएँ आपके साथ है। 

शशि पुरवार 








Monday, May 29, 2023

न झुकाऒ तुम निगाहे कहीं रात ढल न जाये .....










यूँ  न मुझसे रूठ  जाओ  मेरी जाँ निकल न जाये 
तेरे इश्क का जखीरा मेरा दिल पिघल न जाये

मेरी नज्म में गड़े है तेरे प्यार के कसीदे
मै जुबाँ पे कैसे लाऊं कहीं राज खुल न जाये

मेरी खिड़की से निकलता  मेरा चाँद सबसे प्यारा
न झुकाओ तुम निगाहे  कहीं रात ढल न जाये


तेरी आबरू पे कोई  कहीं दाग लग न पाये
मै अधर को बंद कर लूं  कहीं अल निकल न जाये

ये तो शेर जिंदगी के मेरी साँस से जुड़े है 
मेरे इश्क की कहानी ये जुबाँ फिसल  न जाये 

ये सवाल है जहाँ से  तूने कौम क्यूँ बनायीं

ये तो जग बड़ा है जालिम कहीं खंग चल न जाये
      ---- शशि पुरवार 




Monday, March 13, 2023

नारी! तुम केवल श्रद्धा हो



जय शंकर प्रसाद


"फूलों की कोमल पंखुडियाँ
बिखरें जिसके अभिनंदन में।
मकरंद मिलाती हों अपना
स्वागत के कुंकुम चंदन में।

कोमल किसलय मर्मर-रव-से
जिसका जयघोष सुनाते हों।
जिसमें दुख-सुख मिलकर
मन के उत्सव आनंद मनाते हों।

उज्ज्वल वरदान चेतना का
सौंदर्य जिसे सब कहते हैं।
जिसमें अनंत अभिलाषा के
सपने सब जगते रहते हैं।


मैं उसी चपल की धात्री हूँ
गौरव महिमा हूँ सिखलाती।
ठोकर जो लगने वाली है
उसको धीरे से समझाती।

मैं देव-सृष्टि की रति-रानी
निज पंचबाण से वंचित हो।
बन आवर्जना-मूर्त्ति दीना
अपनी अतृप्ति-सी संचित हो।

अवशिष्ट रह गई अनुभव में
अपनी अतीत असफलता-सी।
लीला विलास की खेद-भरी
अवसादमयी श्रम-दलिता-सी।

मैं रति की प्रतिकृति लज्जा हूँ
मैं शालीनता सिखाती हूँ।
मतवाली सुंदरता पग में
नूपुर सी लिपट मनाती हूँ।

लाली बन सरल कपोलों में
आँखों में अंजन सी लगती।
कुंचित अलकों सी घुंघराली
मन की मरोर बनकर जगती।

चंचल किशोर सुंदरता की
मैं करती रहती रखवाली।
मैं वह हलकी सी मसलन हूँ
जो बनती कानों की लाली।"

"हाँ, ठीक, परंतु बताओगी
मेरे जीवन का पथ क्या है?
इस निविड़ निशा में संसृति की
आलोकमयी रेखा क्या है?

यह आज समझ तो पाई हूँ
मैं दुर्बलता में नारी हूँ।
अवयव की सुंदर कोमलता
लेकर मैं सबसे हारी हूँ।

पर मन भी क्यों इतना ढीला
अपना ही होता जाता है,
घनश्याम-खंड-सी आँखों में
क्यों सहसा जल भर आता है?

सर्वस्व-समर्पण करने की
विश्वास-महा-तरू-छाया में।
चुपचाप पड़ी रहने की क्यों
ममता जगती है माया में?

छायापथ में तारक-द्युति सी
झिलमिल करने की मधु-लीला।
अभिनय करती क्यों इस मन में
कोमल निरीहता श्रम-शीला?

निस्संबल होकर तिरती हूँ
इस मानस की गहराई में।
चाहती नहीं जागरण कभी
सपने की इस सुधराई में।


नारी जीवन का चित्र यही, क्या?
विकल रंग भर देती हो,
अस्फुट रेखा की सीमा में
आकार कला को देती हो।

रूकती हूँ और ठहरती हूँ
पर सोच-विचार न कर सकती।
पगली सी कोई अंतर में
बैठी जैसे अनुदिन बकती।

मैं जब भी तोलने का करती
उपचार स्वयं तुल जाती हूँ।
भुजलता फँसा कर नर-तरु से
झूले सी झोंके खाती हूँ।


इस अर्पण में कुछ और नहीं
केवल उत्सर्ग छलकता है।
मैं दे दूँ और न फिर कुछ लूँ
इतना ही सरल झलकता है।"

"क्या कहती हो ठहरो नारी!
संकल्प अश्रु-जल-से-अपने।
तुम दान कर चुकी पहले ही
जीवन के सोने-से सपने।

नारी! तुम केवल श्रद्धा हो
विश्वास-रजत-नग पगतल में।
पीयूष-स्रोत-सी बहा करो
जीवन के सुंदर समतल में।

देवों की विजय, दानवों की
हारों का होता-युद्ध रहा।
संघर्ष सदा उर-अंतर में जीवित
रह नित्य-विरूद्ध रहा।

आँसू से भींगे अंचल पर
मन का सब कुछ रखना होगा-
तुमको अपनी स्मित रेखा से
यह संधिपत्र लिखना होगा।

Saturday, March 11, 2023

हाय, मानवी रही न नारी

 सुमित्रा नंदन पंत


हाय, मानवी रही न नारी लज्जा से अवगुंठित,

वह नर की लालस प्रतिमा, शोभा सज्जा से निर्मित!

युग युग की वंदिनी, देह की कारा में निज सीमित,

वह अदृश्य अस्पृश्य विश्व को, गृह पशु सी ही जीवित!


सदाचार की सीमा उसके तन से है निर्धारित,

पूत योनि वह: मूल्य चर्म पर केवल उसका अंकित;

अंग अंग उसका नर के वासना चिह्न से मुद्रित,

वह नर की छाया, इंगित संचालित, चिर पद लुंठित!


वह समाज की नहीं इकाई,--शून्य समान अनिश्चित,

उसका जीवन मान मान पर नर के है अवलंबित।

मुक्त हृदय वह स्नेह प्रणय कर सकती नहीं प्रदर्शित,

दृष्टि, स्पर्श संज्ञा से वह होजाती सहज कलंकित!


योनि नहीं है रे नारी, वह भी मानवी प्रतिष्ठित,

उसे पूर्ण स्वाधीन करो, वह रहे न नर पर अवसित।

द्वन्द्व क्षुधित मानव समाज पशु जग से भी है गर्हित,

नर नारी के सहज स्नेह से सूक्ष्म वृत्ति हों विकसित।


आज मनुज जग से मिट जाए कुत्सित, लिंग विभाजित

नारी नर की निखिल क्षुद्रता, आदिम मानों पर स्थित।

सामूहिक-जन-भाव-स्वास्थ्य से जीवन हो मर्यादित,

नर नारी की हृदय मुक्ति से मानवता हो संस्कृत।


Thursday, March 9, 2023

मैं नीर भरी दुख की बदली!

महादेवी वर्मा 

मैं नीर भरी दुख की बदली!


स्पन्दन में चिर निस्पन्द बसा

क्रन्दन में आहत विश्व हँसा

नयनों में दीपक से जलते,

पलकों में निर्झारिणी मचली!


मेरा पग-पग संगीत भरा

श्वासों से स्वप्न-पराग झरा

नभ के नव रंग बुनते दुकूल

छाया में मलय-बयार पली।


मैं क्षितिज-भृकुटि पर घिर धूमिल

चिन्ता का भार बनी अविरल

रज-कण पर जल-कण हो बरसी,

नव जीवन-अंकुर बन निकली!


पथ को न मलिन करता आना

पथ-चिह्न न दे जाता जाना;

सुधि मेरे आँगन की जग में

सुख की सिहरन हो अन्त खिली!


विस्तृत नभ का कोई कोना

मेरा न कभी अपना होना,

परिचय इतना, इतिहास यही-

उमड़ी कल थी, मिट आज चली!


Wednesday, March 8, 2023

कोशिश करने वालों की हार नहीं होती

नमस्कार दोस्तों 

आज आपके लिए सोहन लाल द्विवेदी जी का गीत प्रस्तुत कर रही हूँ ,   समय कैसा भी हो लेकिन कोशिशें जारी रहनी चाहिए।  

अब हाजिर हूँ नित नए रंग के साथ। .. आपकी मित्र शशि पुरवार  


सोहन लाल द्विवेदी 


लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती

कोशिश करने वालों की हार नहीं होती


नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है

चढ़ती दीवारों पर, सौ बार फिसलती है

मन का विश्वास रगों में साहस भरता है

चढ़कर गिरना, गिरकर चढ़ना न अखरता है

आख़िर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती

कोशिश करने वालों की हार नहीं होती


डुबकियां सिंधु में गोताखोर लगाता है

जा जाकर खाली हाथ लौटकर आता है

मिलते नहीं सहज ही मोती गहरे पानी में

बढ़ता दुगना उत्साह इसी हैरानी में

मुट्ठी उसकी खाली हर बार नहीं होती

कोशिश करने वालों की हार नहीं होती


असफलता एक चुनौती है, स्वीकार करो

क्या कमी रह गई, देखो और सुधार करो

जब तक न सफल हो, नींद चैन को त्यागो तुम

संघर्ष का मैदान छोड़ मत भागो तुम

कुछ किये बिना ही जय जयकार नहीं होती

कोशिश करने वालों की हार नहीं होती


 सोहन लाल द्विवेदी 





Wednesday, June 8, 2022

तोड़ती पत्थर



तोड़ती पत्थर

वह तोड़ती पत्थर;

देखा मैंने उसे इलाहाबाद के पथ पर-

वह तोड़ती पत्थर।


कोई न छायादार

पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार;

श्याम तन, भर बंधा यौवन,

नत नयन, प्रिय-कर्म-रत मन,

गुरु हथौड़ा हाथ,

करती बार-बार प्रहार:-

सामने तरु-मालिका अट्टालिका, प्राकार।


चढ़ रही थी धूप;

गर्मियों के दिन,

दिवा का तमतमाता रूप;

उठी झुलसाती हुई लू

रुई ज्यों जलती हुई भू,

गर्द चिनगीं छा गई,

प्रायः हुई दुपहर :-

वह तोड़ती पत्थर।


देखते देखा मुझे तो एक बार

उस भवन की ओर देखा, छिन्नतार;

देखकर कोई नहीं,

देखा मुझे उस दृष्टि से

जो मार खा रोई नहीं,

सजा सहज सितार,

सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी झंकार।


एक क्षण के बाद वह काँपी सुघर,

ढुलक माथे से गिरे सीकर,

लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा-

"मैं तोड़ती पत्थर।"




सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

Thursday, March 17, 2022

गंधों भीगा दिन


हरियाली है खेत में, अधरों पर मुस्कान
रोटी खातिर तन जला, बूँद बूँद हलकान

अधरों पर मुस्कान ज्यूँ , नैनों में है गीत
रंग गुलाबी फूल के, गंध बिखेरे प्रीत

गंध समेटे पाश में, खुशियाँ आईं द्वार
सुधियाँ होती बावरी, रोम रोम गुलनार

अंग अंग पुलकित हुआ, तम मन निखरा रूप
प्रेम गंध की पैंजनी, अधरों सौंधी धूप

अंग अंग पुलकित हुआ, तम मन निखरा रूप
प्रेम गंध की पैंजनी, अधरों सौंधी धूप

खूब लजाती चाँदनी, अधरों एक सवाल
सुर्ख गुलाबी फूल ने, खोला जिय का हाल

गंधों भीगा दिन हुआ, जूही जैसी शाम
गीतों की प्रिय संगिनी, महका प्रियवर नाम

शशि पुरवार 


Tuesday, March 8, 2022

बाँधो न नाव इस ठाँव, बंधु! निराला







आज आपके साथ साझा करते हैं निराला जी का बेहद सुंदर नवगीत जो प्रकृति के ऊपर लिखा गया है, लेकिन यह किसी नायिका का प्रतीत होता है. 

निराला

बाँधो न नाव इस ठाँव, बंधु!
पूछेगा सारा गाँव, बंधु!


यह घाट वही जिस पर हँसकर,
वह कभी नहाती थी धँसकर,
आँखें रह जाती थीं फँसकर,
कँपते थे दोनों पाँव बंधु!


वह हँसी बहुत कुछ कहती थी,
फिर भी अपने में रहती थी,
सबकी सुनती थी, सहती थी,
देती थी सबके दाँव, बंधु!

Sunday, March 6, 2022

महक उठी अँगनाई - shashi purwar







चम्पा चटकी इधर डाल पर
महक उठी अँगनाई
उषाकाल नित
धूप तिहारे चम्पा को सहलाए
पवन फागुनी लोरी गाकर
फिर ले रही बलाएँ

निंदिया आई अखियों में और
सपने भरे लुनाई .

श्वेत चाँद सी
पुष्पित चम्पा कल्पवृक्ष सी लागे
शैशव चलता ठुमक ठुमक कर
दिन तितली से भागे

नेह अरक में डूबी पैंजन -
बजे खूब शहनाई.

-शशि पुरवार

Friday, March 4, 2022

छैल छबीली फागुनी - shashi purwar




छैल छबीली फागुनी, मन मयूर मकरंद
ढोल, मँजीरे, दादरा, बजे ह्रदय में छंद। 1

मौसम ने पाती लिखी, उड़ा गुलाबी रंग
पात पात फागुन धरे, उत्सव वाले चंग। 2

फगुनाहट से भर गई, मस्ती भरी उमंग
रोला ठुमरी दादरा, लगे थिरकने अंग। 3

फागुन आयो री सखी, फूलों उडी सुगंध
बौराया मनवा हँसे, नेह सिक्त अनुबंध। 4

मौसम में केसर घुला, मदमाता अनुराग
मस्ती के दिन चार है, फागुन गाये फाग। 5

फागुन में ऐसा लगे, जैसे बरसी आग
अंग अंग शीतल करें, खुशबु वाला बाग़.6

फागुन लेकर आ गया, रंगो की सौगात
रंग बिरंगी वाटिका, भँवरों की बारात7

हरी भरी सी वाटिका, मन चातक हर्षाय
कोयल कूके पेड़ पर, आम सरस ललचाय। 8

सूरज भी चटका रहा, गुलमोहर में आग
भवरों को होने लगा, फूलों से अनुराग 1०

चटक नशीले मन भरे, गुलमोहर में रंग
घने वृक्ष की छाँव में, मनवा मस्त मलंग 1१

धरती भी तपने लगी, अम्बर बरसी आग
आँखों को शीतल लगे, फूलों वाला बाग़ 1२
शशि पुरवार

Sunday, February 27, 2022

चलना हमारा काम है- शिवमंगल सिंह सुमन

 नमस्कार मित्रों

आज से एक नया खंड प्रारंभ कर रही हूं जिसमें हम हमारे हस्ताक्षरों की खूबसूरत रचनाओं का आनंद लेंगे.

इसी क्रम में आज शुरुआत करते हैं . शिवमंगल सिंह सुमन की रचना "चलना हमारा काम है ", जीवन को जोश ,  गति व हौसला प्रदान करती हुई एक रचना 

  



गति प्रबल पैरों में भरी
फिर क्यों रहूं दर दर खडा
जब आज मेरे सामने
है रास्ता इतना पडा
जब तक न मंजिल पा सकूँ,
तब तक मुझे न विराम है,
चलना हमारा काम है।

कुछ कह लिया, कुछ सुन लिया
कुछ बोझ अपना बँट गया
अच्छा हुआ, तुम मिल गई
कुछ रास्ता ही कट गया
क्या राह में परिचय कहूँ,
राही हमारा नाम है,
चलना हमारा काम है।

जीवन अपूर्ण लिए हुए
पाता कभी खोता कभी
आशा निराशा से घिरा,
हँसता कभी रोता कभी
गति-मति न हो अवरूद्ध,
इसका ध्यान आठो याम है,
चलना हमारा काम है।

इस विशद विश्व-प्रहार में
किसको नहीं बहना पडा
सुख-दुख हमारी ही तरह,
किसको नहीं सहना पडा
फिर व्यर्थ क्यों कहता फिरूँ,
मुझ पर विधाता वाम है,
चलना हमारा काम है।

मैं पूर्णता की खोज में
दर-दर भटकता ही रहा
प्रत्येक पग पर कुछ न कुछ
रोडा अटकता ही रहा
निराशा क्यों मुझे?
जीवन इसी का नाम है,
चलना हमारा काम है।

साथ में चलते रहे
कुछ बीच ही से फिर गए
गति न जीवन की रूकी
जो गिर गए सो गिर गए
रहे हर दम,
उसी की सफलता अभिराम है,
चलना हमारा काम है।

फकत यह जानता
जो मिट गया वह जी गया
मूंदकर पलकें सहज
दो घूँट हँसकर पी गया
सुधा-मिक्ष्रित गरल,
वह साकिया का जाम है,
चलना हमारा काम है।


शिवमंगल सिंह सुमन


Tuesday, August 24, 2021

झील में चंदा

  1

नदियातीरे

झील में उतरता

हौले से चंदा

2

बहती नदी

आँचल में समेटे

जीवन सदी

2

सुख और दुख

नदी के दो किनारे

खुली किताब

3

सुख की धारा

रीते पन्नों पर  भी

पवन लिखे

4

दुख की धारा

अंकित पन्नों पर

जल  में डूबी

5

बहती नदी

पथरीली हैं राहें

तोड़े पत्थर

6

वो पनघट

पनिहारिन बैठी

यमुना तट

7

नदी -तरंगे

डुबकियाँ लगाती 

काग़ज़ी नाव

8

लिखें तूफ़ान

तक़दीरों की बस्ती

नदिया धाम

9

बहता पानी

विचारों की रवानी

नदिया रानी

-0-

 शशि पुरवार 




Saturday, January 2, 2021

उम्मीद के ठिकाने

 

साल नूतन आ गया है 
नव उमंगों को सजाने 
आस के उम्मीद के फिर 
बन रहें हैं नव ठिकाने

भोर की पहली किरण भी 
आस मन में है जगाती
एक कतरा धूप भी, लिखने 
लगी नित एक पाती

पोछ कर मन का अँधेरा 
ढूँढ खुशियों के खजाने
साल नूतन आ गया है
नव उमंगों को सजाने

रात बीती, बात बीती 
फिर कदम आगे बढ़ाना 
छोड़कर बातें विगत की 
लक्ष्य को तुम साध लाना

राह पथरीली भले ही 
मंजिलों को फिर जगाने 
साल नूतन आ गया है
नव उमंगों को सजाने

हर पनीली आँख के सब 
स्वप्न पूरे हों हमेशा 
काल किसको मात देगा 
जिंदगी का ठेठ पेशा

वक़्त को ऐसे जगाना 
गीत बन जाये ज़माने ​​
साल नूतन आ गया है
नव उमंगों को सजाने

- शशि पुरवार   


Tuesday, November 10, 2020

एक स्त्री ....

 

एक स्त्री 

अपना सब कुछ न्यौछावर कर देती 

एक स्त्री पुरुष के बिना कहे 

उसकी हर छोटी ज़रूरतों 

का ध्यान रखती है 

वही स्त्री पुरुष द्वारा 

हिरणी सी कुचली भी जाती है 


एक स्त्री

माँ बनकर अपनी ममता लुटाती है 

वही स्त्री 

सभी रिश्तों की परिभाषा का 

किरदार जीवन में निभाती है 

पर वही स्त्री उस ममता का
कितना मोल 
पाती है ? 


एक स्त्री 

दो पल सुख की ख़ातिर 

स्वयं के दर्द सहलाती है 

एक स्त्री ही हर बंधन में 

जकड़ी जाती है 

एक स्त्री ही अपने घर में 

पराई कहलाती  है 


टूट कर जीती है वह अपनो के लिए 

क्या दो स्नेहिल शब्दों का  मोल भी 

कंठ लगाती है ?

हर पल  लड़ती है अपनो के लिए 

लेकिन क्या 

ख़ुद के लिए इक कोना सजाती है 


आवाज़ उठाए तो बग़ावत है 

आवाज़ दब जाए तो 

कुचली  जाने के लिए तैयार है 


जीवन के हर मोड़ पर 

क्यूँ स्त्री ही छली जाती है 

पुरुषों को जन्म देने वाली 

स्त्री स्वयं पुरुषों द्वारा ही 

कुचली जाती है 


बचपन , जवानी या हो बुढ़ापा 

स्त्री कभी निर्भया, कभी परितज्य 

कभी अवसादों में स्वयं को 

घिरा पाती  है 


एक स्त्री अपने ह्रदय के 

तहखानो में 

बंद अपने सपनो 

अपनी अभिलाषाओं 

अपने विचारों से 

पल पल लड़ती है 


लेकिन वही स्त्री 

जीवन के हर मोड़ पर 

चट्टानों से खड़ी 

हर तूफ़ानों से 

उन्ही अपनों के लिए 

लड़ती नज़र आती है 


स्त्री बिना कुछ कहे

अपने हर दर्द पर 

मलहम लगाती है लेकिन 

क्या स्त्री को मिलती है ? 

जीवन की तपती ज़मीन पर
शीतल 
वृक्ष की छाँव 

जहां वह निश्चल सी 

खिलखिलाती है 

गुनगुनाती है ? 

शशि पुरवार 

 

सामाजिक मीम पर व्यंग्य कहानी अदद करारी खुश्बू

 अदद करारी खुशबू  शर्मा जी अपने काम में मस्त   सुबह सुबह मिठाई की दुकान को साफ़ स्वच्छ करके करीने से सजा रहे थे ।  दुकान में बनते गरमा गरम...

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🏆 Shashi Purwar — Honoured as 100 Women Achievers of India | Awarded by Maharashtra Sahitya Academy & MP Sahitya Academy