आदमी खुद पर हँसे। खुलकर ठहाके लगाये। अपनी हरकतों (लेखन) पर चुटकी कसे। यह सुनने में भले ही मुस्कुराने का कार्य लगता हो लेकिन अट्ठहास हम जैसे युवा रचनाकार को भी अपने कटघरे में खड़ा कर सकता है। जब यह कहा गया तो मुझे अजीब लगा। लेकिन कलम उठाने के बाद अपने अंदर के समीक्षक बनने का यह सुनहरा मौका मैंने छोड़ना उचित नहीं समझा। लेखन में सीधे व्यंग्य को दायरे समेट रखा है , इसमें दो राय हो सकती। लीजिये हाजिर है शशि पुरवार के साथ उनके जबाब और पत्रिका के एडिटर से हुई वार्ता ( साक्षात्कार )--- अट्ठहास पत्रिका में प्रकाशित साक्षात्कार आप सभी के लिए यहाँ भी ----
प्रश्न १
आप व्यंग्य के बारे क्या कहना चाहेंगी । व्यंग्य अच्छा है या बुरा ?
उत्तर --
सर्वप्रथम मै यही कहूँगी कि कोई भी चीज अच्छी या बुरी
नहीं होती है , उसे अच्छा या बुरा बनाने वाले हम और आप ही होते है, या
तो फिर बुरी लोगों की नजरें होतीं है। )
व्यंग्य संस्कृत भाषा का शब्द है जो ‘अज्ज’
धातु में
‘वि’
उपसर्ग और
‘ण्यत्’
प्रत्यय के लगाने से बनता है। व्यंजना शक्ति के सन्दर्भ में
व्यंगार्थ के रूप में इसका प्रयोग होता है। ।
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने व्यंग्य की परिभाषा देते हुए कहा
र्है
“व्यंग्य
कथन की एक ऐसी शैली है जहाँ बोलने वाला अधरोष्ठों में मुस्करा रहा हो और
सुनने वाला तिलमिला उठे।”
यानी व्यंग्य तीखा व तेज - तर्रार कथन होता है जो हमेशा सोद्देश्य होता है और
जिसका प्रभाव तिलमिला देने वाला होता है।
व्यंग्य का प्रयोग आदि
काल से होता आ रहा है, कबीर ने भी धार्मिक आडम्बरों व मूर्ति पूजा का
खंडन व्यंगात्मक शैली में ही किया था , मुसलमान हिन्दू दोनों समुदाय के
लिए उन्होंने जो लिखा वह करारा व्यंग्य था
प्रश्न २ -- हास्य व्यंग्य जो कभी हाशिये पर था आजकल केंद्र में क्यों है ?
आपकी
बात से पूर्णतः सहमत हूँ , व्यंग्य पहले ज्यादा प्रचलित नहीं था। मिडिया
में वही परोसा जा रहा था जिसे जनता देखना पसंद करती थी। टीवी चैनलों पर
सास - बहु ,लूट -पाट, मार - धाड़ वाले डेली सोप अपनी कलाबाजियों से; लोगो को उलझा रहे थे, उसके बाद उनकी जगह धार्मिक सोप ने ली। किन्तु लोगों को बदलाव की
आवश्यकता थी, वहीं रोज ऊब पैदा करने वाले डाइलोग के अलावा कुछ नहीं
था जो तोहफे में सिवाय सरदर्द के कुछ नहीं देते थे। जीवन से मधुरता गायब
होकर शरीर को बीमार बनाने पर आमादा हो गयी थी । हर चीज एक सीमा तक ही अच्छी
लगती है, अब रबर को ज्यादा खीचेंगे, तो वह टूटेगी ही। रोज रोज आपको थाली
में वही भोजन परोसा जाये तो, क्या आप उतनी की रूचि से रोज वह खाना पसंद
करेंगे। यही बदलाव व्यंग्य को केंद्र में लेकर आया है .
प्रश्न ३ --
सोशल मिडिया में व्यंग्य का क्या स्थान है ? महिला व्यंग्यकारों की इसमें क्या भागीदारी है ?
उ-
सोशल मिडिया सदैव समाज पर हावी रहा है.
बदलाव के बाद जब व्यंग्य, हास्य नाटक , हास्य कवि सम्मलेन प्रस्तुत हुए, तब लोगों ने खुले मन उसकी वाह वाही की, जल्दी ही कविसम्मेलन, हास्य नाटकों
ने लोगों के दिलों में अपनी सुरक्षित जगह बना ली थी, धीरे धीरे व्यंग्य का स्वरुप बदला और हास्य को शामिल करके व्यंग्य विधा का पक्ष बहुत मजबूत हो
गया है। महत्वपूर्ण कथ्य हल्के -फुल्के अंदाज में प्रस्तुत होने लगे और पाठक - श्रोता वर्ग पर अपनी गहरी छाप छोड़ने लगे। किन्तु वही भेड़चाल यहाँ भी शुरू हो गयी और यही पतन का कारण भी बनी है। टी आर पी बढ़ाने के चक्कर में, हास्य
व्यंग्य के नाम पर भोंडापन दिखाया जाने लगा. सस्ती लोकप्रियता की होड़ में सब
औंधे मुँह गिरने लगे , एक समय ऐसा भी आया जब परिवार के साथ बैठकर यह सब
देखना शर्मनाक हो गया।
महिलाएं
हर
क्षेत्र में कार्य कर रही है तो लाजमी है, वह सफल व्यंग्यकार के रूप में भी
सक्रीय है और उनकी भागीदारी व्यंग्य क्षेत्र में भी है. मिडिया में कई
हास्य कलाकारा है, जो अपने अच्छे व्यक्तिव और कला के कारण अस्तिव में आई
है और उन्होंने सम्मानजनक स्थिति में कार्य किया है।
प्रश्न ४ -- आज हास्य व्यंग्य की मौजूदा स्थिति क्या है ? क्या साहित्य में भी व्यंग्य प्रचलित है
उ-
जी
हाँ, आज हास्य व्यंग्य को कथा जगत में भी खासा पसंद किया जाता है और खासा प्रचलित
है। साहित्यजगत ने सदैव परिवर्तन को स्वीकारा है, साहित्य गतिशील है, वह
सदैव वर्तमान के परिवेश को व्यक्त करता है। हास्य का समावेश गीत, गजल
, व्यंग्य , कविता , लगभग सभी विधाओं में है . जन
- मानस तक अपनी बात को प्रभावशाली ढंग से पहुँचाना कोई गलत बात नहीं है ,
बशर्ते उसमे भौंड़ापन ना हो।
प्रश्न ५ -- हास्य व्यंग्य का समाज से कोई सरोकार है ?
उ-
बिलकुल
, व्यंग्य का समाज से सरोकार है , भाई जो समाज में घटित हो रहा है , वही तो
दिखाया जायेगा। इसमें काल्पनिक वार्ता का तो कोई स्थान ही नहीं होता है। एक
साहित्यकार, रचनाकार , व्यंग्यकार समाज के दर्पण होते है , वह समाज को उसी
का आइना दिखाते है। बिना सामाजिक सरोकार के तो सभी विधाएँ पंगु हो जाएगी।
प्रश्न ६
क्या आप खुद को एक सफल व्यंग्यकार मानती है ? क्या आपको व्यंग्य लिखना पसंद है या व्यंग्य लिखना आपकी मज़बूरी है ?---
नहीं, मै स्वयं को एक रचनाकार मानती हूँ। मै व्यंग्यकार नहीं हूँ , ना ही
मेरी मज़बूरी है कि मै मज़बूरी में कोई कार्य करूँ . हाँ ........ व्यंग्य को
बेहद पसंद करती हूँ , मुझे भी व्यंग्य विधा पसंद है, जब पढ़ना या सुनना शुरू
करो तो , अंत समय कब आता है ज्ञात ही नहीं होता और वातावरण हल्का फुल्का
रुचिकर बना रहता है ,
हल्का फुल्का अंदाज अंत तक रचना में अपनी जिज्ञासा बनाये रखता है। मै सिर्फ
व्यंग्य नहीं लिखती हूँ किन्तु मेरी रचनाओ में व्यंग्य का हल्का सा समावेश जरूर
होता है , कथन को अपने मंतव्य तक पहुँचाने के लिए व्यंग्य एक सशक्त व सफल
माध्यम है। यदि रचनाओं में सिर्फ सपाटबयानी , उबाऊपन होगा तो कहाँ आनंद
आएगा , पाठक पन्ने फाड़ कर फ़ेंक देंगे और श्रोता टमाटर फेकेंगे।
पाठक तक अपना मंतव्य पहुचाने के लिए,
रचना में थोड़ा सा तीखापन व्यंग्यात्मकता जरूर प्रस्तुत करती हूँ। यह समय की माँग है।
पाठको को व्यंग्य पसंद आता है और थोड़ी सी चुटकी बजनी चाहिए भी चाहिए। मेरी एक
रचना है जिसमे ; आज जिस परिवेश में परिवार टूटने लगे है,जहाँ बच्चों का माता -पिता के साथ अनुचित व्यवहार हो रहा है, उन्हें अपने
माता पिता अधेड़ उम्र बोझ प्रतीत होते है.… वक़्त बहुत बदल गया , नारी की
अस्मिता आज सरे बाजार लुटने लगी है आदि बातों को मेरी दो कुंडलियों में
मैंने थोड़ी सी छींटाकशी की है।
सारे वैभव त्याग के, राम गए वनवास
सीता माता ने कहा, देव धर्म ही ख़ास
देव धर्म ही ख़ास, नहीं सीता सी नारी
मिला राम का साथ, सिया तो जनक दुलारी
कलयुग के तो राम, जनक को ठोकर मारे
होवे धन का मान, अधर्मी हो गए सारे.
व्यंग्य का उपयोग
सार्थक और सही दिशा में होगा तो कारगर सिद्ध होगा। आज जीवन को मुस्कान
और हास्य पलों की जरुरत है. यह अंदाज बेहद अलग हल्का फुल्का रोचक है।
लेखन वही सार्थक होता है, जो पाठक के मन पर अपनी छाप छोड़
सके , पाठक को रुचिकर हो। ऐसा नहीं है सिर्फ व्यंग्य लिखने से ही
यह कार्य संभव है , परन्तु व्यंग्य, रचना में सुगन्धित उस छौंक के समान है ,
जिसकी खुशबु हर वर्ग को अपनी और आकर्षित कर लेती है। पाठक वर्ग बड़ा हो
या छोटा, बरबस खींचे चले आते है । भाग -दौड़ भरी जिंदगी में व्यंग्य पाठक को
गुदगुदाते है और गंभीर सवालों को सरलता से पाठक तक पंहुचाते है।
आज के व्यस्त जीवन में जहाँ लोग हँसना
भी भूल गए है, महत्वकांशा उनके जीवन पर हावी हो चुकी है. ऐसे समय में परिवार तो
क्या, उनके पास खुद के लिए भी वक़्त नहीं होता है। मनोरंजन के नाम पर भी
मारधाड़ , कुटिलता परोसी जा रही है। ऐसे में हास्य रस का स्वाद लेना लोग
जैसे भूलते जा रहे है। पहले जो समय था ,जहाँ हंसी ठिठोली व्याप्त थी।
हास्य कविसम्मेलन के आयोजन होते रहते थे , गंभीर वार्ता सहजता से होती थी,
धीरे धीरे सभी धूमिल सी हो गयी है। आज ऐसे पलों में व्यंग रचनाएँ ठन्डे
फाहे के समान है, जो कहीं न कहीं अधरों पर मुस्कान ले आती है। मेरा यह
मानना है कि जीवन में ऐसा तड़का जरूर लगाईये ,जिससे जीवन आसान होते जाए। आज
के समय में कम शब्दों में अपनी बात पाठक तक पंहुचा सकें यही प्रयास
रहता है .
जंग दौलत की छिड़ी है रार क्या
आदमी की आज है दरकार क्या १
जालसाजी के घनेरे मेघ है
हो गया जीवन सभी बेकार क्या२
लुट रही है राह में हर नार क्यों
झुक रहा है शर्म से संसार क्या ३
प्रश्न --व्यंग्य लिखना कितना जरुरी है ,? मज़बूरी से ज्यादा। …………?
हाँ,
आपकी बात से सहमत हूँ , व्यंग्य लिखना आज पत्रकारों, साहित्यकारों की
मज़बूरी भी हो गयी है, आज से विध्वंशकारी माहौल में जहाँ इंसान हँसना
-हँसाना भूल गए है वहीँ हास्य एक योग भी है। पहले जहाँ लोग आपसे में
मिलबैठ हँसते - बोलते थे आजकल की ऊब भरी जिंदगी में हँसने के लिए हास्य
क्लब बन गए है। राजनितिक गहमागहमी, आतंकी गतिविधियाँ, बेरोजगारी,
मँहगाई, भ्रष्टाचार, लोगों में आगे निकलने की महत्वकांषा ।जैसे सब हँसना
ही भूल गए हो, सीधी राह चलने में आज अवरोध ही अवरोध मिलते है। कोई यदि
अपनी बात सीधे रूप में रखना चाहता है तो गंभीर बातों की तरफ भी लोग ध्यान
नहीं होता है ,व्यंगात्मक वार्ता जैसे जहर बुझे तीर के समान होती है, न
चाहते हुए बरबस हर किसी का ध्यान अपनी तरफ आकर्षित करने की क्षमता रखती
है। आज की विसंगतियों में जहाँ व्यंग को नम उपजाऊ धरती मिली है वहीँ आज
व्यंग्य वार्ता अनिवार्य और अनमोल हो गयी है। हास्य के बिना जीवन चलता तो
है किन्तु जीवन में कोई रस नहीं रहता , तनाव इतना बढ़ गया है कि लोग फल -
सब्जी की जगह दवाईयाँ के सहारे जीते है, जीवन भी गोलियों के सहारे
चलने लगा है, सब परिस्थितियां जानने और समझने के बाद भी लोग उबाऊ ,नीरस
जीवन जीते है , अब आप ही बताईये यह कैसा जीवन है ? कैसी महत्वकांक्षा है ?
जिसने संतरे जैसे खट्टे - मीठे जीवन का सब रस ही निचोड़ लिया है। आज अपने
ही घर में लोगों को आपस में बात करने तक की फुर्सत नहीं होती है, मौज
-मस्ती का अर्थ उनके लिए पार्टी और जाम से जाम टकराने तक ही सिमित हो गया
है, या फिर जिंदगी गैजेट में सिमट कर हाईटेक हो गयी है। लोग घर में तो
बात नहीं करते किन्तु सोशल साइट पर दिन भर चैट कर सकते है। और अब यह
गंभीर लत ,नयी बीमारी के रूप में उभर कर सामने आई है। यह लत छुड़ाने के
लिए अब देश में कई सेंटर खुल गए है।
आज व्यंग्य के सरताज
व्यंग्य और हास्य के बीच पर्दा खींच रहे है , किन्तु यह दोनों ही एक दूसरे से
पूरक है, अब आप ही बताइये जहाँ गंभीर कार्य की रूप रेखा बन रही है,माहौल
में तनातनी है, वहां मधुर संगीत सुनाने से कुछ नहीं होने वाला ऐसी स्थिति
में व्यंगात्मक दो टूक बात ही कड़वी गोली का काम करती है और जहाँ शादी
होगी वहां शहनाई की जगह ताली बजाने से कुछ नहीं होने वाला है। यही
पर्दा हास्य और व्यंग को पूरक बनता है.
गीत -गजल,
संगीत सुनने के लिए एक मौसम के अनुरूप मौहोल की भी जरुरत होती है , व्यंग
उस केक्टस के समान है जो कभी भी किसी भी स्थति में जन्म लेकर सार्थक होता
है. किन्तु आज व्यंग से हास्य क्षीण होता जा रहा है , आजकल यह देखने में आ
रहा है कि भेड़चाल की तरह व्यंग तीखे - कड़वेपन के साथ प्रस्तुत होने लगा
है य़ह उचित नहीं है , व्यंग्य ऐसा होना चाहिए जिसमे हास्य का समावेश हो, पाठक
मुस्कुराते - गुदगुदाते हुए व्यंग्य का आनंद ले , बातों ही बातों में गहरी
गंभीर बात ऐसे सामने आए कि उसकी आने की आहट का पता नहीं चले , यह कार्य
हास्य व्यंगकार की कुशलता पर निर्भर होता है. हँसी - हँसी मे बात करते करते गंभीर मुद्दों की तरफ ध्यान
आकृष्ट करने की बड़ी चुनोती है। हास्य के जरिये व्यंगात्मक शैली में ऐसे सहज
भाव से चोट करना कि किसी को पता भी न चले यही हास्य व्यंग्य रचनाकार की
कसोटी है। हास्य व्यंग्य की सीढ़ी है। सीधासादा
व्यंग्य आलोचना बन कर रह जाता है। अच्छे व्यंग्य लेखक की पहचान यह है की
उसका लेखन पठनीय और रोचक हो। जिसे पढ़ कर लोग जीने का होसला कर सकें।