अदद करारी खुशबू
शर्मा जी अपने काम में मस्त सुबह सुबह मिठाई की दुकान को साफ़ स्वच्छ करके करीने से सजा रहे थे । दुकान में बनते गरमा गरम पोहे जलेबी की खुशबु नथुने में भरकर जिह्वा को ललचा ललचा रही थी। अब खुशबु होती ही है ललचाने के लिए , फिर गरीब हो या अमीर खींचे चले आते है। खाने के शौक़ीन ग्राहकों का हुजूम सुबह सुबह उमड़ने लगता था। खाने के शौक़ीन लोगों के मिजाज भी कुछ अलग ही होते हैं। कुछ गर्मागर्म पकवानों को खाते हैं कुछ करारे करारे नोटों को आजमाते हैं। अब आप कहेंगे नोटों आजमाना यानि कि खाना। नोट आज की मौलिक जरुरत है। प्रश्न उठा कि नोट कौन खा सकता है। अजी बिलकुल खाते है , कोई ईमानदारी की सौंधी खुशबू का दीवाना होता है तो कोई भ्रष्टाचार की करारी खुशबू का। हमने तो बहुत लोगों को इसके स्वाद का आनंद लेते हुए देखा है। ऐसे लोगों को ढूंढने की जरुरत नहीं पड़ती अपितु ऐसे लोग आपके सामने स्वयं हाजिर हो जाते हैं। खाने वाला ही जानता है कि खुशबू कहाँ से आ रही है। जरा सा इर्द गिर्द नजर घुमाओ , नजरों को नजाकत से उठाओ कि चलते फिरते पुर्जे नजर आ जायेंगे।
हमारे शर्मा जी के दुकान के पकवान खूब प्रसिद्ध है। बड़े प्रेम से लोगों को प्रेम से खिलाकर अपने जलवे दिखाकर पकवान परोसते हैं। कोर्ट कचहरी के चक्कर उन्हें रास नहीं आते। २-४ लोगों को हाथ में रखते है। फ़ूड विभाग वालों का खुला हुआ मुँह भी रंग बिरंगे पकवानो से भर देते हैं। आनंद ही आनंद व्याप्त है। खाने वाले भी जानते है कहाँ कितनी चाशनी मिलेगी।
फ़ूड विभाग के पनौती लाल को और क्या चाहिए। गर्मागर्म पोहा जलेबी के साथ करारा स्वाद उनके पेट को गले तक भर देता है। उन्हें मालूम है जहाँ गुड़ होगा मक्खी भिनभिनायेंगी। पकवान की खुशबू में मिली करारी खुशबू का स्वाद उनकी जीभ की तृषा शांत करता है। आजकल लोगों में मातृ भक्त ईमानदारी कण कण में बसी थी। यह ईमानदारी करारी खुशबू के प्रति वायरल की तरह फैलती जा रही है। आजकल के वायरस भी सशक्त है तेजी से संक्रमण करते है। संक्रमण की बीमारी ही ऐसी है जिससे कोई नहीं बच सकता है।
शर्मा जी के भाई गुरु जी कॉलेज में प्रोफेसर है। वैसे गुरु जी डाक्टर हैं किन्तु डाक्टरी अलग प्रकार से करते है। उनकी डाक्टरी के किस्से कुछ अलग ही है। अपने भाई पनौतीलाल से उन्होंने बहुत कुछ सीखा , उसमे सर्वप्रथम था करारी खुशबू का स्वाद लेना व स्वाद देना। यह भी एक कला है जिसे करने के साधना करनी होगी।
वह डाक्टरी जरूर बने पर मरीज की सेवा के अतिरिक्त सब काम करतें है। कॉलेज में प्रोफेसर की कुर्सी हथिया ली। किन्तु पढ़ाने के अतिरिक्त सब काम में महारत हासिल है और बच्चे भी उनके कायल है। मसलन एडमिशन करना , बच्चों को पास करना , कॉलेज के इंस्पेक्शन करवाना , कितनी सीटों से फायदा करवाना ... जैसे अनगिनत काम दिनचर्या में शामिल है। जिसकी लिस्ट भी रजिस्टर में दर्ज न हो। हर चीज के रेट फिक्स्ड है। जब बाजार में इंस्टेंट वस्तु उपलब्ध हो तो खुशबू कुछ ज्यादा ही करारी हो जाती है। ऐसे में बच्चे भी खुश हैं ; वह भी नारे लगाते रहते है कि हमारे प्रोफेसर साहब जिन्दावाद। गुरु ने ऐसा स्यापा फैलाया है कि कोई भी परेशानी उन तक नहीं पंहुच पाती। विद्यार्थी का हुजूम उनके आगे - पीछे रहता है। गुरु जी को नींद में करारे भोजन की आदत है। स्वप्न भी उन्हें सोने नहीं देते। जिजीविषा कम नहीं होती। नित नए तरीके ढूंढते रहते है।
उनका जलवा ऐसा कि नौकरी मांगने वाले मिठाई के डब्बे लेकर खड़े रहते है। उनका डबल फायदा हो रहा था। असली मिठाई पनौती लाल की दुकान में बेच कर मुनाफा कमाते व करारी मिठाई सीधे मर्तबान में चली जाती थी। यानी पांचो उंगलिया घी में थी।
एक बार उन्होंने सोचा अपनी करीबी रिश्तेदार का भला कर दिया है। रिश्तेदारी है तो कोई ज्यादा पूछेगा नहीं। अपना भी फायदा उसका भी भला हो जायेगा। भलाई की आग में चने सेंकना गुरु जी की फितरत थी।
अपनी रिश्तेदार इमरती को काम दिलाने के लिए महान बने गुरु जी ने उसे अपने कॉलेज में स्थापित कर दिया। उसका सिर्फ एक ही काम था कॉलेज में होने वाले इंस्पेक्शन व अन्य कार्यों के लिए हस्ताक्षर करना और कुर्सी की शोभा बढ़ाना। महीने की तय रकम की ५००० रूपए।
गुरु जी पान खाकर लाल जबान लिए घूमते थे। बेचारी इमरती को देते थे ५००० रूपए और शेष २५००० अपनी जेब में। यह गणित समझने वालों के लिए मुश्किल हो सकता है चलो हम आसान कर देते हैं। गुरु जी अपने करारे कामों के लिए इतने मशहूर थे कि बच्चों से लेकर स्टाफ तक; उनकी जी हुजूरी करता है। ऐसे में गुरु जी लोगों से ठेके की तरह काम लेते और गऊ बनकर सेवा धरम करते। रकम की बात दो दलों से करते स्वयं बिचौलिए बने रहते। दूध की मलाई पूरी खाने के बाद ही दूध का वितरण करते थे । करारी खुशबू की अपनी एक अदा है। जब वह आती है तो रोम रोम खिल उठता है जब जाती है तो जैसे बसंत रूठ गया हो।
दोनो भाई मिल जुलकर गर्मागर्म खाने के शौक़ीन थे। इधर कुछ दिनों से इमरती को मन के खटका होने लगा कि कम पगार के बाबजूद गुरु जी की पांचो उँगलियाँ घी में है और वह स्वयं सूखी रोटी खा रही है। इंसान की फितरत होती है जब भी वह अपनी तुलना दूसरों से करता है उसका तीसरा नेत्र अपने आप खुल जाता है। भगवान शिव के तीसरे नेत्रों में पूरी दुनिया समायी है , पर जब एक स्त्री अपना तीसरा नेत्र खोलती है तो उससे कुछ भी छुपाना नामुमकिन है। वह समझ गयी कि दाल में कुछ काला ही नहीं पूरी दाल ही काली है। खूब छानबीन करने के बाद गुरु जी क्रियाकर्म धीरे धीरे नजर आने लगे। कैसे गुरु जी उसका फायदा उठाया है। उसके नाम पर लोगों से ४०००० लेते थे बदले में ५००० टिका देते है। शेष अपने मर्तबान में डालते थे।
इतने समय से काम करते हुए वह भी होशियार हो चली थी , रिश्तेदारी को अलग रखने का मन बनाकर अपना ब्रम्हास्त्र निकाला। आने वाले परीक्षा के समय अपना बिगुल बजा दिया , काम के खिलाफ अपनी संहिता लगा दी।
" इमरती समझा करो , ऐसा मत करो "
" क्यों गुरु भाई आप तो हमें कुछ नहीं देते हैं फ़ोकट में काम करवा रहे हो "
" देता तो हूँ ज्यादा कहाँ मिलता है , बड़ी मुश्किल से पैसा निकलता है , चार चार महीने में बिल पास होता है "
" झूठ मत बोलो , मुझे सब पता चल गया है, आज से मै आपके लिए कोई काम नहीं करुँगी। "
अब गुरु जी खिसियानी बिल्ली की तरह खम्बा नोच रहे थे। सोचा था करीबी रिश्तेदार है। कभी दिया कभी नहीं दिया तो भी फर्क नहीं पड़ेगा। बहुत माल खाने में लगे हुए थे। पर उन्हें क्या पता खुशबू सिर्फ उन्हें ही नहीं दूसरों तक भी पहुँचती है।
इमरती की बगावत ने उनके होश उड़ा दिए , बात नौकरी पर आन पड़ी। आला अफसर सिर्फ करारे काम ही देखना पसंद करते हैं उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि करारे व्यंजन में उपयोग होने वाली सामग्री कैसी है। यहाँ हर किसी को अपनी दुकान चलानी है। कहतें है जब मुंह को खून लग जाये तो उसकी प्यास बढ़ती रहती है। यही हाल जिब्हा का भी है। तलब जाती ही नहीं।
इमरती के नेत्र क्या खुले गुरु जी की जान निकलने लगी। गुरु जी इमरती को चूरन चटा रहे थे किन्तु यहाँ इमरती ने ही उन्हें चूरन चटा दिया। कहते हैं न सात दिन सुनार के तो एक दिन लुहार का। आज इमरती चैन की नींद सो रही थी। कल का सूरज नयी सुबह लेकर आने वाला था। सत्ता हमेशा एक सी नहीं चलती है। उसे एक दिन बदलना ही पड़ता है।
गुरु जी के होश उड़े हुए थे। उन्हें समझ में आ गया उनकी ही बिल्ली उन्ही से माउं कर रही है। करारी खुशबू ने अब उनका जीना हराम कर रखा था। खुशबू को कैद करना नामुमकिन है। इमरती को आज गर्मागर्म करारी जलेबी का तोहफा दिया। भाई होने की दुहाई दी। रोजी रोटी का वास्ता दिया और चरणों में लोट गए।
खुशबू जीत गयी थी। अब मिल बांटकर खाने की आदत ने अपनी अपनी दुकान खोल ली और अदद खुशबू का करारा साम्राज्य अपना विस्तार ईमानदारी से कर रहा था। जिससे बचना कठिन ही नहीं नामुमकिन है। दो सौ मुल्कों की पुलिस भी उसे कैद करने असमर्थ है। करारी खुशबू का फलता फूलता हुआ साम्राज्य विकास व समाज को कौन सी कौन दिशा में ले जायेगा।
यह सब कांड देखकर शर्मा जी को हृदयाघात का ऐसा दौरा पड़ा कि परलोक सिधार गए। सुबह गाजे बाजे के साथ उनकी यात्रा निकाली गयी। उनके करारे प्रेम को देखकर लोगों ने उन्हें नोटों की माला पहनाई। नोटों से अर्थी सजाई। फूलों के साथ लोगों ने नोट चढ़ाये। लेकिन आज यह नोट उनके किसी काम के नहीं थे। उनकी अर्थी पर चढ़े हुए नोट जैसे आज मुँह चिढ़ा रहे थे। आज उनमे करारी खुशबू नदारत थी।
शशि पुरवार
शर्मा जी अपने काम में मस्त सुबह सुबह मिठाई की दुकान को साफ़ स्वच्छ करके करीने से सजा रहे थे । दुकान में बनते गरमा गरम पोहे जलेबी की खुशबु नथुने में भरकर जिह्वा को ललचा ललचा रही थी। अब खुशबु होती ही है ललचाने के लिए , फिर गरीब हो या अमीर खींचे चले आते है। खाने के शौक़ीन ग्राहकों का हुजूम सुबह सुबह उमड़ने लगता था। खाने के शौक़ीन लोगों के मिजाज भी कुछ अलग ही होते हैं। कुछ गर्मागर्म पकवानों को खाते हैं कुछ करारे करारे नोटों को आजमाते हैं। अब आप कहेंगे नोटों आजमाना यानि कि खाना। नोट आज की मौलिक जरुरत है। प्रश्न उठा कि नोट कौन खा सकता है। अजी बिलकुल खाते है , कोई ईमानदारी की सौंधी खुशबू का दीवाना होता है तो कोई भ्रष्टाचार की करारी खुशबू का। हमने तो बहुत लोगों को इसके स्वाद का आनंद लेते हुए देखा है। ऐसे लोगों को ढूंढने की जरुरत नहीं पड़ती अपितु ऐसे लोग आपके सामने स्वयं हाजिर हो जाते हैं। खाने वाला ही जानता है कि खुशबू कहाँ से आ रही है। जरा सा इर्द गिर्द नजर घुमाओ , नजरों को नजाकत से उठाओ कि चलते फिरते पुर्जे नजर आ जायेंगे।
हमारे शर्मा जी के दुकान के पकवान खूब प्रसिद्ध है। बड़े प्रेम से लोगों को प्रेम से खिलाकर अपने जलवे दिखाकर पकवान परोसते हैं। कोर्ट कचहरी के चक्कर उन्हें रास नहीं आते। २-४ लोगों को हाथ में रखते है। फ़ूड विभाग वालों का खुला हुआ मुँह भी रंग बिरंगे पकवानो से भर देते हैं। आनंद ही आनंद व्याप्त है। खाने वाले भी जानते है कहाँ कितनी चाशनी मिलेगी।
फ़ूड विभाग के पनौती लाल को और क्या चाहिए। गर्मागर्म पोहा जलेबी के साथ करारा स्वाद उनके पेट को गले तक भर देता है। उन्हें मालूम है जहाँ गुड़ होगा मक्खी भिनभिनायेंगी। पकवान की खुशबू में मिली करारी खुशबू का स्वाद उनकी जीभ की तृषा शांत करता है। आजकल लोगों में मातृ भक्त ईमानदारी कण कण में बसी थी। यह ईमानदारी करारी खुशबू के प्रति वायरल की तरह फैलती जा रही है। आजकल के वायरस भी सशक्त है तेजी से संक्रमण करते है। संक्रमण की बीमारी ही ऐसी है जिससे कोई नहीं बच सकता है।
शर्मा जी के भाई गुरु जी कॉलेज में प्रोफेसर है। वैसे गुरु जी डाक्टर हैं किन्तु डाक्टरी अलग प्रकार से करते है। उनकी डाक्टरी के किस्से कुछ अलग ही है। अपने भाई पनौतीलाल से उन्होंने बहुत कुछ सीखा , उसमे सर्वप्रथम था करारी खुशबू का स्वाद लेना व स्वाद देना। यह भी एक कला है जिसे करने के साधना करनी होगी।
वह डाक्टरी जरूर बने पर मरीज की सेवा के अतिरिक्त सब काम करतें है। कॉलेज में प्रोफेसर की कुर्सी हथिया ली। किन्तु पढ़ाने के अतिरिक्त सब काम में महारत हासिल है और बच्चे भी उनके कायल है। मसलन एडमिशन करना , बच्चों को पास करना , कॉलेज के इंस्पेक्शन करवाना , कितनी सीटों से फायदा करवाना ... जैसे अनगिनत काम दिनचर्या में शामिल है। जिसकी लिस्ट भी रजिस्टर में दर्ज न हो। हर चीज के रेट फिक्स्ड है। जब बाजार में इंस्टेंट वस्तु उपलब्ध हो तो खुशबू कुछ ज्यादा ही करारी हो जाती है। ऐसे में बच्चे भी खुश हैं ; वह भी नारे लगाते रहते है कि हमारे प्रोफेसर साहब जिन्दावाद। गुरु ने ऐसा स्यापा फैलाया है कि कोई भी परेशानी उन तक नहीं पंहुच पाती। विद्यार्थी का हुजूम उनके आगे - पीछे रहता है। गुरु जी को नींद में करारे भोजन की आदत है। स्वप्न भी उन्हें सोने नहीं देते। जिजीविषा कम नहीं होती। नित नए तरीके ढूंढते रहते है।
उनका जलवा ऐसा कि नौकरी मांगने वाले मिठाई के डब्बे लेकर खड़े रहते है। उनका डबल फायदा हो रहा था। असली मिठाई पनौती लाल की दुकान में बेच कर मुनाफा कमाते व करारी मिठाई सीधे मर्तबान में चली जाती थी। यानी पांचो उंगलिया घी में थी।
एक बार उन्होंने सोचा अपनी करीबी रिश्तेदार का भला कर दिया है। रिश्तेदारी है तो कोई ज्यादा पूछेगा नहीं। अपना भी फायदा उसका भी भला हो जायेगा। भलाई की आग में चने सेंकना गुरु जी की फितरत थी।
अपनी रिश्तेदार इमरती को काम दिलाने के लिए महान बने गुरु जी ने उसे अपने कॉलेज में स्थापित कर दिया। उसका सिर्फ एक ही काम था कॉलेज में होने वाले इंस्पेक्शन व अन्य कार्यों के लिए हस्ताक्षर करना और कुर्सी की शोभा बढ़ाना। महीने की तय रकम की ५००० रूपए।
गुरु जी पान खाकर लाल जबान लिए घूमते थे। बेचारी इमरती को देते थे ५००० रूपए और शेष २५००० अपनी जेब में। यह गणित समझने वालों के लिए मुश्किल हो सकता है चलो हम आसान कर देते हैं। गुरु जी अपने करारे कामों के लिए इतने मशहूर थे कि बच्चों से लेकर स्टाफ तक; उनकी जी हुजूरी करता है। ऐसे में गुरु जी लोगों से ठेके की तरह काम लेते और गऊ बनकर सेवा धरम करते। रकम की बात दो दलों से करते स्वयं बिचौलिए बने रहते। दूध की मलाई पूरी खाने के बाद ही दूध का वितरण करते थे । करारी खुशबू की अपनी एक अदा है। जब वह आती है तो रोम रोम खिल उठता है जब जाती है तो जैसे बसंत रूठ गया हो।
दोनो भाई मिल जुलकर गर्मागर्म खाने के शौक़ीन थे। इधर कुछ दिनों से इमरती को मन के खटका होने लगा कि कम पगार के बाबजूद गुरु जी की पांचो उँगलियाँ घी में है और वह स्वयं सूखी रोटी खा रही है। इंसान की फितरत होती है जब भी वह अपनी तुलना दूसरों से करता है उसका तीसरा नेत्र अपने आप खुल जाता है। भगवान शिव के तीसरे नेत्रों में पूरी दुनिया समायी है , पर जब एक स्त्री अपना तीसरा नेत्र खोलती है तो उससे कुछ भी छुपाना नामुमकिन है। वह समझ गयी कि दाल में कुछ काला ही नहीं पूरी दाल ही काली है। खूब छानबीन करने के बाद गुरु जी क्रियाकर्म धीरे धीरे नजर आने लगे। कैसे गुरु जी उसका फायदा उठाया है। उसके नाम पर लोगों से ४०००० लेते थे बदले में ५००० टिका देते है। शेष अपने मर्तबान में डालते थे।
इतने समय से काम करते हुए वह भी होशियार हो चली थी , रिश्तेदारी को अलग रखने का मन बनाकर अपना ब्रम्हास्त्र निकाला। आने वाले परीक्षा के समय अपना बिगुल बजा दिया , काम के खिलाफ अपनी संहिता लगा दी।
" इमरती समझा करो , ऐसा मत करो "
" क्यों गुरु भाई आप तो हमें कुछ नहीं देते हैं फ़ोकट में काम करवा रहे हो "
" देता तो हूँ ज्यादा कहाँ मिलता है , बड़ी मुश्किल से पैसा निकलता है , चार चार महीने में बिल पास होता है "
" झूठ मत बोलो , मुझे सब पता चल गया है, आज से मै आपके लिए कोई काम नहीं करुँगी। "
अब गुरु जी खिसियानी बिल्ली की तरह खम्बा नोच रहे थे। सोचा था करीबी रिश्तेदार है। कभी दिया कभी नहीं दिया तो भी फर्क नहीं पड़ेगा। बहुत माल खाने में लगे हुए थे। पर उन्हें क्या पता खुशबू सिर्फ उन्हें ही नहीं दूसरों तक भी पहुँचती है।
इमरती की बगावत ने उनके होश उड़ा दिए , बात नौकरी पर आन पड़ी। आला अफसर सिर्फ करारे काम ही देखना पसंद करते हैं उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि करारे व्यंजन में उपयोग होने वाली सामग्री कैसी है। यहाँ हर किसी को अपनी दुकान चलानी है। कहतें है जब मुंह को खून लग जाये तो उसकी प्यास बढ़ती रहती है। यही हाल जिब्हा का भी है। तलब जाती ही नहीं।
इमरती के नेत्र क्या खुले गुरु जी की जान निकलने लगी। गुरु जी इमरती को चूरन चटा रहे थे किन्तु यहाँ इमरती ने ही उन्हें चूरन चटा दिया। कहते हैं न सात दिन सुनार के तो एक दिन लुहार का। आज इमरती चैन की नींद सो रही थी। कल का सूरज नयी सुबह लेकर आने वाला था। सत्ता हमेशा एक सी नहीं चलती है। उसे एक दिन बदलना ही पड़ता है।
गुरु जी के होश उड़े हुए थे। उन्हें समझ में आ गया उनकी ही बिल्ली उन्ही से माउं कर रही है। करारी खुशबू ने अब उनका जीना हराम कर रखा था। खुशबू को कैद करना नामुमकिन है। इमरती को आज गर्मागर्म करारी जलेबी का तोहफा दिया। भाई होने की दुहाई दी। रोजी रोटी का वास्ता दिया और चरणों में लोट गए।
खुशबू जीत गयी थी। अब मिल बांटकर खाने की आदत ने अपनी अपनी दुकान खोल ली और अदद खुशबू का करारा साम्राज्य अपना विस्तार ईमानदारी से कर रहा था। जिससे बचना कठिन ही नहीं नामुमकिन है। दो सौ मुल्कों की पुलिस भी उसे कैद करने असमर्थ है। करारी खुशबू का फलता फूलता हुआ साम्राज्य विकास व समाज को कौन सी कौन दिशा में ले जायेगा।
यह सब कांड देखकर शर्मा जी को हृदयाघात का ऐसा दौरा पड़ा कि परलोक सिधार गए। सुबह गाजे बाजे के साथ उनकी यात्रा निकाली गयी। उनके करारे प्रेम को देखकर लोगों ने उन्हें नोटों की माला पहनाई। नोटों से अर्थी सजाई। फूलों के साथ लोगों ने नोट चढ़ाये। लेकिन आज यह नोट उनके किसी काम के नहीं थे। उनकी अर्थी पर चढ़े हुए नोट जैसे आज मुँह चिढ़ा रहे थे। आज उनमे करारी खुशबू नदारत थी।
शशि पुरवार