साथ चल कर मिल न पाएँ
घेर लेती हैं हजारों
अनछुई संवेदनाएँ।
ज्वार सा हिय में उठा, जब
शब्द उथले हो गए थे
रेत पर उभरे हुए शब्द
संग लहर के खो गए थे
मैं किनारे पर खड़ी थी
छेड़ती नटखट हवाएँ
हम नदी के दो किनारे
साथ चलकर मिल न पाएँ
स्वप्न भी सोने न देते
प्रश्न भी हैं कुछ अनुत्तर
आँख में तिरता रहा जल
पर नदी सी प्यास भीतर।
रास्ते कंटक बहुत हैं
बाँचते पत्थर कथाएँ
हम नदी के दो किनारे
साथ चल कर मिल न पाएँ
हिमशिखर, सागर, नदी सी
नेह की संयोजना है
देह गंधो से परे, मन,
आत्मा को खोजना है.
बंद पलकों से झरी, उस
हर गजल को गुनगुनाएँ
हम नदी के दो किनारे
साथ चल कर मिल न पाएँ
-- शशि पुरवार