आज आपके साथ साझा करते हैं निराला जी का बेहद सुंदर नवगीत जो प्रकृति के ऊपर लिखा गया है, लेकिन यह किसी नायिका का प्रतीत होता है.
निराला
बाँधो न नाव इस ठाँव, बंधु!
पूछेगा सारा गाँव, बंधु!
यह घाट वही जिस पर हँसकर,
वह कभी नहाती थी धँसकर,
आँखें रह जाती थीं फँसकर,
कँपते थे दोनों पाँव बंधु!
वह हँसी बहुत कुछ कहती थी,
फिर भी अपने में रहती थी,
सबकी सुनती थी, सहती थी,
देती थी सबके दाँव, बंधु!
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