वक़्त बदल गया है। विचारों में भी मिलावट हो रही है। साहित्य व व्यंग्य भी खालिस नहीं रहा। हर तरफ मिलावट ही मिलावट है। मिलावट कहाँ नहीं है ... विचार, साहित्य,व्यंग्य, राजनीति विज्ञान ,संचार माध्यम ..... ऐसा कोई क्षेत्र शेष नहीं है जो मिलावट से ग्रस्त न हो। अब आप सोचेंगे इनमे मिलावट कैसे हो सकती है। दूषित विचार अपना प्रभाव दिखातें ही है। हर कोई अपनी काली कामना पूर्ति में लगा हुआ है। यौन पिपासा, कामुक विचार हमारे तथाकथित खुलेपन और पोर्न तस्वीरों की देन हैं। भोजन अशुद्ध होगा तो विचार भी अशुद्ध आएंगे। शाकाहारी छोड़ माँसाहार का सेवन आखिर पशु के हार्मोन आप अपने शरीर में डाल रहें है। दिमाग भी पशु की तरह इधर उधर मुँह मारेगा ही। पशु व इंसान में फर्क ही कहाँ बचा। प्रकृति में जो है उसे नष्ट करना मानव ने अपना जन्मसिद्ध अधिकार बना लिया है। मानवी अंग भी कृतिम बनाकर लगाए जाते है। वास्तविकता कहाँ शेष है।
मिलावट का दायरा बढ़ने लगा है। दुष्कर्म, क्राइम, चालबाजी इतनी बढ़ गयी है कि किसी सच्चे इंसान को भी हम अपनी मिलावटी नजर से देखने लगे हैं। वैसे आज के समय सच्चा इंसान भी दूरबीन लेकर खोजना होगा। घर के बड़े बुजुर्ग हो या अपना - पराया। हर कोई आँखों में खटक रहा है। मीडिया भी वही परोस रही है, जो न सीखें हो वह भी देखकर सीख जाएँ। समाज को दिमागी फितूर की आदत इस मिलावटी दुनियां ने डाली है. मिलावट ने इतना प्रचंड रूप धारण किया है कि हमें हर व्यक्ति मिलावटी लगने लगा है। दुष्कर्मी कृत्य करके उसे धर्म का जामा पहनाने का प्रयत्न करता है। अब महिला और पुरुष धर्मानुसार शारीरिक बनावट पृथक कैसे हुई, यह गुत्थी समझ नहीं आयी। धर्मानुसार नाक कान अलग अलग होते हैं ? यह उनकी जगह बदल जाती है। यह सुनने के बाद मन में विचार आया कि धर्म के अनुसार शरीर का अध्यन भी किया जाये।
आज मन में ख्याल आया कि कभी एक समय था जब हम विशुद्ध खाद्य सामग्री का उपयोग करते थे। हर तरफ खुशहाली थी। लहलहाती फसलों के साथ लहलहाते रिश्ते भी थे। सुविधा के साधन कम थे किन्तु मन को सुकून ज्यादा था। पुरानी पीढ़ी ने हमें विश्वास, सुरक्षा और अपनत्व प्रदान किया किन्तु न जाने कहाँ चूक हो गयी। इंसान ज्यादा चतुर हो गया। अनाज व धान्यों में कंकर मिलाना शौक बन गया। दूध में पानी मिलाने लगे. धीरे धीरे कमोवेश सभी खाद्य सामग्री मिलावट के घेरे में आ गयी। आज पानी में दूध मिलातें हैं। हद तो तब हो गयी जब पानी में रंग शक्कर मिला कर दूध ही बना लिया। दूध में झाग बनाने के लिए रासायिनक पाउडर मिलाने लगे। किसी की जान जाये फर्क नहीं, माल हाथ आये की तर्ज शुरू हो गयी।
सामग्री में मिलावट की बात विचारों में जन्मी थी तो सौ प्रतिशत सारा झोल विचारों में ही था। फल सब्जियों में रसायन - रंग की मिलावट तो गाय - भैंस को इंजेक्शन लगाकर उनका ही जीवन रस निचोड़ रहें है। लालच ने अँधा कर दिया था।
शर्मनाक है कि आज रिश्तों को भय व असुरक्षा की भावना से ग्रसित करके तार तार कर दिया है। दूषित मानसिकता के कारण भय के बादल मँडराते रहतें है। बच्चे बचपना भूल गए हैं। कभी माटी में खेलने वाले बच्चे आज पैदा होते ही मोबाइल से खेलते हैं। माटी की खुशबु की जगह तरंगो की मिलावटी खुशबु दिमाग में रस बस जाती है। बचपन सलोनापन छोड़कर जल्दी युवा बन जाता है। दिमागी रसायन में परिवर्तन हमारी मिलावटी वस्तुओं का ही असर है। दिमाग में भी रसायन मिलावटी कर रहे हैं। पल में खुश व पल में खूंखार। जाने कैसे कैसे फितूर दिमाग को व्यस्त करके तरक्की का जामा पहनाने में लगे हुए हैं।
हर कोई चारो तरफ से चादर खींचने में लगा हुआ है। चादर तो किसी के हाथ आती नहीं है अपितु फट जरूर जाती है। कमोवेश यही हाल व्यंग्य व साहित्य जगत को भी अपनी लाग लपेट में ले चुका है। साहित्य में मिलावट सुनने में बहुत अजीब लगता है। किन्तु सत्य है जब से सोशल मीडिया आया है विचारों का मिलावटी रायता फैलने लगा है। हर कोई उस रायते को चटकारे लेकर खा रहा है। बची कुछ नमक मिर्च डालकर उसे चटपटा बनाने का कार्य दिमागी फितूर कर ही देते हैं।
जहाँ मिलावट के कई नमूने गुणधर्म के साथ मौजूद है। यदि कोई व्यक्ति चाहे तो यहाँ दिमागी फितरतों की पी एच डी कर सकता है। कई विशुद्ध साहित्यकारों की रचनाएँ चोरी करके, चोर भी अशुद्ध साहित्यकार बनकर वाह वाही लूट रहें हैं। विचारों को चुराकर मिलावट के साथ परोस दिया जाता है। असली नकली का भेद करना मुश्किल हो गया है। गीत - नवगीत - नयी कविता वाले अपनी अपनी चादर खींचने में लगे है। मानवीय संवेदनाओं की अभिव्यक्ति से कोई लेना देना नहीं है। छंद में गद्य घुसने लगा है। व्यंग्य में सपाटबयानी आने लगी है। संगीत में भी मिलावटी हो रही है। सभी मिलावट को मॉर्डन कपड़ों का जामा पहनकर हाथों को सेका जा रहा है। संगीत की मधुरता में भौंडेपन व कर्कश शोरों का मिश्रण हो गया है। आज इन चोरो
की संख्या इतनी बढ़ गयी है कि पहचानना मुश्किल है सच्चा कौन। इसका रायता फैलाने में सोशल मीडिया महामहिम बनकर उभरी है। जो लोगों को एडा बनाकर पेड़ा खा रही है। वित्त करेंसी भी मिलावट से परहेज नहीं कर सकी. जब नए नोट चलन में आये तो वह हाथों को रँगने लगे। सोना - हीरा भी मिलावट हो गया है। आज नकली चमक ही असली लगती है।
एक बार की बात है हम बस में सफर कर रहें है। एक भद्र महिला सोने के आभूषण पहने थी। चलती बस में एक गुंडा हाथ में चाकू लेकर खड़ा हो गया। उस भद्र महिला से बोला - गहने दे वर्ना मार दूँगा। ऐसा कहकर गहने छीनने का प्रयत्न करने लगा। यह सब कांड देखकर मन में भय उत्पन्न हुआ। हम हमारी सोने की चेन सँभालने का प्रयत्न करने लगे। तभी उस महिला ने कहा अरे भाई रुको -- ४० रूपए की चीज के लिए क्यों मेरे प्राण ले रहे हो। सब गहने उतारकर दे दिए। बेचारा गुंडा पोपट जैसा हो गया। मिलावट किसी की जान भी बचा सकती है देखकर तसल्ली हुई। बाद में महिला से ज्ञात हुआ २ नकली था एक असली किन्तु सब वापिस मिल गया। नकली में भी दम हैं। असल नक़ल को पहचाना मुश्किल होता है। पहले राजशाही लोग सोना हीरा पहनते थे , आज सोना हीरा भी मिलावट बन गया है। जिसे हर कोई पहनता है. अब अंतर करना मुश्किल है कौन अमीर कौन गरीब। इस मिलावट ने ऊँच - नीच का भेद जरूर समाप्त कर दिया है।
गहनों तक तो ठीक था। कुछ भी पहनों चोरी का डर नहीं। वैसे भी कारोबारी कौन सा असली बेच रहें है। हम भी खुद हो बेबकूफ बनाते हैं। मापदंड बदलने लगे हैं। धर्म - जाति प्रदेश - राष्ट्र हर जगह कुर्सी भी मिलावट का कारोबार करने लगी है।नेता अपनी कुर्सी देखकर कुर्सी धर्म ऐसे बदलते हैं जैसे कपडे बदल रहें हों। अब तो हमें भी लगने लगा कि हमारे विचारों में भी मिलावट होने लगी है।गीत लिखने बैठो गजल बन जाती है। गद्य लिखने बैठो पद्य बनने लगा। व्यंग्य लिखों तो व्यंग्य में मिश्रण के कारन चरमोत्कर्ष नहीं होता है। विचारों में ताजगी लाने के लिए अब हमने घर में ही खेती शुरू कर दी है , विशुद्ध भोजन करके हार्मोन की मिलवाट का प्रभाव कुछ कम हो सके। रायता बनाने वाले बैठे थे किन्तु, खिचड़ी बन गयी। देश समाज में फैले हुए कंकर आँखों में चुभने लगे हैं। कलम की स्याही में मिलावट के कारण कलम भी अवरुद्ध हो जाती है। भाई आज जैसा भी कलम का स्यापा भोजन है खाकर हमें माफ़ जरूर करना। कल एक दुकान दिखी है। सच कहूं उसके सपने भी अब सोने नहीं देते। दबंद मिलावट। गली नंबर चोर। खेचरी बाजार। यहाँ सर्वप्रकार का विशुद्ध मिलावटी सामान मौजूद है। पन्नू काका पंसारी वाले। वाकई दुनिया तरक्की पर है।
शशि पुरवार
जनसंदेश टाइम्स लखनऊ समाचार पत्र के प्रकाशित व्यंग्य - दिनांक - १३ /०५ /२०१८
मिलावट का दायरा बढ़ने लगा है। दुष्कर्म, क्राइम, चालबाजी इतनी बढ़ गयी है कि किसी सच्चे इंसान को भी हम अपनी मिलावटी नजर से देखने लगे हैं। वैसे आज के समय सच्चा इंसान भी दूरबीन लेकर खोजना होगा। घर के बड़े बुजुर्ग हो या अपना - पराया। हर कोई आँखों में खटक रहा है। मीडिया भी वही परोस रही है, जो न सीखें हो वह भी देखकर सीख जाएँ। समाज को दिमागी फितूर की आदत इस मिलावटी दुनियां ने डाली है. मिलावट ने इतना प्रचंड रूप धारण किया है कि हमें हर व्यक्ति मिलावटी लगने लगा है। दुष्कर्मी कृत्य करके उसे धर्म का जामा पहनाने का प्रयत्न करता है। अब महिला और पुरुष धर्मानुसार शारीरिक बनावट पृथक कैसे हुई, यह गुत्थी समझ नहीं आयी। धर्मानुसार नाक कान अलग अलग होते हैं ? यह उनकी जगह बदल जाती है। यह सुनने के बाद मन में विचार आया कि धर्म के अनुसार शरीर का अध्यन भी किया जाये।
आज मन में ख्याल आया कि कभी एक समय था जब हम विशुद्ध खाद्य सामग्री का उपयोग करते थे। हर तरफ खुशहाली थी। लहलहाती फसलों के साथ लहलहाते रिश्ते भी थे। सुविधा के साधन कम थे किन्तु मन को सुकून ज्यादा था। पुरानी पीढ़ी ने हमें विश्वास, सुरक्षा और अपनत्व प्रदान किया किन्तु न जाने कहाँ चूक हो गयी। इंसान ज्यादा चतुर हो गया। अनाज व धान्यों में कंकर मिलाना शौक बन गया। दूध में पानी मिलाने लगे. धीरे धीरे कमोवेश सभी खाद्य सामग्री मिलावट के घेरे में आ गयी। आज पानी में दूध मिलातें हैं। हद तो तब हो गयी जब पानी में रंग शक्कर मिला कर दूध ही बना लिया। दूध में झाग बनाने के लिए रासायिनक पाउडर मिलाने लगे। किसी की जान जाये फर्क नहीं, माल हाथ आये की तर्ज शुरू हो गयी।
सामग्री में मिलावट की बात विचारों में जन्मी थी तो सौ प्रतिशत सारा झोल विचारों में ही था। फल सब्जियों में रसायन - रंग की मिलावट तो गाय - भैंस को इंजेक्शन लगाकर उनका ही जीवन रस निचोड़ रहें है। लालच ने अँधा कर दिया था।
शर्मनाक है कि आज रिश्तों को भय व असुरक्षा की भावना से ग्रसित करके तार तार कर दिया है। दूषित मानसिकता के कारण भय के बादल मँडराते रहतें है। बच्चे बचपना भूल गए हैं। कभी माटी में खेलने वाले बच्चे आज पैदा होते ही मोबाइल से खेलते हैं। माटी की खुशबु की जगह तरंगो की मिलावटी खुशबु दिमाग में रस बस जाती है। बचपन सलोनापन छोड़कर जल्दी युवा बन जाता है। दिमागी रसायन में परिवर्तन हमारी मिलावटी वस्तुओं का ही असर है। दिमाग में भी रसायन मिलावटी कर रहे हैं। पल में खुश व पल में खूंखार। जाने कैसे कैसे फितूर दिमाग को व्यस्त करके तरक्की का जामा पहनाने में लगे हुए हैं।
हर कोई चारो तरफ से चादर खींचने में लगा हुआ है। चादर तो किसी के हाथ आती नहीं है अपितु फट जरूर जाती है। कमोवेश यही हाल व्यंग्य व साहित्य जगत को भी अपनी लाग लपेट में ले चुका है। साहित्य में मिलावट सुनने में बहुत अजीब लगता है। किन्तु सत्य है जब से सोशल मीडिया आया है विचारों का मिलावटी रायता फैलने लगा है। हर कोई उस रायते को चटकारे लेकर खा रहा है। बची कुछ नमक मिर्च डालकर उसे चटपटा बनाने का कार्य दिमागी फितूर कर ही देते हैं।
जहाँ मिलावट के कई नमूने गुणधर्म के साथ मौजूद है। यदि कोई व्यक्ति चाहे तो यहाँ दिमागी फितरतों की पी एच डी कर सकता है। कई विशुद्ध साहित्यकारों की रचनाएँ चोरी करके, चोर भी अशुद्ध साहित्यकार बनकर वाह वाही लूट रहें हैं। विचारों को चुराकर मिलावट के साथ परोस दिया जाता है। असली नकली का भेद करना मुश्किल हो गया है। गीत - नवगीत - नयी कविता वाले अपनी अपनी चादर खींचने में लगे है। मानवीय संवेदनाओं की अभिव्यक्ति से कोई लेना देना नहीं है। छंद में गद्य घुसने लगा है। व्यंग्य में सपाटबयानी आने लगी है। संगीत में भी मिलावटी हो रही है। सभी मिलावट को मॉर्डन कपड़ों का जामा पहनकर हाथों को सेका जा रहा है। संगीत की मधुरता में भौंडेपन व कर्कश शोरों का मिश्रण हो गया है। आज इन चोरो
की संख्या इतनी बढ़ गयी है कि पहचानना मुश्किल है सच्चा कौन। इसका रायता फैलाने में सोशल मीडिया महामहिम बनकर उभरी है। जो लोगों को एडा बनाकर पेड़ा खा रही है। वित्त करेंसी भी मिलावट से परहेज नहीं कर सकी. जब नए नोट चलन में आये तो वह हाथों को रँगने लगे। सोना - हीरा भी मिलावट हो गया है। आज नकली चमक ही असली लगती है।
एक बार की बात है हम बस में सफर कर रहें है। एक भद्र महिला सोने के आभूषण पहने थी। चलती बस में एक गुंडा हाथ में चाकू लेकर खड़ा हो गया। उस भद्र महिला से बोला - गहने दे वर्ना मार दूँगा। ऐसा कहकर गहने छीनने का प्रयत्न करने लगा। यह सब कांड देखकर मन में भय उत्पन्न हुआ। हम हमारी सोने की चेन सँभालने का प्रयत्न करने लगे। तभी उस महिला ने कहा अरे भाई रुको -- ४० रूपए की चीज के लिए क्यों मेरे प्राण ले रहे हो। सब गहने उतारकर दे दिए। बेचारा गुंडा पोपट जैसा हो गया। मिलावट किसी की जान भी बचा सकती है देखकर तसल्ली हुई। बाद में महिला से ज्ञात हुआ २ नकली था एक असली किन्तु सब वापिस मिल गया। नकली में भी दम हैं। असल नक़ल को पहचाना मुश्किल होता है। पहले राजशाही लोग सोना हीरा पहनते थे , आज सोना हीरा भी मिलावट बन गया है। जिसे हर कोई पहनता है. अब अंतर करना मुश्किल है कौन अमीर कौन गरीब। इस मिलावट ने ऊँच - नीच का भेद जरूर समाप्त कर दिया है।
गहनों तक तो ठीक था। कुछ भी पहनों चोरी का डर नहीं। वैसे भी कारोबारी कौन सा असली बेच रहें है। हम भी खुद हो बेबकूफ बनाते हैं। मापदंड बदलने लगे हैं। धर्म - जाति प्रदेश - राष्ट्र हर जगह कुर्सी भी मिलावट का कारोबार करने लगी है।नेता अपनी कुर्सी देखकर कुर्सी धर्म ऐसे बदलते हैं जैसे कपडे बदल रहें हों। अब तो हमें भी लगने लगा कि हमारे विचारों में भी मिलावट होने लगी है।गीत लिखने बैठो गजल बन जाती है। गद्य लिखने बैठो पद्य बनने लगा। व्यंग्य लिखों तो व्यंग्य में मिश्रण के कारन चरमोत्कर्ष नहीं होता है। विचारों में ताजगी लाने के लिए अब हमने घर में ही खेती शुरू कर दी है , विशुद्ध भोजन करके हार्मोन की मिलवाट का प्रभाव कुछ कम हो सके। रायता बनाने वाले बैठे थे किन्तु, खिचड़ी बन गयी। देश समाज में फैले हुए कंकर आँखों में चुभने लगे हैं। कलम की स्याही में मिलावट के कारण कलम भी अवरुद्ध हो जाती है। भाई आज जैसा भी कलम का स्यापा भोजन है खाकर हमें माफ़ जरूर करना। कल एक दुकान दिखी है। सच कहूं उसके सपने भी अब सोने नहीं देते। दबंद मिलावट। गली नंबर चोर। खेचरी बाजार। यहाँ सर्वप्रकार का विशुद्ध मिलावटी सामान मौजूद है। पन्नू काका पंसारी वाले। वाकई दुनिया तरक्की पर है।
शशि पुरवार
जनसंदेश टाइम्स लखनऊ समाचार पत्र के प्रकाशित व्यंग्य - दिनांक - १३ /०५ /२०१८