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Thursday, March 17, 2022

गंधों भीगा दिन


हरियाली है खेत में, अधरों पर मुस्कान
रोटी खातिर तन जला, बूँद बूँद हलकान

अधरों पर मुस्कान ज्यूँ , नैनों में है गीत
रंग गुलाबी फूल के, गंध बिखेरे प्रीत

गंध समेटे पाश में, खुशियाँ आईं द्वार
सुधियाँ होती बावरी, रोम रोम गुलनार

अंग अंग पुलकित हुआ, तम मन निखरा रूप
प्रेम गंध की पैंजनी, अधरों सौंधी धूप

अंग अंग पुलकित हुआ, तम मन निखरा रूप
प्रेम गंध की पैंजनी, अधरों सौंधी धूप

खूब लजाती चाँदनी, अधरों एक सवाल
सुर्ख गुलाबी फूल ने, खोला जिय का हाल

गंधों भीगा दिन हुआ, जूही जैसी शाम
गीतों की प्रिय संगिनी, महका प्रियवर नाम

शशि पुरवार 


Friday, March 4, 2022

छैल छबीली फागुनी - shashi purwar




छैल छबीली फागुनी, मन मयूर मकरंद
ढोल, मँजीरे, दादरा, बजे ह्रदय में छंद। 1

मौसम ने पाती लिखी, उड़ा गुलाबी रंग
पात पात फागुन धरे, उत्सव वाले चंग। 2

फगुनाहट से भर गई, मस्ती भरी उमंग
रोला ठुमरी दादरा, लगे थिरकने अंग। 3

फागुन आयो री सखी, फूलों उडी सुगंध
बौराया मनवा हँसे, नेह सिक्त अनुबंध। 4

मौसम में केसर घुला, मदमाता अनुराग
मस्ती के दिन चार है, फागुन गाये फाग। 5

फागुन में ऐसा लगे, जैसे बरसी आग
अंग अंग शीतल करें, खुशबु वाला बाग़.6

फागुन लेकर आ गया, रंगो की सौगात
रंग बिरंगी वाटिका, भँवरों की बारात7

हरी भरी सी वाटिका, मन चातक हर्षाय
कोयल कूके पेड़ पर, आम सरस ललचाय। 8

सूरज भी चटका रहा, गुलमोहर में आग
भवरों को होने लगा, फूलों से अनुराग 1०

चटक नशीले मन भरे, गुलमोहर में रंग
घने वृक्ष की छाँव में, मनवा मस्त मलंग 1१

धरती भी तपने लगी, अम्बर बरसी आग
आँखों को शीतल लगे, फूलों वाला बाग़ 1२
शशि पुरवार

Tuesday, August 11, 2020

चाय पीने के अरमान


कुल्लड़ वाली चाय यह मन को है ललचाय
दूध मलाई जब डले स्वाद अमृत बन जाए
कुल्लड़ वाली चाय की, सोंधी सोंधी गंध
और इलाइची साथ में,पीने का आनंद
बांचे पाती प्रेम की, दिल में है तूफान
नेह निमंत्रण चाय का, महक रहे अरमान
कागज कलम दवात हो और साथ में चाय
स्फूर्ति तन मन भरे, भाव खिले मुस्काय
गप्पों का बाजार है मित्र मंडली संग
चाय पकौड़े के बिना, फीके सारे रंग
मौसम सैलानी हुए रोज बदलते गांव
बस्ती बस्ती चाय की, टपरी वाली छांव

सुबह सवेरे लान मे, बाँच रहे अखबार
गर्म चुस्की चाय की,खबरों का दरबार
मित्र,पड़ोसी,नाते सभी, जूही जैसी शाम स्वागत करते चाय से, घर आए मेहमान


अदरक तुलसी लाइची,और पुदीना भाय
बिना दूध की चाय है,गुण, औषध बन जाय
घर घर से उड़ने लगी, सुबह चाय की गंध
उठो सवेरे काम पर,जीने की सौगंध

चाहे महलों की सुबह, या गरीब की शाम
सबके घर हँसकर मिली,चाय नहीं बदनाम
थक कर सुस्ताते पथिक, या बैठे मजदूर
हलक उतारी चाय ही, तंद्रा करती दूर

चाय न देखे जाति धर्म, देख रहा संसार
टपरी होटल हर गली, मिलती सागर पार
एक नशा यह चाय भी,तलब करें हलकान
अलग-अलग स्वाद फिर, फूँकें तन में जान
घी चुपड़ी, रोटी, नमक, और साथ में चाय 
जीरावन छिड़को जरा, स्वाद, अमृत, मन भाय 

कुहरे में लिपटी हुई छनकर आयी भोर
नुक्कड़ पर मचने लगा, गर्म चाय का शोर
शशि पुरवार


Sunday, July 5, 2020

कोरोना काल के दोहे -2

बदला बदला वक्त है, बदले हैं प्रतिमान 
संकट में जन आज है, कल का नहीं ठिकान

खोलो मन की खिड़कियां, उसमे भरो उजास 
धूप ठुमकती सी लिखे, मत हो हवा उदास 

जाती धर्म को भूल जा, मत कर यहाँ विमर्श 
मानवता का धर्म है, अपना भारत वर्ष 

शहरों से जाने लगे, बेबस बोझिल पाँव 
पगडण्डी चुभती रही, लौटे अपने गाँव 

काँटे चुभते पांव में,बोया पेड़ बबूल 
मिली न सुख की छाँव फिर, केवल चुभते शूल 

राहों में मिलते रहे, अभिलाषा के वृक्ष 
डाली से कटकर मिला, अवसादों का कक्ष 

जब तक साँसें हैं सधी, करों न मन का हास
तूफां आते हैं सदा, होते सकल प्रयास 

शशि पुरवार 

Friday, July 3, 2020

कोरोना काल के दोहे

रौनक फीकी पड़ गयी, सड़कें भी सुनसान 
दो कौड़ी का अब लगे, सुविधा का सामान 

सुविधा के साधन सभी, पल भर में बेकार 
कैद घरों में जिंदगी, करे प्रकृति वार 

सूरज भी तपने लगा, सड़कें भी सुनसान 
परछाई मिलती नहीं, पहरे में दरबान 

घी चुपड़ी, रोटी, नमक, और साथ में चाय 
जीरावन छिड़को जरा, स्वाद, अमृत, मन भाय 
 

थमी हुई सी जिंदगी, साँसें भी हलकान 
सिमटा सुख का दायरा, रोटी और मकान 

भाग रही थी जिंदगी, समय नहीं था पास
पर्चा बाँटा काल ने, करा दिया अहसास 


 शशि पुरवार 

Monday, April 27, 2020

मत हो हवा उदास


धीरे धीरे धुल गया ,
मन मंदिर का राग
इक चिंगारी प्रेम की ,
सुलगी ठंडी आग


खोलो मन की खिड़कियाँ,
उसमें भरो उजास
 धूप 
ठुमकती सी लिखे,
मत हो हवा उदास


नैनों की इस झील में,
खूब सहेजे ख्वाब
दूर हो गई मछलियाँ,
सूख रहा तालाब


जाति धर्म को भूल जा,
मत कर यहाँ विमर्श
मानवता का धर्म है ,
अपना भारत वर्ष


शहरों से जाने लगे,
बेबस बोझिल पॉंव
पगडण्डी चुभती रही ,
लौटे अपने गॉंव
--
शशि पुरवार

Monday, April 20, 2020

बदला वक़्त परिवेश - कोरोना काल के दोहे

कोरोना ऐसा बड़ा , संकट में है देश 
लोग घरों में बंद है , बदला वक़्त परिवेश

 प्रकृति बड़ी बलवान है, सूक्ष्म जैविकी हथियार
मानव के हर दंभ पर , करती तेज प्रहार 

 आज हवा में ताजगी,  एक नया अहसास 
पंछी को आकाश है, इंसा को गृह वास

जीने को क्या चाहिए, दो वक़्त का आहार 
सुख की रोटी दाल में, है जीवन का सार

 इक जैविक हथियार ने छीना सबका चैन 
आँखों से नींदें उडी , भय से कटती रैन 

 चोर नज़र से देखते , आज पड़ोसी मित्र 
दीवारों में कैद हैं , हँसी  ठहाके चित्र

 चलता फिरता तन लगे, कोरोना का धाम 
 गर सर्दी खाँसी हुई,  मुफ़्त हुए बदनाम

 कोरोना का भय  बढ़ा , छींके लगती  तोप 
बस इतना करना जरा , मलो हाथ पर सोप 

शशि पुरवार 

Tuesday, May 21, 2019

सन्नाटे ही बोलते

भटक रहे किस खोज में, क्या जीवन का अर्थ 
शेष रह गयी अस्थियां, प्रयत्न हुए सब व्यर्थ 

तन माटी का रूप है , क्या मानव की साख 
लोटा भर कर अस्थियां, केवल ठंडी राख 

सुख की परिभाषा नई, घर में दो ही लोग 
सन्नाटे ही बोलते , मोबाइल का रोग 

कोई लौटा दे मुझे बचपन के उपहार 
नेह भरी मेरी सदी , मित्रों का संसार 

आपाधापी जिंदगी , न करती है विश्राम 
सुबह हुई तो चल पड़ी , ना फुरसत की शाम 

शशि पुरवार 



Tuesday, April 23, 2019

क्या मानव की साख

आँखों में अंगार है, सीने में भी दर्द
कुंठित मन के रोग हैं, आतंकी नामर्द१ 

व्यर्थ कभी होगा नहीं, सैनिक का बलदान
आतंकी को मार कर, देना होगा मान२ 

चैन वहां बसता नहीं, जहाँ झूठ के लाल
सच की छाया में मिली, सुख की रोटी दाल३ 

लगी उदर में आग है, कंठ हुए हलकान
पत्थर तोड़े जिंदगी, हाथ गढ़े मकान४ 

आँखों से करने लगे, भावों का इजहार
भूले बिसरे हो गए, पत्रों के व्यवहार५ 


तन माटी का रूप है, क्या मानव की साख
लोटा भर कर अस्थियां, केवल ठंडी राख ६

 शशि पुरवार


Thursday, April 4, 2019

बिगड़े से हालात

कुर्सी की पूजा करें, घूमे चारों धाम
राजनीति के खेल में , हुए खूब बदनाम

दीवारों को देखते, करते खुद से बात
एकाकी परिवार के , बिगड़े से हालात

एकाकी मन की उपज, बिसरा दिल का चैन
सुख का पैमाना भरो , बदलेंगे दिन रैन

मोती झरे न आँख से, पथ में बिखरे फूल
सुख पैमाना तोष का , सूखे शूल बबूल

शशि पुरवार


Friday, February 15, 2019

धरती माँगे पूत से,

धरती माँगे पूत से, दुशमन का संहार 
इक इक कतरा खून का, देंगे उस पर वार 

कतरा कतरा बह रहा, उन आँखों से खून 
नफरत की इस आग में, बेबस हुआ सुकून 


दहशत के हर वार का, देंगे कड़ा जबाब 
नहीं सुनेंगे आज हम , छोडो चीनी,कबाब

शशि पुरवार


Monday, June 11, 2018

हीरे सा प्रतिमान


उमर सलोनी चुलबुली, सपन चढ़े परवान
आलोकित शीशा लगे, हीरे सा प्रतिमान1 

एक सुहानी शाम का, दिलकश हो अंदाज
मौन थिरकता ही रहे , हृदय बने कविराज2 

मन के रेगिस्तान में, भटक रही है प्यास
अंगारों की सेज पर, जीने का अभ्यास3 

निखर गया है धूप में, झरा फूल कचनार
गुलमोहर की छाँव में, पनप रहा है प्यार4 

कुर्सी पर बैठे हुए, खुद को समझे दूत
संकट छाया देश पर, ऐसे पूत कपूत5 

पाप पुण्य का खेल है, कर्मों का आव्हान
पाखंडी के जाल में , मत फँसना इंसान6 

झूम रही है डालियाँ, बूॅंद करे उत्पात
बरखा रानी आ गई, भीगे तन मन पात 7

आॅंगन में बरगद नहीं, ना शहरों से गाॅंव
ना चौपाले नेह की, घड़ियाली है छाॅंव 8 

चाँदी की थाली सजी, फिर शाही पकवान
माँ बेबस लाचार थी, दंभ भरे इंसान 9 


शशि पुरवार 

Monday, June 4, 2018

टेढी हुई जुबान


भोर हुई मन बावरा, सुन पंछी का गान
गंध पत्र बाँटे पवन, धूप रचे प्रतिमान 
 

पानी जैसा हो गया, संबंधो में खून
धड़कन पर लिखने लगे, स्वारथ का कानून 
 

आशा सुख की रागिनी, जीवन की शमशीर
गम की चादर तान कर, फिर सोती है पीर


सोने जैसी जिंदगी, हीरे सी मुस्कान
तपकर ही मिलता यहाँ, खुशियों का बागान
 

जीवन तपती रेत सा, अंतहीन सी प्यास
झरी बूँद जो प्रेम की, ठहर गया मधुमास 
 

सत्ता में होने लगा, जंगल जैसा राज
गीदड़ भी आते नहीं, तिड़कम से फिर बाज


सत्ता में होने लगा, जंगल जैसा राज
गीदड़ भी आते नहीं, तिड़कम से फिर बाज


उपकरणों का ढेर है, सुविधा का सामान
धरती बंजर हो रही, मिटे खेत खलियान


फिसल गई ज्यों शब्द से, टेढी हुई जुबान
अपना ही घर फूंकते,विवादित से बयान


मन भी गुलमोहर हुआ, प्रेम रंग गुलजार
ह्रदय वसंती मद भरा ,गीत झरे कचनार 
 

समय लिख रहा माथ पर,उमर फेंटती ताश
तन धरती पर रम रहा, मन चाहे आकाश


संवादों में हो रहा, शब्दों से आघात
हरा रंग वह प्रेम का, झरते पीले पात

शशि पुरवार  

Friday, May 11, 2018

दोहे - बेबस हुआ सुकून

जंगल कटते ही रहे, सूख गए तालाब 
बंजर होते खेत में, ठूँठ खड़े सैलाब 

जीवन यह अनमोल है, भरो प्रेम का रंग
छोटे छोटे पल यहाँ, बिखरे मोती चंग 

हरी भरी सी वाटिका, है जीवन की शान 
बंद हथेली खुल गई, पल में ढहा मकान 

कतरा कतरा बह रहा, इन आँखों से खून 
नफरत की इस आग में, बेबस हुआ सुकून 

बेगैरत होने लगे, कलयुग के इंसान 
लालच का व्यापार है, स्वाहा होती जान 

रात रात भर झर रहे, कोमल हरसिंगार 
मदमाती सी चाँदनी, धरती का श्रृंगार 

आकुलता उर में हुई, मन में फिर कुहराम 
ताना बाना बुन दिया, दुर्बलता के नाम 

राहों  में मिलते रहे, अभिलाषा के वृक्ष 
डाली से कटकर मिला अवसादों का कक्ष 

सत्ता में होने लगा, जंगल जैसा राज 
गीदड़ भी आते नहीं, तिड़कम से फिर बाज 

शशि पुरवार 





Monday, March 26, 2018

प्रेम नगर अपवाद



तन इक  मायाजाल है, जीवन का परिधान
मन सुन्दर अमृत कलशा,तन माटी प्रतिमान1

ढोंगी ने चोला पहन, खूब करे पाखंड
भगवा वस्त्रों को मिला, कलुषित मन का दंड2

 

सरपट दौड़ी रेलगाड़ी , छोड़ समय की डोर 

मन ने भरी उड़ान फिर , शब्द हुए सिरमौर 3


 
कर्म ज्योति बनकर जले, फल का नहीं प्रसंग
राहों में मिलने लगे, सुरभित कोमल रंग4


मन में बैचेनी बढ़ी, साँस हुई हलकान
दिल भी बैठा जा रहा, फीकी सी मुस्कान5


मौलिकता खोने लगी , स्वार्थ हुआ आबाद
पत्थर दिल में ढूँढ़ते, प्रेम नगर अपवाद 6


दो पल की है जिंदगी, आगा पीछा छोड़
हँसकर जी ले तू जरा, मन के बंधन तोड़7 

शशि पुरवार 

Friday, March 9, 2018

मन की उड़ान


दो पल की है जिंदगी, आगा पीछा छोड़
हँसकर जी ले तू जरा, मन के बंधन तोड़

सरपट दौड़ी रेलगाड़ी , छोड़ समय की डोर 
मन ने भरी उड़ान फिर , शब्द हुए सिरमौर 

लेखक बनते ही गए, जन जन की आवाज
पाठक ही सरताज है, रचना के दमसाज

बर्फ हुई संवेदना, बर्फ हुए संवाद
खुरच खुरच कर भर रहे, तनहाई अवसाद


प्रिय तुम्हारे प्रेम की, है विरहन को आस
दो शब्दों में सिमट गया, जीवन का विन्यास
 ५
मन में बैचेनी बढ़ी, साँस हुई हलकान
दिल भी बैठा जा रहा, फीकी सी मुस्कान

कर्म ज्योति बनकर जले, फल का नहीं प्रसंग
राहों में मिलने लगे, सुरभित कोमल रंग

शशि पुरवार



Thursday, February 22, 2018

भोर सुहानी

 
1

भोर सुहानी सुरमयी, पीत वर्ण श्रृंगार
हल्दी के थापे लगे, फूलों खिली बहार

2
भोर नर्तकी आ गयी, जगा धूप गॉँव
स्वर्ण मोहिनी गुनगुनी, सिमटी बैठी छाँव


सुबह ठुमकती आ गयी, तम से करे किलोल
पंख पसारे रश्मियाँ, स्वर्ण कुण्ड निर्मोल

4

भोर रचाये लालिमा, कलरव का अधिमान
दूर देश से आ रहा, किरणों का यजमान

5

कुहरे में लिपटी हुई, सजकर आई भोर
धूप चिट्ठियाँ बाँचती, कोमल कमसिन डोर

6
स्वर्णिम किरणों ने लिखा, स्याह भोर पर नाम
राहें पथरीली मगर, मंजिल का पैगाम
7

बाँच रहा है धुंध को, किरणों का संसार
ओढ़ रजाई प्रीत की, सर्दी आयी द्वार

8

पत्र ख़ुशी के लिख रहा, सर्दी का त्यौहार
रंग गुलाबी बाग़ में, गंधो का उपहार

9

कुहरे में लिपटी हुई छनकर आयी भोर
नुक्कड़ पर मचने लगा, गर्म चाय का शोर
10

तन को सहलाने लगी, मदमाती सी धूप
सरदी हंटर मारती,हवा फटकती सूप

11

भोर स्वप्न वह देखकर, भोरी हुई विभोर
फूलों का मकरंद पी, भौरा है चितचोर
12
भोर सुहानी आ गयी ,लिये टमाटर लाल
धरती रक्तिम हो गयी ,देख गुलाबी थाल।
13
घिरा हुआ है मेघ से ,सूरज का रंग - रूप
रही स्वर्ण किरणें मचल, कैसे बिखरे धूप

14
धूप चिरैया ने लिए, अपने पंख पसार
पात पात भी कर रहे, किरणों से अभिसार। 
१५ 
भोर रचाये लालिमा, कलरव का अधिमान
दूर देश से आ रहा, किरणों का यजमान
१६ 
ओढ़ चुनरिया प्रीत की, सजकर आई भोर 
 
धूप रंगोली द्वार पर, मन है आत्मविभोर . 
 
शशि पुरवार

समीक्षा -- है न -

  शशि पुरवार  Shashipurwar@gmail.com समीक्षा है न - मुकेश कुमार सिन्हा  है ना “ मुकेश कुमार सिन्हा का काव्य संग्रह  जिसमें प्रेम के विविध रं...

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