हिंदी दिवस की तैयारी पूरे जोश - खरोश के साथ की जा रही थी। आजकल हर वस्तु छोटी होती जा रही है। मिनी कपडे। मिनी वस्तुएँ। हर वस्तु छोटी और मानव बड़ा। मानव कद से या कर्म से कभी बड़ा हुआ है ? यह शोध का विषय है। जब भाषा की बात आती है तो अपनी भाषा अपनी है। छेड़ छाड़ करना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। लोगों को अपनी ही भाषाओँ के साथ छेड़छाड़ करके। शब्दों को तोड़ मरोड़ कर जो विजेता सा अहसास होता है वह आठवें अजूबे से कम नहीं है। आज कल लोग हिंदी की चिन्दी बनाकर हवा में लहरा रहें हैं। एक दुःस्वप्न की तरह हिंदी की चिन्दी रात भर हमें तड़पाती हैं। जैसे वर्ष में एक दिन लोग झंडा वंदन करके दूसरे दिन उसे जमीन पर बिलखता छोड़ देते हैं, यह दुखद सत्य है। उसी तरह हिंदी दिवस आते ही लोगों को उसकी महिमा का अहसास होता है व लोग उसकी महिमा मंडल करने लगते हैं।
पड़ोस में रहने वाले जैन साहब स्वयं को किसी पुरोधा से कम नहीं समझते हैं। हिंदी तो माशा अल्लाह। जो भी मिला उसे प्रेम से एक चिन्दी चिपका दी। जो दूर से प्रणाम करें उसे भी चिन्दी के गोले फेंक ही देते हैं।
आज की सुबह शर्मा जी के लिए शामत लेकर आयी। हुआ यूँ सुबह सुबह सैर को निकले शर्मा जी का रास्ता जैन साहब ने काट दिया और बोले - तोंदू कहाँ चले ! लो जी मानवीय सभ्यता का सुबह सुबह क़त्ल हो गया।
यह तो शर्मा जी का ह्रदय ही जानता है कि कितना तड़पा। फिर भी खोटी मुस्कान के साथ बोले -- जय हो तोंदू के मित्र।
जैन -- क्या हुआ शर्मा जी काहे बिलबिला रहे हो, गन्नू।
अब शर्मा जी गणेश से कब गन्नू बन गए , उन्हें पता ही नहीं चला। नाम का कचूमर करना तो आम बात है। हमारे चारों तरफ इस तरह के चलते फिरते पुर्जे नजर आते हैं। जिसे देखो वह अपनी अपनी चिन्दी की दुकान खोलकर बैठा है।
हिंदी के लिए ऐसा कहना ऊँट के मुँह में जीरे के समान है। आज नेट पर अहिन्दी भाषी भी हिंदी सीखकर हिंदी के पुरोधा बन गए हैं। जिसे देखो हिंदी की थाली सजाकर कर परोस रहा है। यह अलग बात है कि कर्ता - काल - अलंकार थाली से गायब होते जा रहें है। लोग इसी खुशफहमी में है कि हिंदी विश्व भाषा बनने की ओर अग्रसर है। हिंदी के पुरोधा हिंदी की बढ़ती जनसँख्या देखकर हैरान हैं। फिर भी हिंदी के लिए जी जान से जुटे हुए पुरोधाओं की कमी नहीं हैं। इसी कार्य हेतु वर्मा जी को सम्मनित किया गया।
कहतें हैं ना ! दूर के ढोल सुहावने। जब से वर्मा जी सम्मानित होकर आएं है हिंदी को छोड़ अंग्रेजी को मुँह से लगाए फिरते हैं।
हुआ यूँ कि समारोह में हिंदी भाषा में विशिष्ठ कार्य करने हेतु वर्मा जी शामिल हुए। खालिस हिंदी के पुरोधा ने सोचा वहां भी अपना रंग जमाएंगे। किन्तु वहां का परिदृश्य कुछ इस तरह था।
निर्णायक गण व अन्य कविराज भी आमंत्रित थे। लंबा चौड़ा कार्यक्रम था। सरकारी महकमे कुर्सी की शोभा बढ़ा रहे थे। भव्य आयोजन था। बहुत सी गोलाकार कुर्सियाँ सम्मानीय विद्वजनों हेतु सजाई गयी थी। खाने - पीने का खालिश इंतजाम था। किन्तु वर्मा जी मुँह खोलते उसके पहले विलायती मेम इंग्रेजी धड़धड़ाते हुए समारोह का आकर्षण बन चुकी थी। वर्मा जी अपनी शान में कुछ कहने की हिमाकत करते उन्हें एक चिन्दी चिपका दी गयी --- भैया आराम करो, खुशीयाँ मनाओ। हिंदी में कार्य करने हेतु सम्मानित किया जा रहा है। शर्मा जी शर्म से पानी पानी हो गए। हिंदी के तथाकथित पुरोधा हिंदी की जगह अंग्रेजी में गुटर गुं कर रहे थे। हिंदी की चिंदिया हवा में उड़ रही थी। अँग्रेजी मेम की गिट पिट शर्मा जी के मुँह में ताला लगा गयी। इसे कहतें हैं भैया रंग लगे न फिटकरी फिर भी रंग चौखा। दूर के ढोल सुहावने ही लगते हैं।
-- शशि पुरवार