अाँख जो बूढ़ी रोई
१
खोई खोई चांदनी, खुशियाँ भी है दंग
सुख दुख के सागर यहाँ, कुदरत के हैं रंग
कुदरत के हैं रंग, न जाने दीपक बाती
पल मे छूटे संग, समय ने लिख दी पाती
शशि कहती यह सत्य, अाँख जो बूढ़ी रोई
ममता चकनाचूर, छाँव भी खोई खोई।
२
जाने कैसा हो गया, जीवन का संगीत
साँसे बूढ़ी लिख रही, सूनेपन का गीत
सूनेपन का गीत, विवेक तृष्णा से हारा
एकल हो परिवार, यही है जग का नारा
शशि कहती यह सत्य, प्रीत से बढ़कर पैसा
नही त्याग का मोल, हुअा वक़्त न जाने कैसा।
शशि पुरवार
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आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (25-07-2016) को "सावन आया झूमता ठंडी पड़े फुहार" (चर्चा अंक-2414) पर भी होगी।
ReplyDelete--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
समय का फेर है ...
ReplyDeleteमर्मस्पर्शी रचना
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " डिग्री का अटेस्टेशन - ब्लॉग बुलेटिन “ , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteसच है आज ऐसा ही समय आ गया है ... सब कुछ पैसा हो गया है ...
ReplyDeleteसुन्दर छंद ...
aap sabhi ka hraday se abhar.mananiy sudhijanon ka anmol tippni hetu shukriya
ReplyDeleteजो वृध्द होते थे कभी शान हर घर की
ReplyDeleteआज लगते बोझ है माया समय की।
बहुत सुन्दर
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शनिवार 13 अगस्त2016 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!
ReplyDeleteसुन्दर ।
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