shashi purwar writer

Wednesday, May 20, 2020

जहाँ आदमी अपने को रोज बेचता है


रिक्शे पर बैठकर हम मोबाइल पर बतियातें रहतें हैं और बेचारा रिक्शे वाला हाँफता हुआ पसीना पोंछता हुआ सवारियों को खीचता रहता है।  हम अकड़ते हुये निर्लज्ज बैठे रहतें हैं।
 मई महीने हम मजदूर दिवस मनाते थे और इसी महीने हम सबने मजदूरों की दुर्दशा होते हुए देखी है लाक डाउन में मजदूरों की बेबसी सैलाब बनकर उमड़ी है। भूख लाचारी और तन की थकान दुर्घटना में जीवन लील रही हैपाँव में छाले पड़े हैं बेबसी तड़प रही है और आँखें सूख रही है। हाल ही में मजदूरों की दर्दनाक मौत के हादसे कई प्रश्न उठा रहें है 
  आह पर भले ही वाह भारी पड़ गया और मौत ने,  न केवल जिंदगी को दिन – दहाड़े,  हजारो – लाखों लोगों के बीच शिकस्त दे दी। क्यों हथेली पर सरसों उगाने भर की भी जमीन उसे मयस्सर नहीं होती। खेतिहरमजदूर की तरह खेतों में खटता रहता है।  यही नहीं गगनचुम्बी अट्टालिकाओं को बनाने में जिंदगी खपा देने के बाद भी उसे अपने छोटे से परिवार के लिए छत तक नसीब नहीं होती। 
घर से घाट तक और घाट से लेकर लादी धोने वाले सीधे –साधे पशु “ गर्दन “  के समान वह भी गोदाम से दुकान और दुकान से गोदाम तक माल ढोता – ढोता थक कर चूर हो जाता है।  फिर भी कदम – कदम पर उसका खाना – पीनादर किनार  कर  खिड़की ही नसीब होती   है .
यह महामारी और लॉक डाउन मजदूरों के लिए आफत लेकर आया हैहर तरफ अफरातफरी मची हुई है खाने के लिए भोजन नहीं और रहने के लिए  घर नहीं है सड़क पर बेहाल  मजदूर परिवार,  अपन छोट छोट बच्चों के साथ थके हुए कदमों से गांव लौट रहे हैं मीलो लंबा रास्तासुनसान सडकमंजिल दूर हैउस पर हो रही दुर्घटनाएं मौत का पैगाम लिख रही हैलाखों की संख्या में मजदूरों का पलायन  उनकी दुर्दशा हमारे समाज की  पोल खोल रहा है कहींकहीं  ऐसी हालत में  मकान मालिक  किराया भी मांग रहे हैं जिसके पास तन ढकने के लिए कपड़ा नहीं  पेट की आग बुझाने के लिए दो निवाला नहीं  हैवह वापस नहीं लौटेगा तो और क्या करेगा ?
   मजदूरों का अगर वर्गीकरण किया जाये तो कलम थक जाएगी। ईंट – भट्टा मजदूर फेफड़े गंवाकर रोजी कमाने में लगे हैँ।  लाखों चूड़ी मजदूरलोहा पीट – पीट कर उसे कलात्मक रूप देने वालेगाड़ियाँ – लोहार  से लेकर जिंदगी चलाने के लिए हम कदम – कदम पर मजदूरों का इस्तेमाल करतें हैं।  लेकिन उन्हें पेट भर खाना नसीब हो इसके लिए कभी नहीं सोचतें हैं और सरकारी योजनायें बनती भी है तो पंजीकरण के नाम परदफ्तर में ही कैद हो जातीं है।  
      नगर के हर बड़े चौराहे पर रोज मजदूरों का हुजूम लगता है। जहाँ आदमी रोज अपने को बेचता है। हमें तनिक भी लज्जा नहीं आतीजब आदमी– आदमी का वजन उठाता है।  रिक्शे पर बैठकर हम मोबाइल पर बतियातें रहतें हैं और बेचारा रिक्शे वाला हाँफता हुआ पसीना पोंछता हुआ सवारियों को खीचता रहता है।  हम अकड़ते हुये निर्लज्ज बैठे रहतें हैं। हम कब इस न्याय – अन्याय को परखने वाले तराजू के पसंगा बनकर अपनी लोक लुभावन भूमिका निभाते रहेंगे 
समाज और देश के निर्माण में मजदूरों का महत्वपूर्ण योगदान होता है  समाजदेश व संस्था उद्योग में काम करने वाले मजदूर श्रमिक की भूमिका महत्वपूर्ण होती है लेकिन अब समय बदल गया हैइस महामारी ने हमें आत्मनिर्भरता का पाठ पढाया है.
हमारी हर कोशिश हमारे साथ – साथ समाज को भी उन्नत करेगी लाक डाउन धीरे धीरे हटेगाहमें जीवन को फिर से पटरी पर लाना है लेकिन जीवन को सुरक्षित भी रखना होगा
कोरोना संकट के बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 20 लाख करोड़ रुपये के आर्थिक पैकेज का ऐलान किया है.  महामारी के संकट में सूक्ष्मलघुमध्यम उद्योग,  श्रमिक मजदूरव किसान सभी आत्मनिर्भर बनेंगे और यह पैकेज उन सभी के लिए लाभदायक होगायह निश्चित तौर पर  महामारी से जूझ रहे इस आर्थिक संकट में  महत्वपूर्ण भूमिका  अदा करेगा .  सूक्ष्म लघु उद्योग मध्यम उद्योग श्रमिक मजदूर किसान को आत्मनिर्भर बनाने में लाभदायक सिद्ध होगा .  इस योगदान का सबसे बड़ा लाभदेश की अर्थव्यवस्था को भी संल मिलेगा.  लेकिन मन में संशय उपज रहा है  कि क्या इस योजना का पूर्ण लाभ  उन हाथों तक पहुंचेगा?
आत्मनिर्भर भारत का मंत्र हमें याद रखना होगा आत्मनिर्भर भारत का सीधा सीधा अर्थ है कि विदेशी तजो और देशी अपनाअोआज संकट की इस घड़ी में हम लोकल चीजें के भरोसे ही लाक डाउन काट रहे हैलोगों का रुझान लोकल के प्रति हुआ है और होना भी चाहिएआखिर कब तक हम ब्रांड के पीछे भागेंगेभारत में कारीगरों की कमी नहीं है जो उत्तम सामान कम लागत में तैयार करते हैंहमारे लोकल का सामान भी ब्रांडेड बन सकत हैं मैंने कई शहरों व गांवों में प्रवास किया है वहां क लोकल वस्तुओं को भी आजमाया है और उनकी क्वालिटी और गुणवत्ता में कोई कमी नहीं थी.
हमें आत्मनिर्भर बनना होगाइससे रोजगार के साधन भी उपलब्ध होंगेबेरोजगारी कम होगीसंसाधन उपलब्ध होनें तो रोजगार के लिए विदेश जाने की जरूरत महसूस नहीं होगी देश में रोजगार के साधन उत्पन्न होंगे और अर्थव्यवस्था को बहुत बड़ा संबल मिलेगाहमारी हर कोशिश हमारे साथ – साथ समाज को भी उन्नत करेगी लाक डाउन धीरे धीरे हटेगाहमें जीवन को फिर से पटरी पर लाना है लेकिन जीवन को सुरक्षित भी रखना होगासकारात्मक पहल द्वारा ही जीवन को पटरी पर लाने में हम सभी सफल होगें
शशि पुरवार 

Monday, April 27, 2020

मत हो हवा उदास


धीरे धीरे धुल गया ,
मन मंदिर का राग
इक चिंगारी प्रेम की ,
सुलगी ठंडी आग


खोलो मन की खिड़कियाँ,
उसमें भरो उजास
 धूप 
ठुमकती सी लिखे,
मत हो हवा उदास


नैनों की इस झील में,
खूब सहेजे ख्वाब
दूर हो गई मछलियाँ,
सूख रहा तालाब


जाति धर्म को भूल जा,
मत कर यहाँ विमर्श
मानवता का धर्म है ,
अपना भारत वर्ष


शहरों से जाने लगे,
बेबस बोझिल पॉंव
पगडण्डी चुभती रही ,
लौटे अपने गॉंव
--
शशि पुरवार

Monday, April 20, 2020

बदला वक़्त परिवेश - कोरोना काल के दोहे

कोरोना ऐसा बड़ा , संकट में है देश 
लोग घरों में बंद है , बदला वक़्त परिवेश

 प्रकृति बड़ी बलवान है, सूक्ष्म जैविकी हथियार
मानव के हर दंभ पर , करती तेज प्रहार 

 आज हवा में ताजगी,  एक नया अहसास 
पंछी को आकाश है, इंसा को गृह वास

जीने को क्या चाहिए, दो वक़्त का आहार 
सुख की रोटी दाल में, है जीवन का सार

 इक जैविक हथियार ने छीना सबका चैन 
आँखों से नींदें उडी , भय से कटती रैन 

 चोर नज़र से देखते , आज पड़ोसी मित्र 
दीवारों में कैद हैं , हँसी  ठहाके चित्र

 चलता फिरता तन लगे, कोरोना का धाम 
 गर सर्दी खाँसी हुई,  मुफ़्त हुए बदनाम

 कोरोना का भय  बढ़ा , छींके लगती  तोप 
बस इतना करना जरा , मलो हाथ पर सोप 

शशि पुरवार 

Thursday, April 16, 2020

'जोगिनी गंध' -



'जोगिनी गंध' - त्रिपदिक हाइकु प्रवहित निर्बंध  
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
 









  हिंदी की उदीयमान रचनाकार शशि पुरवार के  हाइकु संकलन ''जोगिनी गंध'' को पढ़ने से पूर्व यह जान लें कि शशि जी जापानी ''उच्चार'' को हिंदी में ''वर्ण'' में बदल लेनेवाली पद्धति से हाइकु रचती हैं। शशि जी सुशिक्षित, संभ्रांत, शालीन व्यक्तित्व की धनी होने के साथ-साथ शब्द संपदा और अभिव्यक्ति सामर्थ्य की धनी हैं। वे जीवन और सृष्टि को खुली आँखों से देखते हुए चैतन्य मस्तिष्क से दृश्य का विवेचन कर हिंदी के त्रिपदिक वर्णिक छंद हाइकु की रचना ५-७-५ वर्ण संख्या को आधार बनाकर करती हैं। स्वलिखित भूमिका में शशि जी ने हाइकु की उद्भव और रचना प्रक्रिया पर विस्तार से प्रकाश डालते हुए कुछ हाइकुकारों के हाइकुओं का उल्लेख किया है। संभवत: अनावश्यक विस्तार भय से उन्होंने लगभग ३ दशक पूर्व से हिंदी में मेरे द्वारा रचित हाइकु मुक्तकों, ग़ज़लों, गीतों, समीक्षाओं आदि का उल्लेख नहीं किया तथापि स्वलिखित हाइकु गीत,  हाइकु चोका गीत प्रस्तुत कर इस परंपरा को आगे बढ़ाया है। 

'जोगिनी गंध' में शशि जी के हाइकु जोगनी गंध (प्रेम, मन, पीर, यादें/दीवानापन), प्रकृति (शीत, ग्रीष्म व फूल पत्ती-लताएं, पलाश, हरसिंगार, चंपा, सावन, रात-झील में चंदा, पहाड़, धूप सोनल, ठूँठ, जल, गंगा, पंछी, हाइगा), जीवन के रंग (जीवन यात्रा, तीखी हवाएँ, बंसती रंग, दही हांडी, गाँव, नंन्हे कदम-अल्डहपन, लिख्खे तूफान, कलम संगिनी) तथा विविधा (हिंद की रोली, अनेकता में एकता,  ताज,  दीपावली, राखी, नूतन वर्ष, हाइकु गीत,  हाइकु चोका गीत, नेह की पाती, देव नहीं मैं, गौधुली बेला में, यह जीवन, रिश्तों में खास, तांका, सदोका, डाॅ. भगवती शरण अग्रवाल के मराठी में, मेरे द्वारा अनुवादित कुछ हाइकु) शीर्षकों-उपशीर्षकों में वर्गीकृत हैं। शशि जी ने प्रेम को अपने हाइकू में  अभिनव दृष्टि से अंकित किया है - सूखें हैं फूल / किताबों में मिलती / प्रेम की धूल।

प्रेम की सुकोमल प्रतीति की अनुभूति और अभिव्यक्ति करने में शशि जी के नारी मन ने अनेक मनोरम शब्द-चित्र उकेरे हैं। एक झलक देखें - 

छेड़ो न तार / रचती सरगम / हिय-झंकार।



तन्हा पलों में / चुपके से छेडती / यादें तुम्हारी।

शशि जी  हाइकु रचना में केवल प्रकृति दृश्यों को नहीं उकेरतीं। वे कल्पना, आशा-आकांक्षा, सुख-दुःख आदि मानवीय अनुभूतियों को हाइकु का विषय बना पाती हैं-

सुख की धारा / रेत के पन्नों पर / पवन लिखे।

दुःख की धारा / अंकित पन्नों पर / जल में डूबी।

बनूँ कभी मैं / बहती जल धारा / प्यास बुझाऊँ।

हाइकु के शैल्पिक पक्ष की चर्चा करें तो शशि जी ने हिंदी छंदों की पदान्तता को हाइकू से जोड़ा है। कही पहली-दूसरी पंक्ति में तुक साम्य  है, कहीं पहली तीसरी पंक्ति में, कहीं दूसरी-तीसरी पंक्ति में, कहीं तीनों पंक्तियों में  किन्तु कहीं -कहीं तुकांत मुक्त हाइकु भी हैं- 

प्यासा है मन / साहित्य की अगन / ज्ञान पिपासा।

दिल दीवाना / छलकाते नयन / प्रेम पैमाना।

अँधेरी रात / मन की उतरन / अकेलापन।

अनुगमन / कसैला हुआ मन / आत्मचिंतन।

तेरे आने की / हवा ने दी दस्तक / धडके दिल।

शशि जी के ये हाइकु  प्रकृति और पर्यावरण से अभिन्न हैं। स्वाभाविक है कि इनमें प्रकृति के सौंदर्य का चित्रण हो। 

स्नेह-बंधन / फूलों से महकते / हर सिंगार। 

हरसिंगार / महकता जीवन / मन प्रसन्न।

पत्रों पे बैठे / बारिश के मनके / जड़ा है हीरा।

ले अंगडाई / बीजों से निकलते / नव पत्रक।

काली घटाएँ / सूरज को छुपाए / आँख मिचोली।

प्रकृति के विविध रूपों का हाइकुकरण करते समय बिम्बों, प्रतीकों और मानवीकरण करते समय कृत्रिमता अथवा पुनरावृत्ति का खतरा होता है।  शशि के हाइकु इस दोष से मुक्त ही नहीं विविधता और मौलिकता से संपन्न भी हैं। 

सिंधु गरजे / विध्वंश के निशान / अस्तित्व मिटा।

नभ ने भेजी / वसुंधरा को पाती / बूँदों ने बाँची।

राग-बैरागी / सुर गाए मल्हार / छिड़ी झंकार ।

धरा-अम्बर / तारों की चूनर का / सौम्य शृंगार।

हाइकू के माध्यम से नवाशा और नवाचार को स्पर्श  करने का सफल प्रयास करती हैं शशि- 

हौसले साथ / जब बढे़ कदम / छू लो आसमां ।

हरे भरे से / रचे नया संसार / धरा का स्नेह।

संग खेलते / ऊँचे होते पादप / छू ले आंसमा।

शशि का शब्द भंडार समृद्ध है। तत्सम-तद्भव शव्दों के साथ वे आवश्यक  अंग्रेजी या अरबी शब्दों का सटीक प्रयोग करती हैं -

रूई सा फाहा / नजरो में समाया / उतरी मिस्ट।

जमता खून / हुई कठिन साँसे / फर्ज-इन्तिहाँ।

हिम-से जमे / हृदय के ज़ज़्बात / किससे कहूँ?

करूँ रास का काव्य से गहरा नाता है। कविता का उत्स मिथुनरत क्रौंच युगल के नर का बहेलिया द्वारा वध करने पर क्रौंची के चीत्कार को सुनकर आदिकवि वाल्मीकि के मुख से नि:सृत श्लोक से हुआ है। शशि के हाइकु करुण रस से भी संपृक्त हैं। 

उड़ता पंछी / पिंजरे में जकड़ा / है परकटा। 

दरख्तों को / जड़ से उखडती / तूफानी हवा।

शशि परंपरा का अनुकरण ही  करतीं, आवश्यकता होने पर उसे तोड़ती भी हैं।  उन्होंने  ६-७-५  वर्ण लेकर भी हाइकु लिखा है -

शूलों-सी चुभन / दर्द भरा जीवन / मौन रुदन।

हाइकु के लघु कलेवर में मनोभावों को शब्दित कर पाना आसान नहीं होता। शशि ने इस चुनौती को स्वीकार कर मनोभाव केंद्रित हाइकु रचे हैं -

अवचेतन / लोलुपता की प्यास / ठूँठ बदन।

सूखी पत्तियाँ / बेजार होता तन / अंतिम क्षण।

वर्तमान समय का  संकट सबसे बड़ा पर्यावरण का असंतुलन है। शशि का हाइकुकार इस संकट से जूझने के लिए सन्नद्ध है-

कम्पित धरा / विषैली पोलिथिन / मानवी भूल।

जगजननी / धरती की पुकार / वृक्षारोपण।

पर्वत पुत्री / धरती पे जा बसी / सलोना गाँव। 

मानुष काटे / धरा का हर अंग / मिटते गाँव।

केदारनाथ / बेबस जगन्नाथ / वन हैं कटे। 

सामाजिक टकराव और पारिवारिक बिखराव भी  चिंता का अंग हैं - 

बेहाल प्रजा / खुशहाल है नेता / खूब घोटाले।

चिंता का नाग / फन जब फैलाये / नष्ट जीवन।

पति-पत्नी में / वार्तालाप सीमित / अटूट रिश्ता।

जोगिनी गंध में नागर और ग्रामीण, वैयक्तिक और सामूहिक, सांसारिक और आध्यात्मिक, आध्यात्मिक और वैज्ञानिक अर्थात परस्पर विरोध और भिन्न पहलुओं को समेटा गया है।  गागर में सागर की तरह शशि का हाइकुकार त्रिपदियों और सत्रह वर्णों में अकथनीय भी कह सका है। प्रथम हाइकु संग्रह अगले संकलनों के प्रतिउत्सुकता जाग्रत करता है। पाठकों को यह संकलन निश्चय भायेगा और  ख्याति दिलाएगा। 
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संपर्क - विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१  अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, 
चलभाष - ७९९९५५९६१८, ईमेल - salil.sanjiv@gmail.com 

Saturday, April 11, 2020

जीवन बचाने के लिए चिंतन जरूरी





मनुष्य व प्रकृति को बचाने के लिए चिंतन करना आज जीवन की महत्वपूर्ण वजह बन गई हैअपराधी सिर्फ वह लोग नहीं हैं जो खूंखार कृत्यों को अंजाम देते हैं अपितु प्रकृति के अपराधी आप और हम भी हैंजो प्रकृति पर किए गए अन्याय में जाने -अनजाने सहभागी बने हैं.

मौसम के बदलते मिजाज प्रकृति के जीवन चक्र में हस्तक्षेप करने का नतीजा है. 21 दिन के लाक डाउन के बाद भी कोरोना के बढ़ते कदम विनाश की तरफ जा सकते हैंजिसे रोकना बेहद जरूरी है.

मानव ने चाँद पर कदम रखकर फतेह हासिल की व आज भी अन्य ग्रहों पर जाकर फतेह करने का जज्बा कायम है लेकिन क्या प्रकृति पर काबू पाया जा सकता है प्रकृति जितनी सुंदर है वहीं उसे बंजर बनाने में मानव का बहुत बडा हाथ हैधरती को रासायनिक उर्वरों व संसाधनों द्वारा बंजर व शुष्क बनाकर मानवआग में घी डालने का काम कर रहा हैक्योंकि प्रकृति जहरीली गैसों से भरा बवंडर भी हैहम मानव निर्मित संसाधनों द्वारा प्रकृति से खिलवाड़ करके अपनी ही सांसों को रोकने का प्रबंध कर रहे हैंआज हम विश्व स्तर पर प्रकृति से युद्ध लड़ रहें हैंजिसमें उसका हथियार एक अदृश्य सूक्ष्म जीव है जिसने अाज जगत में कहर मचा रखा हैप्रकृति ने समय-समय पर अपनी ताकत का एहसास मनुष्य जाति को कराया हैलेकिन मानव फिर भी नहीं सँभला विकास को विनाश में परिवर्तित करने वाली स्मृतियां इतिहास में आज भी सुरक्षित हैं.

हम सबने प्रकृति का विध्वंस स्वरूप भी देखा हैकटते वनपर्यावरण प्रदूषणरासायनिक संसाधनों का दुरुपयोगप्लासटिककचरा ...इत्यादि के कारण बदलते मानसूनभूकंपबादल फटनामहामारीसूखप्रलय ...अादि प्रकृति के जीवन चक्र में हस्तक्षेप करने का दुष्परिणाम हैपहले भी कई महामारी आईधरा का संतुलन बिगडाउसके बाद जीवन को पुनपटरी पर लाने के लिए बहुत जद्दोजहद करनी पडी हैहम सबने सुना है कि जब जब धरती पर बोझ बढता है वह विस्फोट करती हैप्रकृति अपने अस्तित्व को बचाने के लिए मूक वार करके अपना विरोध जाहिर कर देती है लेकिन दंभ में डूबा यह मानव मन कहाँ कुछ समझना चाहता है?

मानव की मृगतृष्णा,अंहकार की पिपासा के कारण ही संपूर्ण विश्व पर संकट मंडरा रहा है कुछ देशों द्वारा स्वयं को शक्तिशाली घोषित करने के लिए किसी भी हद तक जाना शर्मनाक कृत्य हैइन विषम परिस्थिति में सीमा पर गोलीबारी होना सीजफायर तोड़नाकिसी आतंकवादी होने से कम नहीं है .यह उनके कुंसगत मन का घोतक हैक्या एेसे तत्व मानवता के प्रतीक हैं चीन द्वारा जैविक हथियार बनाना उसी की दूषित करनी का फल हैयह कैसी लालसा है जिसमें उसने करोडो जीवन दांव पर लगा दियेउसकी लोभ पिपासा महामारी बनकर जीवन को लील रही हैजिसका खामियाजा संपूर्ण विश्व भुगत रहा हैमानव जाति का अस्तित्व खतरेें में है .स्वयं को शक्तिशाली घोषित करने के लिए विश्व की शक्तियां किसी भी स्तर तक गिर सकती है जहां से सिर्फ पतन ही होगा .  लेकिन अभी इन बातों से इतर जीवन को बचाना महत्वपूर्ण है.

कोविड-19 के कहर से संपूर्ण विश्व ग्रस्त है वैश्विक संकट गहराता जा रहा है तेजी से बढ़ता संक्रमण चिंता का विषय हैलेकिन साथ में कुछ असामाजिक तत्वों द्वारा अमानवीय व्यवहार करनाहमारी प्राचीन संस्कृति व सभ्यता पर प्रश्न चिन्ह लगा रहे हैं.

यह कैसी प्रगति है क्या हमारे कदम आगे बढ़े हैंया हमें दो कदम पीछे जाकर चिंतन करने की आवश्यकता हैक्या मानवीय संवेदनाअों की मृत्यु हो गई हैया संवेदनाएं ठहरने लगी हैहिंसा का यह दौर किस पृष्ठभूमि से जन्मा हैकिताबी ज्ञानसाहित्यसमाज व मनन चिंतन के अतिरिक्त हमें अपनी प्राचीन सभ्यता और संस्कृति के गलियारों में घूमने की आवश्यकता हैपीडा से ग्रस्त जीवन घरों में कैद हैकहीं वह विकृति को जन्म दे रहा है तो कहीं शारीरिक व मानसिक हिंसा द्वारा जीवन के मूल्यों का हृास हो रहा है.

संकट के इस दौर में असामाजिक तत्वों द्वारा हिंसा के समाचार मानवीय पतन का परिचायक हैसेवा कर्मचारीडाक्टरकुछ लोगकई संस्थाएं अपनी जान जोखिम में डालकर निस्वार्थ भाव से सेवा कर रहीं हैं इनके साथ दुर्व्यवहार करने की खबरें मन को आहत करती हैकोविड-19 को हिंसा द्वारा नहीं संयम द्वारा ही जीता जा सकता है आज इस संयम की संपूर्ण विश्व में आवश्यकता है.

जीवन महत्वपूर्ण हैजान है तो जहान हैमानव ही मानव को बचाने का माध्यम बना है एक दूसरे की मदद करनासोशल डिस्टसिंग एवं स्वयं के संक्रमित होने की सही जानकारी सरकार को प्रदान करना जिससे एक नहीं हजारों लाखों जीवन को बचाया जा सकता हैजिसमें सामर्थ है वह मदद करें जिससे गरीबों की परेशानियों का हल भी निकल सकता है.कोरोना की चैन को तोड़ना आवश्यक है वरना यह नरसंहार विश्व में तबाही का बहुत बड़ा कारण बनेगा.

राज्य सरकारी धीरे-धीरे लॉक डाउन बढ़ा रही  है जीवन को गति देने के लिए नियमों का पालन करना बेहद जरूरी है किंतु अभी मैं बहुत से लोग नियमों का पालन नहीं कर रहे हैंऐसा करके वह स्वयं की जिंदगी को भी खतरे में डाल रहे हैंशांत रहेंनियमों का पालन करते हुए काम करें असंयमितअस्त व्यस्त हुए जीवन को आज संयमचिंतन व अनुशासन द्वारा ही बचाया जा सकता हैंजिससे हम सबी को कोरोना के भय से निजात मिले.
शशि पुरवार


“जब मूर्खता को मिला मंच : महामूर्ख सम्मेलन का व्यंग्य”

आज महामूर्ख सम्मलेन अपनी पराकाष्ठा पर था।  सम्मलेन में  मौजूद मूर्खो  की संख्या देखकर हम सम्मेलन के मुरीद हो गए. हमें  एहसास हुआ कि हम  मूर्...

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🏆 Shashi Purwar — Honoured as 100 Women Achievers of India | Awarded by Maharashtra Sahitya Academy & MP Sahitya Academy