" नया आकाश ’’
दोपहर के 1 बजे फोन की घंटी बजी, पलक के हेल्लो के जबाब में दूसरी तरफ से प्रणव की आवाज थी.
’’ पलक, बधाई हो ! तुम्हें इस साल तुम्हारे उपन्यास ’’ नीड़ ’’ के लिए सम्मानित किया जा रहा है.
’’ क्या ’’ खुशी व सुखद आश्चर्य से पलक की आवाज में कम्पन आ गया, शब्द गले में ठहर गए, अचानक आँखें नम हो गयीं, हदृय अपने उदगार व्यक्त करने में असमर्थ थे. जीवन में जो इक प्यास शेष थी, आज जैसे उस प्यासे को पानी मिल गया था.
’’ क्यों, विश्वास नहीं हो रहा है ? अभी - अभी मुझे संस्था से फोन आया था! अच्छा, शाम को मिलता हूँ फिर बात होगी। .’’ कह कर प्रणव ने फोन रख दिया.
पलक जैसे ही फ़ोन रखकर मुड़ने लगी, कि फिर घंटी बजी. ’ हेल्लो’ के जबाब मे उधर से अाती हुई मधुर आवाज कानों में रस घोल गयी.
माँ - बधाई हो, मैं घर आ रही हूं.’’
’’अरे विनि, कैसी है, कब आ रही है, तुझे कैसे पता चला ’’ पलक ने एक ही सांस में प्रश्नों की झड़ी लगा दी।
’’ माँ, पापा का फोन आया था, अच्छा शाम को मिलतें हैं. अभी फोन रखती हॅू‘‘ कहकर विनि ने फोन रख दिया.
’’पता नही, सबको कितनी जल्दी रहती है’’ पलक धीरे से बडबडाई.
विनि से बात करके पलक की भीगी पलकें झरझर झरने लगीं। विनी उसके ह्रदय का टुकडा थी. जिसके बिना वह कोई कल्पना नहीं कर सकती थी. ऐसी ख़बरें आग की तरह फैल जाती है। उसके बाद बधाई का जो सिलसिला शुरू हुआ वह दोपहर 3 बजे तक चलता रहा.
आज जैसे पलक अपने अंदर ठहराव महसूस रही थी। स्वयं की पहचान हर इंसान के लिए मायने रखतीं है। वह पहचान ही जीवन में सम्पूर्णता का अहसास कराती है। वक़्त व नियति के चलते जो कुछ पीछे छूट गया था, आज ओस सी शीतलता बन हदृय को ठंडक प्रदान कर रहा था। ह्रदय के किसी कोने मे जो तम्मना दबी हुई थी,आज उसे एक गगन मिल गया. ह्रदय की धडकन व मन के तारों ने साज छेड रखा था. विनी ने ही अनजाने में उसके स्वप्नों को हवा दी थी। न चाहते हुए भी पलक अतीत की उन गलियों में विचरने लगी जहाँ सिर्फ दर्द और तन्हाई थी। मानसिक त्रासदी भी किसी यातना से कम नहीं होती है।
आज भी वह दिन याद है जब उसने शादी न करने के लिए जद्दोजहत की थी। आगे पढने व एक मुकाम हासिल करने का स्वप्न नैनों में तैर रहा था. पलक स्वभाव से शांत व संवेदनशील थी. वह दो बहनें थी. भाई नहीं था. पलक छोटी थी. माँ -पिताजी परंपरावादी न होकर बहुत सुलझे हुए इंसान थे. बेटियों को बेटे की तरह, बहुत जतन से पाला और जीवन में आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया। माँ का एक ही ध्येय था कि हम उच्च शिक्षित बने । हालाकिं माँ स्वयं शिक्षित होकर गृहणी ही थी। परंपरा के आगे उन्होंने घुटने टेक दिए थे. लेकिन उनका पूर्ण साथ व विश्वास हमें मिला था.
मध्यमवर्गीय परिवार होने के कारण हम हर परिस्थिति से झूझने के आदी थे। माँ - पिताजी ने हमारी शिक्षा के लिए पूर्ण त्याग किया ,हमें कभी कुछ कमी महसूस नहीं होने दी थी। हमने भी उनके विश्वास पर खरे उतरने की पूरी कोशिश की थी. दीदी प्रोफेसर बन गई व उनकी शादी उनके साथी प्रोफेसर से हो गई. मैने भी एम.ए, बीएड व पी.एच.डी करके आगे नौकरी करनी चाही परंतु मुझे वक्त ने ऐसा कोई मौका नहीं दिया. प्रणव के घर वालों ने एक दिन मुझे देखा और रिश्ता सामने से आया। प्रणव सरकारी नौकरी में थे। मैने माँ - पिताजी से मना किया, भूखी रही, पर उनके आगे एक न चली, माँ बोली -
’’ अच्छे लडके मुशकिल से मिलते है, सुन्दर शिक्षित लड़का है और क्या चाहिए। जो भी करना शादी के बाद करना " और बात वही खत्म हो गई. लोग पहले शादी को ही जीवन का अंत मानते थे. यहाँ आकर उन्होंने भी साथ छोड़ दिया।
हर लडकी की तरह आँखों में सतरंगी सपने लिए ससुराल की दहलीज पर कदम रखा। ससुराल की परिस्थिति ठीक ही थी। नए सफर की उंमगो में परिवार का साथ व प्यार महत्वपूर्ण होता है। माँ - पिताजी ने पहले ही कह दिया था. अपने संस्कारों का ध्यान रखना, किसी को शिकायत का मौका मत देना। सोचा था कि सबका दुलार मिलेगा, तो घर के साथ-साथ वह नौकरी भी कर सकती हैं। वह सब अच्छा करने की कोशिश करेगी; परंतु सपने आँख खुलने पर टूटते ही है. धीरे धीरे प्रणव के घर वालों का व्यवहार और विचार सामने आ ही गए।
प्रणव के परिवार वाले रूढ़िवादी व सर्कीण विचारों के थे. घर की बहू बाहर जाकर काम करे, उन्हें पसंद नहीं था. घर की परिस्थिति ठीक ठाक थी. जेठ, पिताजी के साथ दुकान पर बैठते थे. उस घर में सिर्फ प्रणव और मैं उच्च शिक्षित थे, बाकी सदस्यों ने डिग्री भी पूर्ण नही की थी. प्रणव एक प्राइवेट कंपनी में मैनेजर की नौकरी करते थे. उन्हें काम से फुरसत नहीं थी . प्रणव का स्वभाव गंभीर व अंर्तमुखी था. परिवार में उनकी दखलअंदाजी नहीं थी. वह परिवार के खिलाफ कुछ सुनना पसंद नहीं करते थे। हाथ की मेंहदी भी नहीं छूटी कि दूसरे दिन से घर की जिम्मेदारीयाँ कांधे पर आ गयीं. नवविवाहिता के कोमल सपने रसोई घर में सिमट कर रह गए.
जिठानी झगड़ालू प्रवृति की थी। जेठानी व सास की निसदिन खिट-पिट होती रहती थी, जिसमें पलक गेहूँ के घुन की तरह पिसती थी। सभी लोग आए दिन उसे अपना स्वत्व व दबाने की कोशिश करते थे। घर में सास की ज्यादा चलती थी. कब किस बात का गलत मतलब निकल जाए कह नही सकते थे. उनकी नजर में ज्यादा पढी-लिखी लडकी तेज होती है. ऐसे में पलक ने हमउम्र दोनों ननद को अपनी सहेली बनाने का असफल प्रयास किया। कहतें है जहाँ मन मे कॉम्प्लेक्स हो वहां मिठास नहीं हो सकती है। ईर्ष्या मति भ्रष्ट करती है. दोनों का प्रेम तो दूर; भाभी शब्द का संबोधन भी कभी मुख से नहीं निकला। दिन रात बहुत ईमानदारी से परिवार की जिम्मेदारी निभाई। किन्तु उसका मोल न मिला. घर वाले स्नेह देने में भी बहुत गरीब थे. उनके लिए मैं सिर्फ दूसरे घर की लड़की ही बनी रही. घर में भय की मातमी छाई रहती थी। न ज्यादा बात और न ही हंसी मजाक, किन्तु जिसे देखो मुझे सताने का मौका जरूर ढूंढता था, लेकिन प्रणव के सामने सब बहुत सीधे बनते थे । ऐसा द्विचरित्र मुखौटा पहली बार देखा था. जिसे देखो वह उस पर हावी होने का प्रयास करता था, पलक की हालत ऐसी थी कि काटो तो खून नहीं, किसी से खुलकर हँसने बोलने में भी डर लगताथा। चुप रहकर ही प्रतिकार किया, मैंने काम के बोझ तले अपने सपनों बिखरते देखा था.
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..शशि पुरवार