हास्य-व्यंग्य लेखन में महिला व्यंग्यकार और पुरुष व्यंग्यकार का अंतर्विरोध-
कमाल है ! जहां विरोध ही नही होना चाहिए वहां अंतर्विरोध ही अंतर्विरोध है।
कहने को तो हम आधी आबादी हैं । भगवान शिव तक अर्धनारीश्वर कहलाते हैं। पर पार्वती के पिता ही उसे अग्निकुंड पहुंचा देते है । शायद मतलब निकालने के लिए ही हमें हृदेश्वरी का संबोधन दिया जाता है। किन्तु जब मन और दिमाग की परतें खुलनी शुरू होती है तो बद दिमागी को उजागर होते देर नहीं लगती ।
यह एक कड़वा सच है कि समाज ने महिला को एक कमजोर लता मान लिया है। ऐसी कमजोर लता जिसका अस्तित्व, वृक्ष के आधार के बिना संभव नहीं है। विवाह के बाद पत्नी को अर्धांगिनी कहतें हैं लेकिन महिलाओं को कदम कदम पर बाँध दिया गया है। बचपन में पिता व विवाह के बाद पति को परमेश्वर मानने का आदेश एवं उनके परिवार याने पूरे कुनबे को अपना सब कुछ न्यौछावर करने की अपेक्षा ? ऐसे में महिलाएं अपनी अभिव्यक्ति को आकार देने के लिए चूल्हा चक्की के बीच कलम उठाती भी हैं तो उन्हें अजूबे की तरह देखा जाता है। लेकिन हम आठवां अजूबा नहीं है। हम हैं तो आप हैं।
व्यंग तो कदम कदम पर बिखरा पड़ा है। हमारे व्यंगकार बंधुओं को व्यंग खोजने बाहर देखना पड़ता है किन्तु हमें बाहर जाने की आवश्यकता नहीं है। विषय वैविध्य की कमी नहीं है। पुरुष जहाँ पूरा की पूरा व्यंग है तो हम महिलाएं व्यंग को जीती हैं। आप कहीं भी देखें हर जगह महिलाएँ व्यंग्य के घेरे में है। महिलाओं के ऊपर फिरके बाजी होती रहती है। तिलमिलाहट व्यंग के रूप में बाहर आती है। जब महिला व्यंग्यकार छपने जाती है तब तर्क - वितर्क की रेखा। समय रेखा। चुनौती की रेखा ..... सभी का सामना करना पड़ता है। महिलाओं को इतनी बाधाएं हैं कि उसे व्यक्त करना भी एक व्यंग्य आलेख ही होगा। एक अघोषित लक्ष्मण रेखा खींची हुई है। लेकिन इसके लिए महिलाएँ भी कम जिम्मेदार नहीं है। तन मन से पूर्ण समर्पण किया है। जो लाभ न उठा सके वो मानव कैसा ? इसीलिए नारी सिमित दायरे में कैद होकर अपनी उड़ान भरती है। उन्हें स्वयं को अपने मन की इस जकड़न से मुक्त करना होगा। अपनी भाषा में ही नहीं अपने व्यक्तित्व को ही नया तेवर देना होगा।
हर तरफ सवाल ही सवाल है। आज हम सवालों से घिरे हैं। व्यंग्य में महिलाओं की स्थिति क्या है ? महिला व्यंग्यकारों को क्या व्यंग्य जगत में वह स्थान मिला है जो पुरुषों को हासिल है। आज की महिला व्यंग्यकार कहीं व्यंग्य बनकर न रह जाये! काश आप लाजबाब होते तो हम भी कुछ जबाब होते।
हुआ यूँ कि एक संगोष्ठी में जब शिरकत करने का मौका मिला तब भी यही अंतर्विरोध खुलकर सामने आ गया। कई साथी व्यंग्यकारों को महिला व्यंग्यकारों की उपस्थिति नागवार गुजरी। कुछ महिलाओं को व्यंग्य के क्षेत्र में अपना नव लेखन दिखाने का मौका मिला। लेकिन अंतर्विरोध वहां भी देखने को मिला। इतनी सारी महिलाओं में किसी भी साथी व्यंग्यकारों को कोई सम्भावना नजर नहीं आई ! यह अंतर्विरोध नहीं तो क्या है ? कोई बच्चा जब चलना सीखता है तो पहले गिरता है। फिर कदम साध कर चलना सीखता है। नवजात शिशु चल नहीं सकता है। नवांकुरों को सदैव इस तरह के मापदंडो से गुजरना होता है।
एक मुहावरा है - समझदार आदमी दोस्तों के कन्धों का इस्तेमाल करना जानता है। लेकिन व्यंग्य जगत में कोई किसी का दोस्त नहीं होता। इसलिए कहीं हम व्यंगकार इतना खुशफहम और आत्म मुग्ध हो जाते है कि हम साहित्य को भी नहीं बख्शते। कहते है साहित्य मर्यादित होता है। तो हम लेखक क्या उस मर्यादा को दरकिनार कर सकते है? हम साहित्य की विधियों में पाले खींच रहे है। हास्य को व्यंग्य के आस पास नहीं देखना चाहते हैं। व्यंग्य शास्वत है। उसे संकुचित घेरे में डालने का फतवा देने में लगे हैं। यह क्या उचित है ? व्यंग्य में अंतर्विरोधों के चलते व्यंग्य का विकास रुकने लगा है। व्यंग्य आलोचना में नहीं समेटा जा सकता है। व्यंग्य साहित्य में नमक का कार्य करता है। व्यंग्य एक नमक ही है जो साहित्य की हर विधा में उसका स्वाद बढ़ाता है। गुदगुदाता है। अधरों पर मुस्कान चाहिए तो व्यंग्य से बेहतर कोई मिठाई नहीं है। । हम यही आशा व उम्मीद करतें हैं कि इन अंतर्विरोधों को नजर अंदाज करते हुए हम मिलकर व्यंग्य के नए आयाम खोलेंगे।
शशि पुरवार