Monday, August 22, 2016

सुख की मंगल कामना








बाबुल के अँगना खिला, भ्रात बहन का प्यार 
भैया तुमसे भी जुड़ा, है मेरा संसार। 

माँ आँगन की धूप है, पिता नेह की छाँव 
भैया बरगद से बने , यही प्रेम का गॉँव 

सुख की मंगलकामना, बहन करें हर बार 
पाक दिलों को जोड़ता, इक रेशम का तार 

चाहे कितने दूर हो, फिर भी दिल से पास 
राखी पर रहती सदा, भ्रात मिलन की आस 

प्रेम डोर अनमोल ये, जलें ख़ुशी के दीप 
माता के आँचल पली, बेटी बनकर सीप 
-- शशि पुरवार 


Monday, August 15, 2016

भारत माता की जय





गाँव के नवोदित नेता ललिया प्रसाद अपनी जीत के जश्न में सराबोर कुर्सी का  बहुत ही आनंद ले रहे थे। कभी सोचा न था सरकारी कुर्सी पर ऐसे बैठेंगे। पाँव पर पाँव धरे पचपन इंच सीना चौड़ा करके (छप्पन इंच कहने की हिम्मत कहाँ?), मुख पर ३२ इंच की जोशीली मुस्कान के साथ नेता जी कुर्सी में ऐसे धँसे हुए बैठे थे मानो उससे चिपक ही गए हों। साम दाम दंड भेद की नीति से कुर्सी मिल ही गयी, भगवान् जाने फिर यह मौका मिले या न मिले, पूरा आनंद ले लो। कुर्सी मिलते ही चमचे बरसाती पानी जैसे जमा होने लगे। जैसे गुड़ पर मक्खी भिनभिनाती है वैसे ही हमारे नेताजी के चमचे जमा होकर भन भन कर रहे थे।

तभी नेताजी का खास चमचा रामखेलावन खबर लेकर आया कि १५ अगस्त पर उन्हें तहसील के प्रांगण में झंडा वंदन करना है। अब तो जोश जैसे और दुगना हो गया, नेता जी दिन में जागते हुए स्वप्न देखने लगे। लोगों के हुजूम, तालियों की गडगडाहट के बीच बड़े स्वाभिमान से झंडे की डोरी खींचकर झटपट झंडा लहरा दिया। तभी धडाम की आवाज के साथ नेता जी उछलकर कुर्सी से गिर पड़े। दिवास्वप्न टूट गया, देखा तो दरवाजे का पर्दा उनके ऊपर पड़ा था और वे जमीन की धूल चाट रहे थे। यह देख रामखेलावन समेत सारे चमचे जोर जोर से बत्तीसी दिखाने लगे। नेताजी खिसियानी बिल्ली की तरह बरामदे का खम्भा नोचने लगे और उनकी खतरनाक मुख मुद्रा देखकर सारे चमचे ऐसे गायब हुए जैसे गधे के सिर से सींग।
नेता जी बड़बड़ाने लगे- हम पर हँसते हो, कभी खुद ई सब किये होते तो पता चलता रस्सी खेंचना का होवत है। भक भक... अब तुम काहे दाँत दिखा रहे हो? कछु काम के न काज के, चले आये परेशान करने... अब झंडावंदन करे का है तो सफ़ेद झक्क कुरता पायजामा और टोपी ख़रीदे की है, का है कि अब फोटो सोटो भी लिया जायेगा।

रामखेलावन-वह तो ठीक है प्रभु, स्टैज पर कछु बोलना पड़ेगा। अब भाषन का देना है। वह भी तो सोचिये...
नेताजी- अर्ररर... जे हम तो भूल ही गए। सारी ख़ुशी ऐसी हवा हुई कि नेताजी का मुँह एकदम पिचके हुए आम की तरह पोपला हो गया। चौड़ा सीना ऐसे पिचका जैसे गुब्बारे में छेद हो गया। पेशानी पर गुजली मुजली सलवटें ऐसे आयीं कि चिंता के मारे खुद के बाल ही नोचने लगे।

यह सब देख चमचा भी उसी रंग में रँगने लगा। इधर नेताजी की चहल कदमी बढती जा रही थी । उधर राम खेलावन पीछे पीछे टहलता हुआ अपनी वफ़ादारी दिखा रहा था।


नेताजी - अब का होगा! हमरी इज्जत का मलीदा बन जायेगा, अब का भाषण देंगे, कभी सुने ही नहीं। सकूल में भी सिर्फ लड्डू खाने जाते थे, तीसरी कक्षा के बाद पढ़ने गए ही नहीं। दिन रात गैया को चारा खिलाते रहे, गौ माता की किरपा से नेता बन गए। हे ससुरे भाषण वाशन काहे रखत हैं। २ चार लड्डू देई दो खाना खिलवइ दो... हो गया झण्डावंदन... आगे के शब्द खुद ही चबा कर नेताजी खा गए।


यह सब देखकर रामखिलावन समझ गया कि नेताजी की हालत पतली हो रही है, वह हिम्मत बढ़ाते हुए बोला -इसमें चिंता की कोनो बात नहीं है भाषण देखकर पढ़ लियो। अभी समय है थोडा प्रक्टिस कर लो। हमें गाना भी आवत है अभी परोग्राम को समय है, हम सिखा देंगे।

नेता जी-हाँ वही वही परोग्राम। तुम कौन से काले कोट वाले हो, जो हमरे खातिर भासन लिखोगे, जे सब पढ़े लिखे का काम होवत है, वैसे जे बताओ इसे और का कहत हैं। स्वतंत्र दिवस या गणतंत्र दिवस या इन दपेंदंस डे... कहते हुए बाल खुजलाने लगे। गाना वाना तो हमसे होगा नहीं, टीवी पर देखत रहे, सबरे धुरंदर सलूट मार के खड़े रहत हैं, कोई गाना वाना नहीं गावत है, जे काम तो सकूली बच्च्वन का है।
चमचा- हाँ फिर कहे चिंता करत हो, बस भाषण याद कर लो, तैयार हो जावेगा। हम सिखा देंगे। एक एक गिलास गरम दूध पियो, हलक में गरमागरम उतरेगी तो ससुरी जबान खुल जावेगी।

नेता जी- पर हमरी तो हालत ख़राब है। इतने लोगन के सामने भासन... भासन कइसन कहें, पर बोलना तो पड़ेगा ही... नहीं हम अपना दिमाग लगाते हैं... अब हम याद कर लेंगे... "नमस्कार गाँव वालों..."


रामखिलावन- हे महाराज ऐसे शोले की तरह नहीं कहते। कहिये मेरे प्रिय भाइयों और बहनों...


नेताजी -चल बे, वह सबरी तुमरी बहन होगी... आजकल वक्त बदल गयो है।


रामखेलावन- ओ महाराज भाई बहनों को प्रणाम, नहीं कहे का है, तो बोलो भाई बंधू...
इधर चमचा कागज कलम के साथ टुन्न हो गया, उधर नेताजी को भी दूध जलेबी चढ़ गयी। दिन में सितारे नजर आने लगे। जोश में होश खो बैठे। स्वप्न में खुद को मंच पर खड़ा हुआ पाया। अपार जन समूह देखकर मुस्कुराने लगे और जैसे ही लोगों के हुजूम ने जयजयकार की, तो हाथ हिलाते हुए माइक तक आ गए। मेज को मंच समझ कर जोश के साथ ऊपर चढ़कर खूब दिमाग लगाया और भाषण शुरू किया --

भाइयों... भाइयों... और सबकी लुगइयों... आज हमरा बहुत बड़ा दिन है, हमरा सपना सच हो गयो है। कबहूँ सोचे न थे नेता बन सकत हैं। हे गाँधी जी कृपा रही, पहले लोग देश की खातिर जान दिए रहे, देश को गुलामी से बचाये रहे। गाँधी जी के वचनों पर चले... बुरा मत देखो, बुरा मत कहो, बुरा मत सुनो। आज स्थिति बदल गयी है, लोग बुरा ही देखत हैं, बुरा ही करत हैं और बुरा ही सोचते हैं। पहले हाथ जोड़कर सबके आगे खड़े रहत थे। बात बात पर लात घूँसे मिलत रहे, पर अब समय बदल गयो है, दो चार लात घूँसे मारो, थोड़ा गोटी इधर का उधर करो, थोड़ा डराओ धमकाओ, पैसे खिलाओ तो चुनाव का टिकिट भी मिल जावत है। पहले पढ़े लिखे लोग नेता बनत रहे, तब भी देश बँटता था, आज कम पढ़े लिखे लोग नेता बने हैं, तब भी देश छोटे छोटे राज्यों में बँट गवा है। सबरी पार्टी अपनी सत्ता चाहत है। शांति के सन्देश पहले से देत रहे सो आज भी देत हैं।

आज हर किसी को नेता बने का है, कुर्सी है तो सब कुछ है, आज हर कोई कुर्सी चाहत है। सबहुँ मिलकर घोटाले करो, जितने भी पैसा आवत है उसे आपस में मिल बाँट कर खाई लो, देश की जनता बड़ी भोली है। ईमानदार टैक्स देता रहे, किसान मरता रहे। आज जेहि स्थिति बनी हुई है। एक बार कुर्सी मिल गयी फिर सब अपनी जेब में रहत हैं। काहे के संत्री - मंत्री, देश को पहले अंगरेज लूटट रहे, अब देश के लोग ही लूटन मा लगे हैं। हर तरफ भ्रष्टाचार फैला हुआ है। कुछ भी हो जाये कुर्सी नहीं छोड़ेंगे, घोटाले करके जेल गए तो पत्नी या बच्चों को कुर्सी दिलवा देंगे। जे बच्चे वा खातिर ही पैदा किये हैं। कब काम आवेंगे। प्राण जाए पर कुर्सी ना जाए, पहले देश को गुलामी से बचाया, अब खुदही देश के तोड़न में लगे हैं। हर किसी की अपनी पार्टी है, सत्ता के खातिर हर कोई अपनी चाल चल रिया है, इसको मारो, उसको पीटो, दो चार लात घूसे चलाने वाले पहलवान साथ में राख लियो, मजाल कोई कुछ करे। सारे साम दाम दंड भेद अपनाई लो पर अपनी जय जयकार कमतर नहीं होनी चाहिए।

अब नेता बन गए तो देश विदेश घूम लो, ऐसन मौका कबहू न मिले। हम भी अब वही करहियें। अभी बहुत कुछ करे का है। बस फंड चाहिए, जो काम करे का है सब काम के लिए फंड, फंड में खूब पैसा मिलत है, थोडा बहुत काम करत है बाकी मिल बाँट कर खाई लेंगे। आखिर चोर चोर मौसेरे भाई भाई जो हैं ।
तुम सबरे गॉंव के लोगन ने हमें नेता चुना और हमेशा अइसन ही प्रेम बनाये रखना। आगे भी ऐसे ही हमें वोट डालना। तुम सब यहाँ आये हो हमें बहुत अच्छा लगा, लो झंडा वंदन कर दिए हैं । बच्चों ने गाना भी गा दिया। आज हम लाडू बहुत बनवाएं है, खूब जी भर के खाओ। हमें याद रखना। हर बार वोट देना फिर ऐसे ही गाड़ियों में भर के शहर घुमाने ले जायेंगे और खाना पैसा भी दिहें...
 अभी जोर से बोलो जय भारत मैया की 

 शशि पुरवार 

Sunday, July 24, 2016

अाँख जो बूढ़ी रोई





खोई खोई चांदनी, खुशियाँ भी है दंग

सुख दुख के सागर यहाँ, कुदरत के हैं रंग
कुदरत के हैं रंग, न जाने दीपक बाती
पल मे छूटे संग, समय ने लिख दी पाती
शशि  कहती  यह सत्य, अाँख जो बूढ़ी रोई
ममता चकनाचूर, छाँव भी खोई खोई।  
      

जाने कैसा हो गया, जीवन का संगीत

साँसे बूढ़ी लिख रही, सूनेपन का गीत
सूनेपन का गीत, विवेक तृष्णा से हारा
एकल हो परिवार, यही है जग का नारा
शशि कहती यह  सत्य,  प्रीत से बढ़कर पैसा
नही त्याग का मोल, हुअा वक़्त न जाने कैसा।
शशि पुरवार 

Friday, July 15, 2016

सुधि गलियाँ





 स्वप्न साकार
मुस्कुराती है राहें 
दरिया पार। 
२ 
धूप सुहानी 
दबे पॉँव लिखती 
छन्द रूमानी। 
३ 
लाडो सयानी 
जोबन दहलीज 
कच्चा है पानी।  
धूप बातूनी 
पोर पोर उन्माद 
आँखें क्यूँ सूनी ?
५ 
माँ की चिंता 
लाडो है परदेश 
पाती, ममता। 
६ 
दुःखो को भूले 
आशा का मधुबन 
उमंगे झूले। 
७ 
प्रीत पुरानी 
सूखे गुलाब बाँचे 
प्रेम कहानी। 
८ 
छेड़ो न तार 
रचती सरगम 
 हिय झंकार। 
९ 
प्रेम कलियाँ 
बारिश में भीगी है 
सुधि गलियाँ। 
१० 
 आई जबानी  
छूटा है बचपन 
बद गुमानी। 
 -- शशि पुरवार 



Monday, July 11, 2016

मौसम से अनुबंध


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१ 
लहक उठी है जेठ की,  नभ में उड़ती धूल
कालजयी अवधूत बन, खिलते शिरीष फूल।
 २
चाहे जलती धूप हो, या मौसम की मार
हँस हँस कर कहते सिरस, हिम्मत कभी न हार.

लकदक फूलों से सजा, सिरसा छायादार
मस्त रहे आठों पहर, रसवंती संसार।

हरी भरी छतरी सजा, कोमल पुष्पित जाल    
तपकर खिलता धूप में, करता सिरस कमाल।

फल वृक्षों के कर रहे, मौसम से अनुबंध
खड़खड़ करती बालियाँ, लिखें मधुरतम छन्द।
 --  शशि  पुरवार

Thursday, July 7, 2016

क्यों न बहाएं उलटी गंगा....







क्यों न बहाएं उलटी गंगा

                भाई  कलयुग है। सीधा चलता हुआ मानव हवा में उड़ने लगा है।  टेढ़े मेढ़े रस्ते सीधे लगने लगे है। पहले घी निकालने के लिए अँगुली  टेढ़ी  की जाती थी।  आज ऊँगली सीधी नहीं होती है।  सरलता के सभी उपाय असफल  हो गएँ  है।  जूता सर पर चढ़कर राज करता है। टोपी हाथ में बैठी मक्खी को मारने और हवा  करने के  काम आती है।  जब दुनिया उलटी पुल्टी हो रही है तो भाई क्यों न हम उलटी  गंगा बहाए।

      आज कल देश में आरक्षण की गोली बहुत प्रसिद्द है। अंग्रेजी दवाईओं की इस देशी दवा के सामने क्या मजाल है, जो सर उठा सके। उच्च दर्जे की दवा भी चुल्लू भर पानी माँग रही है। देशी दवा आरक्षण ने जैसे सभी के  पाप गंगा बनकर धो डाले हों।  हमारे कर्णधार इस गोली का सदुपयोग करते रहतें हैं।  भाई प्राण जाये पर कुर्सी न जाए,  की तर्ज पर ढोल नगाड़े बज रहे हैं।
गोली खुले हाथों से बाँटी जा रही है। आरक्षण का आनंद  जहाँ देने वालों को उत्साहित कर रहा है वहीँ  इसे  खाने वाला  खाकर टुन्न  है।  आनंद की पराकाष्ठा कण कण में अपना प्रभाव दिखा रही है।  आरक्षण कोटा आज हिमालय के
शीर्ष पर विद्यमान है और कोटे के खिलाडी उस चोटी का पूर्ण आनंद ले रहे हैं। हिमालय में  गंगोत्री हमेशा शीर्ष से बहकर नीचे आती  हैं। भ्रष्टाचार की गंगोत्री भी शीर्ष से बहती है। तो आरक्षण की गंगोत्री नीचे से ऊपर  क्यों बहती है ?  आरक्षण सिर्फ निचली सतह से ऊपर  की सतह तक पहुँचाने  का प्रयास क्यों है ?
       गंगोत्री की धारा चोटी से नीचे तक आकर सबकी प्यास बुझाती है। लेकिन हमारे यहाँ आरक्षण  की गंगा उलटी  बह रही है ? आरक्षण का पानी नीचे से ऊपर कैसे सफलतापूर्वक चढ़ सकता है ? न्यूटन का सिद्धांत यहाँ कार्य नहीं कर रहा है।  यह नया सिद्धांत शायद कलयुगी न्यूटन ने ईजाद किया होगा ?

 आरक्षण का उल्टा रास्ता सफल कैसे  होगा ? यह शोध का विषय बन सकता है। आरक्षण की धारा जब लागू की जा रही है तो वह समान रूप से वितरित क्यों नहीं है ! आरक्षण करना ही है तो समान रूप से  उसे नियम कायदे में बाँध
दीजिये। कोटे के मरीज का इलाज कोटे के डाक्टर से करवाएं।  धान्य- सब्जी मंडी, बिजली -पानी,  नौकरी -शादी, अस्पताल,  रोजमर्रा की वस्तुओं के साथ -साथ हवा को भी आरक्षित करें। कायदा तो यही कहता है आरक्षित लोग, आरक्षित जगह से राशन पानी लें।  अनारक्षित अपनी सेवा टहल अनारक्षित जगह से कर लें। वह दिन दूर नहीं है जब ताज़ी सब्जी  आरक्षित कोटे के लिए व बासी सब्जी अनारक्षित के  लिए सुरक्षित होगी। सेकंड हैंड सीट और  पुराना ग्रेड का माल अनारक्षित के लिए उपलब्ध होगा।  आरक्षित चमचमाती रौशनी से नहाएंगे व अनारक्षित  का भविष्य जनरल डिब्बे में खुद को तलाश कर रहा होगा। बीमारी भी आरक्षित होनी चाहिए उसे भी  अपना कोटा देखकर मानव  का चुनाव करना होगा। जैसे शक्कर, ह्रदयघात जैसी बीमारी का पेटेंट बनाकर उसे कोटे में फिक्स करें।  शिक्षा में, सेवा में, अभियंत्रण में, सेतु निर्माण तक में आरक्षण है  तो  लोकसभा अध्यक्ष, राष्ट्रपति, पीएम, सी एम् की कुर्सी पर भी
आरक्षण क्यो नही है  ?  क्या वह किसी और दुनिया सम्बन्ध रखते हैं ? मंत्री, लोकसभा, प्रधानमन्त्री , राष्ट्रपति, सांसद, कानून आदि भी आरक्षण के  घेरे में आने चाहिए। आरक्षण तब ही सफल होगा एवं  गठबंधन मजबूत।

        हाल ही में शिक्षा के लिए बच्चे का दाखिला करवाना था तो  ज्ञात हुआ आरक्षित कोटा भरने के बाद ही आपकी सुनवाई होगी। हम नियम कायदे से बँधे हुए है। आपका बच्चा भले ही उच्च अंको से पास हुआ है किन्तु हमें तो
आरक्षित सीट ही भरनी है।  भले ही अंक न्यूनतम क्यों न हों। बात यहाँ सिर्फ आरक्षण की है लेकिन उसमे भी एक कोटा आधी आबादी के लिए रखा गया है। जहाँ आधी आबादी तो गायब ही है।  क्यूंकि कली को फूल बनने से पहले तोड़ने का रिवाज आदिकाल से बदस्तूर चला आ रहा है। कलयुग में रावण की संख्या भी असीमित होकर सीता हरण के लिए कदम  कदम पर अपना जाल बिछा रही है। हमें ऐसा प्रतीत  हुआ जैसे हम सजा याफ्ता मुजरिम हैं।  कोर्ट में पेशी के बाद ही  फैसला होगा।  कोटे  को कोटा कहना भी गुनाह माना जाने लगा है।  कब धारा ४२० लग जाए  और हम सरकारी मेहमान बने।
          भारत में कोटे की ऐसी मिसाइल तैयार होंगी जो भविष्य का  तख्त  पलटने और  चाँद को जमीं पर लाने की कुबायत  कर सकती हैं।  हवा भी इजाजत लेकर कहेगी कोटा  देखकर  साँस लो।  और जाति देखकर श्वास -उच्छ्वास करो।
आरक्षण कोटे को आरक्षण ने अली बाबा का चिराग दे दिया है जिसे रगड़ रगड़ पर हर ख्वाहिश मिनटों में पूरी हो जाती है। तभी तो देश  में उलटी गंगा बहेगी। गंगा  में उठने वाला तूफ़ान हिमालय  की चोटी पर जाकर कौन सा चित्र बनाएगा
?
                    वैसे पूरे भारत को ही कोट पहना देना चाहिए।  भविष्य में भारत आरक्षण कोटे के नाम से प्रसीद्ध होगा।  और वह दिन दूर नही जब आरक्षित कोटे वाले इतने समर्थ हो जायेंगे कि अनारक्षित लोगों को आरक्षण का कोटा
बाँटने लगेंगे।   फिर उलटी गंगा बहने लगेगी। हर कोई अपनी मूछों पर ताव देने लगेगा । वे भी जिनके मूँछे  है और वे भी जिनके मूँछे नही है। बस दिक्कत में वे ही रहेंगे जिनके पेट में दाढ़ी है । तो बोलो --   आरक्षण बाबा की  जय हो !

           --- शशि  पुरवार

Friday, May 27, 2016

मज़बूरी कैसी कैसी --

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मज़बूरी कैसी कैसी ----  
मज़बूरी शब्द कहतें ही किसी फ़िल्मी सीन की तरह, हालात के शिकार  मजबूर नायक –नायिका का दृश्य नज़रों के सम्मुख मन के चित्रपटल पर उभरता है, जिसमे हीरो ,हिरोइन को मज़बूरी में  सहारा देता है या खलनायक उसकी मज़बूरी का फ़ायदा उठाता है . ...पर जनाब अब इस दृश्य में बेहद परिवर्तन आ गएँ हैं. वह कहावत तो आप सभी ने सुनी होगी कि मज़बूरी का नाम महात्मा गाँधी .. सच आजकल की पीढ़ी ने इस कहावत को चरितार्थ कर दिया है. मकबूल साधो अब हम क्या कहें, आज हम आपको मज़बूरी के भिन्न भिन्न प्रकारों से अवगत करातें है. अब यह ना सोचे कि हमें मूर्ख बनाया जा रहा हैं, भई किसी और को क्या मूर्ख बनाएँ हम स्वयं इसी महान मज़बूरी का शिकार हो चले हैं, हाँ हाँ मज़बूरी का शिकार आपसे अपनी इस मज़बूरी को साझा करतें है, हमारी मज़बूरी यह है कि संपादक और पाठकों के स्नेहिल निवेदन से हम आइसक्रीम की तरह पिघले हुए है और आपको वह पिघली हुई क्रीमी आइसक्रीम शब्दों की चोकलेट से सजाकर पेश कर रहें हैं.. कलम घिसना भी किसी मज़बूरी से कम नहीं हैं. 
       
               समाज को आइना दिखाना हमारी मज़बूरी है, यही मज़बूरी कब कहाँ किसी के काम आकर कुछ भला करे दे, इसका किसी को अंदाजा नहीं होता हैं.यह हमारी जिम्मेदारी है जिसे हमें हर हाल में निभाना होता है , फिर वक़्त के अनुसार खुद को अपडेट भी रखना भी हमारी मजबूरी है .इसीलिए समाज के अपडेट लिखना आप मज़बूरी कहें या कार्य यह मुद्दा आपकी बहस के लिए छोड़ देतें हैं.. किन्तु हमें हर हाल में लिखना ही होगा , भाव आयें तो प्रसंन्नता की बात है किन्तु भाव  नहीं आएं तो दिमाग को हिला हिला कर निचोड़ कर भाव की स्याही से कलम को घिसना पड़ता है. शिष्टता के कारण लिखना अब हमारी मजबूरी हो गयी और हमें पढना आपकी, यानि एक अच्छे पाठक की मजबूरी है, हमारी मेहनत के बाद आपने नहीं पढ़ा तो किताब आपके सामने पड़ी पड़ी आपके गले की हड्डी बन जाएगी. वह आई और आपने उसके पन्नो पर नजर तक नहीं घुमाई .इस दुःख को निगलने से पहले हमारी इस पीढ़ा को जरुर समझेंगे. हमें पूर्ण विश्वास है कि आप हमें जरुर पढेंगे, चाहे  हमने कितनी भी बकबाद क्यूँ ना की हो.
              वैसे इस मुकम्मल जहाँ में हर इंसान मजबूर है.चाहे घर हो या बाहर. काहे कि हर काम मज़बूरी में ही किये जातें है, कैसे, तो सुनिए जैसे पति पत्नी को आपस में रिश्ता निभाना मजबूरी है, रोज रोज की खिटखिट – पिट –पिट, चाहे कितने नगाडे बजाये किन्तु वे सदैव एक दूजे के बने रहेंगे . पत्नी भोजन जला दे तो भी मुस्कुरा कर खाओ, प्रेम से अच्छा भोजन से दे तो खूब खाओ, किन्तु  खाओ, उसी प्रकार पति लाख झगडा करे तो उसे मनाओ और खिला खिला कर मनाओ, अजी मनाओ क्या बदला निकालो, भई कहतें हैं ना, मारो तो प्रेम से मारो, आजकल यही तकनीक हमारी युवा पीढ़ी ने भी प्रारंभ कर की है , आजके युवा रसोई घर में कंधे से कन्धा मिला रहें हैं. आज पुरुष कहने लगे हैं हम महिला के शिकार है तो महिलाएं अक्सर पुरुषों की शिकार होती है, अब यह सत्य तो ईश्वर ही जाने, भई दूसरों के मामले में टांग अडाने से वह भी घबरातें है. इस गृह युद्ध में तो श्रीकृष्ण का चक्र भी काम नहीं आता है.गृह हो या बाहर आप कहीं भी कार्य करें, मज़बूरी हर जगह विधमान है, कहीं वह बॉस बनकर हुकूमत करती है, कहीं दयनीय  जिन्दगी बनी हुई है. इसीलिए ईश्वर ने हर इंसान को कार्य करने के लिए मजबूर किया है. कार्य करो, पढो –लिखो ,कमाओ और परिवार चलाओ, वक़्त आये तो देश भी चलाओ.
                        अजी आज  देश के हालात भी कुछ इसी  तरह हो गएँ हैं. देश तरक्की चाहता है, बदलाव हर हाल में आवश्यक है किन्तु नेता कुर्सी के मद में डूबे हुए आपस में क्लेश करते रहतें है और बेचारी जनता उनके हाथों मजबूर है. नेताजी की मज़बूरी कुर्सी है . साम दाम दंड भेद  सभी नीतियाँ  यहाँ अपने जोहर का प्रदर्शन करतीं है .देश में मंहगाई, अजगर की भांति मुँह बाये खड़ी है, और जनता सिर्फ मन ही मन गालियाँ सुनाकर उसी मंहगाई में जीने के लिए मजबूर है. हाथ चाहे कितना भी तंग क्यूँ ना हो ? क्या खायेंगे नहीं, पियेंगे नहीं या फेसबुक नही चलाएंगे.  अहा यह तो सबसे महत्वपूर्ण जीने की वजह है .आज के ज़माने की तरह रहना भी हर वर्ग के लोगों की मजबूरी है. आजकल फेसबुक ने इतना रायता फैला रखा है कि पूछो मत. हर कोई उसी रायते में अपनी पांचो उँगलियाँ अजी उँगलियाँ क्यूँ पूरा ही डूबा रहना चाहता है .हाल  ही में एक किसान के बेटे से मिलना हुआ बेहद खुश, प्रसन्नता मुख से झमाझम बारिश की भाँति टपक रही थी,  मोबाइल के प्रभाव में लल्ला ने खेत वेत से ज्यादा फेसबुक दोस्तों को तहरीज प्रदान कर रखी है, एक दिन नेट पेक जैसे ही बंद हुआ बेचारे का पूरा हाजमा बिगड़ जाता है और उसे नेट पेक के चूरन की गोली देने से उसकी हालत में अतिशीघ्र सुधार हुआ . भाई आजकल डाक्टर फेसबुक के पास हर मर्ज की दवा है.. हर रिश्ता इससे प्रभावित हो गया है, सास बहु के रिश्ते भी अछूते नहीं रहे, बहु खाना दे तो ठीक नहीं तो अपना खाना स्वयं बनाओ और अपने साथ साथ मज़बूरी में उसके लिए भी खाना बनाओ.वैसे भी आजकल इस प्रथा में बदलाव आ गया है. 
                   अब तो सास बहु भी फेसबुक के जरिये अपनी वार्ता कर लेतीं है. लोग लड़का देखने जाते है तो पहला प्रश्न क्या खाना बना लेते हो ? भाई शादी करना है तो मिलबांट कर कार्य करना हर रिश्ते की मज़बूरी हो गयी है. आज दुनिया घाघ लोगों से अटी पड़ी है. यहाँ गिद्ध की नजरें हर इंसान के कार्य कर गडी रहती है जैसे ही किसी की कुछ कमजोरी हाथ आये उस पर मज़बूरी का तड़का जल्दी से लगाओ और स्वादिष्ट व्यंजन बनाकर पेश करो. 
               मिडिया जिसके पास कहने के लिए कुछ नहीं बचा वह आपको तवज्जों जरुर देगी. रोजी रोटी की खातिर कुछ भी प्रस्तुति देना उनकी मज़बूरी है. अभी हाल ही में टीवी पर फरहा खान का नया शो शुरू हुआ है, जिसमे नामचीन कलाकार आपको अपने पसंद के व्यंजन बनाते हुए नजर आयें. शो के प्रथम एपिसोड में अभिषेक बच्चन साजिद, समेट कई नामचीन कलाकार फरहा के शो पर नजर आये थे. फिल्मे ना सही जो काम मिले हथिया लो. कुछ नहीं तो खाना ही बना कर दिखा दो, कुछ काम तो मिला, बड़े परदे के कलाकारों ने मज़बूरी में छोटे परदे का रुख अपना लिया है, और बेचारी जनता खुश होने की बजाय छोटे परदे का बेस्वाद होता रायता खाने के लिए मजबूर है. 
           आप जब भी छोटा बुद्धू बक्सा खोलिए उब भरे फ़िल्मी ड्रामे मनोरंजन के नाम पर परोसे जा रहें हैं.जिसका उपयोग जनता भोजन करते समय जरुर करती है, एक वही समय है जब आदत से मजबूर बिना बुद्धू बक्से के, भोजन गले से नीचे नहीं उतरता है. किन्तु वह भी मनोरंजन के नाम पर ऊबाऊ, रसविहीन और अपचकारी हो गया है, बेसिरपैर के फ़िल्मी ड्रामे या अवार्ड समारोह के नाम पर उलफुजुल भोंडे भद्दे मजाक देखना दर्शक की मज़बूरी हो गयी है, ऐसे में अब यह फैलारा गले की हड्डी बनता जा रहा है. इसे कहते हैं मंजबूरी, जिसके हाथों सब कठपुतली की तरह नाच रहें है. परदे की हस्तियाँ आगे चलकर आपके बीच नजर आयें तो आश्चर्य ना कीजियेगा . 
                   भई मज़बूरी का नाम जिंदगानी है . हम आपका शुक्रिया अदा करना चाहेंगे  कि मज़बूरी में लिखे गए आलेख को आपने ह्रदय से पढ़ लिया. और स्नेह भी प्रदान किया . इसीलिए सब मिलकर बोले  -मज़बूरी देवी जी जय हो . आपकी हर मनोकामना इस मंत्र से जरुर पूर्ण होगी .
शशि पुरवार 

Wednesday, April 20, 2016

कुण्डलियाँ -- प्रेम से मिटती खाई



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अच्छाई की राह पर, नित करना तुम काज 
सच्चाई मिटटी नहीं, बनती है सरताज  
बनती है सरताज, झूठ की परतें खोले 
मिट  जाए संताप, मौन सी सरगम  डोले
कहती शशि यह सत्य, प्रेम से मिटती खाई
दंभ, झूठ का हास, चमकती है सच्चाई। 


दलदल ऐसा झूठ का, राही  धँसता जाय
एक बार जो फँस गया, निकल कभी ना पाय
निकल कभी ना पाय,  मृषा के रास्ते खोटे
मति पर परदा डाल, लोभ के चशमें मोटे
कहाँ साँच को आँच, चित्त को देता संबल
कर देता  बर्बाद, झूठ का ऐसा दलदल 
                --- शशि पुरवार 

Monday, April 18, 2016

कुण्डलियाँ -- दिन गरमी के आ गए


दिन गरमी के आ गए, लेकर भीषण ताप 
धरती से पानी उड़ा, नभ में बनकर भाप 
नभ में बनकर भाप, तपिश से दिन घबराये 
लाल लाल तरबूज, कूल, ऐसी मन भाये
 कहती शशि यह सत्य,  वृक्ष की शीतल नरमी  
रसवंती आहार, खिलखिलाते दिन गरमी .

          -- शशि पुरवार 

Tuesday, April 12, 2016

कुण्डलियाँ भरे कैसी यह सुविधा ?






सुविधा के साधन बहुत, पर गलियाँ हैं तंग 
भीड़ भरी सड़कें यहाँ, है शहरों के रंग 
है शहरों के रंग, नजर ना पंछी आवे 
तीस मंजिला फ्लैट, गगन को नित भरमावे 
बिन आँगन का नीड, हवा पानी की दुविधा 
यन्त्र चलित इंसान, भरे कैसी यह सुविधा। 

2
पीरा मन का क्षोभ है, सुख है संचित नीर
दबी हुई चिंगारियाँ,  ईर्ष्या बनती पीर
ईर्ष्या बनती पीर, चैन भी मन का खोते
कटु शब्दों के बीज, ह्रदय में अपने बोते
कहनी मन की बात, तोष है अनुपम हीरा
सहनशील धनवान , कभी न जाने पीरा।
---- शशि पुरवार 

Friday, April 8, 2016

कुण्डलियाँ




मँहगाई की मार से, खूँ खूँ जी बेहाल 
आटा गीला हो गया, नोंचे सर के बाल
नोचे सर के बाल, देख फिर खाली थाली 
महँगे चावल दाल, लाल पीली घरवाली 
शक्कर, पत्ती, दूध, न होती रोज कमाई  
टैक्स भरें धमाल, नृत्य करती महँगाई।
    ----- शशि पुरवार 
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Monday, April 4, 2016

रात में जलता बदन अंगार हो जैसे।



जिंदगी जंगी हुई,
तलवार हो जैसे
पत्थरों पर  घिस रही,

वो धार हो जैसे। 

निज सड़क पर रात में
जब  देह कांपी थी 
काफिरो ने  हर जगह 
फिर राह नापी थी 
कातिलों से घिर गया 
संसार हो जैसे।


है द्रवित मंजर यहाँ 
छलती गरीबी है 
आबरू को लूटता 
वह भी करीबी है। 
आह भीनिकला हुआ 
इक वार हो जैसे.

आँख में पलता रहा है 
रोज इक सपना 
जून भर भोजन मिले 
घर,द्वार  हो अपना। 
रात में जलता बदन 
अंगार हो जैसे .
 --- शशि पुरवार 

Friday, April 1, 2016

मूर्खता का रिवाज




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मूर्ख दिवस मनाने का रिवाज काफी पुराना है, लोग पलकें  बिझाये १ अप्रैल की राह देखते हैं. वैसे तो हम लोग साल भर मूर्ख बनते रहतें है किन्तु फिर भी हमने अपने लिए एक दिन निर्धारित कर लिया है, भाई कहने के लिए हो जाता है कि १ अप्रैल  था। हम तो अच्छे वाले फूल हैं जो साल भर खुद को फूल  बनाते हैं। 

    अब आप सोचेंगे स्वयं को मूर्ख बनाना भी कोई  बहुत बड़ा कार्य है,नहीं कोई ऐसा क्यों करना चाहेगा। लेकिन कटु सत्य है भाई , आजकल तो अंतरजाल ने लोगों को मूर्ख बनाने का अच्छा जरिया  प्रस्तुत किया है. अलग अलग पोज की तस्वीरें, उन पर शब्दों की टूटी फूटी मार, हजारों के लाइक्स, वाह- वाह, अच्छों - अच्छों को चने के झाड़ पर चढ़ा देते हैं। व्यक्ति  फूल कर पूरा फूल बन जाता है।  न बाबा ना,हम किसी को मूर्ख नहीं बनाएंगे। 
              भाई अंग्रेज तो चले गए लेकिन अपने सारे खेल यहीं छोड़ गए और देशी लोगों ने उसे बड़ी शिद्दत से अपनाया है। खेल अपने अलग अलग रूपों में जारी है. आज देश की जनता छलावे में आकर रोज फूल बन रही है.  जनता तो रोज नित नए सपने दिखाए जाते हैं, रोज नयी खुशबु भरा अखबार आँखों में नयी चमक पैदा करता है।  राम राज्य आएगा  की तर्ज पर, राम राज्य तो नहीं किन्तु  रावण और अराजकता का  राज्य चलने लगा है।  नए नए सर्वेक्षण होते हैं।  हम तो पहले भी मूर्ख बनते थे आज भी बनते है।  अच्छे दिन आयंगे परन्तु अच्छे दिन आते ही नहीं है। हम हँसते हँसते मूर्ख बनते हैं,  मूर्खता और मुस्कुराने का सीधा साधा रामपेल है।   सपने दिखाने वाले अपने सफ़ेद पोश  कपड़ों में  नए चेहरे के साथ विराजमान हो जाते हैं।  साथ ही साथ आयाराम गयाराम का खेल अपने पूरे उन्माद पर होता  है। 
    आजकल व्यापारी भी बहुत सचेत हो गएँ है. बहती गंगा में हर कोई हाथ धोता है।  एक बार हम आँखों के डाक्टर के पास गए, उन्होंने परचा बना कर  आँखों का नया कवच धारण करने का आदेश दिया। हम कवच बनवाने दुकान पर गए , आँख का कवच यानि चश्मा, हमें लम्बा चौड़ा बिल थम दिया गया ।  २००० का बिल देखकर हम बहुचक्के रह गए। 
             अरे भाई ये क्या किया इतना मंहगा .......... आगे सब कुछ हलक में अटक गया. चश्मे का व्यापारी बोला - भाई साल भर में १०,००० के कपडे  लेते हो और फेंक देते हो,  किन्तु चश्मे के लिए काहे सोचते हो. वह तो सालभर वैसा ही चलता है , न रंग चोखा न फीका। भैया जान है तो जहान है। अब का कहे हर कोई  जैसे उस्तरा चलाने के लिए तैयार बैठा है । भेल खाओ भेल बन जाओ। 

 त्यौहार पर हर व्यापारी मँजे हुए रंग लगाता है,तो फल - फूल ,तरकारी कहाँ पीछे रहने  वाले है। आये दिन मौका देखकर व्यापारी चौका लगा देते हैं। जहाँ भी नजर घुमाओ हर हर दिन हँसते हँसते आप मूर्ख बनते है और बनते भी रहेंगे।  

          हमारी पड़ोसन खुद को बहुत होसियार समझती थी, सब्जी वाले से भिन्डी सब्जी खरीदी और ऊपर से २-४ भिन्डी पर हाथ साफ़ कर ऐसी प्रतिक्रिया दी जैसे किला फतह  कर लिया हो. काहे तरकारी वाले को बेवकूफ  समझा है का, वह तो पहले ही डंडी मार कर अपना काम कर लेता है , १ किलो में तीन पाँव देकर बाकी की रसभरी बातों में उलझा देता है। कहता है ---" अरे माई हम ईमानदार है कम नहीं देंगे, लो ऊपर से ले लो चार भिन्डी"। भिन्डी न हुई पर हालत टिंडी हो गयी। 

             हर तरफ हर रिश्ते में मूर्खता का साम्राज्य फैला हुआ है। पति - पत्नी, माँ -पिता, भाई -बहन  एक दूसरे को भी मूर्ख बनाते हैं. न बात न चीत, लो  युद्ध कायम है.  तरकश हमेशा तैयार होता है।  बिना वजह शक पैदा करना,आज की हवा का असर है।  मीडिया रोज सावधान इंडिया जैसे कार्यक्रम पूरी शिद्दत से प्रस्तुत करता है,  जनता भोली -भाली बेचारी, पूरी तन्मयता से  कार्यक्रम का सुखद आनंद लेती है। क्राइम जो न करे वह भी इसकी लपेट में दम तोड़ता है। कुछ  करने को  रहा नहीं तो आजकल भौंडे प्रोग्राम और ख़बरें हर तरफ सांस ले रही हैं। हर तरफ मूर्खो का बोलबाला है।  

           नए ज़माने की नयी हवा बहुत बुद्धिमान  है।  स्वयं को मूर्ख साबित करो, एक दो काम का बैंड बजा दो को बॉस की  आँख- कान से ऐसा धुँआ निकलेगा कि वह चार बार सोचेगा इस मूर्ख को काम देने से तो अच्छा है खुद मूर्ख बन जाओ। 
  अब देखिये हाल ही बात है बजट प्रस्तुत किया गया।  जनता पूरी आँखे बिछा कर बैठी थी, हमारे काबिल नेताओं की घमासान बातों का जनता रसपान कर रही थी। अंत में यही हुआ किसी को लाठी और किसी की भैंस। टैक्स के नाम पर एक कान पकडे तो दूसरे खींच लिए, इतने कर लगाये कि कुर्ते की एक जेब में पैसा डालो तो दूसरी जेब से बाहर आ जाये।  पीपीएफ को भी नहीं छोड़ा।  महँगाई के नाम पर रोजमर्रा की वस्तुएं और चमक गयी, बेजार चीजें नीचे लुढक गयी।  अब टीवी फ्रिज जैसी वस्तुएं भोजन में कैसे परोसें, क्या पता दिन बदलेंगे और हम यही भोजन करने लगेंगे।  
            एक बात अबहुँ समझ नहीं आई, गरीबों को मुफ्त में मोबाइल, गैस का कनेक्शन  सुविधा देंगे। किन्तु रिचार्ज कौन करेगा ? सिलेंडर हवा भरकर चलेगा ? भोजन कहाँ से उपलब्ध होगा ? भाई जहाँ चार दाने अनाज नहीं  है वहां इन वस्तुओं से कौन सा खेल खेलेंगे?  हमरी खुपड़िया में घुस ही नहीं रहा है।  वो का है कि हमने खुद को इतना मूर्ख बनाया कि  गधा आज  समझदार प्राणी हो गया है।   अंग्रेजो का भला हो अब हम मूर्ख नहीं है। फूल है फूल।  न गोभी का फूल, न गुलाब का फूल, पूरी दुनिया में प्राणी  सबसे अच्छे फूल. लोग तो उल्लू बनाते है आप ऊल्लू मत बनिए। ओह हो!  आज तो १ अप्रैल है।  मूर्ख दिवस पर न उल्लू , न गुल्लू , न फूल बनो भाई अप्रैल फूल बनो ! अप्रैल फूूूल ~!
-- शशि पुरवार 

समीक्षा -- है न -

  शशि पुरवार  Shashipurwar@gmail.com समीक्षा है न - मुकेश कुमार सिन्हा  है ना “ मुकेश कुमार सिन्हा का काव्य संग्रह  जिसमें प्रेम के विविध रं...

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