व्यंग्य की घुड़दौड़’ सीधे शब्दों में ज़िन्दगी की घुड़दौड़ है। ठीक उसी तरह, जैसे बेतरतीब सड़कों पर थमे बिना चलते रहना, कड़कते तेल के छौंक की खुशबू का चिमनी में सिमटना, प्रेम की सौंधी खुशबू का जीवन से प्रस्थान करना, जिंदगी की आसमान को छूने की दौड़ या इक दूजे से आगे निकलने की होड़ में ख़ुद को भूल जाना, उड़ने की ख़्वाहिश में गुदगुदाते पलों का बिखरना, जीवन से कहकहों का रूठ कर सिमटना, एक अंतहीन प्यास की चाहत में ख़ुद से बेरुखी करना या समय के इस चक्र में खुद को मूर्ख बनाना, खुशफहमी का जामा पहनना, जिसका अहसास हमें ही स्वयं भी नहीं होता है, खुद को धोखा देकर आभासी पलों को जीना, ज़िन्दगी के हर, पल समय को हराने के लिए भागना। कहीं कुछ छूट रहा है कहीं दिल टूट रहा है। समय के पलटते पन्नों ने वर्तमान में जीवन की तस्वीर को बदल दिया है। सोशल मीडिया ने जहाँ दुनिया को आपस में जोड़ा है, वहीं जिंदादिली को मार कर अकेलेपन को भी जोड़ा है। कहीं हम अवसाद के घेरे में न आ जाएँ, आओ चलो कहकहों को चुराएँ। परिवेश से बिखरी हुई संवेदनाओं को समेटकर उसमें व्यंग्य का हल्का सा छौंक लगा दें। संजीदगी को फिर से ज़िन्दगी की घुड़दौड़ बना दें। आपके प्यार को हम अपना सिरमौर बना लें। व्यंग्य की घुड़दौड़ को अपने दिल से लगा लें।
शशि पुरवार