परिवर्तन --
वक़्त के साथ
अंकित मानस पटल पे
जमा अवशेषों का
एक नया परिवर्तन .
झिरी से आती
ठंडी हवा का झोखा
प्रीतकर लागे
पर अनंत बेड़ियों में जकड़ी
आजाद होने को बेकरार
घुटती साँसे
फडफडाते घायल पंछी सी
मांगे सुनहरी किरणों का
एक नया रौशनदान
बड़ा परिवर्तन .
आजादी ने बदला
बाहरी आवरण ,पर
सोने के पिंजरें में
कैद है रूढ़िवादियाँ ,
जैसे एक कुंए का मेंढक ,
न जाने समुन्दर की गहराई
उथले पानी का जीवन
बस सिर्फ सडन
चाहे खुला आसमाँ
इक परिवर्तन .
खंडहर होते महल
लगे कई पैबंद
विशाल दरवाजो में सीलन
जंग लगे ताले के भीतर
खोखला तन
पोपली बातें
थोथले विचार
जर्जर मन का
फलता फूलता
विशाल राज पाट
वक़्त की है पुकार
हो नवीनीकरण
बड़ा गहरा परिवर्तन .
आजाद गगन में
उड़ते पंछी
भागते पल
एक नया जहाँ
नई पीढ़ी थामें हाथ
पुरानी पीढ़ी का कदमताल
कर रहा पीढ़ियों का अंतर कम
सभ्यता , संस्कृति
आधुनिकता का अनूठा संगम
संग ऊंची उडान
खिलखिलाते ,सुनहरे
पलों का अभिवादन
दिनरात का
सकारात्मक परिवर्तन ......!
वक़्त की पुकार ....!
--------शशि पुरवार
बहुत ही बढ़िया
ReplyDeleteसादर
बहुत सुंदर !
ReplyDeleteकाश !...
कल्पनाओं का ये पंछी भरे उड़ान...
मिलजुल कर नयी-पुरानी पीढ़ी..ले आए सुंदर परिवर्तन...
bahut bahut shukriya anita ji
Deleteबहुत सुंदर भाव .... वक्त के साथ परिवर्तन होना भी चाहिए
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteसच ऐसी रचनाएं कभी कभी ही पढने को मिलती हैं
yashwant ji , anita ji sangeeta ji tahe dil se shuktiya
Deletethank you so much mahendra ji
Deleteखूबसूरत अहसास के साथ खूबसूरत रचना
ReplyDeletebahut khoob
ReplyDeleteआपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल बृहस्पतिवार 30-08 -2012 को यहाँ भी है
ReplyDelete.... आज की नयी पुरानी हलचल में ....देख रहा था व्यग्र प्रवाह .
bahut sundar bhav man ke ...sakaratmak soch se ot-prot ...bahut sundar rachna ...
ReplyDeleteshubhkamnayen...
खिलखिलाते ,सुनहरे
ReplyDeleteपलों का अभिवादन
दिनरात का
सकारात्मक परिवर्तन ......!
वक़्त की पुकार ....!
बहुत ही सुन्दर भाव शशि जी, एक सकारात्मक सोच की तरफ ले जाती रचना ....
आधुनिक सोच की अप्रतिम अभ्व्यक्ति है आपकी कविता बधाई
ReplyDeleteबढ़िया भावों से सजी रचना
ReplyDeleteसच है की सकारात्मक शुरुआत होनी जरूरी है ... पीड़ियों की सोच में परिवर्तन आना जरूरी है ... पर रफ़्तार ऐसी होनी चहिये की दोनों साथ चल सकें और परिवर्तन आए ...
ReplyDeleteएक सकारात्मक सोच के साथ खूबसूरत रचना
ReplyDeleteसुंदर कविता शशि जी !
ReplyDeleteबहुत ही अच्छी कविता |
ReplyDeleteशशि जी आप की कविता बहुत अच्छी लगी, कवितायेँ लिखने के लिए धन्यबाद । वीरेंदर यादव
ReplyDeleteaaj mahila indipendent hai ,parivartan to ho gaya
ReplyDeletekhotej.blogspot.in
trilok mohan purohit ji ki yah samiksha mujhe face book par prapt hui ...isiliye ise yahan jod diya anek dil ko chuti hui prernadayak samiksha face bppk par doston ne di .sabhi ka punah aabhar ...yah
ReplyDeleteआप को सस्नेह एवं सदर बधाई . बहुत ही सटीक और सधा हुआ लेखन है . चिन्तन के साथ एक गंभीर पहल के सह आप की कविता का प्रारम्भ बहुत प्रीतिकर है . सी हेतु भी बधाई.
मानस पटल पर से परिवर्तन की शुरुआत ही सकही परिवर्तन की शुरुआत हुआ कर...
ती है . विचारों का प्रभाव ही क्रिया पर दिखाई देता है . बहुत ही खूब और सही बीजवपन-
वक़्त के साथ
अंकित मानस पटल पे
जमा अवशेषों का
एक नया परिवर्तन .
परिवर्तन की सही पहचान ही मुक्ति में दिखाई देती है . अनंता बेड़ियों से मुक्ति . शोषण से मुक्ति , आडम्बरों से मुक्ति , उन सभी दबावों से मुक्ति की चाहत जो हामाए आनंद के बाधक तत्त्व हैं . बेरियर का काम कर सहज गति के अवरोधक हैं . चेतना ही इन बाधक तत्त्वों को हटाने के लिए अपेक्षित है . आप ने जो चित्र बिम्ब खड़े किये हैं वो बहुत मायने रखते हैं . मैंने ऐसे ही बिम्ब अभी सारिका ठाकुर जी कविता में अनुभव किये हैं इस का मायना यह है की फेस बुक के कोलाहल में भी जीवंत रचनाएँ अपनी धड़कन से संकेत कर रही है - ज़रा हमारे लिए भी वक्त निकालिए . हम यहाँ साहित्य कि सच्ची महक और रोशनी फैलाने का छोटा ही सहोई पर सार्थक प्रयास कर रहे हैं . बहुत ही बढ़िया लेखन है आप का . बहुत सुन्दर पड़ाव आप कि प्रतीक्षा में है . निवेदन है कि इस डगर को ना छोड़ें-
झिरी से आती
ठंडी हवा का झोखा
प्रीतकर लागे
पर अनंत बेड़ियों में जकड़ी
आजाद होने को बेकरार
घुटती साँसे
फडफडाते घायल पंछी सी
मांगे सुनहरी किरणों का
एक नया रौशनदान
बड़ा परिवर्तन .
शशि जी " सत्य " तो यों तो सत्य ही हुआ करता है परन्तु , भाव-शास्त्रियों मनोवैज्ञानिकों , मानव -वैज्ञानिकों और साहित्य -शास्त्रियों ने सत्य को दो प्रकार का स्पष्ट किया है . जीवंत और मृत सत्य , सत्य कितने ही वर्षों पुराना हो और यदि वह जीवंत है और समाज के लिए उपयोगी है तो वरेण्य है . लेकिन मृत सत्य अनुपयोगी है और जिसकी पहचान सड़ी-गली रूढ़ियों और परम्पराओं के रूप में की जाती है . वह त्याज्य है .सड़ी-गली रूढ़ियों के और सड़ी-गली परम्पराओं से इतर जो परम्पराएं अभी भी जीवंत सत्य स्वरूप हैं वे वरेण्य है यही सही आधुनिक बोध है . आप ने इस सही आधुनिक बोध को मंच - पटल पर रखा है वह आदरणीय व्यवहार है . आजादी के बाद भौतिक दृष्टि से सम्पन्नता तो आई है परन्तु ,विचारों में और वृत्तियों में परिवर्तन नहीं आया है . इस परवर्तन की महती जरूरत है . बहुत सुन्दर और तार्किक बात राखी हैं . आप निश्चय ही अभिनंदनीय हैं बधाई-
आजादी ने बदला
बाहरी आवरण ,पर
सोने के पिंजरें में
कैद है रूढ़िवादियाँ ,
जैसे एक कुंए का मेंढक ,
न जाने समुन्दर की गहराई
उथले पानी का जीवन
बस सिर्फ सडन
चाहे खुला आसमाँ
इक परिवर्तन .
इस सुन्दर और सार्थक रचना में सुन्दर कथ्य और संवाद बन पडा है . सहज अभिव्यक्ति और सरस सम्प्रेषण इस रचना में चार चाँद लगा रहे हैं . आप को ढेरों शुभ कामनाएं एवं बधाई............
trilok mohan purohit
bhaut sunder ,,,,
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