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Saturday, March 11, 2017

स्नेह रंग



गली गली में घूम रही है 
मस्तानों की टोली 
नीले, पीले, रंग हठीले 
आओ खेलें होली 

दरवाजे पर आँख  गड़ी है 
हाथों में गुब्बारे
सबरे खेलें आँख मिचौली 
मस्ती के फ़ब्बारे 

भेद भाव सब भूल गए 
बिखरी हँसी ठिठोली 
नीले, पीले, रंग  हठीले 
आओ खेलें होली।

सखा -सहेली मिलकर बैठे 
गीत फाग के गाएं 
देवर- भाभी, जीजा - साली
स्नेह रंग बरसाएं 

सजन उड़ाए, रंग गुलाबी 
रंगी प्रिय की चोली 
नीले, पीले, रंग  हठीले 
आओ खेलें होली।

भाँति भाँति के पकवानों की 
खुशबु ने भरमाया 
बिना बात की किलकारी ने 
भंग का रंग, बरसाया  

फागुन के रंगों में डूबे 
भीग रहे हमजोली 
नीले, पीले, रंग  हठीले 
आओ खेलें होली
शशि पुरवार 

होली की हार्दिक शुभकामनाएँ 




Friday, February 10, 2017

समर्पण भाव







अनवरत चलते रहें हम 
भूल बैठे मुस्कुराना 
है यही अनुरोध तुमसे  
बस ख़ुशी के गीत गाना।

फर्ज की चादर तले, कुछ 
मर गए अहसास कोमल 
पवन के ही संग झरते 
शाख के सूखे हुए दल 

रच गया बरबस दिलों में 
औपचारिकता निभाना 
है यही अनुरोध तुमसे  
बस ख़ुशी के गीत गाना
  
नित सुबह से शाम ढलती 
दंभ,दरवाजे खड़ा है  
रस  विहिन इस जिंदगी में 
शून्य सा बिखरा पड़ा है। 

क्षुब्ध मन की पीर हरता 
प्रीति का कोमल खजाना 
है यही अनुरोध तुमसे  
बस ख़ुशी के गीत गाना।

साँस का यह सिलसिला ही 
वक़्त पीछे छोड़ता है 
हर समर्पण भाव लेकिन 
तार मन के जोड़ता है.
मैं कभी रूठूँ जरा सा, 
तुम तनिक मुझको मनाना। 
है यही अनुरोध तुमसे 
बस ख़ुशी के गीत गाना। 
     ---- शशि पुरवार 
  

Monday, January 2, 2017

नववर्ष का दिनमान

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नव तरंगो से भरा, नव 
वर्ष का दिनमान आया
फिर विगत को भूलकर 
मन में नया अरमान आया.
  
खिड़कियों से झाँकती, नव 
भोर की पहली किरण है 
और अलसाये नयन में 
स्वप्न में चंचल हिरण है। 
गंध पत्रों से मिलाने 
दिन, नया जजमान आया।
खेत में, खलियान में, जब 
प्रीत चलती है अढाई 
शोख नज़रों ने लजाकर 
आँख धरती  पर गढ़ाई।
गीत मंगल, गान गाओ 
हर्ष का उपमान आया.
  
नित समय के साथ बिखरे 
एक मुट्ठी आस  कोंपल 
द्वार अंतर्घट खुले हों
कर्म से,सज्जित मधुर पल.
सुप्त सुधियों को जगाने  
खुशबु का पवमान आया

झर गए पत्ते समय के
बन गया इतिहास जाजम 
द्वार पर आगम खड़ा है  
मंत्र गुंजित, छंद आजम
हौसलों के बाँध घुँघरू 
नव बरस अधिमान आया।  
फिर विगत को भूलकर 
मन में नया अरमान आया.
             ---शशि पुरवार 

आप सभी मित्रों व ब्लॉगर मित्रों को सपरिवार नव वर्ष की मंगलमयी शुभकामनाएँ।  नववर्ष ख़ुशियों और सकारात्मकता से सराबोर हो यही कामना है।  

Monday, April 4, 2016

रात में जलता बदन अंगार हो जैसे।



जिंदगी जंगी हुई,
तलवार हो जैसे
पत्थरों पर  घिस रही,

वो धार हो जैसे। 

निज सड़क पर रात में
जब  देह कांपी थी 
काफिरो ने  हर जगह 
फिर राह नापी थी 
कातिलों से घिर गया 
संसार हो जैसे।


है द्रवित मंजर यहाँ 
छलती गरीबी है 
आबरू को लूटता 
वह भी करीबी है। 
आह भीनिकला हुआ 
इक वार हो जैसे.

आँख में पलता रहा है 
रोज इक सपना 
जून भर भोजन मिले 
घर,द्वार  हो अपना। 
रात में जलता बदन 
अंगार हो जैसे .
 --- शशि पुरवार 

Tuesday, March 22, 2016

फागुन के अरमान




छेड़ो कोई तान सखी री
फागुन का अरमान सखी री

कुसुमित डाली लचकी जाए
कूके कोयल आम्बा बौराये
गुंचों से मधुपान
सखी री

गोप गोपियाँ छैल छबीले
होठों पर है छंद  रसीले
प्रेम रंग का भान
सखी री

नीले  पीले रंग गुलाबी
बिखरे रिश्ते खून खराबी
गाउँ कैसे गान
सखी री


शीतल मंद पवन हमजोली
यादों में सजना  की हो ली
भीगा है मन प्रान
सखी री

पकवानों में भंग मिली है
द्वारे द्वारे धूम मची है
सतरंगी परिधान
सखी री
फागुन का अरमान सखी री
- शशि पुरवार
आप सभी मित्रों को सपरिवार होली की रंग भरी शुभकामनाएँ। 


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Wednesday, March 16, 2016

धुआँ धुआँ होती व्याकुलता





धुआँ धुआँ होती  व्याकुलता 
प्रेम राग के गीत सुनाओ
सपनों की मनहर वादी है
पलक बंद कर ख्वाब सजाओ  

 लोगों की आदत होती है   
दुनियाँ  के परपंच बताना 
प्रेम त्याग अब बिसरी बातें 
बदल रहा  है नया जमाना।

घायल होते संवेदन को 
निजता का इक पाठ पढ़ाओ। 
धुआँ धुआँ होती  व्याकुलता 
प्रेम राग के गीत सुनाओ .


दूर देश में हुआ बसेरा 
अलग अलग डूबी थी रातें 
कहीं उजेराकहीं चाँदनी 
चुपके से करती है  बातें
जिजीविषाजलती पगडण्डी 
तपते  क़दमों को सहलाओ.
धुआँ धुआँ होती  व्याकुलता 
प्रेम राग के गीत सुनाओ.

ममताकरुणा और अहिंसा 
भूल गया जग मीठी वाणी 
आक्रोशों की  नदियाँ बहती 
 
हिंसा की  बंदूकें तानी
झुलस रहा है मन वैशाली 
भावों पर काबू पाओ  
धुआँ धुआँ होती  व्याकुलता 
प्रेम राग के गीत सुनाओ  
  ---  शशि पुरवार

Saturday, March 5, 2016

" जिंदगी हमसे मिली रेलगाड़ी में "



जिंदगी हमसे मिली थी
रेलगाड़ी में 
बोझ काँधे पर उठाये 
क्षीण साडी में. 

कोच में फैला हुआ 
कचरा उठाती  है 
हेय  नजरें  झिड़कियां  
दुत्कार पाती है.
पट हृदय के बंद है इस 
मालगाड़ी में 
तन थकित, उलझी लटें 
कुछ पोपला मुखड़ा 
झुर्रियों ने लिख दिया 
संघर्ष  का  दुखड़ा 
उम्र भी छलने लगी 
बेजान खाड़ी में 

आँख पथराई , उदर की 
आग जलती है 
मंजिलों से बेखबर 
बदजात चलती है 
जिंदगी दम तोड़ती 
गुमनाम झाडी में. 

-- शशि पुरवार 
 

Friday, February 19, 2016

आँखों में कटते हैं दिन





करवट लेते रहे रात भर
आँखों में कटते है दिन
उमस भरी रातों के पलछिन 

दर्प दिखाती खड़ी इमारत
सिमटे हैं नेह दालान
किरणें आती जाती देखें
सब बंद है रौशनदान
भीतर हवा सुलगती रहती
घुटन भरी साँसें कमसिन.

सन्नाटा कमरें में पसरा
अंतस में है कोलाहल
दो पाटों के बीच घिरा, यह
नन्हा सा, मन है चंचल
इक अदद कहानी गढ़ते है
बीत रहे काले दुर्दिन.

शाम सुबह, घर दिखते साये
एक दूजे से नाराज
खिड़की दरवाजे भी सुनते
फिर टिकटिक घडी का साज
टुकड़ा टुकड़ा धूप सहेजे 
वो मन अँधियारे हर दिन.

करवट लेते रहे रातभर
आँखों में कटते है दिन।
 शशि पुरवार



Monday, January 11, 2016

दफ्तरों से पल




दफ्तरों से बन गए है,
जिंदगी के पल
शाम से मिलते, थके दिन
रात का आँचल।

अब समय के साथ चलते,
दौड़ते साये
चाँद - तारों सी तमन्ना
हाथ में लाये
नींद आँखों में नहीं है
प्रश्न का जंगल।

अक्स अपना देखते, जब 
रोज दरपन में
भार से काँधे झुके है
रोष है मन में
बस नजर आती नहीं है
इक हँसी निश्छल।

धूप बैठी हाशिये पर
ढल गया यौवन
भीड़ में कुछ ढूँढता है
यह प्रवासी मन
रात गहराने लगा है
आँख का काजल।
      ---- शशि पुरवार

Friday, December 11, 2015

जिंदगी के इस सफर में भीड़ का हिस्सा नहीं हूँ।


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जिंदगी के
इस सफर में
भीड़ का हिस्सा नहीं हूँ
गीत हूँ मै,
इस सदी का
व्यंग का किस्सा नहीं हूँ.

शाख पर
बैठे परिंदे
प्यार से जब बोलतें है
गीत भी
अपने समय की
हर परत  को खोलतें हैं
भाव का
खिलता कँवल हूँ
मौन का भिस्सा नहीं हूँ।

शब्द उपमा
और रूपक
वेदना के स्वर बनें हैं
ये अमिट
धनवान हैं जो
छंद बन झर झर झरे हैं
प्रीति का मधुमास हूँ
खलियान का मिस्सा नहीं हूँ

अर्थ
बिम्बों में समेटे
राग रंजित मंत्र प्यारे
कंठ से
निकले हुए स्वर
कर्ण प्रिय
मधुरस नियारे
मील का
पत्थर बना हूँ
दरकता
सीसा नहीं हूँ।
-- शशि पुरवार 




Saturday, December 5, 2015

थका थका सा दिन




थका थका सा
दिन है बीता
दौड़ -भाग में बनी रसोई
थकन  रात
सिरहाने लेटी
नींद नहीं आँखों में सोई

रोज पकाऊ
दिनचर्या की
घिसी पिटी सी परिपाटी
नेह भरे
झरनों से वंचित
सम्बन्धो  की सूखी घाटी

कजरारी
बदली ने आकर
नर्म धूप की लटें भिगोई

साँस साँस पर
चढ़ी  उधारी
रहने का भी नहीं ठिकाना
संध्या के
होठों पर ठहरा
ठंडे संवादों का बाना

उमर निगोड़ी
नदी किनारे
जाने किन सपनों में खोई

नहीं आजकल
दिखते कागा
पाहुन का सन्देश सुनाते
स्वारथ के
इस अंधे युग में
कातिल धोखे मिलने आते

गन्ने की
बदली है सीरत
फाँखे भी है छोई छोई।
--- शशि पुरवार

Wednesday, December 2, 2015

समय छिछोरा












खाली खाली मन से रहते,
तन है जैसे टूटा लस्तक
जर्जर होती अलमारी में,
धूल फाँकती, बैठी पुस्तक।

समय छिछोरा,
कूटनीति की
कुंठित भाषा बोल रहा है
महापुरुषों की
अमृत वाणी
रद्दी में तौल रहा है
अर्थहीन, कटु कोलाहल
सुन सुन
घूम रहा है मस्तक।

शरम- लाज,
आँखों का पानी
सूख गयी है आँख नदी
गिरगिट जैसा
रंग बदलती
धुआं उड़ाती नयी सदी
अर्धनग्न कपड़ें को पहने
द्वार पश्चिमी गाये मुक्तक.

खून पसीना,
छद्म चाँदनी
निगल रही है  अर्थव्यवस्था
आदमखोर
हुई महंगाई
बोझ तले मरती हर इक्छा
यन्त्र चलित
हो गयी जिंदगी
यदा कदा खुशियों की दस्तक.
    -- शशि पुरवार

अंतर्राष्ट्रीय नवगीत महोत्सव की काव्य संध्या में प्रस्तुत किया गया यह नवगीत। 

Monday, September 21, 2015

मन खो रहा संयम


आस्था के नाम पर,
बिकने  लगे हैं भ्रम
कथ्य को विस्तार दो ,
यह आसमां है कम .

लाल तागे में बंधी
विश्वास की कौड़ी
अक्ल पर जमने लगी, ज्यों
धूल भी थोड़ी
नून राई, मिर्ची निम्बू
द्वार पर कायम

द्वेष, संशय, भय हृदय में
जीत कर हारे
पत्थरों को पूजतें, बस
वह हमें तारे
तन भटकता, दर -बदर
मन खो रहा संयम.

मोक्ष दाता को मिली है
दान में शैया
पेंट ढीली कर रहे, कुछ
भाट के भैया
वस्त्र भगवा बाँटतें,
गृह, काल. घटनाक्रम .
- शशि  पुरवार

Saturday, September 19, 2015

तिलिस्मी दुनियाँ



काटकर इन जंगलो को
तिलिस्मी दुनियाँ बसी है 
वो फ़ना जीवन हुआ, फिर
पंछियों की बेकसी है.

चिलचिलाती धूप में, ये
पाँव जलते है हमारे
और आँखें देखती है
खेत के उजड़े नज़ारे
ठूँठ की इन बस्तियों में
पंख जलना बेबसी है

वृक्ष  गमलों में लगे जो
आज बौने हो गए है
आम पीपल और बरगद 
गॉंव भी कुछ खो गए है
ईंट गारे के  महल  में
खोखली रहती हँसी है

तीर सूखे  है नदी के
रेत का फिर आशियाँ है
जीव - जंतु लुप्त हुए जो
अब नहीं नामो- निशाँ है
चाँद पर जाने लगे हम
गर्द में धरती फँसी है
-- शशि पुरवार



समीक्षा -- है न -

  शशि पुरवार  Shashipurwar@gmail.com समीक्षा है न - मुकेश कुमार सिन्हा  है ना “ मुकेश कुमार सिन्हा का काव्य संग्रह  जिसमें प्रेम के विविध रं...

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