Wednesday, April 9, 2014

गजल -- मेरी साँसों में तुम बसी हो क्या।



मेरी साँसों  में तुम बसी हो क्या
पूजता हूँ जिसे वही  हो क्या

थक गया, ढूंढता रहा तुमको
नम हुई आँख की नमी हो क्या

धूप सी तुम खिली रही मन में
इश्क में मोम सी जली हो क्या

राज दिल का,कहो, जरा खुलकर
मौन संवाद की धनी हो क्या

आज खामोश हो गयी कितनी
मुझसे मिलकर  भी अनमनी हो क्या

लोग कहते है बंदगी मेरी 
प्रेम ,पूजा,अदायगी  हो क्या

दर्द बहने लगा नदी बनकर
पार सागर बनी खड़ी हो क्या

जिंदगी, जादुई इबारत हो
राग शब्दो भरी गनी हो क्या

गंध बनकर सजा हुआ माथे
पाक चन्दन में भी ढली हो क्या
-------- शशि पुरवार

Saturday, April 5, 2014

अंतर्मन






 अंतर्मन एक ऐसा बंद  घर
जिसके अन्दर रहती है 
संघर्ष करती हुई जिजीविषा,
कुछ ना कर पाने की कसक 
घुटन भरी साँसे 
कसमसाते विचार और
खुद से झुझते हुए सवाल ।
झरोखे की झिरी से आती हुई 
प्रफुल्लित रौशनी में नहाकर
आतंरिक पीड़ा तोड़ देना चाहती है 
इन दबी हुई सिसकती 
बेड़ियों  के बंधन को ,
 सुलगती हुई तड़प
 लावा बनकर फूटना चाहती है 
बदलना चाहती है,उस 
बंजर पीड़ा की धरती को,
जहाँ सिर्फ खारे पानी की 
सूखती नदी है 
वहाँ हर बार वह रोप देती है 
आशा के कुछ बिरबे ,
सिर्फ इसी आस में
कि कभी तो  बंद  दरवाजे के भीतर
ठंडी हवा का ऐसा झोखा आएगा
जो साँसों में ताजगी भरकर 
तड़प को खुले
आसमान में छोड़ आएगा 
और अंतर्मन के घर में होंगी 
झूमती मुस्कुराती हुई खुशियां 
नए शब्दों की महकती व्यंजना 
नए विचारो का आगमन
एवं कलुषित विकारो का प्रस्थान।
एक नए अंतर्मन की स्थापना 
यही तो है अंतर्मन की विडम्बना . 
शशि पुरवार 
२५ /मार्च २०१४

Monday, March 24, 2014

मुस्कुराती कलियाँ--

1
शूल बेरंग
मुस्कुराती कलियाँ
विजय रंग
2
बीहड़ रास्ते
हिम्मत न हारना
जीने के वास्ते।
3
तीखी हवाएँ
नश्तर सी चुभती
शोर मचाएं
4
तुम्हारा साथ
शीतल है चांदनी
जानकीनाथ  …

सारस आये
बनावटी चमक
जग को भाये
6
बहती नदी
पथरीला है पथ
तोड़े पत्थर
7
खिले सुमन
बगुला क्या जाने
नाजुक मन
8
मौन संवाद
कह गए कहानी
नया अंदाज.
9
मासूम हंसी
ह्रदय की  सादगी
जी का जंजाल
 10 
स्वरों में तल्खी
हिय में सुलगते
भीगे जज्बात।
 11
सुख की ठाँव
जीवन के दो रंग
धूप औ छाँव
12
भ्रष्ट अमीरी
डोल गया ईमान
तंग गरीबी
13
शब्दो  का मोल
बदली परिभाषा
थोथे  है  बोल
14
मन के काले
धूर्तता आवरण
सफेदपोश

-- शशि पुरवार

Friday, March 21, 2014

नवगीत -- अब्बा बदले नहीं




अब्बा बदले नहीं
न बदली है उनकी चौपाल

अब्बा की आवाज गूँजती
घर आँगन  थर्राते है
मारे भय के चुनियाँ मुनियाँ
दाँतों , अँगुली चबाते है

ऐनक लगा कर आँखों पर
पढ़ लेते है मन का हाल

पूँजी नियम- कायदों की हाँ
नित प्रातः ही मिल जाती है
टूट गया यदि  नियम , क्रोध से
दीवारे हिल जाती है

अम्मा ने आँसू पोंछे गर
मचता  तुरत  बबाल

पूरे  वक़्त रसोईघर  में
अम्मा खटती रहती है
अब्बा के संभाषण अपने
कानों सुनती रहती है

हँसना  भूल गयी है
खुद से करती यही सवाल
--  शशि पुरवार
 २१ /१०/१३


अनुभूति में प्रकाशित  गीत  -----

 अनुभूति में शशि पुरवार की रचनाएँ -
 



Monday, March 17, 2014

होली के रंग छंदो के संग ----





छन्न पकैया  छन्न पकैया, ऋतु बसंत है आयी
फिर कोयल कूके बागों में ,झूम  रही अमराई

२ 
छन्न पकैया छन्न पकैया, उमर हुई है बाली
होली खेलें जीजा - साली, बीबी देती गाली


छन्न पकैया छन्न पकैया ,दिन गर्मी के आये
ठंडा मौसम , ठंडा पानी, होली मनवा भाये।


छन्न पकैया छन्न पकैया ,होली है मनरंगी
कैसे कैसे नखरे करते ,खेले साथी संगी .
५ 
छन्न पकैया छन्न पकैया ,नेट  बड़ा है पापी
थोडा थोडा लिखने आती , होती आपाधापी। 
  ६
छन्न पकैया छन्न पकैया ,मजा फाग का आया
दीवानो की टोली घूमे , रंग गुलाल लगाया
  ७
छन्न पकैया छन्न पकैया ,गाँवो का है  दर्जा
पर्चे  बाँटे  महंगाई ने ,लील रहा है  कर्जा
 ८
छन्न पकैया छन्न पकैया ,गुझिया मन को भायी
भंग मिला कर  पकवानो में , होली खूब मनायी
 ९
छन्न पकैया छन्न पकैया ,रंगा रंग भयी  होली
छंदो के रस में भीगी है , सबकी मीठी बोली
१० 
छन्न पकैया छन्न पकैया ,छंदो का क्या कहना
एक है हीरा  दूजा मोती, बने कलम का गहना
११ 
छन्न पकैया छन्न पकैया ,राग हुआ है  कैसा
प्रेम रंग की होली खेलो ,दोन टके का पैसा
१२ 
छन्न पकैया छन्न पकैया ,रंग भरी पिचकारी
बुरा न मानो होली है ,कह ,खेले दुनिया सारी
१३ 
छन्न पकैया छन्न पकैया , होली खूब मनाये
बीती बाते बिसरा दे ,तो , प्रेम निति अपनाये
१४ 
छन्न पकैया छन्न पकैया ,दुनिया है सतरंगी
क्या झूठा है क्या सच्चा है, मुखड़े है दो रंगी
१५ 
छन्न पकैया छन्न पकैया , बजे हाथ से ताली
छेड़े जीजा साली भागे ,मेरी ,आधी घरवाली .
१६ 
छन्न पकैया छन्न पकैया , सासू जी मुस्कायी
देवर - भाभी होली खेले , सैयां पे बन आयी।
१७ 
छन्न पकैया छन्न पकैया ,प्यारी प्यारी सखियाँ
दूर दूर से मिलने आय़ी ,करती प्यारी बतियाँ
    -- शशि पुरवार 
१६ मार्च २०१४ 

कुछ माहिया
ऐ ,री, सखि तुम आओ
रंगो की मस्ती
मेले में खो जाओ .
भंग चढ़ी है ऐसी
झूम रहे सजना
यह होली है देसी
फिर मुखड़ा लाल हुआ
नयनों  में सजना
मन आज गुलाल हुआ।
पकवानो में होड़ लगी
गुझिया ही जीती
शीरे में  खूब पगी
मनभावन यह होली
दो पल में भूले
वैरी अपनी बोली
रंग भरी पिचकारी
छेड़  रहे सजना
सजनी , आज नहीं हारी।

मित्रो हम जरा देर से आये। … :) पर धमाल हो जाये ,समस्त ब्लोगर परिवार को होली की हार्दिक रंग भरी शुभकामनायें। होली के सभी रंग आपके जीवन में भी उमंग भर दे -- हार्दिक शुभकामनायो सहित -- शशि पुरवार

Sunday, February 16, 2014

राग रंग का रोला .... !

सपन सलोने,
नैनो में

जिया, भ्रमर सा डोला है
छटा गुलाबी, गालो को
होले -हौले  सहलाये
सुर्ख मेंहदी हाथो की
प्रियतम की याद दिलाये

बिना  कहे,
हाल जिया का
दो अँखियो ने, खोला है

हँसी ठिठोली, मंगल-गीत
गूँज  रहे है घर, अँगना
हल्दी,उबटन,तेल हिना
खनके हांथो का कंगना

खिला शगुन के
चंदन  से
चंचल मुखड़ा भोला है

छेड़े सखियाँ, थिरक रही
फिर, पैरों की पैंजनियां
बालो में गजरा महके
माथे झूमर ओढ़नियाँ

खुसुर फुसुर की
बतियों ने
कानो में रस घोला है

सखी- सहेली छूट  रही
कल पिय के घर है जाना
फिर ,रंग भरे सपनो  को
स्नेह उमंगो से सजाना

मधुर,
तरानो से बिखरा
राग रंग का रोला है।
-- शशि पुरवार
३० /१ / २०१४

चित्र -  गूगल से आभार 

Wednesday, February 5, 2014

बासंती रंग



1
सपने पाखी
इन्द्रधनुषी रंग
होरी के संग
2
रंग अबीर
फिजा में लहराते
प्रेम के रंग
3
सपने हँसे
उड़ चले गगन
बासंती रंग
4
दहके टेसू
बौराई अमराई
फागुन डोले
5
अनुरक्त मन
गीत फागुनी गाये
रंगों की धुन .

23.03.13
शशि पुरवार
---------------------------------
सदोका ----
1हवा  उडाती
अमराई की जुल्फे
टेसू हुए आवारा
हिय का पंछी 
उड़ने को बेताब
रंगों का समां प्यारा .

2
  डोले मनवा
 ये  पागल जियरा
 गीत गाये बसंती
 हर डाली  पे
खिल गए पलाश
भीगी ऋतू सुगंधी .

3
 झूमे बगिया
दहके है  पलाश
भौरों को ललचाये
कोयल कूके
कुंज गलियन में
पाहुन क्यूँ न आये .

4
झूम रहे है
हर गुलशन में
नए नवेले फूल
हँस रही है
डोलती पुरवाई
रंगों की उड़े धूल .

5
 लचकी डाल
यह कैसा  कमाल
मधुऋतू है आई
 सुर्ख पलाश
मदमाए फागुन
कैरी खूब मुस्काई .

6
जोश औ जश्न
मन  में  है उमंग 
गीत होरी  के गाओ
भूलो मलाल
उमंगो का त्यौहार
झूमो जश्न मनाओ .
24.03.13
शशि पुरवार

Sunday, January 26, 2014

भारत सुख रंजित हो



भारत को कहते थे
सोने की चिड़िया
सुख से हम रहते थे। 
गोरों को भाया था
माता का आंचल
वह ठगने आया था

याद हमें कुर्बानी 
वीरो की गाथा
वो जोश भरी बानी .
कैसी आजादी थी
भू का बँटवारा
माँ की बरबादी थी .

ये प्रेम भरी बोली
वैरी क्या जाने
खेले खूनी होली
.
सरहद पे रहते है
दुख उनका पूछो
वो क्या क्या सहते है

घर की याद सताती 
प्रेम भरी पाती
उन तक पँहुच न पाती .
८ 
बतलाऊँ कैसे मैं
सबकी चिंता है
घर आऊँ कैसे मैं?

हैं घात भरी रातें
बैरी करते हैं
गोली  से बरसातें।
१०
पीर हुई गहरी सी
सैनिक घायल है
ये सरहद ठहरी सी।
११
आजादी मन भाये
कितनी बहनों के
पति लौट नहीं पाये।
१२
है शयनरत ज़माना
सुरक्षा की खातिर
सैनिक फर्ज निभाना।
१३
एकता से सब मोड़ो
राष्ट्र की धारा
आतंकी को तोड़ो .
१४
स्वर सारे गुंजित हो
गूंजे जन -गन - मन
भारत सुख रंजित हो

-- शशि पुरवार


आप सभी को गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ -- जय हिन्द जय भारत-- 

Sunday, January 19, 2014

माहिया - बदली ना बरसी



धरती भी तपती है
बदली ना बरसी
वो छिन छिन मरती है .

सपनो में रंग भरो
नैना  सजल हुये
जितने भी जतन करो।

यह चंदा मेरा है
ज्यूँ सूरज निकला
लाली ने आ घेरा है।
माँ जैसी बन जाऊं
छाया हूँ उनकी
कद तक पहुच न पाऊं।
सब भूल रहे बतियाँ
समय नहीं मिलता
कैसे बीती रतियाँ
फिर डाली ने पहने
रंग भरे नाजुक
ये फूलो के गहने .
 डाली डाली  महकी
भौरों की गुंजन
क्यों चिड़िया ना चहकी।
 --------- शशि पुरवार
१/१० / २०१३

Wednesday, January 1, 2014

क्षणिकाएँ --- उगते सूरज की किरणे





क्षणिकाएँ

प्रतिभा --

नहीं रोक सके,
काले बादल
उगते सूरज की किरणें।


सपने --

तपते हुए रेगिस्तान
की बालू में चमकता हुआ
पानी का स्त्रोत, औ
जीने की प्यास.


आशा -

पतझड़ के मौसम में
बसंत के आगमन का
सन्देश देती है,
कोमल प्रस्फुटित पत्तियां।


संस्कार -

रोपे हुए वृक्ष में
मिलायी गयी खाद,
औ खिले हुए पुष्प।


पीढ़ी -

बीत गयी सदियाँ
नही मिट सकी दूरियाँ,
अनवरत चलता हुआ
अंतहीन  रास्ता।


मित्रता -

जीवन के सफ़र में
महकता हुआ
हरसिंगार।
-- शशि पुरवार

Tuesday, December 31, 2013

नये साल की गंध। …… २०१४

नये छंद से, नये बंद से
नये हुए अनुबंध

नयी सुबह की नयी किरण में
नए सपन की प्यास
नव गीतों के रस में भीगी
मन की पूरी आस

लगे चिटकने मन की देहरी
शब्दों के कटिबंध

नयी हवाएँ, नयी दिशाएँ
बरसे नेही, बादल
छोटी छोटी खुशियाँ भी हैं
इन नैनों का काजल

गमक रही है साँस साँस भी
हो कर के निर्बंध

नये वर्ष के नव पन्नों में
नये तराने होंगे
शेष रह गये सपन सलोने
पुनः सजाने होंगे

नयी ताजगी आयी लेकर
नये साल की गंध

--शशि पुरवार
३० दिसंबर २०१३


अनुभूति पत्रिका में प्रकाशित मेरा गीत ---- सभी ब्लोग्गर मित्रो को नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाये , मंगलकामनाये  ....... नव वर्ष आपके जीवन में  खुशियाँ , सुख , समृद्धि लेकर आये। . 

Tuesday, December 24, 2013

एक मुक्तक




इन्तजार कर रहे थे सुख के फूलों का
हिसाब नहीं रखा  दर्द के शूलों का
जिंदगी बीत रही सुबह  कभी तो  होगी
हमने प्यार ही नाम रखा इन गुलों का
--- शशि पुरवार

Tuesday, December 17, 2013

हाइकु -- नवपत्रक



मृदा ही सींचे
पल्लवित ये बीज
मेरा ही अंश।


माटी को थामे
पवन में झूमती
है  कोमलांगी।
 .
ले अंगडाई
बीजों से निकलते
नवपत्रक .
प्रफुल्लित है
ये नन्हे प्यारे पौधे
छूना न मुझे
 ये हरी भरी
झूमती है फसलें
लहकती सी।
तप्त धरती
सब बीजों को मिला
नव जीवन ।
बीजों से झांके
बेक़रार पृकृति
थाम लो मुझे
मुस्कुराती है
ये नन्ही सी कालिया
तोड़ो न मुझे।


 पत्रों पे  बैठे
बारिश के मनके
जड़ा है हीरा।
१०
हवा के संग
खेलती ये लताएँ
पुलकित है

११
संग खेलते
ऊँचे होते पादप
छू लें आसमां

                         -- शशि पुरवार

  नमस्ते मित्रो लम्बे अंतराल के बाद ब्लॉग पर पुनः सक्रियता और वापसी कर रहे है , आशा है आपका स्नेह सदा की  तरह मिलता रहेगा।  -- जल्दी आपसे आपके ब्लॉग पर भी मिलंगे।  स्नेह बनाये रखे -- आप सभी का दिन मंगलमय हो - शशि पुरवार




Thursday, November 7, 2013

बाल साहित्य

जीवन में कुछ बनना है ,तो
लिखना पढना जरुरी है

रोज नियम से अभ्यास करो
मन लगाकर ही पढना
गर्मी की छुट्टी आये ,तब
खूब धमाल करना
न मेहनत से जी चुराओ
ज्ञान लेना भी जरुरी है .


झूठ कभी मत बोलना , तुम
सच्चाई का थामो हाथ
नेक राहों पर चलने से ,बड़ो
का मिलता है ,आशीर्वाद 
अच्छी अच्छी बाते सीखो
अच्छी संगति  जरुरी है .

वृक्षों को  तुम मत काटना
हरियाली भी बचानी है
पेड़ों से ही हमको मिलता
अन्न ,दाना -पानी है
प्रदूषण को मिलकर मिटाओ
पेड  लगाना  भी जरुरी है

देश के तुम हो भावी प्रणेता
राहों में आगे बढ़ना
मुश्किलें कितनी भी आयें
हिम्मत से डटे रहना
भ्रष्टाचार को जड़ से मिटाना
चैनो -अमन भी जरुरी है
-------- शशि पुरवार
२८/ ९/ १३

नवम्बर २०१३ के बाल  साहित्य विशेषांक  के अंक में प्रकाशित मेरी रचना  -- पाखी कविता के अंतर्गत   अभिनव इमरोज पत्रिका , पंजाब

Saturday, November 2, 2013

जगमग दीपावली के कुछ यह भी रंग ......................... !

माहिया -
1
फिर आयी दीवाली
झिलमिल दीप जले
झूम रही हर डाली .
2
कण- कण है में बिखरी
दीपों की आभा
यह रजनी भी निखरी .
3
रंगोली द्वार खिली
राह तके लड़ियाँ
घर खुशियाँ आन मिली।
4
गूँज रही किलकारी
झूम रही बगिया
ममता भी बलिहारी


हाइकु --

1
जीवन साथी
सुख -दुःख , लड़ियाँ
दिया औ बाती।
2
दीप भी जले
खुशियाँ घर आईं
संग तुम्हारे ।
3
आशा की ज्योत
हर घर रौशन
नेह दीपक ।
4
झूमे रौशनी
धरती पे उतरी
दीप चाँदनी।

जलती बाती
अँधेरों से लड़ता
रौशन दिया।

-- सेदोका

1
यादों के दीप
फिर हिय में जले
सलोने उजियारे ,
भीगी चाँदनी
खिल उठा चाँद
मन के अंधियारे ।
2
अखंड दीप
जीवन ,पथ पर
हाँ ,माँ ने जलाया,
संस्कारों की लौ
महकता आशीष
तिमिर को मिटाया ।

३१ /१० /१३


:-- शशि पुरवार
सभी मित्रो , ब्लोगर परिवार  को दीपावली कि हार्दिक शुभकामनाये , जीवन में खुशियां सदैव जगमगाती रहे। अपने टिपणी से आपके आगमन कि सुचना दे , जिससे जल्दी से।  .............  दोस्तों समय मिलते ही आपसे आपके ब्लॉग  पर मिलने जरुर  आउंगी , यह वादा है  --- स्नेह बनाये रखें
! शुभ दीपवली !
-- शशि पुरवार

Tuesday, October 29, 2013

1 लघुकथा ---- रोज दिवाली



रामू धन्नी सेठ के यहाँ  मजूरी के हिसाब से काम करता था , सेठ रामू के काम और ईमानदारी से खुश रहता था , परन्तु काम के हिसाब से वह  मजूरी कम देता था , रामू  को  जितना मिलता उसमें ही  संतुष्ट रहता था ,इस बार सेठ को त्यौहार के कारण  अनाज में तीन गुना मुनाफा हुआ , तो ख़ुशी उसके चेहरे से टपक पड़ी ,  घमंड भरे भाव में ,वह रामू से बोला --

" रामू इस बार मुनाफ  खूब हुआ है , सोच रहा  हूँ कि इस दिवाली  घर का फर्नीचर बदल दूं , घर वालो को खूब नए कपडे ,गहने और मिठाई इत्यादि  ले कर दे दूं , तो इस बार उनकी दिवाली  भी खास हो जाये .................! "

सेठ बोलता जा रहा था और रामू शांत भाव से अपने काम में लगा हुआ था , जब  धन्नी सेठ ने यह देखा तो  उसे बहुत गुस्सा आया , और रामू को नीचा दिखने के लिए उसने कहा ---

"  मै  कब से  तुमसे बात कर  रहा हूँ , सुर तुम  कुछ बोल नहीं रहे हो .... ठीक है  तुम्हे  भी 100 रूपए दे दूंगा , अब तो खुश हो  न ...? , यह बताओ  कि तुम  क्या क्या करोगे इस दिवाली  पर ...............? "
रामू शांत भाव से बोला ----
" सेठ हमारे यहाँ तो रोज ही  दिवाली होती है . "
" रोज दिवाली होती है ..........? क्या मतलब ? ......आश्चर्य का भाव सेठ के चेहरे  पर था ."
" जब रोज  शाम को पैसे लेकर घर जाता हूँ तो सब पेट भर के खाना खाते है  और जो  ख़ुशी होती है उनके चेहरे पर , यह हमारे लिए  किसी दिवाली से कम नहीं  है  ." कहकर रामू अपने काम में मगन हो गया .

------शशि पुरवार

बीते साल दैनिक भास्कर में  प्रकाशित  हमारी यह  लघुकथा ---


Saturday, October 26, 2013

दिलकश चाँद खिला। ……… माहिया



1
सिमटे नभ में  तारे 
दिलकश चाँद खिला 
हम दिल देकर हारे ।
2
फैली शीतल किरनें
मौसम भी बदला
फिर छंद लगे झरने ।
3
पूनो का चाँद खिला
रातों को जागे
चातक हैरान मिला। 
4
हर डाली शरमाई  
चंदा में देखे
प्रियतम की परछाई .
5
रातों चाँद निहारे
छवि इतनी प्यारी
मन में चाँद उतारे .

शशि पुरवार 
-0-

Friday, October 18, 2013

गजल -- फिर हर काम से पहले

जतन करना पड़ेगा आज ,फिर हर काम से पहले
खिलेंगे फूल राहों में  , तभी इलहाम से पहले

कभी तो दिन भी बदलेंगे  ,मिलेंगी सुख भरी रातें
दुखों का अंत होगा फिर सुरीली शाम से पहले

बिना मांगे नहीं मिलती ,कभी कोई ख़ुशी पल में
जरा दिल की सभी बातें ,लिखो कुहराम से पहले

बढ़ो फिर आज जीवन में ,मुझे मत याद करना तुम
कभी पहचान भी होगी ,मेरे उपनाम से पहले

वफ़ा मैंने निभाई है ,तुम्हारे साथ हर पल ,पर
तुम्हारा नाम ही आएगा ,मेरे नाम से पहले।

--- 28 /9 /2013
 शशि पुरवार

Thursday, October 10, 2013

संत पहाड़

पहाड़ --
अडिग खड़ा
देखे कई बसंत
संत पहाड़
उगले ज्वाला
गर्म काली लहरे
स्याह धरती
चंचल भानू
रास्ता रोके खड़ा है
बूढा पर्वत
धोखा पाकर
पहाड़ जैसी बनी
नाजुक कन्या
हिम से ढके
प्रकृति बुहारते
शांत भूधर
शैल का अंक 
नाचते है झरने
खिलखिलाते

पर्वत पुत्री
धरती पे जा बसी
बसा है गाँव।
झुकता नहीं
लाख आये तूफ़ान
मिटता  नहीं ।

- शशि पुरवार

Tuesday, October 8, 2013

माँ शक्ति है ,माँ भक्ति है। ………. !

माँ शक्ति है
माँ भक्ति है
माँ ही मेरा अराध्य
माँ सा नहीं है दूजा जग में
माँ से ही संसार

माँ धर्म है
माँ कर्म है
माँ ही है सतसंग
माँ सा नहीं है दूजा मन में
माँ , जीवन का आधार

माँ भारती है
माँ सारथी है
माँ ही मार्गदर्शक
माँ सा नहीं है दूजा पथ में
माँ ही गीता का सार

माँ सखा है
माँ ही सहेली
माँ ही प्रथम गुरु
माँ सा नहीं दूजा हिय में
माँ ममता का आकार

माँ निश्छल है
माँ संबल है
माँ ही रिश्तो की पूंजी
माँ सा नहीं दूजा घर में
माँ  से ही संस्कार।

माँ भगवती
माँ अन्नपूर्णा
माँ ही दुर्गा का रूप
माँ सा नहीं है दूजा भू पर
माँ से  साक्षात्कार
 --- शशि पुरवार
१८ /९ / १३


समीक्षा -- है न -

  शशि पुरवार  Shashipurwar@gmail.com समीक्षा है न - मुकेश कुमार सिन्हा  है ना “ मुकेश कुमार सिन्हा का काव्य संग्रह  जिसमें प्रेम के विविध रं...

https://sapne-shashi.blogspot.com/

linkwith

http://sapne-shashi.blogspot.com