shashi purwar writer

Sunday, March 29, 2020

21 दिन जिंदगी बचाने के लिए




यह २१दिन जिंदगी को बचाने की जद्दोजहद है जिसमें संयम के साथ घर पर रहकर हम जिंदगी को बचा सकते हैं, संक्रमण के साथ डर के भाव भी लंबे होते जा रहे हैं, देश विदेश में हुई तबाही के कारण लोगों के मन में डर बढ़ने लगा है कि कल क्या होगा ? लेकिन यह डरने का नहीं,  संभलकर जंग जीतने का समय है, घर में रहकर ही हम अपनों को बचा सकते है ।
एक तरह से देखा जाए तो वक्त का यह दौर आज पुराने दिनों की याद दिला रहा है। जब लोगों की महत्वाकांक्षाएं उन पर हावी नहीं थी, लोगों के पास एक दूसरे से मिलने के लिए समय था । मित्रों व परिजनों के साथ शामें व्यतीत हुअा करतीं थी। प्राचीन सभ्यता और संस्कृति की मजबूत जड़ें फल फूल रहीं थी।  फिर समय के बदलते चक्र में जिंदगी दौड़ने लगी। वह अपनों से भी दूर होती गई । समय के साथ दौड़ती हुई जिंदगी के कदम आज कोरोना महामारी के कारण रूक से गये।
संपूर्ण विश्व, मानव जाति वायरस के प्रकोप से लड़ रही है। अर्थव्यवस्था धड़ाम से गिर पड़ी है। देशव्यापी लॉक डाउन है ।  विषम परिस्थितियाँ है । किसी ने नही सोचा होगा कि एक वायरस मानव के बढ़ते कदमों को रोक सकता है। समय के साथ इंसान मृगतृष्णा की दौड़ में इतना लिप्त हो गया कि रुके हुए कदम उसे बेचैन कर रहें हैं ।
हर वर्ग के लोगों की अपनी अलग समस्याएं  हैं। वर्ग का एक हिस्सा जिंदगी को बचाने के प्रयास में स्वयं की जान जोखिम में डालकर सेवारत है । वहीं कुछ लोग अभी भी समय की नजाकत को नहीं समझ रहे हैं । अपने फर्ज के कारण सेवारत कर्मचारियों को बाहर निकलना आवश्यक है ।  लेकिन कुछ लोग अभी भी की गंभीरता को हल्के से ले रहे हैं। जिसका परिणाम घातक हो सकता है।
रोज लाओ व रोज खाओ वाली संस्कृति के कारण आज घरों में राशन पानी की समस्या हो रही है । जरूरत के सामान बाजार में उपलब्ध होने के बावजूद लोग अकारण घर से बाहर निकल रहे हैं। सबसे ज्यादा निम्न वर्ग व दिहाडी मजदूृर प्रभावित हो रहा है । जिनके पास रहने के लिए छत नहीं है व खाने के लिए भोजन नहीं है। भूख से बड़ा संकट क्या हो सकता है ।
उनकी भूख ने महामारी के डर पर विजय पा ली है । लॉक डाउन के कारण कामकाज ठप्प है । ऐसे में यह वर्ग पलायन को ही उचित मार्ग समझ रहा है।  असुविधा व साधन की कमी की वजह से पलायन करना उनकी मजबूरी है और यह मजबूरी उनकी जान जोखिम में डाल रही है। सड़कों पर उंगली भी संक्रमण की साइकिल तोड़ने में नाकाम साबित होगी, समस्या बेहद गंभीर है। 
परम सत्य है कि पापी भूख से बड़ी कोई बीमारी नहीं होती है।  यह कदम उनकी जिंदगी को खतरे में डाल रही है व गांवों में भी संक्रमण फैल सकता है। जिंदगी की मार दोनों तरफ से है। लेकिन जिंदगी को बचाना ही बेहद जरूरी है। 
सरकार मदद करने का पूर्ण प्रयास कर रही है कि संक्रमण के कदम रोके जाएं व निम्न वर्ग की समस्या को दूर किया जाए।  बहुत सी समाज सेवी संस्थाएं भोजन उपलब्ध कराने के लिए आगे आई है ऐसे में हमारी भी नैतिक जिम्मेदारी है कि हम भी उनका पूर्ण सहयोग करें। 
आने वाला समय सभी के लिए कठिन परीक्षा की घड़ी है।  कोरोना वायरस तीसरे सप्ताह में पहुंचने वाला है । जहां से अन्य देशों में तबाही मची थी।  एक एक पल जिंदगी के लिए भारी होगा। 
ऐसे समय स्वयं को सुरक्षित रखना बहुत आवश्यक है यह संपूर्ण मानव जाति के अस्तित्व का सवाल है ।  21 दिन घर में रहना लोगों के लिए बहुत मुश्किल हो सकता है किंतु यह एक सुरक्षा कवच है, झेलना हमारे लिए हितकर है। 
इसे सकारात्मक नजरिए से देखें कि कोरोनावायरस के चक्र को उल्टा घुमाना शुरू कर दिया है।  आज अपनों के साथ समय व्यतीत करने का समय दिया है अपनों से जोड़ा है । जो कभी एक दूसरे का हाल-चाल पूछना भूल गए थे अाज अपनों से पुन: जुड़े हैं । यह कैद नहीं,  सुरक्षित भविष्य का संग्रहण है। 
भटकती हुई जिंदगी व मन को संयमित करके हम इन पलों को खुशहाल बना सकते हैं। जब तक आप घर में है आप सुरक्षित हैं और जो बेघर हैं उन्हें बचाने का प्रयास सरकार कर रही है । पैसा नहीं हमारा सहयोग ही हमें काल का ग्रास बनने से रोक सकता है। अपने डर पर काबू पाए ।  लोगों की भ्रामक बातों से बचें । सकारात्मकता का एक एक अंश जिंदगी को बचा सकता है। समाज के प्रति हमारी भी नैतिक जिम्मेदारी है कि जो सेवार्थ की भावना दिखा रहे हैं हम उनके काम में बाधा उत्पन्न करके उनकी समस्या को विकराल ना बनाएं।
प्रधानमंत्री राहत कोष में मदद के लिए कुछ संस्थाएं, बड़ी कंपनियां एवं उच्च वर्ग सामने आ रहा है।  राहत का यह पैसा तभी काम आएगा जब कोविड से लड़ने के लिए हम अपना घर पर रहकर उन्हें सहयोग दें। इस जैविक संक्रमण को रोकने के लिए घर पर रहना ही सबसे बड़ा हथियार होगा। 
इसलिए सकारात्मक रहे, सुरक्षित रहे , बेहद आवश्यक होने पर यदि बाहर जाते हैं तो लोगों से 2 मीटर का अंतर रखें। कोरोनावायरस को हराएं और जीवन को बचाएं ।  हमें जीवन को बचाने में अपना योगदान देना है। हमारी एक छोटी सी कोशिश महामारी को फैलने से रोक सकती है , जीवन को बचा सकती है।

 shashi purwar 

Friday, March 6, 2020

आखिर कब तक ...

 

आखिर कब तक दर्द सहेंगी
क्यों मरती रहेंगी बेटियाँ
अपराधों के बढते साए
पन्नों सी बिखरती बेटियाँ

कौन बचाएगा बेटी को
भेड़ियों और खूंखार से
नराधर्म की उग्र क्रूरता
दरिंदों और हत्यारों से
भोग वासना, मन के कीड़े
कैंसर का उपचार करो
जो नारी की अस्मत लुटे
वह रावण संहार करो

दूजों की कुंठा का प्रतिफल
आपद से गुजरती बेटियाँ
आखिर कब तक दर्द सहेंगी
क्यों मरती रहेंगी बेटियां

अदालतों में लंबित होती
तारीखों पर सुनवाई
दोषी मांगे दया याचिका
लड़े जीवन से तरुणाई
आज प्रकृति न्याय मांगती
सुरक्षा, अहम सवाल है
तत्व समाज व देश के लिए
बर्बरता, जन्य दीवाल है

खौफनाक आँखों में मंजर
पर, भय से सिहरती बेटियाँ
आखिर कब तक दर्द सहेंगी
क्यों मरती रहेंगी बेटियाँ

लावारिस सडकों पर भटके
मिली न मुझको मानवता
कायरता के शिविर लगे है
अपराधों का फंदा कसता
चुप्पी तोडो, शोर मचाओ 
निज तूफानों को आने दो
दोषी का सर कलम करो
स्वर कोलाहल बन जाने दो

भय मुक्त आकाश बनाओ 
हिरनों सी विचरती बेटियाँ
आखिर कब तक दर्द सहेंगी
क्यों मरती रहेंगी बेटियाँ
अपराधों के बढते साए
पन्नों सी बिखरती बेटियाँ

शशि पुरवार

Sunday, February 9, 2020

पनप रहा है प्यार

  फागुन आयो री सखी   फागुनी दिल


मौसम ने पाती लिखी, उड़ा गुलाबी रंग
पात पात फागुन धरे, उत्सव वाले चंग
उत्सव वाले चंग, चटक गुलमोहर फूला
जीवन में आनंद, पड़ा वृक्षों पर झूला
कहती शशि यह सत्य, अनोखा मन में संगम
धरती का उन्माद, धरे मंगलघट मौसम
निखर गया है धूप में, झरा फूल कचनार
गुलमोहर की छाँव में, पनप रहा है प्यार
पनप रहा है प्यार, उमंगें तन मन जागी
नैनों भरा खुमार, हुआ दिल भी अनुरागी
कहती शशि यह सत्य, गंध जीवन में भर गया
खिला प्रेम का फूल, सलोना, मुख निखर गया
शशि पुरवार
(रचना मन के चौबारा संग्रह से )

Wednesday, December 25, 2019

संवेदनाएं जोगन ही तो हैं

*जोगिनी गंध*
*पुस्तक समीक्षा/ डॉ. शैलेंद्र दुबे*
*कवयित्री के शब्दों में संवेदनाएं जोगन ही तो हैं जो नित नए भावों के द्वार विचरण करती हैं. भावों के सुंदर फूलों की गंध में दीवानगी होती है, जो मदहोश करके मन को सुगंधित कर देती है. साहित्य के अतल सागर में अनगिनत मोती हैं, उसकी गहराई में जाने पर हाथ कभी खाली नहीं रहते.*
.........................
*मन को मोहित करती संवेदनाओं की जोगिनी गंध*
मनुष्य प्रकृति की अद्भुत रचना है. सरस अभिव्यक्ति की क्षमता तथा गुण ने उसे इस काबिल बनाया है कि वह स्वयं रचनाकार के रूप में समाज को श्रेष्ठ विचार एवं भाव दे सके. कल्पना और अभिव्यक्ति के मिलन से निर्मित साहित्य के क्षितिज पर विवेकी रचनाकार के उकेरे गए इंद्रधनुषी चित्र मानव मन को मानवीय सरोकार, संवेदना तथा अनुभूतियों के रंग में रंग देते हैं. कलम से कागज पर बनाए गए शब्दों के ताजमहल भाव, कल्पना तथा विचार के रूप में सदा के लिए मानस पटल पर अंकित हो जाते हैं. हिंदी साहित्य संसार में अपना विशिष्ट स्थान बनाने वाली ख्यातनाम कवयित्री श्रीमती शशि पुरवार का हाइकु संग्रह ‘जोगिनी गंध’ भी कोमल भावों के साथ सारगर्भित संदेश के रूप में न केवल मानस पटल पर अंकित होता है बल्कि सकारात्क प्रेरणा का संवाहक भी है.
हाइकु जापान की लोकप्रिय मुक्तक काव्य विधा है. हाइकु में गुंफित प्रत्येक पुष्प 5-7-5 शब्द क्रम की तीन पंक्तियों में बसी प्रेरणा एवं ऊर्जा से पल्लवित होता है. गागर में सागर की तर्ज पर उभरी इस विधा में शशि जी को महारथ हासिल है. यह काव्य संग्रह जोगिनी गंध, प्रकृति, जीवन के रंग, विविधा तथा हाइकु गीत रूपी पांच सर्ग में विभक्त है. पहले सर्ग जोगिनी गंध में कवयित्री ने प्रेम, मन, पीर, यादों तथा दीवानेपन को कोमल भावों के साथ शब्दों में पिरोया है. प्रेम को परिभाषित करती हुर्इं शशि जी कहती हैं-
'प्रेम भूगोल
सम्मोहित सांसें
दुनिया गोल'
‘सूखे हैं फूल
किताबों में मिलती
प्रेम की धूल’
‘नेह के गीत
आंखों की चौपाल में
मुस्काती प्रीत’
वास्तव में प्रेम का भूगोल यही है. प्रेम में पड़े मन की दुनिया प्रेमिका या प्रेमी के इर्द-गिर्द ही होती है. प्रेम ही हर प्रेमी की सांसों में समाया होता है. किताबों में मिलते सूखे फूल सदा ही प्रेम का उपमान बने हैं जिन्हें कवयित्री ने हाइकु के फूलदान में करीने से सजाया है.
प्रकृति के नित नए रंग मानव मन को अपने रंग में ढाल लेते हैं. प्रेम की शीतल बयार मन की उष्णता तथा कड़वाहट का लोप कर देती है. बर्फ से जमे अहसास पिघलने लगते हैं और शब्द रूप में अभिव्यक्त होते हैं. शशि जी दूसरे सर्ग में प्रकृति के शीत, ग्रीष्म, सावन, जल आदि विविध रंगों और बदलती छटाओं को बड़ी खूबसूरती के साथ मानव मन के कैनवास पर उकेरते हुए कहती हैं-
‘शीत प्रकोप
भेदती हैं हवाएं
उष्णता लोप’
‘बर्फ से जमे
भीगे से अहसास
शब्दों को थामे’
‘प्रकृति दंग
कैक्टस में खिलता
मृदुल अंग’
अभिव्यक्ति जब मानव मन के अंतस में जन्म लेती है तो उसका एक लक्ष्य होता है. शब्द रूपी भावों के कागज पर होते कदम-ताल में एक गंतव्य निहित होता है. शशि जी तीसरे सर्ग ‘जीवन के रंग’ में जीवन यात्रा, बसंती रंग, गांव और बचपन के अल्हड़पन के साथ मानवीय रिश्तों के गंतव्य की ओर कदम-ताल करती नजर आती हैं. इस सर्ग में जीवन की कई गूढ़ बातों पर रौशनी डाली गई है. मानवीय रिश्तों को खूबसूरत बिंबों के माध्यम से उकेरा गया है.
‘शब्दों का मोल
बदली परिभाषा’
थोथे हैं बोल’
‘मन के काले
मुख पर मुखौटा
मुंह उजाले’
‘उड़े गुलाल
प्रेम भरी बौछार
गुलाबी गाल’
काव्य संग्रह के चौथे सर्ग विविधा में दीपावली, राखी, नववर्ष के माध्यम से अनेकता में एकता के सूत्र को पिरोया गया है. पांचवा सर्ग हाइकु गीतों के शिल्प सौंदर्य से ओत-प्रोत है. ‘नेह की पाती’, ‘देव नहीं मैं’, ‘गौधुली बेला में’ जैसे हाइकु गीत रिश्तों के अनुबंधों को नया रंग देते नजर आते हैं. शशि जी का यह संग्रह तमाम विषयों को मानव मन के अंतस तक ले जाने में सक्षम है. सीमित शब्दों में भाव तथा बिम्बों को समाहित कर अपनी बात कह पाना निश्चित ही दुरूह कार्य है जिसे शशि जी ने बड़ी कुशलता से पूर्ण किया है. उनके हाइकू जहां अपनी बात सरलता से कह देते हैं, वहीं अर्थ घनत्व की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण हैं. शब्द रूपी फूलों की इस माला में पिरोए गए हर भाव से पाठक स्वयं को जुड़ा हुआ पाता है. यह विशेषता कवयित्री के काव्यगत कुशलता की परिचायक है.
144 पृष्ठों वाली, 200 रु. मूल्य की इस किताब का प्रकाशन लखनऊ के लोकोदय प्रकाशन ने किया है.

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Tuesday, December 3, 2019

"जोगिनी गंध" के हाइकु



अर्थ घनत्व की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं "जोगिनी गंध" के हाइकु 
- डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर'

वर्तमान युग परिवर्तन का युग है और परिवर्तन की यह प्रक्रिया जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में है। साहित्य भी इससे अछूता नहीं है। मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि बदलते परिवेश में मानव के पास समयाभाव हुआ है और यान्त्रिकता के बाहुपाश में समाये मनुष्य के पास अब इतनी फ़ुर्सत नहीं है कि वह साहित्य को अधिक समय दे सके। ऐसे में निश्चित रुप से साहित्यकारों को ही अधिक प्रयास करने होंगे। कम शब्दों में अधिक अभिव्यक्ति भरनी पड़ेगी। ऐसे में यह युग लघुकविता या सूक्ष्मकविता का अधिक है। सूक्ष्म कविताओं में हाइकु कविता का अपना विशिष्ट स्थान है। हाइकु 5/7/5 अक्षर-क्रम में एक त्रिपदीय छन्द है। यह छन्द मात्र सत्रह अक्षरों की सूक्ष्मता में विराट् को समाहित करने की अपार क्षमता रखता है। यह छन्द जापान से भारत आया और हिन्दी सहित अनेक भाषाओं ने इसके शिल्प को आत्मसात् कर लिया। वर्तमान में हिन्दी हाइकु के अनेक संकलन एवं संग्रह प्रकाशित हो रहे हैं। इन्हीं में से एक है- "जोगिनी गंध"। इस हाइकु-संग्रह की सर्जक हैं- चर्चित कवयित्री भारत की सौ अचीवर्स में से एक- शशि पुरवार।

विभिन्न विधाओं के माध्यम से लेखन में सक्रिय शशि पुरवार जी एक शानदार हाइकु कवयित्री हैं। कम शब्दों में बड़ी बात कह लेने का हुनर एक अच्छे हाइकु कवि की पहली विशेषता है। 5/7/5 अक्षर विन्यास के क्रम में कुल तीन पंक्तियों, यानी कि सत्रह अक्षर में सागर की गहराई माप लेने की क्षमता का कौशल हाइकु की अपनी विशिष्टता है। जापान से आयातित यह छन्द अब हिन्दी का दुलारा छन्द बन गया है। प्रकृति तक सीमित हाइकु को हिन्दी ने जीवन के प्रत्येक रंग से भर दिया है।

जोगिनी गंध के माध्यम से हाइकु कवयित्री शशि पुरवार जी ने हिन्दी हाइकु साहित्य के विस्तार में अपना योगदान भी सुनिश्चित किया है। आपके हाइकु जहाँ अपनी बात बहुत सरलता से कह देते हैं, वहीं अर्थ घनत्व की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण हैं। विभिन्न विषयों के अन्तर्गत पाँच भागों में विभक्त और लगभग पाँच सौ हाइकुओं से सुसज्जित यह हाइकु-संग्रह स्वयं में विशिष्ट है। 

देखें उनके कुछ हाइकु-
* छूटे संवाद/दीवारों पे लटके/वाद-विवाद। 
* धूप सुहानी/दबे पाँव लिखती/छन्द रूमानी।
* प्रीत पुरानी/सूखे गुलाब बाँचे/प्रेम कहानी।
* जोगिनी गंध/फूलों की घाटी में/शोध प्रबन्ध।
* रीता ये मन/ कोख का सूनापन/अतृप्त आत्मा।

प्रेम के बिना संसार गतिहीन है। प्रेम की अनुभूति शाश्वत है। प्रेम की सम्पदा अपार है। कवयित्री ने हाइकु के माध्यम से प्रेम के शाश्वत स्वरूप को रूमानी शैली में अभिव्यक्त किया है-
* नेह के गीत/आँखों की चौपाल में/मुस्काती प्रीत।
* प्रेम अगन/रेत-सी प्यास लिये/मन-आँगन।
* आँखों में देखा/छलकता पैमाना/सुखसागर।

मन की थाह पाना सम्भव नहीं है। मन पर शशि जी का यह हाइकु विशेष लगा-
* अनुगमन/कसैला हुआ मन/आत्मचिन्तन। 

इसी आत्मचिन्तन से पीड़ा की छाया में स्मृतियाँ कोलाहल करती हैं-
* दर्द की नदी/लिख रही कहानी/ये नयी सदी।

हाइकु का मुख्य विषय प्रकृति-चित्रण है। प्रत्येक मनुष्य प्रकृति से प्रेम करता है और जब वह प्रकृति के अनुपम सानिध्य में रहता है तो वह एक नयी ऊर्जा से भर जाता है। यह प्रकृति की निश्छलता और अपनापन ही है। प्रकृति का अंश मनुष्य अपनी प्रत्येक आवश्यकता के लिए प्रकृति पर निर्भर है। ऐसे में शशि पुरवार जी ने पुस्तक का एक भाग प्रकृति को ही समर्पित किया है, जहाँ पर कई अच्छे हाइकु पढ़ने को मिलते हैं-
* हिम-से जमे/हृदय के जज़्बात/किससे कहूँ।
* मन प्रांगण/यादों की चिनगारी/महकी चंपा 
* सघन वन/व्योम तले अँधेरा/क्षीण किरण 
* झरते पत्ते/बेजान होता तन/ठूँठ-सा वन।
* कम्पित धरा/विषैली पॉलिथीन/मानवी भूल।

हिन्दी हाइकु के वर्तमान स्वरूप के अन्तर्गत पुरवार जी ने जीवन का हर रंग भरने का सफल प्रयास किया है। यह प्रयास हाइकु के स्वरूप को स्पष्ट करता है। इस सन्दर्भ में कुछ और हाइकु-
* सूखे हैं पत्ते/बदला हुआ वक़्त/पड़ाव-अन्त।
* नहीं है भीड़/चहकती बगिया/महका नीड़।
* दिया औ' बाती/अटूट है बन्धन/तम का साथी
* कलम रचे/संवेदना के अंग/जल तरंग।
* अधूरापन/ज्ञान के खिले फूल/खिला पलाश।

जोगिनी गंध के अन्तर्गत जापानी काव्य विधा के दो और मोती ताँका (5/7/5/7/7) और सेदोका (5/7/7/5/7/7) भी संग्रह में सम्मिलित किये गये हैं। पुस्तक में चालीस ताँका और बीस सेदोका सम्मिलित हैं। जोगिनी गंध से यह ताँका देखें-
"चंचल हवा/मदमाती-सी फिरे/सुन री सखी!/महका है बसंत/पिय का आगमन!" इसी क्रम में यह सेदोका भी उल्लेखनीय है- "मेरा ही अंश/मुझसे ही कहता/मैं हूँ तेरी छाया/जीवन भर/मैं तो प्रीत निभाऊँ/क्षणभंगुर माया।"

'जोगिनी गंध' कवयित्री शशि पुरवार जी का हिन्दी हाइकु-साहित्य को समृद्ध करने का सत्संकल्प है। वे आगे भी अपनी सर्जना से हिन्दी हाइकु को अभिनव आयाम एवं विस्तार देती रहेंगी, मुझे पूर्ण विश्वास है। अनन्त शुभकामनाएँ!
___________________________________
कृति- जोगिनी गंध
(हाइकु संग्रह)
हाइकुकार- शशि पुरवार
ISBN: 978-93-88839-30-3
पृष्ठ-144
मूल्य- ₹ 200
प्रकाशक- लोकोदय प्रकाशन, लखनऊ 
___________________________________

सम्पर्क: डॉ. शैलेष गुप्त 'वीर', 24/18, राधा नगर, फतेहपुर (उ.प्र.)- 212601
मो.- 9839942005
**********

Thursday, November 28, 2019

गाअो खुशहाली का गाना




चला बटोही कौन दिशा में
पथ है यह अनजाना
जीवन है दो दिन का मेला
कुछ खोना कुछ पाना

तारीखों पर लिखा गया है
कर्मों का सब लेखा
पैरों के छालों को रिसते
कब किसने देखा

भूल भुलैया की नगरी में
डूब गया मस्ताना
जीवन है दो दिन का मेला
कुछ खोना कुछ पाना

मृगतृष्णा के गहरे बादल
हर पथ पर छितराए
संयम का पानी ही मन की
रीती प्यास बुझाए

प्रतिबंधो के तट पर गाअो
खुशहाली का गाना
जीवन है दो दिन का मेला
कुछ खोना कुछ पाना

सपनों का विस्तार हुआ, तब
बाँधो मन में आशा
पतझर का मौसम भी लिखता
किरणों की परिभाषा

भाव उंमगों के सागर में
गोते खूब लगाना
जीवन है दो दिन का मेला
कुछ खोना कुछ पाना


शशि पुरवार 

Thursday, November 14, 2019

नज्म के बहाने

१ नज्म के बहाने

याद की सिमटी हुई यह गठरियाँ
खोल कर हम दिवाने हो गए
रूह भटकी कफ़िलों में इस तरह
नज्म गाने के बहाने हो गए।

बंद पलकों में छुपाया अश्क को
सुर्ख अधरों पर थिरकती चांदनी
प्रीत ने भीगी दुशाला ओढ़कर
फिर जलाई बंद हिय में अल गनी

इश्क के ठहरे उजाले पाश में
धार से झंकृत तराने हो गए
रूह भटकी कफ़िलों में इस तरह
नज्म गाने के बहाने हो गए।


गंध साँसों में महकती रात दिन
विगत में डूबा हुआ है मन मही
जुगनुओं सी टिमटिमाती रात में
लिख रहा मन बात दिल की अनकही

गीत गा दिल ने पुकारा आज फिर
जिंदगी के दिन सुहाने हो गए
रूह भटकी कफ़िलों में इस तरह
नज्म गाने के बहाने हो गए।

भाव कण लिपटे नशीली रात में
मौन मुखरित हो गई संवेदना
इत्र छिड़का आज सूखे फूल पर
फिर गुलाबों सी दहकती व्यंजना

डायरी के शब्द महके इस कदर
सोम रस सब मय पुराने हो गए
रूह भटकी कफ़िलों में इस तरह
नज्म गाने के बहाने हो गए।

याद की सिमटी हुई यह गठरियाँ
खोल कर हम दिवाने हो गए। ..!
--


शशि पुरवार 


Tuesday, November 12, 2019

जोगनी गंध - संवेदनाओं की अनुभूति - पुस्तक समीक्षा

😊😊
जोगनी गंध पर दूसरी समीक्षा आ धरणीधर मणि त्रिपाठी जी ने  की है ,आपका हृदय से धन्यवाद ,आपके स्नेह से अभिभूत हूँ
🙏🙏😊
समीक्षा
----------
("जोगनी गंध")
अभिव्यक्ति के प्रशस्त धरातल पर खडा़ विवेकशील व्यक्ति मानवीय सराकारों, संवेदनाओं एवं अनुभूतियों को जब अपने विशिष्ट अंदाज़ में कलमबद्ध करता है तो प्रस्तुति का एक आलीशान महल सा खडा़ प्रतीत होता है जिसके स्तम्भ, गलियारे, बुर्ज़, दीवारें एवं दालान अपनी-अपनी पहचान और महत्व रेखांकित करते प्रतीत होते हैं। साहित्य जगत में अपनी विशिष्ट स्थान बनाने वाली प्रसिद्ध कवयित्री आदरणीया शशि पुरवार का हाइकु संग्रह "जोगनी गंध"इसका एक उदाहरण है।जो कि न केवल सारगर्भित संदेश अपितु प्रेरणा का संवाहक भी बना प्रतीत होता है।


काँच से छंद
पत्थरों पर मिलते
बिसरे बंद
कितनी गूढ बात कह डाली है मानवीय रिश्ते पर खूबसूरत बिम्बों के द्वारा बेबाक रंग उकेर कर रख दिया है शशि जी ने.


संग्रह के प्रत्येक गुम्फित हाइकु रचना पुष्प विद्या वैषि्ध्य के मनोगाही 5-7-5 पंक्तियों में रची बसी सुगंध से वातावरण को सुवासित प्रबल आकर्षण संजोए हुए है।मानव जीवन प्रकृति पर ही आधारित है संग्रह में प्रकृति का जाज्वल्य रक्तिम रंग बिखरे पडे़ हैं।


अभिव्यक्ति का लक्ष्य जब व्यक्ति के अंतस में जन्म लेता है तो उसके पीछे एक गन्तव्य निहित होता है एक भाव एक उत्कृष्टता निहित होती है, शशि जी के संग्रह में ये बातें स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है।यही भाव जब पाठक और श्रोतागण तक पहुँचते हैं तो वे अपने आपको एक-एक पंक्ति के साथ बँधा हुआ पाते हैं।इन हाइकु को देखें:-


सूखे हैं फूल
किताबों में मिलती
प्रेम की धूल
खा़मोश साथ
अवनि अंबर का
प्रेम मिलन
क्षितिज को किस तरह परिभाषित कर दिया कल्पनाशीलता और बिम्ब के द्वारा।


जोगनी बंध
फूलों की घाटी में
शोध प्रबंध


आज सामाजिक ढाँचा इस क़दर बिखरा हुआ है कि अपनों के लिए भी समय नहीं सब व्यर्थ की भागदौड़, उत्कट मीमांसा, लोभ, स्वार्थ के वशीभूत मानव दिनभर प्रयासरत रहता है और क्रमश: जब अपने नीड में वापस आता है तो नितांत नीरवता का सामना करता है, प्रस्तुत हाइकु देखें:-


एकाकीपन
धुँआ धुँआ जलता
दीवानापन


शशि जी का यह संग्रह तमाम विषयों को छूता हुआ पाठक को वाह कर देने पर विवश कर देता है।अल्प शब्दों में काव्य रचना और उसमें भाव बिम्ब डाल पाना निश्चित रूप से दुरूह कार्य है, परंतु आप पूरी पुस्तक पढने के बाद पाएंगे वे इस प्रयास में पूर्णरूपेण सफल हुई हैं।यह पुस्तक न सिर्फ़ हाइकु के विज्ञ लोगों को पसंद आएगी अपितु नवांकुर कवियों को हाइकु सीखने में भी सहायक होगी।आदरणीया शशि जी के लिए मेरी तरफ़ से पुस्तक की अपार सफलता के लिए अनंत शुभकामनाएं ।


धरणीधर मणि त्रिपाठी
कवि, एवं भू पू सैन्याधिकारी

Saturday, September 14, 2019

बंसी जैसा गान



1
हिंदी भाषा ने रचा, बंसी जैसा गान 
सरल सुगम भव आरती, जीवन का वरदान 
जीवन का वरदान,   गूँजता मन, चौबारा 
शब्द शब्द धनवान, छंद की बहती धारा 
अनुपम यह सौगात, सजी माथे पर बिंदी 
तजो विदेशी पाल, बसी प्राणों में हिंदी 
 2 

भारत की  धड़कन यही, वीणा की झंकार 
सुरसंगम हिंदी चली, भवसागर के पार 
भवसागर के पार, हृदय मोहित कर दीना 
भावों का संसार,  इसी ने समृद्ध कीना 
अक्षर अक्षर गान, सजा हिंदी से मधुवन 
भाषा करती राज, यही भारत की धड़कन 
शशि पुरवार 

Friday, August 16, 2019

और एक अरण्यकाल



-- मुहावरों का मुक्तांगन एक अरण्य काल
(एक अध्ययन)


मुहावरे और नवगीत का उदगम स्थल  एक ही है - वह है जन चेतना।  नवगीत में जनचेतना का जो पैनापन है उसे मुहावरों के द्वारा ही सघनता से व्यक्त किया जा सकता है।
आदरणीय निर्मल शुक्ल जी का संग्रह एक और अरण्य काल, लगभग सभी गीतों में, मुहावरों के सटीक प्रयोग के लिये आकर्षित करता है। ये मुहावरे उनके गीतों के साथ जुड़कर गीत के कथ्य को विलक्षण अर्थ प्रदान करते हैं। संग्रह के कुछ मुहावरे पूर्व प्रचलित हैं- जैसे कान पकना,  हाथ पाँव फूलना और गले तक  पानी पहुँचना आदि,  और कुछ उनके द्वारा स्वंयं भी रचे गए हैं जैसे - लपटों में सनी बुझी,  स्वरों के नक्कारे भरना आदि।
संग्रह के पहले अनुभाग प्रथा के अंतर्गत बाँह रखकर कान पर सोया शहर  सामाजिक विसंगतियों, संवादहीनता, निष्क्रियता, संवेदनहीनता और पारंपरिक बंधनों पर करारा प्रहार है.  परंपराओं के नाम पर एक ही ढर्रे पर चल रही जिंदगी की जटिलता को व्यक्त करता हुआ यह गीत शोषित वर्ग की व्यथाओं को व्यक्त करता है। व्यथाएँ भी इतनी कि जिनका लेखा जोखा  करते उँगलियाँ घिस जाती हैं.  संघर्ष करते करते कमर टूट कर दोहरी हो जाती है, सारी उम्मीदें टूट जाती हैं और बदलाव की कोई सूरत नजर नहीं आती।
इस गीत में ऊँगलियाँ घिसना, हाथ पाँव फूलना, कान पर हाथ रखकर सोना, कमर का टूटना और कमर का दोहरा हो जाना इन पाँच मुहावरों का प्रयोग कथ्य को सघनते से संप्रेषित करने में सफल रहा है।
परंपरा के नाम पर पुरानी प्रथाओं को ढोते रहने का दर्द उँगलियाँ घिसने जैसे मुहावरे में बड़ी ही कुशलता से किया है -
सिलसिले स्वीकार अस्वीकार के गिनते हुए ही
उँगलियाँ घिसती रही हैं उम्र भर
इतना हुआ बस
बदलाव की कोई सूरत नजर न आने पर उम्मीद के हाथ पाँव फूलना निराशा और थकान की पराकाष्ठा को व्यक्त करता है। इसी प्रकार प्रगति और विकास के किसी भी विचार को न सुनने और न गुनने वाले शहर को बाँह रखकर कान पर सोया शहर कहना बहुत ही कुशल प्रयोग है।
कुछ थोड़े से लोग जो लोग समाज में सुधार और उसके विकास के लिये विशेष रूप से काम करते हैं समाज द्वारा उनकी उपेक्षा और अवमानना के कारण विकास और सुधार दिखाई नहीं देता। दिखाई देती है तो केवल उनकी थकान - कुछ पंक्तियाँ देखें-
उद्धरण हैं आज भी जो रंग की संयोजना के
टूटकर दोहरा गई उनकी कमर
इतना हुआ बस
प्रथा खंड का ही अन्य गीत हैं आंधियाँ आने को हैं- में काठ होते स्वर और ढोल ताशे बजना मुहावरों का प्रयोग है। आज लोकतान्त्रिक व्यवस्था में संघर्ष की खुरदुरी जमीं पर झूझते हुए निम्न वर्ग की आवाज कहीं दब सी जाती है.  कागजी कार्यवाही, चर्चा, मंत्रणा औपचारिक वार्ता के साथ संपन्न हो जाती है. पन्नो में दबी हुई आवाज व आक्रोश की आँधी को कब तक रोका जा सकता हैं. प्रतिरोध की बानगी को यहाँ मुहावरे बेहद खूबसूरती से बयां कर रहे है. यथास्थिति से जूझते हुए मन के सहने की पराकाष्ठा जब समाप्त होने लगती है, तब स्वरों में जड़ता का संकेत प्रतिरोध का ताना बाना पहनने लगता है.  और  तूफ़ान के  आने से पूर्व, तूफ़ान का संकेत मिलने लगता है. इतने व्यापक मनोभावों को मुहावरों की सहायता से दो पंक्तियों में कह दिया गया है
" काठ होते स्वर"  अचानक
खीजकर कुछ बड़बड़ाये
आँधियाँ आने को हैं.
सुनो पत्ते खड़खड़ाए
आँधियाँ आने को हैं

इसी खंड के तीसरे गीत तलुवो के घाव में हमारा परिचय फिर कुछ मुहावरों से होता है जैसे – कंधे पर अलसाना, पंजों का अनमना स्वभाव कसना, तलवे घिसना ये मुहावरे  संघर्षशील व्यक्ति के संवेदनशील मन की मार्मिक व्यथा को तो व्यक्त करते हैं -
कुछ पंक्तियाँ देखें-
शाम हुई दिन भर की धूप झड़ी कोट से
तकदीरें महँगी हैं जेब भरे नोट से
घिसे हुए तलवों से दिखते हैं घाव

इसी कड़ी  में अगला गीत है गर्म हवा का दंगल। इस छोटे से गीत में हमें कुछ और सटीक मुहावरे मिलते हैं। सन्नाटे से पटना, बंदर-बाँट करना और थाल बजाना ये मुहावरे न केवल कथ्य को प्रभावशाली बनाते हैं बल्कि, हमारे सांस्कृतिक रीति रिवाजों की भी झलते देते हैं

बौनों की हिकमत तो देखो चूम रहे मेघों के गाल
कागज की शहतीरें थामे बजा रहे सबके सब थाल

अगले गीत ''ऋतुओं के तार'' में रेत होना, ऋतुओं के तार उतरना, चिकनी चुपड़ी बातें करना आदि मुहावरों का सटीक प्रयोग हुआ है।
सुर्ख हो गई धवल चाँदनी लेकिन चीख पुकार नहीं है
.....
स्थिति अब इन चिकनी चुपड़ी बातों को तैयार नहीं है

मेंहदी कब परवान चढ़ेगी शीर्षक अगले गीत में परवान चढ़ना और दम भरना मुहावरों का रोचक प्रयोग है।

अन्नपूर्णा की किरपा  नामक अगले गीत के मुहावरे राह निहारना, बातों बात, ताड़ होना, हाथ पीले होना और तीत होना गीत के कथ्य को विशेष रूप से संप्रेषित करते हैं. अभिशप्त और अभावग्रस्त जीवन की त्रासदी को उजागर करते हुए इस नवगीत में  किस्मत की मार झेल रहे लोगों के कुछ अनछुए पहलुओं को वाणी मिली है.  ऐसे पहलू जहाँ केवल दो जून भोजन की ही आस रहते है और जहाँ हर पल  भय से भरा हुआ रहता है
कुछ पंक्तियाँ देखें-
बचपन छूटा ताड़ हो गई नन्हकी बातों बात
रही सही जीने की इच्छा ले गए पीले हाथ
बोल बतकही दाना पानी सारा तीत हुआ
अगले गीत  बहुत साक्षर हुई हवाएँ मे रचनाकार कहता है- शिक्षित होना विकास के लिये आवश्यक है, किन्तु साक्षरता के साथ दिखावे और कुटिलता का भी विकास होता है जिसे हम चुपचाप देखते हैं लेकिन कुछ कर नहीं सकते। इन्हीं भावनाओं को व्यक्त करते हुए किस्से हीर फ़क़ीर के , शतरंगी चालें, मुँह माँगा दाम गढ़ना आदि मुहावरे, बदलते समय की विभिन्न स्थियों को व्यक्त करने में सफल रहे हैं।  इसी प्रकार एक अन्य गीत है -  बड़ा गर्म बाजार में साँसों का बचाखुछा होना, औने पौने दाम, साँठ-गाँठ करना, का पकना, जबान का खाली जाना और फटी आँखों से देखना आदि मुहावरों के द्वारा बरगद के रूप में पुरानी पीढ़ी की आशा निराशा और अकेलेपन को सहज और स्वाभाविक रूप से चित्रित किया गया है।
खट खट सुनते सुनते “पक गए दरवाजों के कान”
आहट सगुनाहट सब कोरी /खाली गयी जबान
रही ताकती दालानों को / “आँखें फटी फटी” .  
लकड़ी वाला घोड़ा शीर्षक से अगले नवगीत में गिनी चुनी साँसें, ऊँचे मुँह बातें बचकानी और गले तक पानी पहुँचना मुहावरे मिलते कथ्य को सम्प्रेषणीय बनाने में सहायक होते हैं।
ऊँचे मुँह बातें बचकानी , गले गले तक पहुँचा पानी,  इतनी एक कहानी
.गले गले तक पहुँचा पानी इतनी एक कहानी
अगले तीन गीतों धड़ से चिपके पाँव, हर तरफ शीशे चढ़े हैं तथा तलुवों में अटकी जमीन में कंधे पर सलीब रखना, परछाईं द्वारा लीना जाना, धड़ से पाँव चिपकना, सिर विहीन होना इसके बाद वाले गीत हर तरफ शीशे चढ़े हैं में आँख में नमी होना, रक्त भीगे मुखौटे, तलुवों में जमीन अटकना आदि अनेक प्रचलित एवं नवीन मुहावरों का रोचक प्रयोग मिलता है।
  अगले अनुभाग कथा के सात गीतों में पहले अनुभाग प्रथा की अपेक्षा मुहावरों की सघनता कुछ कम है। रेत से जलसन्धि नमक गीत में फेरा पड़ना / दृष्टि न टिकना / क्षितिज के पार और डूबना उतराना द्वारा यह कहने की सफल चेष्टा हुई है कि संघर्ष की खुरदुरी जमीन पर चाहे आँखे कितनी भी थकी हो किन्तु  कल्पना, अभिलाषाओं का आकाश बहुत बड़ा है, सपने आँखों में फिर भी पलते हैं. लहरों का नाद चाहे जितना बड़ा हो किन्तु मन की कोमल आशा छुपती नहीं है. कहकहों के बीच शीर्षक से एक अन्य गीत में मन साथ रखना, रात भरना आदि मुहावरों का प्रयोग मिलता है।
दर्द दे जाता किसी का /अनमने मन साथ रखना
 अब नहीं भाता सुलगते /दिन निकलना, रात भरना।
यह समय की विडम्वना है कि दर्द सहने कि शक्ति एक समय के बाद क्षीण हो जाती है. मासूमियत जब जब चोट खा जाती है तब मनुष्य उस बोझिल त्रासदी के बाद सुख- सुकून की कामना करता है,  जब कि आधुनिक जीवन में चैन और सुकून के पल कहीं ओझल हो गए हैं। इन्हीं भावों को मुहावरों के माध्यम से गीत में सुंदर अभिव्यक्ति मिली है।
 संग्रह के तीसरे और अंतिम खंड के तीन गीतों में से पहले और अंतिम गीत में मुहावरों का भरपूर प्रयोग है। पहले गीत दूषित हुआ विधान में आग पीकर धुआँ उगलना, उड़ान थकना, हाथ खींचना, पाँव पड़ना, हल्कान होना आदि मुहावरों का प्रयोग मिलता है।
पर्यावरण के प्रति सचेत करते हुए दूषित हुआ विधान शीर्षक गीत में ये पंक्तियाँ देखें-
धुआँ मंत्र सा उगल रही है चिमनी पीकर आग
भटक गया है चौराहे पर प्राणवायु का राग
रहे खाँसते ऋतुएँ मौसम दमा करे हलकान
इस खंड और संग्रह के अंतिम गीत गणित नहीं सुधरी में धूल फाँकना, गाज गिरना, ताल ठोंकना, धरी रह जाना, दाँव गढ़ना, कंकरीट होना, हरा भरा होना, खरी खरी सुनना, भेंट चढ़ जाना आदि अनेक मुहावरों का सफल प्रयोग हुआ है।
घर आँगन माफिया हवाएँ गहरे दाँव गढ़ें
माटी के छरहरे बदन पर कोड़े बहुत पड़े
कंकरीट हो गई व्यवस्था पल में हरी भरी
एक अन्य पंक्ति में पंचतत्व में ढला मसीहा सुनता खरी खरी कहर कर वे सामाजिक विसंगतियों पर करारा प्रहार करते हुए कहते हैं कि आज जैसे ईश्वकर भी निर्विकार हो गए हैं.   वे भी पंचतत्व में ढल चुके है।
संग्रह में सबसे अधिक मुहावरों का प्रयोग पहले खंड प्रथा में किया गया है। केवल दो एक गीत ही ऐसे हैं जिनमें मुहावरों का प्रयोग नहीं हुआ है। केवल दो तीन स्थानों पर ही मुहावरों को दोहराया गया है। कुछ प्रचलित मुहावरों को ज्यों का त्यों अपनाया गया है तो कुछ में नया पन लाने की कोशिश भी दिखाई देती है- उदाहरण के लिये छोटा मुँह बड़ी बात के स्थान पर ऊँचा मुँह बचकानी बात। अनेक नये मुहावरों का प्रयोग भी किया गया है जिनमें से कुछ का प्रयोग आगे चलकर प्रचलित हो सकता है।

कुल मिलाकर मुहावरे इस संग्रह की जान हैं और एक अरण्यकाल मुहावरों का ऐसा मुक्तांगन है जिसमें अनेक अर्थ, भावना, कथ्य और संवेदना के पंछी दाना चुग रहे हैं और स्वयं को समृद्ध कर रहे हैं।



शशि पुरवार



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