जीवन के रुपहले पर्दे से
बिखरते रिश्ते ...!
पतला होता खून
बढती धन की भूख
अपने होते है पराये
सुकून भी न घर में आए
भाई को भाई न भाए
सिमटते रिश्ते
क्या ननद क्या भौजाई
प्यारी लागे सिर्फ कमाई
सैयां मन को भावे
सैयां मन को भावे
कांच से नाजुक धागे
बूढ़े माँ - बाप भी बोझ लागे
खोखले होते रिश्ते
अब कहाँ वो आंगन
जहाँ खड़कते चार बर्तन
गूंजे अब न किलकारी
सिर्फ बंटवारे की चिंगारी
स्वार्थी होता खून
टूटते बिखरते रिश्ते .
नादाँ ये न जाने
कैसे बीज है बोये
माँ के कलेजे के टुकड़े कर
कैसे चैन से सोये
आने वाला कल
खुद को दोहराता है
वक्त तब निकल जाता है
प्राणी तू अब क्यो रोये
पीछे छुटते रिश्ते .
बिखरते रिश्ते ...!
:------शशि पुरवार