shashi purwar writer

Thursday, May 30, 2019

गीत के वटवृक्ष









२४ मार्च २०१९ को आदरणीय मधुकर गौड़ जी के निधन की खबर ने स्तब्ध कर दिया। इस वर्ष साहित्य जगत के कई मजबूत स्तंभ व सितारे विलीन हो गए। मधुकर गौड़ जी गीत को समपर्पित ऐसा व्यक्तित्व, जिनका नाम स्वर्णिम अक्षरों में अंकित हुआ है, व जिनका साहित्यिक योगदान युगों युगों तक याद रखा जायेगा, अपनी अंतिम साँस तक निर्विकार भाव से वे साहित्य की सेवा करते रहे।

जब भी गीत की बात होगी तो मधुकर गौड़ का नाम लेना अनिवार्य होगा। मधुकर गौड़ जी साहित्य जगत के ऐसे स्तम्भ थे जिन्होंने विषम परिस्थितियों में भी गीत की मशाल को अकेले अपने दृढ़ संकल्प द्वारा जलाये रखा। अपनी साँस के अंतिम समय तक वे गीत के लिये ही जिये और मजबूती से अपनी मशाल को थामे रहे। उनका व्यक्तित्व व कृतित्व इतना विशाल था कि उनके बारे में लिखना सूरज को दिया दिखाने जैसा है। मेरा संपर्क उनके गत १०-११ वर्ष पहले हुआ था जब उन्होंने गीत पढ़कर खूब लिखने हेतु प्रेरित किया था। उनके द्वारा सम्पादित गीत संकलन ऐसा अप्रतिम सागर था जिसमें अनगिन मोती जड़े थे। जिन्हे पढ़कर मेरी जिज्ञासु सुधा शांत होती रही। जितना उन्हें जाना उतना नतमस्तक हुई।

आदरणीय मधुकर गौड़ ने गत पाँच दशकों से अंतिम साँस तक पूर्ण निष्ठा, निस्वार्थ भाव से स्वयं को साहित्य के लिये समर्पित कर दिया था। गीत विरोधी समय में भी वे बेख़ौफ़ अडिग खड़े थे। एक ऐसा सिपाही जो सिर्फ गीत नहीं अपितु सम्पूर्ण कविता व साहित्य के लिये अकेले अपने दृढ़ संकल्प द्वारा अडिग खड़ा था। गीत उनकी साँस में बसता था। देश भर के गीतकारों को उन्होंने एक मंच पर लाकर खड़ा कर दिया था। सफल संपादक, समीक्षक, सफल गीतकार के साथ वे बेहतरीन सकारात्मक व्यक्तित्व के स्वामी भी थे।

उनके गद्य, सृजन, संवादों व दैनिक कार्यों में भी गीत की करतल धारा बहती थी। जब वे बोलना शुरू करते थे तो जैसे सरस्वती उनकी वाणी से बोलती थी। गीत के प्रति अगाढ़ निष्ठा, प्रेम, समर्पण ही विषम पलों में उनके जीवन का आधार था। गत पाँच दशकों से उन्होंने निरंतर लेखन, संपादन, समीक्षक और संयोजन द्वारा साहित्य की सेवा की है। उन्होंने गीत, गजल, दोहे, मुक्तक सभी विधा में लेखन किया। राजस्थानी भाषा में भी उन्होंने साहित्य सृजन किया। अनगिनत साहित्यिक कृतियाँ, संग्रहों का सृजन व संपादन किया।

वे एक व्यक्ति नहीं अपितु पूर्ण संस्था थे। गीत का ऐसा सिपाही जिसने हारना सीखा ही नहीं था। अदम्य साहस, अकम्पित आस्था, सकारात्मक ऊर्जा से लबरेज गौड़ जी ने राजिस्थान की माटी से बम्बई तक रचना संसार का स्वर्णिम युग तैयार किया। अहिन्दी भाषी प्रदेश में रहकर उन्होंने नव आयाम स्थापित किये। यह सफर स्वर्णिम अक्षरों में अंकित हो गया। गौड़ जी ने मुंबई में "नगर ज्योति" की स्थापना करके साहित्य का संस्कार शील, सुदृढ़ मंच तैयार किया था। इसके अतिरिक्त उन्होंने "साहित्य भारती", "राजस्थानी पत्रकार लेखक संघ" की भी स्थापना की और सतत ३० वर्षों से छंदसिक रचनाओं व गद्य समवेत पत्रिका " सार्थक "का सफल संपादन व प्रकाशन किया। सार्थक के माध्यम से उन्होंने गीत की अलख को जगाये रखा। बिना किसी सहयोग के वे निरंतर सार्थक का सृजन करते रहे।

सार्थक के माध्यम से उन्होंने गीत को प्रोत्साहित किया। समय के श्रेष्ठ गीतकारों के साथ नव गीतकारों व रचनाकारों को भी उन्होंने आत्मिक स्नेह द्वारा अपने साथ जोड़ा। वे सफल व उम्दा साहित्यकार थे वहीँ उनके संपादन की कसौटी की धार भी उतनी ही तेज थी। देश भर के अनगिनत साहित्यकारों के श्रेष्ठ गीत का काव्य संग्रह करके ऐसा गुलदस्ता तैयार किया तो समय के साथ महकता रहेगा।

उन्होंने अगिनत अनुपम, अमिट, अप्रतिम संकलन सम्पादित व प्रकाशित किये। ६ गीत नवांतर, १० गजल नवांतर, बीसवीं सदी के श्रेष्ठ गीत, १९६२ में इक्कीस हस्ताक्षर समेत अनगिनत रजिस्थानी छंद संग्रह व गीत नवांतर, गजल नवांतर व व्यंग्य नवांतर इत्यादि का संपादन व प्रकाशन किया। उनका सृजन संसार इतना वृहद है कि कुछ पंक्ति में समेटना मुश्किल है। उन्होंने रचनाकार की उम्र नहीं उनके समसामयिक लेखन को महत्व दिया। उनके सम्पादित किये लगभग सभी संग्रह मेरे पास है। संग्रह में एक एक चुनिंदा मोती कहें या हीरा, स्वर्णिम अक्षरों में पन्नों में जड़ा हुआ अंकित है । संग्रह के गीत समय के साथ चलते हुए स्वर्णिम युग का आगाज कर रहें हैं। उनमे शामिल रचनाकार अपने गीतों के साथ अजेय हो गए। आदरणीय मधुकर गौड़ के शब्दों में -
मेरी रजा जनजीवन है, मेरा तीरथ हिंदुस्तान
मेरा प्यार सभी के हक में मेरा ईश्वर है

इंसान गौड़ जी केवल गीत ही नहीं अपितु सम्पूर्ण कविता की लड़ाई लड़ रहे थे। स्पष्टवादी, झुझारू ऊपर से कड़क व हृदय से उतने ही नरम व्यक्तिव के स्वामी थे। उनके ही शब्दों में -
श्रेष्ठ कविता की लड़ाई लड़ रहें है हम सभी
गीत के माथे नवांतर जड़ रहें है हम सभी।

उन्हें गीतों से बेहद प्रेम था या यह कहे कि गीत उनकी साँसों में बसता था। समय के साथ गीत पर अलग अलग स्वर उठे। जैसे जनगीत, प्रगीत, जनवादी गीत, अगीत, नवगीत आदि किन्तु वे गीत की मशाल थामे अनवरत चलते रहे। वे कहते थे - आज गीत को नए परिवर्तनों के समागम में भी नए नाम दिए जाने लगे हैं किन्तु गीत शाश्वत रूप आधार हो। गीतों में अन्तस् की जीवंतता रही है। अवरोध व अंतर्विरोध उनके दृढ़ संकल्प को डिगा नहीं सके। उनके ही शब्दों में -
साहस मुझको श्लोक लिखाते निष्ठा उनको याद दिलाती
संकल्पों की भरी सभा में गरिमा आकर राह दिखाती

उन्होंने अंतिम समय तक गीत को गीत ही माना। वे कहते थे कि- "गीत नवगीत क्या होता है। गीत ने नया चोला पहन लिया है। गीत समय के साथ नए परिवर्तन को अपने में समाहित करता आ रहा है। समय व परिवेश को गीत ने तीव्रता से ग्रहण किया है। गीत तो गीत है। सर्वार्थ पूर्ण और नित्य प्रति, समाज व राष्ट्र का निर्माण गीत है। गीत लय व छंद का महर्षि है।"

खेमेबाजी को उन्होंने उनके काम में अड़ंगा नहीं लगाने दिया। वे किसी विवादमें नहीं पड़े अपितु सरल हृदय से अपनी बात कही। ७० के बाद आये परिवर्तनों पर उन्होंने कहा कि "परिवेश के आधार पर नए अंतर ही हर विधा का नवांतर है।"

संघर्ष व स्वर्णिम अजेय कर्म का पथ आसान नहीं था। उनके भावों में संघर्ष की कहानी साफ़ झलकती है - उनके शब्दों में -
आंधी के तेवर देखें है तूफानों से टकराया हूँ
घनघोर बरसते पानी में, नौका लेकर आया हूँ।

गौड़ जी ने और सार्थक ने नि:स्वार्थ भाव के पक्ष में स्वंय को खड़ा किया था । उन्होंने कई आलेख भी लिखे। गीत के पक्ष में हमेशा अपना मोर्चा संभाले रखा। वे कहते थे कि धरती कर कण कण में गीत बसा है। छंद में रचे-बसे गीत के हस्ताक्षर मधुकर गौड़ जी सदा गीत के लिये चिंतित रहे। वे कहते थे कि गीत सनातन है व सदैव गीत ही रहेगा। गीत ही सत्य है व सत्य ही गीत। गीत तो उनके कण कण में बसा था। इनके ही शब्दों में -
गाते गाते गीत मरूँ मैं, मरते मरते गाऊँ
तन को छोडू भले धरा पर, गीत साथ ले जाऊँ।

गीत के प्रति अगाध निष्ठा प्रेम, व समर्पण ने उन्हें विषम पलों में भी उनके जीवन का आधार दिया। अस्वस्था के बाबजूद उनके सृजन साहित्य की मशाल जलती रही। निधन के कुछ समय पहले तक वे कह रहे थे नवांतर ७ का प्रकाशन करना है जिसमें पुरानी पीढ़ी के साथ नव पीढ़ी के भी गीत शामिल हो। सार्थक का विशेष अंक का प्रकाशन करना है। मौत भी मुझे डरा नही सकती। उनका उत्साह ऊर्जा से लबरेज थे। उनकी जिवटता उनके शब्दों से झलकती थी कि -
मौत भले ही थक जाये पर जीवन का थकना मुश्किल है
साँसो के इस क्रम में जाने किस गलियारे मंजिल है

कुछ समय विषम परिस्थिति व बीमारी से झुझते हुये आक्सिजन मास्क हटाकर काम करने लगते थे। उन्हें मना किया तो कहने लगे - डाक्टर कहते है आराम करो, पर मै तो इसके बिना जी नही सकता। मुझे अभी बहुत कार्य करना है। अपने कष्ट की भनक भी उन्होनें किसी को लगने नही दी। जब भी वाणी के फूल झरे उर्जा से लबरेज थे। उनकी कृष होती काया में भी अपार शक्ति व साहस था। कहतें है कि निष्ठावान व्यक्ति टूट तो सकता है पर झुक नही सकता। वे समय के आगे भी नहीं झुके। उनका एक मुक्तक उनकी जुबानी -
एक आदत सी है मुझमें बांकपन की टूट जाता हूँ मगर झुकता नहीं हूँ
स्नेह वश आँकों अगर, बिन मोल ले लो किंतु सिक्कों के लिये बिकता नही हूँ

उनके समकालीन गीतकारों ने उन्हें अनगिन नामों से नवाजा था- जैसे गीत गंगा का नया भगीरथ, गीत के विजय रथ के अप्रतिम सारथी, गीत के वटवृक्ष, गीत के पर्याय इत्यादि। सत्य भी है एक अजेय योद्धा जिसनें गीत के खातिर जीवन के मोह, सुख व वैभव को तवज्जो नही दी। उनके साहित्सतिक सफर में उनकी धर्मपत्नी व परिजनों के अमूल्य योगदान को सदै‌व नतमस्तक करते थे।
वे एक मशाल बनकर ही तो जलते रहे - उनके ही शब्दों में
जिंदगी का मोल देने के लिये बढता रहा हूँ
अौर लाने भोर जग में, रात बन ढलता रहा हूँ

मधुकर गौड़ के गीत, जीवन व साहित्य जगत में संवेदनाओं की अनुपम अभिव्यक्ति को महत्वपूर्ण बनाते है। समय के साथ चलते हुए गीत जीवट व जिजिषिवा के धनी, उदारता व नम्रता के आदर्श है।आदरणीय गौड़ जी से परिचय के दौरान जितना भी उन्हें जाना उतना ही नतमस्तक होती चली गयी। गीत विधा के प्रति अटूट लगाव के अतिरिक्त उनमें विशिष्ट गुण था। वे जो भी ठान लेते थे उसे विषम परिस्थिति में भी पूर्ण करते थे। गीताम्बरी का प्रकाशन भी उसी दौरान हुआ। कर्मठ दृढ़ निश्चयी व संकल्प वृती गौड़ जी का जन्म १० अक्टूबर १९४२ को रणबांकुरो की बलिदानी राजस्थानी मिट्टी चूरू अंचल में हुआ था। भावुक प्रेमिल हृदय जितना गीतों में बहता था उतने ही पाँव यथार्थ के कठोर धरातल पर रहकर सृजनशील रहे। उन्होंने जो भोगा, महसूसा उसे गीतों में वाणी दी। संपादन कार्य में व्यस्त रहते हुए स्वयं भी सृजनरत रहे।

१९७६ में छपे उनके प्रथम गीत संग्रह "समय धनुष" को नेशनल अकादमी मुंबई ने पुरस्कृत सर्वश्रेष्ठ संग्रह घोषित किया। १९९० में प्रकाशित उनका पाँचवा काव्य संकलन " अंतस की यादें " को महारष्ट्र राज्य साहित्य अकेदमी ने काव्य के सर्वोच्च पुरस्कार संत नामदेव देकर सम्मानित किया। गीत वंश उनका वृहद व बहुचर्चित गीत संग्रह है, उसे भी महाराष्ट्र अकादमी द्वारा सम्मानित किया गया। उन्हें अनगिनत सम्मानों से नवाजा गया जिसमे सर प्रतिभा सिंह पाटिल द्वारा श्रेष्ठ साहित्यकार सम्मान, श्रेष्ठ साहित्य सेवा सम्मान, मानद श्री की उपाधि, निराला सम्मान समेत अनगिनत दर्जनों सम्मान शामिल है।

उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं- मधुकर गौड़ का रचना संसार गीत और गीत-१ (१९६८), समय के धनुष (१९७६), गुलाब (मुक्तक व रुबाई - १९८६), अश्वों पर (बहु प्रशंसित गद्य कवितायेँ १९९०), अंधकार में प्रकाश (गद्य संकलन), अंतस की यादें (१९९० काव्य संकलन), पहरुए गीतों के (गीत संग्रह - १९९५), गीत वंश (गीत संग्रह १९९७), देश की पुकार (राष्ट्रिय गीत), साथ चलते हुए (गजल दोहे म मुक्तक २००१), बावरी (आत्मिक प्रेम कथा दोहे रुबाई २००२), श्रीरामरस (दोहा संकलन २००५), साँस साँस में गीत (गीत संग्रह२००७), गीत गंगा का नया भगीरथ, चुप न रहो (गीत संग्रह २०१५), गीताम्बरी (२०१६) समेत कई राजस्थानी संग्रह भी शामिल है।

दर्जनों सम्पादित गीत गजल संग्रह व नवांतर उनके रचना संसार को समेटना जैसे सागर को गागर में भरना है। उनके गीतों में जिंदगी के अनेक बिम्ब व स्वर समाहित है। उनकी रचनाएँ जीवन के विविध रंगो को समेटे हुए इंद्रधनुषी आकाश बनाती है। कर्मठता उनमे रंग भरती है। सतत बहते जाना और इतिहास बनाना उनकी जीवटता की पहचान थी। उनके शब्दों में -
आदमी ही जब लहु के साथ चलता है
दोस्त मेरे तब नया इतिहास बनता है

उनकी बहु चर्चित कृति बावरी का उल्लेख भी आवश्यक है। मधुकर गौड़ जी की कृति बावरी जो आत्मिक प्रेम काव्य की अभिव्यक्ति है जिसमे १५२ द्वोपदियों में प्रेम की पीर व अंतस की गहराई से निःसृत प्रेम - दीवानी मीरा की अनुभूति की गूंज है। कवि के शब्दों में यह प्रेम के श्लोक है, जिसने साँस साँस में उसे जिया है। प्रेम की सनातन अभिव्यक्ति है। एक बानगी देखें -
मै माटी की पूतली, तू धड़कन तू जान
मै पूजा तू मूर्ति, मै काया तू प्राण
झर झर आँसूं की झड़ी, मै भीगी दिन रात
ऐसी भीगी मेह में, हो गयी खुद बरसात।

बहुत कम लोग होते हैं जो अपने मूल्यों, आदर्शों के साथ अवांछित अवरोधों को चुनौती देते हुए निरंतर आगे बढ़ते रहते हैं। कुछ लोग ऐसे होते हैं जिनका व्यक्तित्व वंदनीय व अनुकरणीय होता है। साधन, सुविधा और सहयोग के अभाव में भी उन्होंने अविचल अविरल बहते हुए अपने धेय्य को पूर्ण किया। उनका व्यक्तित्व व कृतित्व हमेशा नव रचनाकारों व गीतकारों को प्रेरणा, दृढ़संकल्प व ऊर्जा की संजीवनी प्रदान करता रहेगा।

एक गुरु, पिता, मित्र बनकर उनका स्नेह आशीष मुझे भी प्राप्त हुआ। उनके सृजन साहित्य के सागर में समाहित रचनाओं के अनमोल मोती हमें सदैव मार्गदर्शन प्रदान करते रहेंगे। उनके गीत, गजल, दोहे व उनके शब्द हमें सदैव सुवासित करते रहेंगे। वे अपने वृहद साहित्य व शब्दों से माध्यम से सदैव हमारे बीच सुवासित रहेंगे। उनका ही एक बंद उन्हें अर्पित करती हूँ

जीते रहे अब तलक दिलदार की तरह
पढ़ते रहे हैं लोग हमें अखवार की तरह
सब साथ हो गए तो रहे सारी जिंदगी
आकर के हम गए नहीं बहार की तरह।

गीत के सशक्त हस्ताक्षरआदरणीय मधुकर गौड़ सर को मेरा कोटि कोटि नमन व विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करती हूँ।
शशि पुरवार

Tuesday, May 21, 2019

सन्नाटे ही बोलते

भटक रहे किस खोज में, क्या जीवन का अर्थ 
शेष रह गयी अस्थियां, प्रयत्न हुए सब व्यर्थ 

तन माटी का रूप है , क्या मानव की साख 
लोटा भर कर अस्थियां, केवल ठंडी राख 

सुख की परिभाषा नई, घर में दो ही लोग 
सन्नाटे ही बोलते , मोबाइल का रोग 

कोई लौटा दे मुझे बचपन के उपहार 
नेह भरी मेरी सदी , मित्रों का संसार 

आपाधापी जिंदगी , न करती है विश्राम 
सुबह हुई तो चल पड़ी , ना फुरसत की शाम 

शशि पुरवार 



Tuesday, May 7, 2019

शीशम रूप तुम्हारा

आँधी तूफानों से लड़कर 
हिम्मत कभी न हारा 
कड़ी धूप में तपकर निखरा 
शीशम रूप तुम्हारा 

अजर अमर है इसकी काया 
गुण सारे अनमोल 
मूरख मानव इसे काटकर   
मेट रहा भूगोल  

पात पात से डाल डाल तक 
शीशम सबसे न्यारा 
आँधी तूफानों से लड़कर 
हिम्मत कभी न हारा।
 

धरती का यह लाल अनोखा 
उर्वर करता आँचल 
लकड़ी का फर्नीचर घर में 
सजा रहें है हर पल 

जेठ दुपहरी शीतल छाया 
शीशम बना सहारा 
आँधी तूफानों से लड़कर 
हिम्मत कभी न हारा।  

सदा समय के साथ खड़ी थी 
पत्ती औ शाखाएं 
रोग निवारक गुण हैं इसमें 
 सतअवसाद भगाएं 

कुदरत का वरदान बना है 
शीशम प्राण फुहारा  
आँधी तूफानों से लड़कर 
हिम्मत कभी न हारा।  

वृक्ष संचित जल से ही मानव 
अपनी प्यास बुझाता 
प्राण वायु की, धन दौलत का 
खुद ही भक्षक बन जाता 

हरियाली की अनमोल धरोहर 
शीशम करे इशारा 
आँधी तूफानों से लड़कर 
हिम्मत कभी न हारा। 

शशि पुरवार 

Tuesday, April 23, 2019

क्या मानव की साख

आँखों में अंगार है, सीने में भी दर्द
कुंठित मन के रोग हैं, आतंकी नामर्द१ 

व्यर्थ कभी होगा नहीं, सैनिक का बलदान
आतंकी को मार कर, देना होगा मान२ 

चैन वहां बसता नहीं, जहाँ झूठ के लाल
सच की छाया में मिली, सुख की रोटी दाल३ 

लगी उदर में आग है, कंठ हुए हलकान
पत्थर तोड़े जिंदगी, हाथ गढ़े मकान४ 

आँखों से करने लगे, भावों का इजहार
भूले बिसरे हो गए, पत्रों के व्यवहार५ 


तन माटी का रूप है, क्या मानव की साख
लोटा भर कर अस्थियां, केवल ठंडी राख ६

 शशि पुरवार


Thursday, April 4, 2019

बिगड़े से हालात

कुर्सी की पूजा करें, घूमे चारों धाम
राजनीति के खेल में , हुए खूब बदनाम

दीवारों को देखते, करते खुद से बात
एकाकी परिवार के , बिगड़े से हालात

एकाकी मन की उपज, बिसरा दिल का चैन
सुख का पैमाना भरो , बदलेंगे दिन रैन

मोती झरे न आँख से, पथ में बिखरे फूल
सुख पैमाना तोष का , सूखे शूल बबूल

शशि पुरवार


Thursday, March 21, 2019

भीगी चुनरी चोली

फागुन की मनुहार सखी री
उपवन पड़ा हिंडोला 
चटक नशीले टेसू ने फिर 
प्रेम रंग है घोला 

गंध पत्र ऋतुओं ने बाँटे 
मादक सी पुरवाई  
पतझर बीता, लगी  उमड़ने 
मौसम  की अंगड़ाई 

छैल छबीले रंग फाग के 
मन भी मेरा डोला 
चटक नशीले टेसू ने फिर 
प्रेम रंग है घोला। 

राग बसंती,चंग बजाओ 
उमंगो की पिचकारी 
धरती से अम्बर तक गूंजे 
खुशियों की किलकारी

अनुबंधों का प्रणय निवेदन
फागुन का हथगोला 
चटक नशीले टेसू ने फिर 
प्रेम रंग है घोला। 
  

मनमोहक रंगो से खेलें 
खूनी ना हो होली 
द्वेष मिटाकर जश्न मनाओ 
भीगी चुनरी चोली 

चंचल हिरणी के नैनो में 
सुख का उड़न खटोला 
चटक नशीले टेसू ने फिर 
प्रेम रंग है घोला 
शशि पुरवार

आपको होली की रंग भरी हार्दिक शुभकामनाएँ


लोकमत समाचार महाराष्ट्र में आज प्रकशित 

Monday, March 11, 2019

गुनगुनी सी धूप आँगन की - पुस्तक समीक्षा

मेरे दूसरे संग्रह की समीक्षा लिखी थी इंदौर से विजय सिंह चौहान जी ने और यह समीक्षा अंतर्जाल पर प्रतिलिपि , मातृभाषा , दिव्योथान एवं नवभारत समाचार पत्र सभी पोर्टल पर प्रकाशित है , आप भी यहाँ पढ़ सकतें हैं

आभार आ. विजय सिंह चौहान जी
गुनगुनी सी : धूप आंगन की

साहित्य यात्रा : धूप आंगन की , सात खण्ड में विभक्त एक ऐसा गुलदस्ता है

जिसमें साहित्यिक क्षेत्र की विभिन्न विधाअों के फूलों की गंध को एक साथ महसूस करके उसका आनन्द लिया जा सकता है । भारतवर्ष की ख्यात लेखिका श्रीमति शशि पुरवार ने इस गुलदस्ते को आकार दिया है। हिन्दी साहित्य जगत में श्रीमति शशि पुरवार एक सशक्त हस्ताक्षर है ।
इन्दौर में जन्मी शशि पुरवार ने यहीं के गुजराती साईंस कॉलेज से
विज्ञान की उपाधि प्राप्त की है तदन्तर एम् ए , एवं कंप्यूटर में होनेर्स डिप्लोमा किया है . मालवा की माटी में ही साहित्य का बीजारोपण हुआ जो आज एक वटवृक्ष के रूप में हमारे सम्मुख है. विसंगतियों के खिलाफ अपने प्रयासों के लिये शशि पुरवार को महिला और बाल विकास मंत्रालय द्वारा 2016 में ‘भारत की 100 वूमन्स अचीवर ऑफ इण्डिया‘ नामक सम्मान से नवाजा गया है । आप गीत, आलेख, व्यंग्य, गजल, कविता, कहानी व अन्य विधाओं में अपनी संवेदना व्यक्त करती रही है ।
" धूप आंगन की " मुझे अपनी सी व सुहानी सी लगती है . कभी कोयल की कूक तो कभी पायल की रूनझून मन को गुदगुदाने लगती है । संवेदनाए भी जीवन की झर धूप में, नेह छांव की तलाश करती नजर आती है । गजल खण्ड में लगभग 24 गजलें धूप आंगन के ईद र्गिद मंडराती है , कभी इश्क का जखीरा पिघलता है, तो कभी आंगन में लगा नीम ढेरो उपहार देने के बाद भी मुरझाता सा प्रतीत होता है ।
मधुवन मे महकते हुए फूल हो या गजल के करिश्में , हर रचना में
रचनाकार की कोमल संवेदनाअों का उठता ज्वार, समुद्र से गहरे विचार को
दर्शाता है. बनावटी रिश्तों की कसक हर आंगन में होती है लेकिन इस आँगन
की धूप ने स्पष्ट किया है कि ‘हर नियत पाक नहीं होती‘ है व वक्त लुटेरा बनकर सबको लूटता है. ज्ञान का दीप भी धरूँ मन में,­ जिंदगी फिर गुलाब हो जाए जैसी गजलों के नाजुक शेर की यह पंक्तियाँ पूर्णत: गुलिस्तां की महक को समेटने में सफल रही है.
रचनाकार के मन में हिन्दी के प्रति जन्में अगाध श्रद्वा भाव ने हिन्दी को विभिन्न उपमा, अलंकार में श्रंृगारित करते हुए बेहद सुन्दर उद्गार प्रेषित किये है . यह प्रेम उनकी रचना मे नजर आता है. गजल के यह शेर देखें
कि सात सुरों का है ये संगम,
मीठा सा मधुपान है, हिन्दी ।
फिर वक्त की नजाकत, दिल की यादें, और सांसों में बसी हो क्या, यहां आते
आते धूप आंगन की; जाडों में गुनगुनी धूप का अहसास दिलाती है तथा संवेदनाअों की कोमल धूप थोडी देर अौर आंगन में बैठने के लिए मजबूर करती है । इस साहित्यिक यात्रा में जैसे जैसे धूप तेज होती है वैसे-वैसे गर्मी की ,उष्णता भी महसूस होने लगती है . ऐसी ही एक गजल है जिसके शेर
है
घर का बिखरा नजारा अौर है व
गिर गया आज फिर मनुज,
कितना नार को कोख में मिटा लाया‘
शेर पढकर धूप की चुभने का अहसास होता है . आहिस्ता-आहिस्ता गजल में
प्रेम की फुलवारी फिर से महकने लगती है कि हौसलों के गीत गुनगुनाअो ।
एक बात और कहना चाहूगा कि गजल खण्ड को पढते-पढते आखों कहीं नम होती है तो कहीं ह्रदय को मानिसक सुकुन मिलता है . संवेदनाएँ हमारे ही परिवेश को रेखांकन करती हुई अपने ही इर्द गिर्द होने का अहसास कराती है ।
संवेदनाअों की वाहिका, धूप आंगन से होते हुए ‘लघुकथा‘ खण्ड में प्रवेश करती है जहां सामाजिक ताना-बाना, रौशनी की किरण बनकर ; हर एक लघुकथा के माध्यम से दिव्य संदेश की वाहिका बनकर पाठकों तक पहुंचती है । लघुकथा खण्ड में समाज में हुए मानसिक पतन, जीवन का सच, गरीब कौन, दोहरा व्यक्तित्व तथा विकृत मानसिकता, स्वाहा और ममता आदि लघुकथाएँ समाज को सार्थक संदेश देती है । जीवन की तपिश में जाडो की नर्म धूप सा अहसास होता है . संग्रह के लघुकथा खण्ड में जब नया रास्ता, आईना दिखाता है तोअर्न्तमन का सुकून संवेदना के रूप में बाहर झलकता है । समाज में व्याप्तअंधविश्वास ,खोखले रिवाजों के बीच सलोनी के चेहरे पर आई मुस्कान पढ करअर्न्तमन तृप्त हो जाता है । बडी कहानी खण्ड में " नया आकाश " आम गृहणीकी मनोदशा का मार्मिक चित्रण हैं , यह कहानी हर किसी गृहणी को अपनी हीसंवेदनाओं का अहसास कराती है . कहानी के अंत में नारी सम्मान पर जीवनसाथी द्वारा दिये गये संदेश अपनी दिव्यता की महक छोडतें है कि "नारी
का काम सृजन करना ही है, मन में आत्मविश्वास हो तो नारी कुछ भी कर सकती है. हर नारी के अंदर कोई न कोई प्रतिभा होती है, जिसे बाहर लाना चाहिये‘ अपनी पत्नी पर गर्वीली आंखों में आई चमक का बख्ूाबी वर्णन किया है ।


विभिन्न विधाअों में किया गया लेखन; जब व्यंग्यता की ओर बढता है तोलगता है कि व्यंग्य का चुटीलापन रचनाकार के लेखन की हर विधा मे नजर आता है फिर चाहे वह लघुकथा हो, कविता हो या व्यंग्य; हर पल संवेदना के गहरे बादल मंडराते है।
बोझ वाली गली में टोकरे ही टोकरे‘ में साहित्य जगत का टोकरा व प्रकाशक वसंपादक के टोकरे में अलादीन का चिराग तथा स्वयं अपने काम के टोकरे सेपरेशानी को बेहद चुटीले अंदाज में पेश किया है । अडोस-पडोस का दर्द वविचारों में मिलावट, हिंदी की कुडंली में साढे साती के चलते हिंगलिश मेंथोडी सी विंग्लिश का नव प्रयोग को जहाँ समाज का आईना दिखाता है वहीं
समाज की विसंगतियों पर प्रहार करके सामाजिक खोखली मानसिकता को व्यक्तकरता है.

गजल, लघुकथा, बडी कहानी व व्यंग्य में गुनगुनाने के बाद जब साहित्ययात्रा आलेख के माध्यम से शिक्षित बन अधिकार जाने महिलाएँ , बाल शोषणसमाज का विकृत दर्पण, आत्महत्याओं पर विचारोत्तेजक आलेख, लेखक की विद्वता व संवेदनशीलता को परीलक्षित करते है ।

जीवन उस रेत के समान है जिसे मुटठी में जितना बाँधना चाहें वह उतना हीफिसलती जाती है । सकारात्मक जीवन जीने के लिए तथा बेहतर जीवन बनाने के लिये कर्मशील होना आवश्यक है और नकारत्मकता को सदैव दूर रखना चाहिए. खाली दिमाग शैतान का घर होता है ; अपना शौक को पूरा करें ये कुछ ऐसी नसीहते है जो सीधे सरल और सहज रूप से इन लेखों के माध्यम से कही गई है । जो आम आदमी को निराशा के गर्त से बाहर आने मे मददगार सिद्ध होती हैं .

सकारात्मक सोच को प्रवाहिर करते शशि पुरवार जी के लेख आज के दौर मेंज्यादा प्रासांगिक नजर आते है । साहित्यिक यात्रा के अगले चरण में डायरीके पन्नों से ; बाल काल की समेटी हुई कवितायें है . इन कविताओं कोपढकर महसूस होता है कि बालमन में ही संवेदनाए जन्म लेकर नव आकाश कानिर्माण करेगीं. देश के ख्यात कवियों की शैली की झलक मुझे इन रचनाअों नेनजर आई है। सर्वप्रथम लिखी हुई कविता " कहाँ हूँ मैं " ने ही लेखिका केमन मे जन्में भाव ने कवि ह्रदय की गहन संवेदनाओं के पंख पसारने तभी शुरू कर दिये थे .

इन पन्नों में नारी के अस्तित्व पर जहाँ सवाल उठें है वहीं छलनी हो रहे,आत्मा के तार, चित्कारता हदय करे पुकार है। कभी रूह तक कंपकंपाता दर्दहै तो कभी आशा की किरण भी समाहित है । झकझोरते हुए जज्बात हैं तो कहीं खारे पानी की सूखती नदी है. कभी शब्दों की छनकती गूँज है तो कभी सन्नाटे में पसरी आवाजे चहुं ओर बिखरी नजर आती है । इसी खण्ड में तलाश को तलाशते हुए रेखांकन बरबस ही नजरों में ठहर जाते हैं . अौर संवेदना के अतल सागर डूब कर अनुभूतियों में गोते लगाते है, तो कभी श्वासोच्छवास की दीर्ध ध्वनि व ह्रदय की धडकनों की पदचाप सुनाई पडती है।

काव्य की बात हो और चांद से संवाद न हो यह मुमकिन नहीं है . चांद से अकेले में संवाद करती हुई शशि पुरवार जी की बालपन की रचना में सौंदर्य व प्रेम की पराकाष्ठा नजर आती है . ह्रदय चाँद में डूबा हुआ विलिन होने के लिए मचलता है. प्रेम व संवेदना की कोमल वाहिका चांद के साथ साथ बेटियों पर भी अपना ममत्व न्यौछावर करती है। अनगिनत उपमा, अलंकार और श्रृंगार से श्रंृगारित काव्य खण्ड में मन रसमय होकर तल्लीन हो जाता है  . जब चिडियों सी चहकती , हिरनों सी मचलती बेटियां हमें खिलखिलाने के लिये मजबूर करती है।
इस खण्ड मे भूख , चपाती अकेला आदमी, सपने , जीवन की तस्वीर पढ कर जहाँ  मानसिक क्षुधा शांत होती है वहीं हिय में अनगिनत प्रश्न मन को विचलित  भी करतें है . संग्रह में लेखक ने रचनाअों के माध्यम से सामाजिक मुद्दों व कोमल संवेदनाअों पर खुला प्रहार किया है. सभी मुद्दों को बेहद नजाकत के साथ प्रस्तुत किया है । कहतें है ना कि कडवी गोली खिला दी अौर
कडवाहट का अहसास भी नही हुआ. कुल मिलाकर 168 पृष्ठों में समाई धूप ऑंगन की : एक एेसी साहित्य यात्रा है जो विराम नहीं होती है अपितु सतत एक झरने की भांति अर्न्तमन में अनगिनत प्रश्नों को छोडकर बहती रहती है , वहीं कोमल धूप दिल दिमाग पर छाकर नेह सा अहसास भी कराती । एक लेखक की सार्थकता इसी बात से सिद्व हो जाती है कि उसकी रचना व्यक्ति के मन मस्तिष्क पर अपनी अमिट छाप छोडने में सक्षम है । किताब में रेखांकित रचनाएँ खण्ड के अनुरूप है जो अक्षर के साथ भावों को एकाकार करती है

बेहद सधे हाथों से किया रेखांकन कल्पना लोक की सैर कराता हुआ आम आदमी को उसकी पृष्ठभूमि से जोड़ता है . हर पृष्ठ पर चढती बेल का रेखंाकन पुस्तक में मूल रूप से समाहित आशावाद का प्रतीक है । इस पुस्तक में रचनाकार के साथ हर पृष्ठ पर भावों की नवीनता पाठकों में रूचि पैदा करती है । मुख
पृष्ठ से लेकर पुस्तक के मूल नाम " धूप आँगन की " के अनुरूप शशि पुरवार का यह संग्रह यथा नाम तथा गुण सूत्र को सार्थक करता है । दिल्ली पुस्तक सदन द्वारा सुन्दर मुद्रण से धूप आंगन की साहित्य यात्रा को मुकम्मल मंजिल मिली । संक्षिप्त रूप में यह पुस्तक मील का पत्थर साबितहोगी। पुस्तक का मूल्य ३९५ ( हार्ड बाउंड ) व पेपर बैक का 
मूल्य १९५
है।
बे
हद सुन्दर संग्रह हेतु शशि पुरवार को कोटि कोटि बधाई। उनकी कलम यूँ ही 
अनवरत चलती रहे व समाज को लाभान्वित करें।

विजयसिंह चौहान




Friday, February 15, 2019

धरती माँगे पूत से,

धरती माँगे पूत से, दुशमन का संहार 
इक इक कतरा खून का, देंगे उस पर वार 

कतरा कतरा बह रहा, उन आँखों से खून 
नफरत की इस आग में, बेबस हुआ सुकून 


दहशत के हर वार का, देंगे कड़ा जबाब 
नहीं सुनेंगे आज हम , छोडो चीनी,कबाब

शशि पुरवार


Wednesday, February 13, 2019


शहरों की यह जिंदगी, जैसे पेड़ बबूल
मुट्ठी भर सपने यहाँ, उड़ती केवल धूल
उड़ती केवल धूल, नींद से जगा अभागा
बुझे उदर की आग, कर्म ही बना सुहागा
कहती शशि यह सत्य, गूढ़ डगर दुपहरों की
कोमल में के ख्वाब, सख्त जिंदगी शहरों की



चाँदी की थाली सजी, फिर शाही पकवान
माँ बेबस लाचार थी, दंभ भरे इंसान
दंभ भरे इंसान, नयन ना गीले होते
स्वारथ का सामान, बोझ रिश्तों का ढोते
कहती शशि यह सत्य, शिथिल बगिया का माली
शब्द प्रेम के बोल, नहीं चाँदी की थाली

धरती भी तपने लगी, अंबर बरसी आग
आँखों को शीतल लगे, फूलों वाला बाग़
फूलों वाला बाग़, सुवासित तन मन होता
धूप में जला बदन, हरित खेमे में सोता
कहती शशि यह सत्य, प्रकृति पल पल मरती
मत काटो हरित वन, लगी तपने यह धरती

हम तुम बैठे साथ में, लेकिन पसरा मौन
सन्नाटे को चीर कर, गंध बिखेरे कौन
गंध बिखेरे कौन, अजब रिश्तों का मेला
मौन करे संवाद, अबोलापन  ही खेला
कहती शशि यह सत्य, हृदय रहता है गुमसुम
छेड़ो कोई तान, साथ जब बैठें हम तुम


दिल में इक तूफ़ान है, भीगे मन के कोर
पत्थर से टकरा गई, लहरें कुछ कमजोर
लहरें कुछ कमजोर, विलय सागर में होती
गहरे तल में झाँक, छिपे हैं कितने मोती
कहती शशि यह सत्य, तमाशे हैं महफ़िल में
बंद हृदय का द्वार,  दफ़न पीड़ा है दिल में

मन में जब लेने लगी, शंकाएँ आकार
सूली पर फिर चढ़ गया, इक दूजे का प्यार
इक दूजे का प्यार, फूल ना खिलने पाएँ
चुभते शूल हजार,  शब्द जहरी बन जाएँ
कहती शशि यह सत्य, दरार पड़ी दरपन में
प्रेम बहुत अनमोल, भरे जो खुशियाँ मन में

 शशि पुरवार









Saturday, February 2, 2019

धूप आँगन की

मस्कार मित्रों आपसे साझा करते हुए बेहद प्रसन्नता  हो रही है कि--

   शशि पुरवार का दूसरा संग्रह  * " धूप आँगन की " ** भी बाजार में उपलब्ध है।

धूप आँगन की " जैसे आँगन में चिंहुकती हुई नन्ही परी की अठखेलियां, कभी
ठुमकना तो कभी रूठ जाना,कभी नेह की गुनगुनी धूप में पिघलता हुआ मन है ,
कभी यथार्थ की कठोर धरातल पर पत्थरों सा धूप में सुलगता हुआ तन है . कभी
बंद पृष्ठों में महकते हुए मृदु एहसास हैं  तो कहीं मृगतृष्णा की सुलगती
हुई रेतीली प्यास है। कहीं स्वयं  के वजूद की तलाशती हुई धूप है तो  कहीं
विसंगतियों में सुलगती हुई  धूप की आग है ।  हमारे परिवेश में बिखरे हुए
संवेदना के कण है - धूप    का आँगन

क्यों न अपने स्नेह की नर्म धूप से सहला दें।  आओ इक सुन्दर सा आकाश बना ले।
हमारे प्रयास आपके दिलों ने इक छोटा सी जगह बना ले।  आंगन की धूप को आप
अपने हृदय से लगा ले. हम आपके प्यार को अपना आकाश बना ले। आंगन की धूप से
सुप्त कणों को जगा दे।

शशि पुरवार

सामाजिक मीम पर व्यंग्य कहानी अदद करारी खुश्बू

 अदद करारी खुशबू  शर्मा जी अपने काम में मस्त   सुबह सुबह मिठाई की दुकान को साफ़ स्वच्छ करके करीने से सजा रहे थे ।  दुकान में बनते गरमा गरम...

https://sapne-shashi.blogspot.com/

linkwith

🏆 Shashi Purwar — Honoured as 100 Women Achievers of India | Awarded by Maharashtra Sahitya Academy & MP Sahitya Academy