Friday, July 26, 2013
Monday, July 22, 2013
Sunday, July 21, 2013
उड़ गयी फिर नींदे ....!
1
था दुःख को तो जलना
अब सुख की खातिर
है राहो पर चलना ।
2
रिमझिम बदरा आए
पुलकित है धरती
हिय मचल मचल जाए । .
3
है
मन जग का मैला
बेटी को मारे
पातक दर-दर फैला ।
4
इन कलियों का खिलना
सतरंगी सपने
मन पाखी- सा मिलना ।
5
थी जीने की आशा
थाम कलम मैंने
की है दूर निराशा ।
6
अब काहे का खोना
बीते ना रैना
घर खुशियों का कोना
।
7
भोर सुहानी आई
आशा का सूरज
मन के अँगना लाई।
8
पाखी बन उड़ जाऊँ
संग तुम्हारे मैं
गुलशन को महकाऊँ । -------- शशि पुरवार
Friday, July 19, 2013
प्रकृति और मानव
१
जल जीवन
प्रकृति औ मानव
अटूट रिश्ता
२
जगजननी
धरती की पुकार
वृक्षारोपण
३
मानुष काटे
धरा का हर अंग
मिटते गाँव .
४
पहाड़ो तक
पंहुचा प्रदूषण
प्रलयंकारी
५
केदारनाथ
बेबस जगन्नाथ
मानवी भूल
६
काले धुँए से
चाँद पर चरण
काला गरल .
७
जलजले से
विक्षिप्त है पहाड़
मौन रुदन
८
कम्पित धरा
विषैली पोलिथिन
मनुज फेकें
९
सिंधु गरजे
विध्वंश के निशान
अस्तित्व मिटा .
१०
अप्रतिम है
प्रकृति का सौन्दर्य
चिटके गुल .
-------- शशि पुरवार
जल जीवन
प्रकृति औ मानव
अटूट रिश्ता
२
जगजननी
धरती की पुकार
वृक्षारोपण
३
मानुष काटे
धरा का हर अंग
मिटते गाँव .
४
पहाड़ो तक
पंहुचा प्रदूषण
प्रलयंकारी
५
केदारनाथ
बेबस जगन्नाथ
मानवी भूल
६
काले धुँए से
चाँद पर चरण
काला गरल .
७
जलजले से
विक्षिप्त है पहाड़
मौन रुदन
८
कम्पित धरा
विषैली पोलिथिन
मनुज फेकें
९
सिंधु गरजे
विध्वंश के निशान
अस्तित्व मिटा .
१०
अप्रतिम है
प्रकृति का सौन्दर्य
चिटके गुल .
-------- शशि पुरवार
Thursday, July 18, 2013
बहता पानी ...!
१
बहता पानी
विचारो की रवानी
हसीं ये जिंदगानी
सांझ बेला में
परिवार का साथ
संस्कारों की जीत .
२
बरसा पानी
सुख का आगमन
घर संसार तले
तप्त ममता
बजती शहनाई
बेटी हुई पराई .
३
हाथों में खेनी
तिरते है विचार
बेजोड़ शिल्पकारी
गड़े आकार
आँखों में भर पानी
शिला पे चित्रकारी .
४
जग कहता
है पत्थर के पिता
समेटे परिवार
कुटुंब खास
दिल में भरा पानी
पिता की है कहानी .
--------- शशि पुरवार
१३ ,७ .१ ३
Tuesday, July 16, 2013
प्रकृति ने दिया है अपना जबाब ,
प्रकृति की
नैसर्गिक चित्रकारी पर
मानव ने खींच दी है
विनाशकारी लकीरें,
सूखने लगे है जलप्रताप, नदियाँ
फिर
एक जलजला सा
समुद्र की गहराईयों में
और प्रलय का नाग
लीलने लगा
मानव निर्मित कृतियों को.
धीरे धीरे
चित्त्कार उठी धरती
फटने लगे बादल
बदल गए मौसम
बिगड़ गया संतुलन,
ये जीवन, फिर
हम किसे दोष दे ?
प्रकृति को ?
या मानव को ?
जिसने
अपनी
महत्वकांशाओ तले
प्राकृतिक सम्पदा का
विनाश किया।
अंततः
रौद्र रूप धारण करके
प्रकृति ने दिया है
अपना जबाब ,
मानव की
कालगुजारी का,
लोलुपता का,
विध्वंसता का,
जिसका
नशा मानव से
उतरता ही नहीं .
और
प्रकृति उस नशे को
ग्रहण करती नहीं .
--शशि पुरवार
१२ -७ - १ ३
१२ .५ ५ am
Sunday, July 14, 2013
दर्द कहाँ अल्फाजों में है
अश्क आँखों में औ
तबस्सुम होठो पे है
सूखे गुल की दास्ताँ
अब बंद किताबो में है
बीते वक़्त का वो लम्हा
कैद मन की यादों में है
दिल में दबी है चिंगारी
जलती शमा रातो में है
चुभन है यह विरह की
दर्द कहाँ अल्फाजों में है
नश्वर होती है रूह
प्रेम समर्पण भाव में है
अविरल चलती ये साँसे
रहती जिन्दा तन में है
खेल है यह तकदीर का
डोर खुदा के हाथो में है
शशि पुरवार
Friday, July 12, 2013
अभी कुछ और करिश्मे गजल के देखते है
चलो नज़ारे यहाँ आजकल के देखते है
अजीब लोग है कितने ये चल के देखते है
गली गली में यहाँ पाप कितना है फैला
खुदा के नाम से ईमान छल के देखते है
ये लोग कितने गिरे आबरू से जो खेले
झुकी हुई ये निगाहों को मल के देखते है
ये जात पात के मंजर तो कब जहाँ से मिटे
बनावटी ये जहाँ से निकल के देखते है
कलम कहे कि जिधर प्यार का जहाँ हो ,चलो
अभी कुछ और करिश्मे गजल के देखते है .
---- शशि पुरवार
Wednesday, July 10, 2013
दिल के तार
१ मन प्रांगन
यादों के बादल से
झरते मोती .
२
धीमा गरल
पीर की है चुभन
खोखला तन
२
पीर जो जन्मी
बबूल सी चुभती
स्वयं की साँसे
३
दिल का दर्द
रेगिस्तान बन के
तन में बसा .
४
दिल के तार
जीवन का श्रृंगार
तुम्हारा प्यार .
५
भीनी खुशबू
सजी गुलदस्ते में
खिले हाइकू .
६
समेटे प्यार
फूलों सा उपहार
हिंदी हाइकू …
Wednesday, July 3, 2013
मुस्काती चंपा ....
खिली चांदनी
झूमें लताओं पर
मुस्काती चंपा .
तरु पे खेले
मनमोहिनी चंपा
धौल कँवल .
मन प्रांगन
यादों की चित्रकारी
महकी चंपा .
दुग्ध है पान
हलद का श्रृंगार
चंपा ने किया
चंपा मोहिनी
झलकता सौन्दर्य
शशि सा खिले .-
-- शशि पुरवार
Sunday, June 30, 2013
ठूंठ सा वन
ठूंठ ---
१
ठूंठ सा तन
पपड़ाया यौवन
पंछी भी उड़े .
२
सिसकती सी
ठहरी है जिंदगी
राहों में आज
३
शुलो सी चुभन
दर्द भरा जीवन
मौन रुदन .
४
मौन रुदन .
४
सिमटी जड़ें
हरा भरा था कभी
वो बचपन
५
को से मै कहूं
पीर पर्वत हुई
ठूंठ सी खड़ी
६
झरते पत्ते
बेजान होता तन
ठूंठ सा वन
७
राहो में खड़े
देख रहे बसंत
बीता यौवन
८
जीने की आस
महकने की प्यास
जिंदगी खास .
९
हिम पिघले
पहाड़ ठूंठ बन
राहो में खड़े.
१०
ठूंठ बन के
सन्नाटे भी कहते
पास न आओ .
११
चीखें बेजान
तड़पती है साँसे
ठूंठ सी लाशें .
1२
मृत विचार
लोलुपता की प्यास
ठूंठ सा मन .
----शशि पुरवार
हरा भरा था कभी
वो बचपन
५
को से मै कहूं
पीर पर्वत हुई
ठूंठ सी खड़ी
६
झरते पत्ते
बेजान होता तन
ठूंठ सा वन
७
राहो में खड़े
देख रहे बसंत
बीता यौवन
८
जीने की आस
महकने की प्यास
जिंदगी खास .
९
हिम पिघले
पहाड़ ठूंठ बन
राहो में खड़े.
१०
ठूंठ बन के
सन्नाटे भी कहते
पास न आओ .
११
चीखें बेजान
तड़पती है साँसे
ठूंठ सी लाशें .
1२
मृत विचार
लोलुपता की प्यास
ठूंठ सा मन .
----शशि पुरवार
Tuesday, June 25, 2013
एक तोहफा आशीष भरा --
यह शब्दों का प्यारा सा तोहफा मुझे मिला रूपचंद्र शाश्त्री जी से --- आप सबके साथ शेयर कर रही हूँ .
इस आभासी संसार में
चर्चा मंच की चर्चाकार
"शशि पुरवार" का जन्मदिन है।
उपहारस्वरूप कुछ शब्द सजाये हैं!
जन्मदिन पुरवार “शशि” का आज आया।
आज बिटिया के लिए, आशीष का उपहार लाया।।
मन नवल उल्लास लेकर, नृत्य आँगन में करें,
धान्य-धन परिपूर्ण होवे, जगनियन्ता सुख भरें,
आपके सिर पर रहे, सौभाग्य का अनमोल साया।
आज बिटिया के लिए, आशीष का उपहार लाया।।
शशि तुम्हारी रौशनी से, हो रहा पुलकित हो गगन,
जब कली खिलती, तभी खुशबू लुटाता है चमन,
जगमगाते तारकों ने, आज मंगलगान गाया।
आज बिटिया के लिए, आशीष का उपहार लाया।।
बाँटता खुशियाँ सदा, आभास का संसार है,
घन खुशी के तब बरसते, जब सरसता प्यार है,
डोर नातों की बँधी तो, नेह ने अधिकार पाया।
आज बिटिया के लिए, आशीष का उपहार लाया।।
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