ब्लॉग सपने शशि में आप पढ़ेंगे जीवन के रंग अभिव्यक्ति के संग.. प्रेरक कहानियाँ, लेख और साहित्यिक रचनाओं का संसार ।आपका अपना संसार ।
ब्लॉग सपने - जीवन के रंग अभिव्यक्ति के साथ, प्रेरक लेख , कहानियाँ , गीत, गजल , दोहे , छंद
Saturday, April 28, 2012
Saturday, April 21, 2012
देव नहीं मै
देव नहीं मै
साधारण मानव
मन का साफ़
बांटता हूँ मुस्कान
चुप रहता
कांटो पर चलता
कर्म करता
फल की चिंता नहीं
मन की यात्रा
आत्ममंथन , स्वयं
अनुभव से
छल कपट से परे
कभी दरका
भीतर से चटका
स्वयं से लड़ा
फिर से उठ खड़ा
जो भी है देखा
अपना या पराया
स्वार्थ भरा
दिल तोड़े जमाना
आत्मा छलनी
खुदा से क्या मांगना
अन्तः रूदन
मन को न जाना
शांत हो मन
छोड़ो कल की बात
जी लो पलो को
नासमझ जमाना
खुद को संभालना
:--शशि पुरवार
Tuesday, April 17, 2012
........यह जीवन .....
..........यह जीवन . ......
यह जीवन
कर्म से पहचान
तन ना धन
गुण से चार चाँद
आत्मिक है मंथन .
यह जीवन
तुझ बिन है सूना
हमसफ़र
वचन सात फेरे
जन्मो का है बंधन .
यह जीवन
कमजोर है दिल
चंचल मन
मृगतृष्णा चरम
कुसंगति लोलुप .
यह जीवन
एक खुली किताब
धूर्त इंसानों
से पटा सारा विश्व
सच्चाई जार जार .
यह जीवन
वक़्त पड़ता कम
एकाकीपन
जमा पूँजी है रिश्ते
बिखरे छन - छन .
यह जीवन
अध्यात्मिक पहल
परमानन्द
भोगविलासिता से
परे संतुष्ट मन .
यह जीवन
होता जब सफल
पवित्र आत्मा
न्यौझावर तुझपे
मेरे प्यारे वतन .
यह जीवन
नश्वर है शरीर
पवित्र मन
आत्मा तो है अमर
मृत्यु शांत निश्छल .
:--------शशि पुरवार
Sunday, April 15, 2012
अहंकार - पतन का मार्ग
आत्मा से चिपका
प्रयासों में घुसा
परिग्रह
... हुआ " मै "!
" मै " जब ठहरा
विस्तार हुआ ...
जागृत रूप में " मेरा ".
"मेरा " कब " अहं" बना ..?
अपरिग्रह .
अहंकार - पतन का मार्ग
आत्मा - निराकार
वस्तु - भोग विलास
"मै " , "अहं " !
अशांति , हिंसा की
प्रथम शुरुआत .
नहीं इसके संग
जीवन , शांति ,
विकास ,प्रगति का मार्ग .
जीने की राह ...!
आत्मसाध .
सरल सादा अंदाज
सभी निराकार .
:- शशि पुरवार
जब मै का भाव आत्मा से चिपक जाता है वक्त का सितम शुरू हो जाता है एवम व्यक्ति इसके लिए खुदा को दोष देता है ......पर अहं हमारे भीतर प्रवेश करता है तो क्या अच्छा क्या बुरा सिर्फ "मै " ही दिखता है और यही से पतन की शुरुआत होती है व मानव खुद को ही सर्वोपरि मानता है ..........
शशि पुरवार
Friday, April 13, 2012
रफ्ता -रफ्ता.....
रफ्ता -रफ्ता यादो के बादल छाते है
हम तेरे शहर से दूर अब जाते है .
वक्त का सितम तो कुछ कम नहीं है
पर तेरी बेरूखी से हम तो मरे जाते है .
ज़माने में रुसवा न हो जाये प्यार मेरा
चुपके से नजरे झुका के निकल जाते है .
इन्तिहाँ है यह सच्चे प्यार व इंतजार की
तेरी खातिर हम झूठी मुस्कान दिखाते है .
सदैव खुश रहे तू यही दुआ है मेरी
तेरी खातिर हम खुदा के दर भी जाते है .
रफ्ता -रफ्ता .......!
:---शशि पुरवार
Wednesday, April 11, 2012
वो पल वह मंजर.............!
वो पल
वह मंजर
लूटता सा ,
बिस्फारित नयन
वो लम्हा
दिल दहलता
विव्हल रूदन
चीत्कार
मचा हाहाकार
छितरे मानव अंग
बिखरा खून
सूखे नयन
उस क्षण
फैलती आँखे
रूक गयी साँसे
भयावह विस्फोट
गोलियों की बौछार
आतंकी तांडव
वो काली स्याह रात
मानवता की हार
चकित नयन
सुनसान रस्ते
भयभीत चेहरे
ठहरती धड़कन
आने वाला लम्हा
ख़त्म किसका जीवन
सिसकियाँ प्रार्थना
मौत का सामना
ठहर गया वक्त
छलकतेनयन
वो पल
वह मंजर .............!
:--शशि पुरवार
Monday, April 9, 2012
हरसिंगार.........2
हरसिंगार
जीने की आस
बढ़ता उल्लास
महकता जाये
भीनी भीनी मोहक सुगंध
रोम -रोम में समाये
मदहोश हुआ मतवाला तन
बिन पिए नशा चढ़ता जाये
शैफाली के आगोश में लिपटा शमा
मधुशाला बनता जाये
पारिजात महकता जाये
संग हो जब सजन -सजनी
मन हरसिंगार
विश्वास -प्रेम के खिले फूल
जीवन में लाये बहार
प्यार का बढ़ता उन्माद
पल-पल शिउली सा
महकता जाये ...!
नयनो में समाया शीतल रूप
जीवन के पथ पर कड़कती धूप
न हारो मन के साथ
महकने की हो प्यास
कर्म ही है सुवास
मुस्काता उल्लास
जीवन हरसिंगार
महकता जाये ...!
:_---शशि पुरवार
Friday, March 30, 2012
हरसिंगार.....1
शिउली सौन्दर्य
लतिका पे खिला
गुच्छो में भरा
पारिजात लदा बदा
दुग्ध -उज्जवल शेफालिका
कोमल बासंती नाजुक अंग
शशि किरण में है बिखरा
आच्छादित सौन्दर्य अपलक
भीनी -भीनी मोहक सुगन्धित सुवास
रोम -रोम में समाये
मदमाती बयार इठलाये
निखरता शिवली का यौवन
अँखियो की प्यास बुझाए
होले-होले चुपके से
प्राजक्त रात्र में खिले
अंजुल भर -भर
हरसिंगार ,
झर -झर झरते
धरा का नवल श्रृंगार करे
व प्रकृति का उन्माद बढे
लजाती मोहिनी शेफाली
मुस्काता चंचल बसंत
प्राकृतिक सौन्दर्य की पराकाष्ठा
अप्रतिम अतुल्य
ईश्वरीय सृजन .
:_------शशि पुरवार
Wednesday, March 28, 2012
बिखरते रिश्ते ...!
जीवन के रुपहले पर्दे से
बिखरते रिश्ते ...!
पतला होता खून
बढती धन की भूख
अपने होते है पराये
सुकून भी न घर में आए
भाई को भाई न भाए
सिमटते रिश्ते
क्या ननद क्या भौजाई
प्यारी लागे सिर्फ कमाई
सैयां मन को भावे
सैयां मन को भावे
कांच से नाजुक धागे
बूढ़े माँ - बाप भी बोझ लागे
खोखले होते रिश्ते
अब कहाँ वो आंगन
जहाँ खड़कते चार बर्तन
गूंजे अब न किलकारी
सिर्फ बंटवारे की चिंगारी
स्वार्थी होता खून
टूटते बिखरते रिश्ते .
नादाँ ये न जाने
कैसे बीज है बोये
माँ के कलेजे के टुकड़े कर
कैसे चैन से सोये
आने वाला कल
खुद को दोहराता है
वक्त तब निकल जाता है
प्राणी तू अब क्यो रोये
पीछे छुटते रिश्ते .
बिखरते रिश्ते ...!
:------शशि पुरवार
Wednesday, March 21, 2012
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