shashi purwar writer

Friday, July 14, 2017

रात सुरमई




 चाँदी की थाली सजी,  तारों की सौगात
 अंबर से मिलने लगी, प्रीत सहेली रात। 
 २  
रात सुरमई मनचली, तारों लिखी किताब
चंदा को तकते रहे, नैना भये गुलाब।
 ३ 
आँचल में गोटे जड़े, तारों की बारात

अंबर से चाँदी झरी, रात बनी परिजात। 

  ४ 
रात शबनमी झर रही, शीतल चली बयार 
चंदा उतरा झील में, मन कोमल कचनार। 

 ५ 
सरसों फूली खेत में, हल्दी भरा प्रसंग
पुरवाई से संग उडी, दिल की प्रीत पतंग 
 ६  
हल्दी के थापे लगे, मन की उडी पतंग। 
सखी सहेली कर रहीं, कनबतियाँ रसवंत
७  
कल्पवृक्ष वन वाटिका, महका हरसिंगार
वन में बिखरी चाँदनी, रात करें श्रृंगार।
 ८  
तिनका तिनका जोड़कर, बना अधूरा नीड़

फूल खिले सुन्दर लगे, काँटों की है भीड़।  

 ९  
 गुल्ली-डंडा,चंग पौ, लट्टू और गुलेल
लँगड़ी,कंचे,कौड़ियाँ, दौड़ी मन की रेल

१०
भक्ति भाव में खो गए, मन में हरि का नाम
 प्रेम रंग से भर गया वृंदावन सुख धाम 
११
धूं धूं कर लकड़ी जले, तन में जलती पीर 
रूप रंग फिर मिट गया, राजा हुआ फ़क़ीर। 
१२  
 अपनों ने ही खींच दी, आँगन पड़ी लकीर 
  आँखों से झरता रहा, दुख नदिया का नीर  .
 १३  
धरती भी तपने लगी, अम्बर बरसी आग 
आँखों को शीतल लगे, फूलों वाला बाग़ 
१४  
चटक नशीले मन भरे, गुलमोहर में  रंग 
घने वृक्ष की छाँव में, मनवा मस्त मलंग।
 १५ 
सूरज भी चटका रहा, गुलमोहर में आग  
भवरों को होने लगा, फूलों से अनुराग 
 शशि पुरवार 

Monday, July 10, 2017

सहज युगबोध


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भीड़ में, गुम हो रही हैं 
भागती परछाइयाँ.
साथ मेरे चल रही  
खामोश सी तनहाइयाँ 

वक़्त की इन तकलियों पर 
धूप सी है जिंदगी 
इक ख़ुशी की चाह में, हर 
रात मावस की बदी. 

रक्तरंजित, मन ह्रदय में
टीस की उबकाइयाँ 
साथ मेरे चल रही  
खामोश सी तनहाइयाँ 

प्यार का हर रंग बदला 
पत दरकने भी लगा 
यह सहज युगबोध है या 
फिर उजाले ने ठगा। 

स्वार्थ की आँधी चली, मन 
पर जमी हैं काइयाँ  
साथ मेरे चल रही  
खामोश सी तनहाइयाँ 

रास्ते अब एक हैं, पर  
फासले भी दरमियाँ 
दर्प की दीवार अंधी  
तोड़ दो खामोशियाँ 

मौन भी रचने लगे फिर 
प्रेम की रुबाइयाँ।
साथ मेरे चल रही  
खामोश सी तनहाइयाँ। 
 शशि पुरवार 

Tuesday, July 4, 2017

व्यर्थ के संवाद

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भीड़ में, गुम हो गई हैं
भागती परछाइयाँ
साथ मेरे चल रहीं 
खामोश सी तनहाइयाँ। 

वक़्त की इन तकलियों पर
धूप सी है जिंदगी
इक ख़ुशी की चाह में, हर
रात मावस की बदी.

रक्तरंजित, मन ह्रदय में
टीस की उबकाइयाँ
साथ मेरे चल रहीं
खामोश सी तनहाइयाँ

प्यार का हर रंग बदला
पत दरकने भी लगा
यह सहज युगबोध है या
फिर उजाले ने ठगा।
स्वार्थ की आँधी चली, मन
पर जमी हैं काइयाँ
साथ मेरे चल रहीं
खामोश सी तनहाइयाँ 

रास्ते अब एक हैं, पर
फासले भी दरमियाँ
दर्प की दीवार अंधी
तोड़ दो खामोशियाँ 




 मौन भी रचने लगे फिर
प्रेम की रुबाइयाँ।
साथ मेरे चल रहीं
खामोश सी तनहाइयाँ।
 शशि पुरवार

Sunday, May 21, 2017

गंध फूलों की




फिर चलो इस जिंदगी को 

गुनगुनाएँ  हम 
बैठ कर बातें करें औ
मुस्कुराएँ हम 

लान कुर्सी पर मधुर 
संगीत को सुन लें  
चाय की चुस्की भरे हर 
स्वाद को गुन लें   

प्रीत के निर्झर पलों को 
गुदगुदाएं हम 
फिर चलो इस जिंदगी को 
गुनगुनाएँ  हम
अनकही बातें कहें जो  
शेष हैं मन में 
गंध फूलों की समेटे 
आज दामन में.

नेह की, नम दूब से 
शबनम चुराएँ हम
फिर चलो इस जिंदगी को 
गुनगुनाएँ  हम

इस समय की धार में 
कुछ ख्वाब हैं छूटे 
उम्र भी छलने लगी, पर 
साज ना टूटे 

साँझ के शीतल पलों को 
जगमगाएँ  हम 
फिर चलो इस जिंदगी को 
गुनगुनाएँ  हम

जिंदगी की धूप में 
बेकल हुई  कलियाँ 
साथ तुम चलते रहे, यूँ  
कट गयीं गलियाँ 

एक मुट्ठी चाँदनी  में  
फिर नहाएँ  हम 
फिर चलो इस जिंदगी को 
गुनगुनाएँ  हम
- शशि पुरवार 

Friday, April 21, 2017

पॉँव जलते हैं हमारे "




शाख के पत्ते हरे कुछ
हो गए पीले किनारे
नित पिघलती धूप में,ये
पॉँव जलते हैं हमारे ।

मिट रहे इन जंगलों में
ठूँठ जैसी बस्तियाँ हैं
ईंट पत्थर और गारा
भेदती खामोशियाँ है

होंठ पपड़ाये  धरा के
और पंछी बेसहारे
नित पिघलती धूप में,ये
पॉँव जलते हैं हमारे ।


चमचमाती डामरों की
बिछ गयी चादर शहर में
लपलपाती सी हवा भी
मारती  सोंटे  पहर में

पेड़ बौने से घरों में,
धूप के ढूंढें सहारे
नित पिघलती धूप में,ये
पॉँव जलते हैं हमारे ।

गॉँव उजड़े, शहर रचते

महक सौंधी खो गयी है
पंछियों के गीत मधुरम
धार जैसे सो गयी है.

रेत से खिरने लगे है

आज तिनके भी हमारे
नित पिघलती धूप में,ये
 पॉँव जलते है हमारे

    ------ शशि पुरवार

पर्यावरण संरक्षण हेतु चयनित हुआ नवगीत।  पर्यावरण संगठन का आभार। 


Monday, March 27, 2017

कातर नजरें

भीड़ भरे शहरों में जीना  
मुश्किल लगता है 
धूल धुआँ भी खुली हवा में 
शामिल लगता है 

कोलाहल की इस बस्ती में 
झूठी सब  कसमें 
अस्त व्यस्त जीवन जीने की 
निभा रहे रसमें
सपनों की अंधी नगरी में   
धूमिल लगता है 

सुबह दोपहर, साँझ, ढले तक 
कलरव गीत नहीं 
कहने को सब संगी साथी 
पर मनमीत नहीं
एकाकीपन ही जीवन में   
हासिल  लगता है

हर चौखट से बाहर आती  
राम कहानी है 
कातर नज़रों से बहता, क्या  
गंदा पानी है 
मदिरा में डूबे रहना ही
महफ़िल लगता है 
 शशि पुरवार  

Wednesday, March 22, 2017

शूल वाले दिन

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अब नहीं मिलते डगर में
फूल वाले दिन 
आज खूँटी पर टंगे हैं 
शूल वाले दिन 

परिचयों की तितलियों ने 
पंख जब खोले 
साँस को चुभने लगे फिर  
दंश के शोले 
समय की रस धार में 
तूल वाले दिन 

मधुर रिश्तों में बिखरती 
गंध नरफत की 
रसविहीन होने लगी  
बातें इबादत की 
प्रीत का उपहास करते 
भूल वाले दिन। 

आँख से बहता नहीं 
पिघला हुआ लावा 
चरमराती कुर्सियों  का 
खोखला  दावा 
श्वेत वस्त्रों पर उभरते 
धूल वाले दिन। 
 - शशि पुरवार 

Monday, March 20, 2017

उड़ान का आभाष

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सपने जीवन का अभिन्न अंग हैं, मैंने भी कई सपने देखे लेकिन जिंदगी में सभी सपने सच होते चले जायेंगे सोचा न था. सपने अच्छे भी देखे तो दुखद स्वप्न भी देखे, सत्य यह भी है कि जिंदगी ने बहुत दर्द से रूबरू कराया। मेरा मानना है कि दर्द को क्यों जाहिर किया जाये वह सिर्फ दुःख ही देता है। इसीलिए अच्छा स्वप्न ही साझा करना चाहूँगी. बचपन का एक स्वप्न अवचेतन मन में आकर जैसे बस गया था। १० -११ वर्ष की उम्र में चंचलता और स्वप्न का सुन्दर तालमेल था, ढेर सारे सपने मन के आँगन में रंगोली बना रहे थे। सादा जीवन उच्च विचार मन को आकर्षित करते थे। आँखों में तीन स्वप्न थे जिसमे से एक की राह चुननी थी। सफल डॉक्टर बनना, सफल बिज़निस टॉयकून बनना या नेवी की अफसर बनना। लेकिन एक बार ऐसा स्वप्न देखा जिसे भूल नहीं सकी. जीवन की कठिन राहों पर स्वयं को लेखिका बनकर लोगों के बीच जीवित देखा कि मैं इस दुनिया से चली जाऊं किन्तु मेरे शब्दों के माध्यम से सबके समीप जीवित रहूंगी। स्वयं को लेखिका धर्म निभाते हुए देखना असमंजस में डाल गया था। खैर इसे स्वप्न समझ कर छोड़ भी दिया। अंतर्मुखी संवेदनशील स्वभाव के कारण अनुभूति को शब्दों में ढालना सदैव पसंद था, लेकिन उसे कभी प्रोफेशन के रूप में नहीं देखा था। जिंदगी की राहें अलग अलग राहों पर चलकर आगे अपनी राह बना रही थीं. पढाई पूरी होते ही नौकरी ज्वाइन की, लेखन जीवन का अभिन्न अंग था डायरी के पन्नो से निकालकर कब वह भी उड़ान भरने लगा इसका आभाष नहीं हुआ। हालाँकि हिंदी से अध्यन भी नहीं किया किन्तु कलम की अभिव्यक्ति का मार्ग कभी न छूट सका, कलम निरंतर बिना किसी चाहत के चलती रही, पारिवारिक बंधन व जिम्मेदारी के तहत नौकरी छोड़ी लेकिन कुछ कर गुजरने की आशा न छूट सकी. जब भी किसी ने तंज कसा कि क्रांति वादी विचार थे कि महिला को कुछ करना चाहिए। अब क्या करोगी,तब लोगों को प्रतिउत्तर नहीं दिया, मौन ही उसका उत्तर था। जिंदगी में इसी बीच ऐसी मार दी जिससे उबरना मुश्किल था, नामुमकिन नहीं। तन की मार से अपाहिज महसूस करती लेकिन मन के उद्गार उड़ान का आभाष कराते थे . कलम की ताकत व कुछ कर गुजरने की इच्छा शक्ति ने कब इसे मेरी जिंदगी बना दिया इसका एहसास बहुत बाद में हुआ। पाठकों ने अपने दिलों में स्थान देकर स्नेह वर्षा द्वारा जैसे मन के घावों को भर दिया। लेखन कब पन्नों से निकलकर दबे हुए स्वप्न को साकार कर गया, स्वयं ज्ञात न हुआ , आज सिर्फ इतना याद है कि ऐसा कोई स्वप्न देखा था, जिसे सोचकर मन ही मन मुस्कराहट आती थी। मैंने सिर्फ सतत कर्म किया, फल की चिन्ता कभी नहीं की, शायद नियति में यही तय था। स्वप्न साकार होते हैं, स्वप्न जरूर देखें। स्वप्न देखने व जीने की कोई उम्र नहीं होती है।
      -- शशि पुरवार 

Saturday, March 11, 2017

स्नेह रंग



गली गली में घूम रही है 
मस्तानों की टोली 
नीले, पीले, रंग हठीले 
आओ खेलें होली 

दरवाजे पर आँख  गड़ी है 
हाथों में गुब्बारे
सबरे खेलें आँख मिचौली 
मस्ती के फ़ब्बारे 

भेद भाव सब भूल गए 
बिखरी हँसी ठिठोली 
नीले, पीले, रंग  हठीले 
आओ खेलें होली।

सखा -सहेली मिलकर बैठे 
गीत फाग के गाएं 
देवर- भाभी, जीजा - साली
स्नेह रंग बरसाएं 

सजन उड़ाए, रंग गुलाबी 
रंगी प्रिय की चोली 
नीले, पीले, रंग  हठीले 
आओ खेलें होली।

भाँति भाँति के पकवानों की 
खुशबु ने भरमाया 
बिना बात की किलकारी ने 
भंग का रंग, बरसाया  

फागुन के रंगों में डूबे 
भीग रहे हमजोली 
नीले, पीले, रंग  हठीले 
आओ खेलें होली
शशि पुरवार 

होली की हार्दिक शुभकामनाएँ 




Tuesday, March 7, 2017

फागुनी दोहे - उत्सव वाले चंग



१ 

छैल छबीली फागुनी, मन मयूर मकरंद 
ढोल, मँजीरे, दादरा, बजे ह्रदय में छंद।  
 २ 
मौसम ने पाती लिखी, उड़ा गुलाबी रंग 
पात पात फागुन धरे, उत्सव वाले चंग। 
 ३ 
फगुनाहट से भर गई, मस्ती भरी उमंग
रोला ठुमरी दादरा, लगे थिरकने अंग। 
 ४ 
फागुन आयो री सखी, फूलों उडी सुगंध 
बौराया मनवा हँसे, नेह सिक्त अनुबंध। 
 ५ 
मौसम में केसर घुला, मदमाता अनुराग 
मस्ती के दिन चार है, फागुन गाये फाग। 
६ 
फागुन में ऐसा लगे, जैसे बरसी आग 
अंग अंग शीतल करें, खुशबु वाला बाग़.
७ 
हरी भरी सी वाटिका, मन चातक हर्षाय
कोयल कूके पेड़ पर, आम सरस ललचाय। 
८ 
सुबह सबेरे वाटिका, गंधो भरी सराय 
गर्म गर्म चुस्की भरी, पियें मसाला चाय।
 ९ 
होली की अठखेलियाँ, मस्ती भरी उमंग 
पकवानों में चुपके से, चढ़ा भंग का रंग 
 १०  
सरसों फूली खेत में, हल्दी भरा प्रसंग
पुरवाई से संग उडी, दिल की प्रीत पतंग 
 ११
हल्दी के थापे लगे, मन की उडी पतंग। 
सखी सहेली कर रहीं, कनबतियाँ रसवंत।

  -- शशि पुरवार 

मधुरिमा दैनिक भास्कर में प्रकाशित दोहे - 


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