Tuesday, September 18, 2012

जाने कहाँ आ गए हम



जाने कहाँ आ गए हम
छोड़ी धरती
चूमा गगन .

आकांशाओ  के  वृक्ष  पर  
बारूदो का  ढेर बनाया
तोड़े पहाड़ , कटाये   वन 
दूषित कर पवन ,रोग लगाया
सूखी हरीतिमा की  छाँव
सिमटे  खेत , गाँव
बना  मशीनी इंसान
पत्थर की मूरत भगवान .

जग का बदला स्वरुप
नए उपकरण ,
मशीनी इंसान ,
रोबोट सीखे काम ,
नए नए  आविष्कार
खूब फला कृत्रिम व्यापार 
मशीनी  होते काम
मानव  चाहे पूर्ण  आराम
माथे की मिट जाये  शिकन .

भर बारूद , रोकेट
संग, उड़  चला अंतरिक
विधु  पे पड़े कदम 
मिला नया मुकाम ,
पर धुएं में मिले जहर से 
कम होती ओजोन की  छाँव
सौर मंडल पर भी
प्रदुषण के बढ़ते कदम
यह हार है या जीत
जब खतरा बन रही
जीवन पर , अविष्कारों 
की बढती भीड़
न बच सकी धरणी 
न छूटा  गगन .
-------------शशि पुरवार

Saturday, September 15, 2012

मेहंदी लगे हाथ......!



मेहंदी लगे हाथ कर रहें हैं 
पिया का इंतजार
सात फेरो संग माँगा है 
उम्र भर का साथ. 


यूँ  मिलें फिर दो अजनबी
जैसे नदी के दो किनारो
का हुआ है संगम, फिर
बदल गयी हैं  दिशाए
जीवन की मधुरम हवाए 

और 
बहने लगी एक जलधारा .

नाजुक होते हैं यह रिश्ते
कांच से कच्चे धागों से बंधी हुई
विश्वास की डोर, दिलो की प्रीत 

,पर
कठिन  हैं जीवन की
पथरीली राहों का सफर.  
मजबूती के साथ चल रहे हैं हम
एक गाड़ी के दो पहिये; जिसे
तोड़ न सके कोई कंकर

प्रेम की इन गलियों में
उलफत कभी न होगी कम
बस इक खलिस है
ह्रदय में; 

 सनम
अंतिम ख्वाहिश मानकर
जिगर में मत रखना कोई रंज
पहले इस जहान  से रुकसत होंगे
 हम , 
इक सुहागन बन कर ही
निकले मेरा दम  

खाली रह जाएँ ना हाथ
करतल पे लगा देना मेहंदी

चढ़ जाये पुनः प्रेम का रंग ; फिर
यह जन्म न मिलेगा बार बार .
----------- शशि पुरवार

Wednesday, September 12, 2012

जग की जननी है नारी ........!

 
जग की जननी है नारी
विषम परिवेश में नहीं हारी 

काली का  धरा रूप , जब
संतान पे पड़ी विपदा भारी
सह लेती काटों का दर्द
पर हरा देता एक मर्द

क्यूँ रूह तक कांप जाती
अन्याय के खिलाफ
आवाज नहीं उठाती
ममता की ऐसी मूरत
पी कर दर्द हंसती सूरत 
छलनी हो रहे आत्मा के तार
चित्कारता ह्रदय करे पुकार
आज नारी के अस्तित्व का सवाल
परिवर्तन के नाम उठा बबाल 
वक़्त की है पुकार
नारी को भी मिले उसके अधिकार
कर्मण्यता , सहिष्णु , उदारचेता
है उसकी पहचान
स्वत्व से मिला  सम्मान .

जग की जननी है नारी 
विषम परिवेश  में नहीं हारी .
---------------- शशि पुरवार

Thursday, September 6, 2012

मेरे मन का अभिमन्यु ,


जीवन चक्र
कठिन है राहों की डगर
खिले हैं जो फूल, उन्हें
शूल का भी सहना होगा दर्द।
सुख का छोटा सा पल

बीत रहा है यूँ ,
वक़्त का पहिया
तेजी से घूमता हरपल .

दुःख से रीत जाते

सारे एहसास
निकल जाता है वक़्त
बिखरते है ख्वाब ,पर
कर्म की वेदी पर
नहीं हारता
मेरे मन का अभिमन्यु ,

आशा का छोटा सा दिया

जगमगाता है काली रात में
तम में भी रहता
रौशनी का बसेरा ,
वक़्त का होता पग -फेरा
हर रात के बाद है सबेरा
लिखना यूँ नया इतिहास
रौशन हो कलम से
रचे एहसास
एक नयी शुरुआत
सुनहरी किरणों का प्रकाश
नए शून्य की तलाश
एक नया आकाश .

-----शशि पुरवार

Monday, September 3, 2012

जीवन के रंग ...!





चोका 

यह जीवन
है गहरा गागर
सुख औ दुःख
गाड़ी के दो पहिये
धूप औ छाँव
सुख के दिन चार
आँख के आँसू
छलते हरबार
जो पाँव तले 
खिसकती धरती
अधूरी प्यास
पहाड़ -सा ह्रदय
शोक -विषाद
अत्यंत मंथर हैं
बोझिल पल 
वक़्त की रेतघडी
धीमा है पल
संकल्पों का संघर्ष
फौलादी जंग
आगमन -प्रस्थान
अभिन्न अंग
मुट्ठी से फिसलते
सुखद पल
वक़्त का पग -फेरा
बहता जल 
पतझर -सा झरे
दुर्गम पथ
बदलता मौसम
भोर के  पल
सुनहरी किरण
परिवर्तन
मोहजाल से मुक्त
वर्तमान के
खुशहाल लम्हों का
करो  स्वागत
छिटकी है मुस्कान
जीवन में उदित
नया है रास्ता
खुशियों की तलाश
सुनहरी सौगात .

-------------------

हाइकु ---
1 चांदनी रात
 नयना बहे नीर
  दुःख की पीर .

2 रिश्तो में मिला
पल पल छलावा
  मन का  दर्द .
3 वक़्त के साथ
भर जाते  है जख्म
 रिसते  घाव .
4 सुख खातिर
करे सारे जतन
कठिन तप
5 पतझर से
झरते है नयन
प्रेम अगन
6
रिश्तो की लड़ी
बिताये हुए पल
है जमा पूंजी .
7
अश्क आँखों के
सुख गए है अब
रीता झरना
8 पीर तन की
अब सही न जाती
वृद्धा आश्रम
9 आँखों में देखा
छलकता पैमाना
सुखसागर
10  खामोश रात्र
सन्नाटे में बिखरी
तेज चीत्कार
11 सुख के सब
होते है संगी साथी
स्वार्थी जहान .
12 तीखे संवाद
दबी है सिसकार
मन की हूक .
13
नन्हे कदम
मोहिनी म्रदु हास्य
खिला अंगना .
15 यह जीवन
आत्मा होती अमर
चंचल मन .
16 तेरे आने की
हवा भी दे सूचना
धडके दिल .
17
सूना अंगना
महका गुलशन
खिले जो फूल  .
18 खिली मुस्कान
 मासूम बचपन
  मन मोहन .
 ----शशि पुरवार 



Saturday, September 1, 2012

कुण्डलियाँ

1
  चक्षु ज्ञान के खोलिए,जीवन है अनमोल.
  शब्द बहुत ही कीमती,सोच-समझ कर बोल.
  सोच-समझ कर बोल,बिगड़ जाते हैं नाते.
  रहे सफलता दूर, मित्र भी पास न आते.
   मिटे सकल अज्ञान, ग्रन्थ की बात मान के.
  फैलेगा आलोक,खोल मन चक्षु ज्ञान के.

 2
 संगति का होता असर,वैसा होता नाम.
 सही रहगुजर यदि मिले,पूरे होते काम.
  पूरे होते काम ,कभी अभिमान न करना.
  जीवन कर्म प्रधान,कर्म से कैसा डरना.
 मिले यदि सही साथ,मार्जन होता मति का.
  जीवन बने महान,असर ऐसा संगति का.
3
 समय -शिला पर बैठकर, शहर बनाते चित्र.
सूख गयी जल की नहर, जंगल सिकुड़े ,मित्र.
जंगल सिकुड़े,मित्र,सिमटकर गाँव खड़े हैं .
मिले गलत परिणाम,मानवी-कदम पड़े हैं
बढती जाती भूख,और बढ़ता जाता डर.
लिखें शहर इतिहास,बैठकर समय-शिला पर.
  नेकी अपनी छोड़ कर , बदल गया इंसान 
  मक्कारी का राज है , डोल गया ईमान 
  डोल  गया ईमान  , देखकर रूपया पैसा 
  रहा आत्मा बेच , आदमी यह कैसा 
  दो पैसे के  हेतु  , अस्मिता उसने फेकी 
   चोराहे पर नग्न  , आदमी भूला नेकी
          ----------शशि पुरवार
 
 

Wednesday, August 29, 2012

परिवर्तन --


परिवर्तन --

वक़्त के साथ
अंकित मानस पटल पे
जमा अवशेषों का
एक नया परिवर्तन .

झिरी  से आती
ठंडी हवा का झोखा
प्रीतकर लागे
पर अनंत बेड़ियों में जकड़ी 
आजाद  होने को बेकरार
घुटती साँसे
फडफडाते घायल पंछी सी
मांगे सुनहरी किरणों का
एक  नया रौशनदान
बड़ा परिवर्तन .

आजादी ने बदला
बाहरी आवरण ,पर
सोने के पिंजरें में
कैद है रूढ़िवादियाँ ,
जैसे एक कुंए का मेंढक ,
न जाने समुन्दर की गहराई
उथले पानी का जीवन
बस सिर्फ सडन
चाहे खुला आसमाँ
इक  परिवर्तन .

खंडहर होते  महल
लगे कई पैबंद
विशाल दरवाजो में सीलन
जंग लगे ताले के भीतर
खोखला  तन
पोपली बातें
थोथले विचार
जर्जर मन का
फलता फूलता
विशाल राज पाट
वक़्त की है पुकार
हो नवीनीकरण
बड़ा गहरा परिवर्तन .

आजाद गगन में
उड़ते पंछी
भागते पल
एक नया जहाँ
नई पीढ़ी थामें हाथ
पुरानी पीढ़ी का कदमताल
कर रहा पीढ़ियों का अंतर कम
सभ्यता , संस्कृति
आधुनिकता का अनूठा संगम
संग  ऊंची उडान
खिलखिलाते ,सुनहरे
पलों का अभिवादन
दिनरात का
सकारात्मक परिवर्तन ......!

वक़्त की पुकार ....!
           --------शशि पुरवार

Monday, August 27, 2012

दर्द जब बढ़ जाये ........!


दर्द  जब बढ़ जाये
एक नशा बन कर
तन को पीता जाये
इस बेदर्द दुनिया से
दर्द कभी न बांटा जाये.

सुख के सभी होते है साथी
दुःख में कभी काम न आये
हमेशा नेकी ही डूबे दरियां में
हाँथो में सिर्फ पत्थर नजर आये .

कांच के शीशमहल में


सुन्दर ऊँची दीवारों में
दिखती है सिर्फ चमक
लाश तो किसी को भी
 नजर ही न आये  .

यह वक़्त भी बड़ा बेदर्द  
अच्छाई को सदा छुपा जाये
कर्म किसी को भी न दिखे 
जनाजा निकल जाने के बाद ही
हवा  के रूख में थोड़ी नमी आये .


घूमते है महल में लाश बनकर
शरीर दफनाने पे अब तो
हँसी भी न आये .



बेदर्द दुनिया में ,
नजर आते है सिर्फ  बंकर 
प्यारा सा सीधा साधा दिल
कभी भी किसी को
नजर न आये .
-------- शशि पुरवार

Wednesday, August 22, 2012

मन का पंछी.!

 
तांका 
1 मन का पंछी
पंहुचा फलक में
स्वप्न अपने
करने को साकार
कर्म की बेदी पर .

2 बन के पंछी
उड़ जाऊ नभ में
शांति संदेश 
पहुचाऊ जग में
बन के शांति दूत .

3 उड़ते पल
हाथ की लकीर पे
नया आयाम
रचो कर्म भूमि पे
तप के बनो सोना .

4 मूक पंछी में
जानू प्रेम की भाषा
नीड़ बनाता
रंगबिरंगे स्वप्न
तैरते नयनो में .

-------शशि पुरवार

Friday, August 17, 2012

माँ की पुकार ...!


न हिन्दू , न मुसलमान
न सिख , न ईसाई .
मेरे आँचल के लाल
तुम सब हो भाई भाई
गौर से देखो मुझे
मै तुम सबकी माई .

क्यूँ लड़ते हो आपस में
बैर की भावना
मन में क्यूँ समाई
कर दोगे हज़ार टुकड़े , मेरे
क्या यही कसम है तुमने खाई.

सत्ता के नशे में चूर
चश्मा कुर्सी का चढ़ा है ऐसा ,
कि नज़रे घुमाते ही ,
चारो तरफ बस ,
कुर्सी ही कुर्सी नज़र आई..
आँखों से टपकती हैवानियत में
लुटती हुई माँ कहीं नजर ही न आई .

भारत की सरजमीं को सीचा था,
जिस प्यार व एकता ने ,
आज फिर वही
टूटती - बिखरती नज़र आई
कटते जा रहे है अंग मेरे ,
ममता आज मेरी ,
बहुत बेबस नज़र आई ....!

आतंकवाद , भ्रष्टाचार और हैवानियत से
छलनी कर सीना मेरा ,
ये कैसी विजय है पाई .
माता के तो कण - कण में बसी है,
शहीदो के प्यार व त्याग की गहराई .

मत कटने दो अब अंग मेरा
बहुत मुश्किलों से ,
बेडियो से ,
मुक्ती है पाई
तुम सब तो हो भाई-भाई
गौर से देखो मुझे
मै हूँ तुम सब की माई .

सुनो हे वत्स
अपनी इस धरती
माँ की पुकार
इसी माटी पे जन्मे
वीर लाल , छोड गए है
बंधुत्व की अमित छाप
पर तुम्हारी करतूतों से
माँ हो रही जार -जार .
एक वक़्त था जब
धरा उगलती थी सोना
आज कोख हो रही उजाड़
आँचल भी हुआ है तार तार
यह कैसी ऋतु आई

खाओ कसम न करोगे
अपने भाई का सर कलम
न खेलो खूनी होली
ना काटो मेरे अंग
दो मिसाल एकता
और भाई चारे की
तो सुरक्षित हो जाये वतन
जन्मभूमि तुम्हारी आज
मांग रही तुमसे यह वचन
मेरे आँचल के लाल
तुम सब तो हो भाई भाई
गौर से देखो मुझे मै
तुम सब भी प्यारी माई.

--------- शशि पुरवार

Wednesday, August 15, 2012

जय भारत .....तुझे सलाम .


  शूर की रसा 
   तरुण कंधो पे है
    राष्ट्र की धारा.

 २  भाषा अनेक 
     बंधुभाव है एक 
    राष्ट्र की शान .

३    वतन में जाँ
   तिरंगे को सलाम
     राष्ट्रीयगान .

 4   जीवनशक्ति
    मातृभूमि हमारी
     भारत माता .

५    गौरवशाली
   हिंद की जगद्योनि
     जन्मे बाँकुड़ा .

6  मेरा  भारत
   स्वर्ग सा मनोरम  
     पावन गंगा .

7 दिल औ जान
  तुझपे न्यौझावर
    मेरे वतन .

8 धर्म संस्कृति
  अमन  की चाहत 
  साँसों में बसी  .

9  जान से ज्यादा 
   तिरंगा हमें  प्यारा
     तुझे सलाम  .

 10  भारत है
  हमको जां से प्यारा
    जय भारत .
  



        -----  शशि पुरवार

सभी  दोस्तों को 15 अगस्त की हार्दिक शुभकामनाय .............वन्दे मातरम .

Sunday, August 12, 2012

दोहे ........

1  सबसे कहे पुकार कर , यह वसुधा दिन रात
   जितनी कम वन सम्पदा , उतनी कम बरसात .

2   इन फूलो के देखिये , भिन्न भिन्न है नाम
   रूप रंग से भी परे , खुशबु भी पहचान .

 3 समय- शिला पर बैठकर , शहर बनाते चित्र
    सूख गई जल की नदी , सिकुड़े जंगल मित्र .

   
------------------- हाइकु -------------

क्लांत नदिया
वाट जोहे सावन
जलाए भानु .
...

आया सावन
खिलखिलाई धरा
नाचे झरने .

नाचे मयूर
झूम उठा सावन
चंचल बूंदे.

काली घटाए
सूरज को छुपाये
आँख मिचोली .

बैरी बदरा
घुमड़ घुमड़ के
आया सावन .
----- शशि पुरवार

Tuesday, August 7, 2012

नेह बरसते........

 मौसम सुहाना
श्रावण का बहाना
सावनी तीज में
रिमझिम रिमझिम
 सलोनो पे
नेह बरसते.

 चंचल बचपन 
रूसना  - मनाना 
लड़ना - झगड़ना
खेलते - हँसते ,
मृदुल  मानस
 पटल पे 
अंकित मधुर
 स्नेह के 
पक्के रिश्ते .

बदली बेला की
परिपाटी
किया सोलह श्रृंगार 
जवानो के संग 
बहना भी तैयार ,
ह्रदय  में सरगर्मी 
मन में झंकार 
उबलता लहू 
मर मिटने को बेताब 
गर्व से फूली छाती 
नूर नैनो में भरते .


 निमित्त भाव 
 मधुर बेला  में
  सुशोभित 
 तिलक ललाट 
 पाणी मूल पे रक्षा सूत्र
अधरों पे विजयगान  
अग्रज तुम्हारे खंधो पे 
 है  वतन का  मान 
 गर्मजोशी भरे क्षण 
करते सरहद पे विदा 
पर नयनो से  
मोती न झरते .

एक नयी पहल 
संरक्षित  हो 
हरित चादर 
बांध तरुवर को तागा
जेठ से किया वादा
खिलेगी  सलोनी धरा 
बरसेंगे  फूल ,होगा 
अवनि का  उपहार 
कर श्रावण का बहाना 
इन्द्र भी झमाझम बरसते . 

सुखमय पल 
जीवन भर
होती  मधुर यादें
रक्षाबंधन की सौगात 

स्नेह और मिलन 
का  पर्व 
वचन का पालन 
वादों का सम्मान 
रेशमी डोर से बंधे
 ये रिश्ते खूब फलते . 

       ---शशि पुरवार



 





  




 
  
 

Sunday, August 5, 2012

बैरी बदरा


क्षणिकाएँ, 

बैरी बदरा
घुमड़ घुमड़
आये भावन
देखो झूम के
बरस गया सावन .

बूंदो को लड़ी
बरखा सी झड़ी
पवन मतवाली
इठला के चली
चूमती पर्णों को
कर्ण में मिसरी सी घुली !
पर्ण के कोरो पे
पड़ित बूंदें  जैसे
बिखरे धवल मणि .

मखमली हरित बिछोना
फूली अमराई
कानन मे
विशालकाय गिरि पे
 व्योम ने
भीनी चुनर उढाई
मदमाता सा बहे 
जलप्रपात
उदधि का गर्जन
परिंदो का कलरव
दरिया का उफनना
पुरंदर के इशारे
जम के बरसे घन.

सावन के पड़े झूले
गाँवो मे लगे मेले 
हिंडोले लेता मन
करतल पे रची हिना
हरी हरी चूड़ियाँ
पहने गाँव की गोरियां
इठलाती सी ये
अल्हड परियां .......!

       ----------   शशि पुरवार



 




Friday, August 3, 2012

रक्षाकवच ....

हाइकु


१   आया है पर्व 
    राखी का त्यौहार 
      स्नेह उल्लास .

२   सजी दुकाने 
    कलावे रंगबिरंगे
     रेशमी धागे .

३   आई है बहना
   सजी पूजा की थाली
     रेशमी डोरी  .

४   पूजा की थाली 
   रोली चावल बाती
    अन्न मिष्ठान .

५    ललाट टीका
    सजा रोली चावल 
     नेह बरसे  .


६     राखी की डोर 
     स्नेह का है प्रतिक
        रक्षाकवच .

७    रक्षाबंधन  
    आत्मीयता स्नेह 
     मिश्री मिठास .

८   नाजुक डोरी 
   बंधी  कलाई पर 
     है  रक्षाक्षूत्र .
  
  ९   खास तोहफा 
    बरसते आशीष 
      जीवन भर  .



१०   भैया हमारा 
      सर्वदा सकुशल  
      यही है अर्ज .
             --------शशि पुरवार

सदोका ---

१ स्नेह प्रतीक 
 बंधा है मणिबंध
 रेशम  के तागे से 
   रक्षाकवच
 अटूट है बंधन
 बहिन का भाई से .


२  सजे बाजार 
    शबल परिधान 
   मखमली राखियाँ 
    अन्न मिष्ठान 
  पूजा की थाली संग
   है स्नेहिल मुस्कान .

३  सजी रंगोली 
   किया  है अनुष्ठान  
   पूजा व्रत विधान 
    भाई के नाम 
   ईश्वर से कामना
    सर्वथा संरक्षित  .

 ४  भैया मोरे तू 
   रिश्ते की प्रतिष्ठा
   अब तेरे ही हाथ 
     रक्षाकवच 
   सदा रहेगा साथ
   स्नेहिल ये बंधन .
            -------  शशि पुरवार 

 


 
 




 


 

Friday, July 27, 2012

चपाती

 
चपाती कितनी तरसाती
गरीबो की थाली उसे
रास ही नहीं आती .

किसान बोये धान
और सबको दे मुस्कान
दो जून रोटी की खातिर
छोटे बड़े मिलकर
करते श्रमदान
पर लुटेरो को उनकी
पीड़ा नजर ही नहीं आती
छीन कर ले जाते निवाला
लोलुपता ही उन्हें नजर आती .

तन की भूख मिटाने को
बस मन में है लगन
आएगा कुछ धन तो
मिट जाएगी पेट की अगन
पर माथे की शिकन मिट
ही नहीं पाती , और
महँगी हो जाती चपाती .

श्रम का नहीं मिलता मोल
दुनिया भी पूरी गोल
थाली में आया सिर्फ भात ,
सूनी कर गरीबो की आस
पंच सितारा,होटलो
और बंगले में
इठला के चली गयी चपाती .

इतनी शान बान
अचंभित हर इंसान
चांदी के बर्तनो में
परोसी गयी चपाती
पर यह क्या, हाथ में रह
गए सिर्फ ड्रिंक ,और
चमचमाती थाली में
छूट गयी चपाती .

झूठन में फेककर
कचरे में मिलकर
पुनः जमीं पर आती
भूखे लाचार इंसानो
की भूख मिटाती,
नहीं तो वहीँ पे पड़ी -पड़ी
मिटटी में मिल जाती चपाती .

चपाती कितनी तरसाती
गरीबो की थाली उसे
रास ही नहीं आती ...........!

-------शशि पुरवार----------

Thursday, July 12, 2012

अकेला आदमी

 
अधुनातन लम्हो में
स्वतः ही खनकती
हंसी को टटोलता
अकेला आदमी .

लोलुपता की चाह में
बिखर गए रिश्ते
छोड़ अपनी रहगुजर
फलक में
उड़ चला आदमी .

उपलब्धियो के
शीशमहल में
सुभिताओं से
लैस कोष्ठ में ,
खुद को छलता ,
दुनिया से
संपर्क करता ,
पर एक कांधे को
तरसता 
आदमी .

उतंग पर खड़ा ,
कल्पित अवहास
अभिवाद करता
अज्ञात मुखड़ो
को तकता ,
भीड़ में भी
इकलंत आदमी .
----- शशि पुरवार

Saturday, July 7, 2012

माँ उदास ....!



माँ उदास
मारती रही औलाद 
तीखे संवाद ,
भयी कोख उजाड़ .

बरसा सावन तो
पी  गए नयन
दबी सिसकियां
शिथिल तन
उजड़ गयी कोख
तार तार दामन .

खून से सने हाथ 
भ्रूण न ले सके सांस 
चित्कारी आह 
हो रहा गुनाह
माँ की रूह को 
छलनी कर 
सिर्फ पुत्र चाह .

जिस कोख से जन्मे देव 
उसी कोख के
अस्तित्व का सवाल
सृष्टि की सृजक नारी 
आत्मा जार जार 
हो रहा कत्लोआम 
परिवर्तन की पुकार .
                   माँ उदास ......भयी  कोख उजाड़ ....! 
-------    शशि पुरवार





Wednesday, July 4, 2012

बारिश की बूंदे.....



बारिश की बूंदे
जरा जोर से बरसो
घुल कर बह जाये आंसू
न दिखे कोई गम
जिंदगी में नहीं मिलती है
जो , ख़ुशी चाहते हम ...!

अंदर -बाहर है तपन
दिल में लगी अगन
दर्द की भी चुभन
झिम झिम बरसे जब सावन
क्या अम्बर क्या नयन
बह जाये सारे गम
बूंदे जरा जोर से बरसो
भीग जाये तन -मन ....!

टप-टप करती बूंदे
छेड़े है गान
पवन की शीतलता
पात भी करे बयां

सौधी
  खुशबु नथुनो से
रूह तक समाये
चेहरे पर पड़ती बूंदे
मन के चक्षु खोल
अधरो पे मुस्कान बिछाये
गम की लकीरें पेशानी से
कुछ जरा कम हो जाये
बूंदे जरा जोर से बरसो ...!

:--शशि पुरवार
=====================

एक क्षणिका भी छोटी सी --

आई बारिश
खिल उठा मन
झूम उठा मौसम
जीभ को लगी अगन
चाय -पकोड़े का
थामा दामन ,
गर्म प्याली चाय की
ले एक चुस्की , और
भूल जा सारे गम
इन खुशगवार पलों का
है बस आनंदम ....!
-----शशि पुरवार

समीक्षा -- है न -

  शशि पुरवार  Shashipurwar@gmail.com समीक्षा है न - मुकेश कुमार सिन्हा  है ना “ मुकेश कुमार सिन्हा का काव्य संग्रह  जिसमें प्रेम के विविध रं...

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