shashi purwar writer
Tuesday, June 5, 2012
Saturday, June 2, 2012
शिशु सा मन ....!
आँखों का पानी
बनावट के फूल
कच्चे है धागे .
घना कोहरा
नजरो का है फेर
गहरी खाई .
रूई सा फाहा
नजरो में समाया
उतरी मिस्ट .
कोई न जाने
दर्द दिल में बंद
बेटी पराई .
अकेलापन
मन की उतरन
अँधेरी रात .
सफ़र संग
छटती हुई धुंध
कटु सत्य .
चटक लाल
प्राकृतिक खुमार
अमलतास .
तीखी चुभन
घुमड़ते बादल
तेज रफ़्तार .
खारा लवण
कसैला हुआ मन
समुद्री जल .
उड़ता पंछी
पिंजरे में जकड़ा
है परकटा .
तेज हवा में
सुलगता है दर्द
जमती बर्फ .
उफना दर्द
जख्म बने नासूर
स्वाभिमान के .
शिशु सा मन
ढूंढता है आँचल
प्यार से भरा .
:--शशि पुरवार
Tuesday, May 8, 2012
तपन की है प्यास
१) जलता भानु
उष्णता की चुभन
रातें भी नम.
२) रसीली आस
तपन की है प्यास
शीतल जल .
३) कैरी का पना
आम की बादशाई
खूब है भाई .
४ ) बर्फ का गोला
रंगबिरंगी कुल्फी
गर्मी भगाई
५ ) पानी की तंगी
मचा है हाहाकार
गर्मी की मार .
6) वृक्ष रोपण
सुरक्षा का कवच
है हरियाली .
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दो तांका--
१) बीतता पल
सुनहरी डगर
भविष्य निधि
निर्माणधीन आज
कर्म की बढती प्यास .
२) कल की बाते
पीछे छूट जाती है
आने वाला है
भविष्य का प्रहर
नयी है शुरुआत .
-- शशि पुरवार
दोस्तो मै बाहर टूर पर होने के कारण ब्लॉग पर नही आ सकती .वापिस आकर जल्दी ही आप सबसे मिलती हूँ तब तक के लिए आज्ञा दे ......आप सभी के दिन और गर्मियो के पल आनंदमयी हो .......इसी कामना के साथ आपसे विदा लेती हूँ . जून में आपसे मुलाक़ात होगी .
Saturday, April 28, 2012
जीवन मुट्ठी से फिसलती रेत....
जीवन मुट्ठी से फिसलती रेत
पल -पल बदलता
वक़्त का फेर
हिम्मत से डटे रहना
यहीं है कर्मो का खेल !
हर आहट देती है
सुनहरे कदमो के निशां
चिलचिलाती धुप में
नंगे पैरों से चलकर
बनता है आशियाँ !
छोड़ो बीती बातें
मुड के न देखना
वक़्त जीने का है कम
रस्सी को ज्यादा न खेचना !
जीवन आस की पगडण्डी
इसके टेढ़े -मेढ़े है रास्ते
आसां नहीं है यह पथ
हिम्मत कभी न छोड़ना
अथाह है जीवन का समंदर
प्यास बढती ही जाती
पार हो जायेगा तू , हे नाविक
हाथों से इसको खेना !
उम्र न ठहरेगी एक पल
जी ले प्राणी,
तू मन का चंचल
मौत आएगी चुपके से
तब ख़त्म हो जायेगा यह सफ़र !
जीवन मुट्ठी से .............!
:-- शशि पुरवार
Saturday, April 21, 2012
देव नहीं मै
देव नहीं मै
साधारण मानव
मन का साफ़
बांटता हूँ मुस्कान
चुप रहता
कांटो पर चलता
कर्म करता
फल की चिंता नहीं
मन की यात्रा
आत्ममंथन , स्वयं
अनुभव से
छल कपट से परे
कभी दरका
भीतर से चटका
स्वयं से लड़ा
फिर से उठ खड़ा
जो भी है देखा
अपना या पराया
स्वार्थ भरा
दिल तोड़े जमाना
आत्मा छलनी
खुदा से क्या मांगना
अन्तः रूदन
मन को न जाना
शांत हो मन
छोड़ो कल की बात
जी लो पलो को
नासमझ जमाना
खुद को संभालना
:--शशि पुरवार
Tuesday, April 17, 2012
........यह जीवन .....
..........यह जीवन . ......
यह जीवन
कर्म से पहचान
तन ना धन
गुण से चार चाँद
आत्मिक है मंथन .
यह जीवन
तुझ बिन है सूना
हमसफ़र
वचन सात फेरे
जन्मो का है बंधन .
यह जीवन
कमजोर है दिल
चंचल मन
मृगतृष्णा चरम
कुसंगति लोलुप .
यह जीवन
एक खुली किताब
धूर्त इंसानों
से पटा सारा विश्व
सच्चाई जार जार .
यह जीवन
वक़्त पड़ता कम
एकाकीपन
जमा पूँजी है रिश्ते
बिखरे छन - छन .
यह जीवन
अध्यात्मिक पहल
परमानन्द
भोगविलासिता से
परे संतुष्ट मन .
यह जीवन
होता जब सफल
पवित्र आत्मा
न्यौझावर तुझपे
मेरे प्यारे वतन .
यह जीवन
नश्वर है शरीर
पवित्र मन
आत्मा तो है अमर
मृत्यु शांत निश्छल .
:--------शशि पुरवार
Sunday, April 15, 2012
अहंकार - पतन का मार्ग
आत्मा से चिपका
प्रयासों में घुसा
परिग्रह
... हुआ " मै "!
" मै " जब ठहरा
विस्तार हुआ ...
जागृत रूप में " मेरा ".
"मेरा " कब " अहं" बना ..?
अपरिग्रह .
अहंकार - पतन का मार्ग
आत्मा - निराकार
वस्तु - भोग विलास
"मै " , "अहं " !
अशांति , हिंसा की
प्रथम शुरुआत .
नहीं इसके संग
जीवन , शांति ,
विकास ,प्रगति का मार्ग .
जीने की राह ...!
आत्मसाध .
सरल सादा अंदाज
सभी निराकार .
:- शशि पुरवार
जब मै का भाव आत्मा से चिपक जाता है वक्त का सितम शुरू हो जाता है एवम व्यक्ति इसके लिए खुदा को दोष देता है ......पर अहं हमारे भीतर प्रवेश करता है तो क्या अच्छा क्या बुरा सिर्फ "मै " ही दिखता है और यही से पतन की शुरुआत होती है व मानव खुद को ही सर्वोपरि मानता है ..........
शशि पुरवार
Friday, April 13, 2012
रफ्ता -रफ्ता.....
रफ्ता -रफ्ता यादो के बादल छाते है
हम तेरे शहर से दूर अब जाते है .
वक्त का सितम तो कुछ कम नहीं है
पर तेरी बेरूखी से हम तो मरे जाते है .
ज़माने में रुसवा न हो जाये प्यार मेरा
चुपके से नजरे झुका के निकल जाते है .
इन्तिहाँ है यह सच्चे प्यार व इंतजार की
तेरी खातिर हम झूठी मुस्कान दिखाते है .
सदैव खुश रहे तू यही दुआ है मेरी
तेरी खातिर हम खुदा के दर भी जाते है .
रफ्ता -रफ्ता .......!
:---शशि पुरवार
Wednesday, April 11, 2012
वो पल वह मंजर.............!
वो पल
वह मंजर
लूटता सा ,
बिस्फारित नयन
वो लम्हा
दिल दहलता
विव्हल रूदन
चीत्कार
मचा हाहाकार
छितरे मानव अंग
बिखरा खून
सूखे नयन
उस क्षण
फैलती आँखे
रूक गयी साँसे
भयावह विस्फोट
गोलियों की बौछार
आतंकी तांडव
वो काली स्याह रात
मानवता की हार
चकित नयन
सुनसान रस्ते
भयभीत चेहरे
ठहरती धड़कन
आने वाला लम्हा
ख़त्म किसका जीवन
सिसकियाँ प्रार्थना
मौत का सामना
ठहर गया वक्त
छलकतेनयन
वो पल
वह मंजर .............!
:--शशि पुरवार
Monday, April 9, 2012
हरसिंगार.........2
हरसिंगार
जीने की आस
बढ़ता उल्लास
महकता जाये
भीनी भीनी मोहक सुगंध
रोम -रोम में समाये
मदहोश हुआ मतवाला तन
बिन पिए नशा चढ़ता जाये
शैफाली के आगोश में लिपटा शमा
मधुशाला बनता जाये
पारिजात महकता जाये
संग हो जब सजन -सजनी
मन हरसिंगार
विश्वास -प्रेम के खिले फूल
जीवन में लाये बहार
प्यार का बढ़ता उन्माद
पल-पल शिउली सा
महकता जाये ...!
नयनो में समाया शीतल रूप
जीवन के पथ पर कड़कती धूप
न हारो मन के साथ
महकने की हो प्यास
कर्म ही है सुवास
मुस्काता उल्लास
जीवन हरसिंगार
महकता जाये ...!
:_---शशि पुरवार
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