Tuesday, August 15, 2017

नेता जी का भाषण





गाँव के नवोदित नेता ललिया प्रसाद अपनी जीत के जश्न में सराबोर कुर्सी का बहुत ही आनंद ले रहे थे। कभी सोचा न था सरकारी कुर्सी पर ऐसे बैठेंगे। पाँव पर पाँव धरे पचपन इंच सीना चौड़ा करके (छप्पन इंच कहने की हिम्मत कहाँ?), मुख पर ३२ इंच की जोशीली मुस्कान के साथ नेता जी कुर्सी में ऐसे धँसे हुए बैठे थे मानो उससे चिपक ही गए हों। साम दाम दंड भेद की नीति से कुर्सी मिल ही गयीभगवान् जाने फिर यह मौका मिले या न मिलेपूरा आनंद ले लो। कुर्सी मिलते ही चमचे बरसाती पानी जैसे जमा होने लगे। जैसे गुड़ पर मक्खी भिनभिनाती है वैसे ही हमारे नेताजी के चमचे जमा होकर भन भन कर रहे थे।

तभी नेताजी का खास चमचा रामखेलावन खबर लेकर आया कि १५ अगस्त पर उन्हें तहसील के प्रांगण में झंडा वंदन करना है। अब तो जोश जैसे और दुगना हो गयानेता जी दिन में जागते हुए स्वप्न देखने लगे। लोगों के हुजूमतालियों की गडगडाहट के बीच बड़े स्वाभिमान से झंडे की डोरी खींचकर झटपट झंडा लहरा दिया। तभी धडाम की आवाज के साथ नेता जी उछलकर कुर्सी से गिर पड़े। दिवास्वप्न टूट गयादेखा तो दरवाजे का पर्दा उनके ऊपर पड़ा था और वे जमीन की धूल चाट रहे थे। यह देख रामखेलावन समेत सारे चमचे जोर जोर से बत्तीसी दिखाने लगे। नेताजी खिसियानी बिल्ली की तरह बरामदे का खम्भा नोचने लगे और उनकी खतरनाक मुख मुद्रा देखकर सारे चमचे ऐसे गायब हुए जैसे गधे के सिर से सींग।
नेता जी बड़बड़ाने लगेहम पर हँसते होकभी खुद ई सब किये होते तो पता चलता रस्सी खेंचना का होवत है। भक भक... अब तुम काहे दाँत दिखा रहे होकछु काम के न काज केचले आये परेशान करने... अब झंडावंदन करे का है तो सफ़ेद झक्क कुरता पायजामा और टोपी ख़रीदे की हैका है कि अब फोटो सोटो भी लिया जायेगा।

रामखेलावन-वह तो ठीक है प्रभुस्टैज पर कछु बोलना पड़ेगा। अब भाषन का देना है। वह भी तो सोचिये...

नेताजीअर्ररर... जे हम तो भूल ही गए। सारी ख़ुशी ऐसी हवा हुई कि नेताजी का मुँह एकदम पिचके हुए आम की तरह पोपला हो गया। चौड़ा सीना ऐसे पिचका जैसे गुब्बारे में छेद हो गया। पेशानी पर गुजली मुजली सलवटें ऐसे आयीं कि चिंता के मारे खुद के बाल ही नोचने लगे।
यह सब देख चमचा भी उसी रंग में रँगने लगा। इधर नेताजी की चहल कदमी बढती जा रही थी । उधर राम खेलावन पीछे पीछे टहलता हुआ अपनी वफ़ादारी दिखा रहा था।

नेताजी अब का होगाहमरी इज्जत का मलीदा बन जायेगाअब का भाषण देंगेकभी सुने ही नहीं। सकूल में भी सिर्फ लड्डू खाने जाते थेतीसरी कक्षा के बाद पढ़ने गए ही नहीं। दिन रात गैया को चारा खिलाते रहेगौ माता की किरपा से नेता बन गए। हे ससुरे भाषण वाशन काहे रखत हैं। २ चार लड्डू देई दो खाना खिलवइ दो... हो गया झण्डावंदन... आगे के शब्द खुद ही चबा कर नेताजी खा गए।
यह सब देखकर रामखिलावन समझ गया कि नेताजी की हालत पतली हो रही हैवह हिम्मत बढ़ाते हुए बोला -इसमें चिंता की कोनो बात नहीं है भाषण देखकर पढ़ लियो। अभी समय है थोडा प्रक्टिस कर लो। हमें गाना भी आवत है अभी परोग्राम को समय हैहम सिखा देंगे।
नेता जी-हाँ वही वही परोग्राम। तुम कौन से काले कोट वाले होजो हमरे खातिर भासन लिखोगेजे सब पढ़े लिखे का काम होवत हैवैसे जे बताओ इसे और का कहत हैं। स्वतंत्र दिवस या गणतंत्र दिवस या इन दपेंदंस डे... कहते हुए बाल खुजलाने लगे। गाना वाना तो हमसे होगा नहींटीवी पर देखत रहेसबरे धुरंदर सलूट मार के खड़े रहत हैंकोई गाना वाना नहीं गावत हैजे काम तो सकूली बच्च्वन का है।
चमचाहाँ फिर कहे चिंता करत होबस भाषण याद कर लोतैयार हो जावेगा। हम सिखा देंगे। एक एक गिलास गरम दूध पियोहलक में गरमागरम उतरेगी तो ससुरी जबान खुल जावेगी।
नेता जीपर हमरी तो हालत ख़राब है। इतने लोगन के सामने भासन... भासन कइसन कहेंपर बोलना तो पड़ेगा ही... नहीं हम अपना दिमाग लगाते हैं... अब हम याद कर लेंगे... "नमस्कार गाँव वालों..."
रामखिलावनहे महाराज ऐसे शोले की तरह नहीं कहते। कहिये मेरे प्रिय भाइयों और बहनों...
नेताजी -चल बेवह सबरी तुमरी बहन होगी... आजकल वक्त बदल गयो है।
रामखेलावनओ महाराज भाई बहनों को प्रणामनहीं कहे का हैतो बोलो भाई बंधू...
इधर चमचा कागज कलम के साथ टुन्न हो गयाउधर नेताजी को भी दूध जलेबी चढ़ गयी। दिन में सितारे नजर आने लगे। जोश में होश खो बैठे। स्वप्न में खुद को मंच पर खड़ा हुआ पाया। अपार जन समूह देखकर मुस्कुराने लगे और जैसे ही लोगों के हुजूम ने जयजयकार कीतो हाथ हिलाते हुए माइक तक आ गए। मेज को मंच समझ कर जोश के साथ ऊपर चढ़कर खूब दिमाग लगाया और भाषण शुरू किया --
भाइयों... भाइयों... और सबकी लुगइयों... आज हमरा बहुत बड़ा दिन हैहमरा सपना सच हो गयो है। कबहूँ सोचे न थे नेता बन सकत हैं। हे गाँधी जी कृपा रहीपहले लोग देश की खातिर जान दिए रहेदेश को गुलामी से बचाये रहे। गाँधी जी के वचनों पर चले... बुरा मत देखोबुरा मत कहोबुरा मत सुनो। आज स्थिति बदल गयी हैलोग बुरा ही देखत हैंबुरा ही करत हैं और बुरा ही सोचते हैं। पहले हाथ जोड़कर सबके आगे खड़े रहत थे। बात बात पर लात घूँसे मिलत रहेपर अब समय बदल गयो हैदो चार लात घूँसे मारोथोड़ा गोटी इधर का उधर करोथोड़ा डराओ धमकाओपैसे खिलाओ तो चुनाव का टिकिट भी मिल जावत है। पहले पढ़े लिखे लोग नेता बनत रहेतब भी देश बँटता थाआज कम पढ़े लिखे लोग नेता बने हैंतब भी देश छोटे छोटे राज्यों में बँट गवा है। सबरी पार्टी अपनी सत्ता चाहत है। शांति के सन्देश पहले से देत रहे सो आज भी देत हैं।



आज हर किसी को नेता बने का हैकुर्सी है तो सब कुछ हैआज हर कोई कुर्सी चाहत है। सबहुँ मिलकर घोटाले करोजितने भी पैसा आवत है उसे आपस में मिल बाँट कर खाई लोदेश की जनता बड़ी भोली है। ईमानदार टैक्स देता रहेकिसान मरता रहे। आज जेहि स्थिति बनी हुई है। एक बार कुर्सी मिल गयी फिर सब अपनी जेब में रहत हैं। काहे के संत्री मंत्रीदेश को पहले अंगरेज लूटट रहेअब देश के लोग ही लूटन मा लगे हैं। हर तरफ भ्रष्टाचार फैला हुआ है। कुछ भी हो जाये कुर्सी नहीं छोड़ेंगेघोटाले करके जेल गए तो पत्नी या बच्चों को कुर्सी दिलवा देंगे। जे बच्चे वा खातिर ही पैदा किये हैं। कब काम आवेंगे। प्राण जाए पर कुर्सी ना जाएपहले देश को गुलामी से बचायाअब खुदही देश के तोड़न में लगे हैं। हर किसी की अपनी पार्टी हैसत्ता के खातिर हर कोई अपनी चाल चल रिया हैइसको मारोउसको पीटोदो चार लात घूसे चलाने वाले पहलवान साथ में राख लियोमजाल कोई कुछ करे। सारे साम दाम दंड भेद अपनाई लो पर अपनी जय जयकार कमतर नहीं होनी चाहिए।\


अब नेता बन गए तो देश विदेश घूम लोऐसन मौका कबहू न मिले। हम भी अब वही करहियें। अभी बहुत कुछ करे का है। बस फंड चाहिएजो काम करे का है सब काम के लिए फंडफंड में खूब पैसा मिलत हैथोडा बहुत काम करत है बाकी मिल बाँट कर खाई लेंगे। आखिर चोर चोर मौसेरे भाई भाई जो हैं ।
तुम सबरे गॉंव के लोगन ने हमें नेता चुना और हमेशा अइसन ही प्रेम बनाये रखना। आगे भी ऐसे ही हमें वोट डालना। तुम सब यहाँ आये हो हमें बहुत अच्छा लगालो झंडा वंदन कर दिए हैं । बच्चों ने गाना भी गा दिया। आज हम लाडू बहुत बनवाएं हैखूब जी भर के खाओ। हमें याद रखना। हर बार वोट देना फिर ऐसे ही गाड़ियों में भर के शहर घुमाने ले जायेंगे और खाना पैसा भी दिहें...

 
अभी जोर से बोलो जय भारत मैया की

शशि पुरवार 

Thursday, August 10, 2017

विकल हृदय


घुमड़ घुमड़ कर आये बदरा
मनभावन, बनी तसवीर.

घन घन घन, घनघोर घटाएँ
गाएँ मेघ - राग मल्हार
झूमे पादप, सर्द हवाएँ
खुशियों का करें इजहार।

चंचल बूँदों में भीगा, सुधियों  
से खेले मन - अबीर
घुमड़ घुमड़ कर आये बदरा ..!

अटे-पटे  से वृक्ष घनेरे
पात-पात  ढुलके पानी
दबी आग फिर लगी सुलगने
ज्यूँ  महकीं याद पुरानी  

शतदल के फूलों से गिरतें 
जल- कण, दिखतें हैं अधीर.
घुमड़ घुमड़ कर आये बदरा ..!

विकल ह्रदय से, प्रिय दिन बीता
याद तुम्हारी गरमाई
दादुर, झींगुर गान सुनाएँ
रात अँधेरी  गहराई.

मंद रौशनी में इक साया
गुने शब्द-शब्द तहरीर.
घुमड़ घुमड़ कर आये बदरा ..!
------- शशि पुरवार 
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Monday, July 31, 2017

नेह की संयोजना

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हम नदी के दो किनारे 
साथ चल कर मिल न पाएँ 
घेर लेती हैं हजारों 
अनछुई संवेदनाएँ। 

ज्वार सा हिय में उठा, जब 
शब्द उथले हो गए थे 
रेत पर उभरे हुए शब्द 
संग लहर के खो गए थे 

मैं किनारे पर खड़ी थी 
छेड़ती नटखट हवाएँ 
हम नदी के दो किनारे 
साथ चलकर मिल न पाएँ 

स्वप्न भी सोने न देते 
प्रश्न भी हैं कुछ अनुत्तर  
आँख में तिरता रहा जल 
पर नदी सी प्यास भीतर।

रास्ते कंटक बहुत हैं 
बाँचते पत्थर कथाएँ 
हम नदी के दो किनारे 
साथ चल कर मिल न पाएँ 

हिमशिखर, सागर, नदी सी 
नेह की संयोजना है 
देह गंधो से परे, मन, 
आत्मा को खोजना है.

बंद पलकों से झरी, उस   
हर गजल को गुनगुनाएँ 
हम नदी के दो किनारे 
साथ चल कर मिल न पाएँ 
    -- शशि पुरवार 

Thursday, July 27, 2017

गुलाबी खत

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दिल, अभी यह चाहता है 
खत लिखूँ मैं इक गुलाबी

संग सखियों के पुराने   
दिन सुहाने याद करना। 
और छत पर बैठकर  
चाँद से संवाद करना। 

डाकिया आता नहीं अब, 
ना महकतें खत जबाबी।
दिल अभी यह चाहता है 
खत लिखूँ मैं इक गुलाबी। 

सुर्ख मुखड़े पर ख़ुशी की   
चाँदनी जब झिलमिलाई।
गंध गीली याद की, हिय  
प्राण, अंतस में समाई। 

सुबह, दुपहर, साँझ, साँसे 
गीत गाती हैं खिताबी। 
दिल अभी यह चाहता है 
खत लिखूँ मैं इक गुलाबी। 

मौसमी नव रंग सारे  
प्रकृति में कुछ यूँ समाये  
नेह के आँचल तले, हर 
एक दीपक मुस्कुराये। 

छाँव बरगद की नहीं, माँ 
बात लगती हैं किताबी। 
दिल अभी यह चाहता है 
खत लिखूँ मैं इक गुलाबी।
   -- शशि पुरवार 

Tuesday, July 18, 2017

महिला व्यंग्यकार और पुरुष व्यंग्यकार का अंतर्विरोध-



 हास्य-व्यंग्य लेखन में महिला व्यंग्यकार और पुरुष व्यंग्यकार का अंतर्विरोध- 

कमाल है जहां विरोध ही नही होना चाहिए वहां अंतर्विरोध ही अंतर्विरोध है। 
कहने को तो हम आधी आबादी हैं । भगवान शिव तक अर्धनारीश्वर कहलाते हैं।  पर पार्वती के पिता ही उसे  अग्निकुंड पहुंचा देते है । शायद मतलब निकालने के लिए ही हमें हृदेश्वरी का संबोधन  दिया जाता है। किन्तु जब मन और दिमाग की परतें खुलनी शुरू होती है तो बद दिमागी को उजागर होते देर नहीं लगती ।
                  यह एक कड़वा सच है कि समाज ने महिला को एक कमजोर लता मान लिया है। ऐसी कमजोर लता जिसका अस्तित्ववृक्ष के आधार के बिना संभव नहीं है। विवाह के बाद पत्नी को अर्धांगिनी कहतें हैं लेकिन महिलाओं को कदम कदम पर बाँध दिया गया है। बचपन में पिता व विवाह के बाद पति को परमेश्वर मानने का आदेश एवं उनके परिवार याने पूरे कुनबे को अपना सब कुछ न्यौछावर करने की अपेक्षा ऐसे में महिलाएं अपनी अभिव्यक्ति को आकार देने के लिए चूल्हा चक्की के बीच कलम उठाती भी हैं तो उन्हें अजूबे की तरह देखा जाता है। लेकिन हम आठवां अजूबा नहीं है। हम हैं तो आप हैं। 
        
          व्यंग तो कदम कदम पर बिखरा पड़ा है। हमारे व्यंगकार बंधुओं को व्यंग खोजने बाहर देखना पड़ता है किन्तु हमें बाहर जाने की आवश्यकता नहीं है। विषय वैविध्य की कमी नहीं है। पुरुष जहाँ पूरा की पूरा व्यंग है तो हम महिलाएं व्यंग को जीती हैं। आप कहीं भी देखें हर जगह महिलाएँ  व्यंग्य के घेरे में है। महिलाओं के ऊपर फिरके बाजी होती रहती है। तिलमिलाहट व्यंग के रूप में बाहर आती है। जब महिला व्यंग्यकार छपने जाती है तब तर्क वितर्क की रेखा। समय रेखा।  चुनौती की रेखा ..... सभी का सामना करना पड़ता है।    महिलाओं को इतनी बाधाएं हैं कि  उसे व्यक्त करना भी एक व्यंग्य आलेख ही होगा।  एक अघोषित लक्ष्मण रेखा खींची हुई है। लेकिन इसके लिए महिलाएँ भी कम जिम्मेदार नहीं है। तन मन से पूर्ण समर्पण किया है। जो लाभ न उठा सके वो मानव कैसा इसीलिए नारी सिमित दायरे में कैद होकर अपनी उड़ान भरती है। उन्हें स्वयं को अपने मन की इस जकड़न से मुक्त करना होगा। अपनी भाषा में ही नहीं अपने व्यक्तित्व को ही नया तेवर देना होगा।
      हर तरफ सवाल ही सवाल है।  आज हम सवालों से घिरे हैं। व्यंग्य में महिलाओं की स्थिति  क्या है महिला व्यंग्यकारों को  क्या व्यंग्य जगत में   वह स्थान मिला है जो पुरुषों को हासिल है।  आज की महिला व्यंग्यकार कहीं व्यंग्य बनकर न रह जाये!  काश आप लाजबाब होते तो हम भी कुछ जबाब होते।
              हुआ यूँ कि एक संगोष्ठी में जब शिरकत करने का मौका मिला तब भी यही अंतर्विरोध   खुलकर सामने आ गया।  कई साथी व्यंग्यकारों  को महिला व्यंग्यकारों की उपस्थिति नागवार  गुजरी।  कुछ महिलाओं को व्यंग्य के क्षेत्र में अपना नव लेखन दिखाने का मौका मिला।   लेकिन अंतर्विरोध  वहां भी देखने को मिला।   इतनी सारी महिलाओं में किसी भी साथी व्यंग्यकारों को कोई सम्भावना नजर नहीं आई !  यह अंतर्विरोध नहीं तो क्या है कोई बच्चा जब चलना सीखता है तो पहले गिरता  है।  फिर कदम साध कर चलना सीखता है।  नवजात शिशु चल नहीं सकता है।  नवांकुरों को सदैव इस तरह के मापदंडो से गुजरना होता है। 
          एक मुहावरा है -  समझदार आदमी दोस्तों के कन्धों का इस्तेमाल करना जानता है।  लेकिन व्यंग्य जगत में कोई किसी का दोस्त नहीं होता। इसलिए कहीं हम व्यंगकार इतना खुशफहम और आत्म मुग्ध हो जाते है कि हम साहित्य को भी नहीं बख्शते। कहते है साहित्य मर्यादित होता है। तो हम लेखक क्या उस मर्यादा को दरकिनार कर सकते है?  हम साहित्य की विधियों में पाले खींच रहे है। हास्य को व्यंग्य के आस पास नहीं देखना चाहते हैं। व्यंग्य शास्वत है। उसे संकुचित घेरे में डालने का फतवा देने में लगे हैं। यह क्या उचित है व्यंग्य में अंतर्विरोधों के चलते व्यंग्य का विकास रुकने लगा है।  व्यंग्य आलोचना में नहीं समेटा जा सकता है।  व्यंग्य साहित्य में  नमक का कार्य करता है। व्यंग्य एक नमक ही है जो साहित्य की हर विधा में उसका  स्वाद बढ़ाता है। गुदगुदाता है।  अधरों पर मुस्कान चाहिए तो व्यंग्य से बेहतर कोई मिठाई नहीं है।  । हम यही आशा व उम्मीद करतें हैं कि इन अंतर्विरोधों को नजर अंदाज करते हुए  हम मिलकर व्यंग्य के नए आयाम खोलेंगे। 
शशि पुरवार 

Friday, July 14, 2017

रात सुरमई




 चाँदी की थाली सजी,  तारों की सौगात
 अंबर से मिलने लगी, प्रीत सहेली रात। 
 २  
रात सुरमई मनचली, तारों लिखी किताब
चंदा को तकते रहे, नैना भये गुलाब।
 ३ 
आँचल में गोटे जड़े, तारों की बारात

अंबर से चाँदी झरी, रात बनी परिजात। 

  ४ 
रात शबनमी झर रही, शीतल चली बयार 
चंदा उतरा झील में, मन कोमल कचनार। 

 ५ 
सरसों फूली खेत में, हल्दी भरा प्रसंग
पुरवाई से संग उडी, दिल की प्रीत पतंग 
 ६  
हल्दी के थापे लगे, मन की उडी पतंग। 
सखी सहेली कर रहीं, कनबतियाँ रसवंत
७  
कल्पवृक्ष वन वाटिका, महका हरसिंगार
वन में बिखरी चाँदनी, रात करें श्रृंगार।
 ८  
तिनका तिनका जोड़कर, बना अधूरा नीड़

फूल खिले सुन्दर लगे, काँटों की है भीड़।  

 ९  
 गुल्ली-डंडा,चंग पौ, लट्टू और गुलेल
लँगड़ी,कंचे,कौड़ियाँ, दौड़ी मन की रेल

१०
भक्ति भाव में खो गए, मन में हरि का नाम
 प्रेम रंग से भर गया वृंदावन सुख धाम 
११
धूं धूं कर लकड़ी जले, तन में जलती पीर 
रूप रंग फिर मिट गया, राजा हुआ फ़क़ीर। 
१२  
 अपनों ने ही खींच दी, आँगन पड़ी लकीर 
  आँखों से झरता रहा, दुख नदिया का नीर  .
 १३  
धरती भी तपने लगी, अम्बर बरसी आग 
आँखों को शीतल लगे, फूलों वाला बाग़ 
१४  
चटक नशीले मन भरे, गुलमोहर में  रंग 
घने वृक्ष की छाँव में, मनवा मस्त मलंग।
 १५ 
सूरज भी चटका रहा, गुलमोहर में आग  
भवरों को होने लगा, फूलों से अनुराग 
 शशि पुरवार 

Monday, July 10, 2017

सहज युगबोध


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भीड़ में, गुम हो रही हैं 
भागती परछाइयाँ.
साथ मेरे चल रही  
खामोश सी तनहाइयाँ 

वक़्त की इन तकलियों पर 
धूप सी है जिंदगी 
इक ख़ुशी की चाह में, हर 
रात मावस की बदी. 

रक्तरंजित, मन ह्रदय में
टीस की उबकाइयाँ 
साथ मेरे चल रही  
खामोश सी तनहाइयाँ 

प्यार का हर रंग बदला 
पत दरकने भी लगा 
यह सहज युगबोध है या 
फिर उजाले ने ठगा। 

स्वार्थ की आँधी चली, मन 
पर जमी हैं काइयाँ  
साथ मेरे चल रही  
खामोश सी तनहाइयाँ 

रास्ते अब एक हैं, पर  
फासले भी दरमियाँ 
दर्प की दीवार अंधी  
तोड़ दो खामोशियाँ 

मौन भी रचने लगे फिर 
प्रेम की रुबाइयाँ।
साथ मेरे चल रही  
खामोश सी तनहाइयाँ। 
 शशि पुरवार 

Tuesday, July 4, 2017

व्यर्थ के संवाद

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भीड़ में, गुम हो गई हैं
भागती परछाइयाँ
साथ मेरे चल रहीं 
खामोश सी तनहाइयाँ। 

वक़्त की इन तकलियों पर
धूप सी है जिंदगी
इक ख़ुशी की चाह में, हर
रात मावस की बदी.

रक्तरंजित, मन ह्रदय में
टीस की उबकाइयाँ
साथ मेरे चल रहीं
खामोश सी तनहाइयाँ

प्यार का हर रंग बदला
पत दरकने भी लगा
यह सहज युगबोध है या
फिर उजाले ने ठगा।
स्वार्थ की आँधी चली, मन
पर जमी हैं काइयाँ
साथ मेरे चल रहीं
खामोश सी तनहाइयाँ 

रास्ते अब एक हैं, पर
फासले भी दरमियाँ
दर्प की दीवार अंधी
तोड़ दो खामोशियाँ 




 मौन भी रचने लगे फिर
प्रेम की रुबाइयाँ।
साथ मेरे चल रहीं
खामोश सी तनहाइयाँ।
 शशि पुरवार

Monday, June 26, 2017

क्रोध बनाम सौंदर्य -

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आज सरकारी आवास पर बड़े साहब रंग जमाए बैठे थे. वैसे तो साहब दिल के बड़े गरम मिजाज है, लेकिन आज बर्फ़ीला पानी पीकर, सर को ठंडा करने में लगे हुए है।  सौंदर्य बनाम क्रोध की जंग छिड़ी हुई है। आज महिला और पुरुष समान रूप से जागरूक है. यही एक बात है जिसपर मतभेद नहीं होते है।  कोई आरक्षण नहीं है ? कोई द्वन्द नहीं है, हर कोई  अपनी काया को सोने का पानी चढाने में लगा हुआ है। ऐसे में साहब कैसे पीछे रह सकते हैं.  हर कोई सपने में खुद को  ऐश्वर्या राय और अमिताभ बच्चन के रूप में देखता है।   साहब इस दौड़ में प्रथम आने के लिए बेक़रार है। बालों  में  बनावटी यौवन टपक रहा हैं,
किन्तु बेचारे पेट का क्या करे ? ऐसा लगता है जैसे शर्ट फाड़कर बाहर निकलने को तैयार बैठा हो. कुश्ती जोरदार है। चेहरेकी लकीरें घिस घिस कर चमकाने के प्रयास में चमड़ी दर्द से तिलमिला कर अपने रंग दिखा गयी है।
भाई इस उम्र में अगर अक्ल न झलके तो क्या करे।  अक्ल ने भी भेदभाव समाप्त करके घुटने में अपना साम्राज्य स्थापित करना प्रारम्भ कर दिया है। बेचारा घुटना दर्द की अपनी दास्तां का राग गाता रहता है।
         अब क्या करे  साहब का गुस्सा तो बस बिन बुलाया मेहमान है, जब मर्जी नाक से उड़ कर मधुमक्खी की तरह अपना डंक मारकर  लहूलुहान करता है।
शब्द भी इस डंक की भाँति अंत तक टीसते रहते है।  वैसे गुस्से में शब्द कौन से कहाँ गिरे, ज्ञात ही नहीं होता है .  बेचारे शब्दों को, बाद में दिमाग की बत्ती जलाकर ढूँढ़ना पड़ता है। अब शब्दों की जाँच नहीं हो सकती कि ज्ञात हो कौन से पितृ शब्द से जन्मा है।  भाषा क्रोध में अपना रंग रूप बदल लेती है।  क्रोध में कौन सा शब्द तीर निकलेगा,  योद्धा को भी पता नहीं होता।  आज के अखबार में सौंदर्य और क्रोध के तालमेल के बारे में सुन्दर लेख उपाय के संग दुखी हारी लोगों की प्रेरणा बना हुआ था।  ख़बरें
पढ़ते पढ़ते शर्मा जी ने साहब को सारे टिप्स  चाशनी में लपेटकर सुना दिए.

 साहब -- जवां रहने का असली राज है गुस्से को वनवास भेजना, गुस्सा आदमी को खूँखार बना देता है। आदमी को ज्ञात नहीं होता वह वह कब पशु बन गया है।  गुस्से में  उभरी हुई आकृति को यदि  बेचारा  खुद आईने में देख ले, तो डर जाये।  टेढ़ी भौहें, अग्नि उगलती से आँखे, शरीर का कम्पन के साथ  तांडव
नृत्य, ऐसी  भावभंगिमा कि जैसे ४२० का करंट पूरे शरीर में फैला देती हैं.
सौम्य मधुरता मुखमण्डल को पहचानने से भी इंकार  कर देती है। क्रोध के  कम्पन से एक बात समझ आ गयी कोई दूसरा क्रोध करे या न करें हम उसके तेवर में आने से पहले ही काँपने लगते है।  अगले को काहे
मौका दें कि वह हम पर अपना कोई तीर छोड़े।

             क्रोध की महिमा जानकार साहब  क्रोध को ऐसे गायब करने का प्रयास कर रहे हैं जैसे गधे से सिर से सींग. सारे सहकर्मी  पूरे शबाब पर थे। एक दो पिछलग्गू भी लगा लिए और साहब की चम्पी कर डाली।भगवान् जाने  ऐसा मौका मिले न मिले।  अन्य  सहकर्मी -- साहब योग करो, . व्यायाम करो.........

साहब ने बीच में ही कैंची चला दी और थोड़ा शब्दों को गम्भीरता से  चबाते हुए बोले -- क्या व्यायाम करें।बस आड़े टेढ़े मुँह बनाओ, शरीर को रबर की तरह जैसा चाहो वैसा घुमा कर आकार बनो लो।  लो भाई क्या उससे हरियाली आ जाएगी।

          फिर  खिसियाते हुए जबरन हे हे हे करने लगे, अब क्रोध तो नहीं कर सकते तो उसे दबाने के लिए शब्दों को चबा लिया, जबरजस्ती होठों - गालो को तकलीफ देकर हास्य  मुद्रा बनाने का असफल प्रयास किया। बहते पानी को कब  तक बाँधा जा सकता है ऐसा ही कुछ साहब के साथ हो रहा था।  आँखों  में  बिजली ऐसी कड़की कि आसपास का वातावरण और पत्ते पल में साफ़ हो गए।

       क्रोध के  अलग अलग अंदाज  होते है , मौन धर्मी क्रोध जिसमे मुँह  कुप्पे की फूला रहता है।  कभी आँखे अपनी कारगुजारी दिखाने हेतु तैयार  रहती है , कभी कभी मुँह फूलने की जगह पिचक जाता है तो आँखों से दरिया अपने आप बहने लगता है.  कभी कभी क्रोध की आंधी ह्रदय की सुख धरनी को दुःख  धरनी बना देती है।  चहलकदमी की सम्भावनाएं बढ़ जाती है, सुख चैन लूटकर  पाँव गतिशील हो जाते हैं व कमरे या सड़क  की लम्बाई ऐसे नापते है कि मीटर भी क्या नापेगा। शरीर की चर्बी अपने आप गलनशील हो जाती है ,  तो क्रोध एक  रामवाण इलाज है, मोटापे को दूर करने का?  यह भी किसी योग से कम नहीं है । 
  एक ऐसी दवा जो बहुत असरकारक होती है , मितभाषी खूब बोलने लगते है और  अतिभशी मौन हो जाते है या अति विध्वंशकारी हो जाते है। कोई गला फाड़कर चिल्लाता है तो कोई चिल्लाते हुए गंगा जमुना बनाता है।  कोई शब्दों को पीता है तो उसे चबाकर नयी भाषा का जन्म देता है।

 आज साहब को क्रोध का महत्व समझ आया, सोचने लगे ---   वैसे गुस्से से बड़ा  कोई बम नहीं है। गुस्सा करके हम तर्कों से बच सकते है. विचारों को नजर  अंदाज कर सकते है। कुछ न आये तो क्रोध  की आंधी सारे अंग को हिलाकर गतिशील बना देती है।  सौंदर्य योग हेतु यह योग कोई बुरा नहीं है अभी इसका महत्व लोगों को समझ नहीं आया जल्दी शोध होने और नया क्रोध पत्र बनेगा।
सोच रहा हूँ मैं भी क्रोध बाबा के नाम से अपना पंडाल शुरू कर देता हूँ।
 तब अपने दिन भी चल निकालेंगे, फिलहाल १०० करोड़ की माया को माटी में मिलने से बचाने के लिए संजीवनी ढूंढनी होगी , हास्य संजीवनी।  अब क्रोध का बखान आधा ही हुआ है  कहीं आपको तो गुस्सा नहीं आ रहा है ?
-- शशि पुरवार

Monday, June 12, 2017

पैदा होने का सबूत

 पैदा होने का सबूत 
 कई दिनों से विदेश घूमने की इच्छा प्रबल हो रही थी।  बेटा विदेश में था।  तो सोचा हम भी विदेशी गंगा नहा लें।   सुना है विदेश जाने के लिए कई पापड़ बेलने पड़ते हैं। तरह तरह के रंग बिरंगे कार्ड लगाकर टिकिट कटता है। पासपोर्ट - वीजा बनवाने के लिए हमने भी अपनी अर्जी लगा दी।  
बेटे ने हाथ में लिस्ट थमा दी -  बापू यह सब जमा करना होगा।  पैन कार्ड, आधार कार्ड, आवास कार्ड, जन्म कार्ड, ......न जाने कितने कार्ड ? 
 जैसे इतने सारे कार्ड किसी विदेशी एटीम की कुंजी हो ?  उसे लगाने के बाद इंसानी जमीन में आप कदम रख सकतें हैं।  
                 हमने स्वयं अपने काम का बीड़ा  उठाया। सब कुछ मिला लेकिन जन्म प्रमाण पत्र  का दूर - दूर तक पता नहीं था।  माँ - बापू ने भी कभी ऐसा  कार्ड  नहीं बनवाया।  पहले यह सब कहाँ चलन में था। आज तक कहीं जन्म कार्ड का काम ही नहीं पड़ा. पहले के जमाने में बच्चे के  जन्म पर मिठाईयाँ  बाँटी जाती थी, तो तो गांँव भर को पता लग जाता था कि बच्चा हुआ है।  हमने बहुत उत्साह से नगर निगम में अपनी अर्जी लगा दी।  विदेश जाने की राह में कोई रोड़ा  नहीं होना चाहिए।   
              प्रणाम चौबे बाबू -   यह हमारी अर्जी है। 
   चौबे --   ठीक है राम लाल।  फॉर्म भर दो।  दो चार दिन में सर्टिफिकेट ले जाना। 

 दिल बल्ले बल्ले हो गया। नयी सरकार में तेजी से काम हो रहें हैं।  लेकिन चार दिन बाद, मनो घड़ा पानी हमारे सर के ऊपर पड़ा। 
 चौबे -  भाई राम लाला जन्म प्रमाण पत्र नहीं मिल सकता है।  यहाँ पुराने दस्तावेज जल चुके हैं। 
            
                  हुआ यूँ कि  एक बार शहर भर में दंगा हुआ ! दंगे में नगर निगम में भी आग लग गयी।  गत कुछ वर्ष के दस्तावेज उस आग में स्वाहा हो गए।  बदकिस्मती से हमरा जन्म भी उसी वर्ष में हुआ था। उन वर्षों के दस्तावेजों की राख हमें मुँह चिढ़ा रही थी।  अब तो गयी भैंस पानी में ! आग दस्तावेजों को लगी और पानी मै पी  रहा हूँ।  विगत दो वर्षों से अपने जीवित होने का साक्ष्य ढूंढ  रहा  हूँ।  १२ वी पास होने का पुख्ता सबूत लेकर नगर निगम की चौखट पर  चप्पल घिस रहा हूँ।  लेकिन बात नहीं बनी।  फाइल एक टेबल से दूसरे टेबल घूम रही है।  कभी साहब नहीं मिलते तो कभी फाइल नहीं मिलती।   एक सर्टिफिकेट की वजह से विदेशी गंगा नहाने का काम खटाई में पड़ता नजर आ रहा था।  लेकिन हम मुस्तैदी से अपने विकेट पर  तैनात थे।  कुछ भी हो सर्टिफिकेट बनवाना है।  मन में कीड़ा लग गया कि जन्म प्रमाण पत्र के बिना, क्या हमारा अस्तित्व एक प्रश्न चिन्ह बन सकता है ?
    
               सरकारी दस्तावेजों की बात ही निराली होती है।  जो सामने है उसे सिरे से नकारते हैं।  जो नहीं है उसे प्रेम से पुचकारते  हैं।  जब से सरकार नए नियम कायदे लेकर आयी है, कायदे भी होशियार हो गए हैं।  जीता जागता इंसान नहीं दिख रहा।   बेचारे को  मुर्दा घोषित करने पर तुले हैं। लेकिन हम हार मानने वालों में से नहीं हैं।  फिर पूरे जोश के साथ नगर निगम की चौखट  पर पहुँच गए। लेकिन इस बार वकील को साथ लेकर गए। 
          आज कुर्सी पर चौबे जी मूँछो को ऐसे ताव दे रहें थे, जैसे ग्लू से चिपकी मूछ  कहीं पोल न खोल दे। मुँख से टपकती धूर्तता, चेहरे का नूर बनकर अपनी आभा बिखेर रही थी। पान चबाने के दिन भी बीते। अब पान खिलाने का नया शऊर चल रहा है। 
    "चौबे जी नमस्कार "
    " नमस्कार, भाई राम लाल कैसे हो ? "
 "जिन्दा हैं और जिन्दा होने का सबूत ढूँढ रहें है "
 "काहे मियां लाल - पीले हो रहे हो "
 " का कहें, दो वर्ष बीतने आ गए हमारा जन्म प्रमाण पत्र  रहें "
" भाई हमने ऊपर बात की है।  कुछ जानकारी व  दस्तावेज दिखाओ  तब  हम कार्ड बना देंगे।  जैसे  कहाँ जन्म हुआ !  माता - पिता जी की शादी के प्रमाण पत्र !  तुम्हारा जन्म किसने करवाया?  कहाँ हुआ ? दायी ने जन्म करवाया या  अस्पताल  में ? माता -पिता कौन से घर में रहते थे! सभी जानकारी ....वैगेरह।

" अब यह जानकारी कहाँ से लाएं।  जन्म प्रमाण पत्र हमें बनवाना है।   दस्तावेज  माता -  पिता के मांगे जा रहे हैं।  घोर अनर्थ है।  दिमागी  घोड़े जितना दौड़ें उतना भी कम है।  माँ बाबू परलोक सिधार गए।  किराये के घर में रहते थे। अब वह डाक्टर भी कहाँ हैं।  दायी भी होगी तो मर गयी होगी। झूठ तो नहीं बोलेंगे। "
" देखिये यह सरकारी कार्यवाही है।  हमें करनी पड़ती हैं।"
" चौबे बाबू  काहे मजाक करत हो ! हमरी उम्र देखकर कुछ तो सोचो।  अब सभी को परलोक के बुलाएँ का  ?  माँ बाबू की शादी का प्रमाण आपके सामने बैठा है और आप क्या उजुल बातें कर रहे हो। अरे साहब, हमारी मार्कशीट है।   उसी को देखकर जन्म  प्रमाण पत्र बनवा कर  हमें कागजों में जिन्दा कर दें।  हम जिन्दा होने का अहसास लेना चाहते हैं।  वर्ना आत्मा  यूँ ही भटकती रहेगी।  "   

      "क्या करें राम लाल सरकारी खाना पूर्ति करनी होगी।  कुछ कोशिश करेंगे, अब जरा कुछ पान भी खिला दो। "
       "ससुरा, मन हो या न हो हथेली कभी भी खुजलाने लगती है।  पिछले दो वर्ष से पान खा खाकर होंठ  लाल हो गए लेकिन कागज पर दो अक्षर भी लाल नहीं हुए ... !"
              खिन्न मन से जेब  में हाथ डाला तो बेचारी ऐसी फटी कि जो कुछ फँसा हुआ था,  वह भी बाहर छन्न करके गिर गया।  उम्र के इस मोड़ पर खुद को जीवित  देखना अब हमारी जिद्द बन गयी थी।   बाहर जाने के लिए जाने कितने पापड़ बेलने शेष थे। इधर वकील साहब भी बस जलेबी खाकर खिसिया देते हैं।  आजकल फ़ोन पर ही  टरकाने लगे,  हमारी नगर निगम में पहचान है। काम करवा देंगे, चार दिन बाद मिलना। 
  चार दिन जैसे चार बरस जैसे बीते।  दस्तावेजों के अभाव में नगरनिगम  ने  प्रमाण पत्र देने से इंकार कर दिया। साथ जी नॉन एक्सिस्टेंस सेर्टिफिकेट जारी कर दिया कि फलां फलां व्यक्ति फलां सन में पैदा हुआ जिसका  ब्यौरा यहाँ मौजूद नहीं है। 

          अब हमें काटो तो खून नहीं। लोगों ने सलाह दी कोर्ट जाओ हिम्मत मत हारो। फिर नियति की मार के चलते  कोर्ट में केस करने के बाद चप्पलें घिसघिस कर बदल गयी।  लेकिन हम कागजों पर अजन्मे ही रहे। तारीखें  बदलती रही।  उम्र छलती रही।  हम सीधे साधे बेचारे सरकारी दॉँव पेंच में ऐसे फंसे कि खुद को मुर्दा घोषित कर दिया।  खुद को आईने में  देखकर डरने लगे जैसे कोई  भूत देख लिया हो। अजन्मे होने का ख्याल मन को खाने लगा है। दिल के दरवाजे पर  जंग वाला ताला लग गया है।  
 राह चलते ऐसा प्रतीत होता है  जैसे कि मै वह  भटकती आत्मा हूँ , जिसे इंसान प्रश्न वाचक निगाहों से देख रहें है।  न घर का !  ना घाट का!  मै वह  बहता पानी हूँ  जो न जाने कौन से दरिया में जाकर मिलेगा।  
   सरकारी दफ्तर  में खुद को तलाशता हुआ  अजन्मा  प्राणी ! एक रुका हुआ फैसला।  जिस फैसले के इन्तजार में कहीं फ्रेम न बन जाऊं। हाँ भाई, सरकारी दस्तावेजों के आभाव में  मेरे जन्म को सिरे से नकार कर जैसे मुझे प्रेत योनि में भेज दिया हैं.
  कहावत है  - न सौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी।  राधा का  पता नहीं,  पर  तेल की धार जरूर  हवा का रुख देखकर बहने लगी हैं।  तेल भी जब बाती के संग हो तब उसका जलना नियति है।   बेटा तो पहले ही विदेश में मग्न था अब उसने भी तेल डालना बंद कर दिया।  
मदद करना तो दूर  की बात है।  कहने  लगा  कि - बापू  हिम्मत रख, सब अच्छा होगा।   
            अच्छे का तो पता नहीं।  लेकिन वकील - कोर्ट  और सरकारी दफ्तरों के बीच, मै  जरूर  घुन की तरह पीस रहा हूँ।  कभी कभी ख्याल आता है कि जन्म प्रमाण पत्र नहीं है तब किसी को मेरा मृत्यु  प्रमाण पत्र लेने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी।  जब कागजी जन्म नहीं हैं, तब कागजी  मृत्यु कैसी?        
                हमारे पडोसी शर्मा जी के भाई को परलोक सिधारे  हुए करीब एक वर्ष बीत गया।  उनकी  आत्मा मृत्यु प्रमाण पत्र हेतु भटक रही है क्यूंकि  परिजन सरकारी अफसरों की जेब व दस्तावेजों की पूर्ति करने में असमर्थ थे।         
              उम्र के इस पड़ाव पर मैंने घुटने टेक दिए।  अजन्मे होने साथ  खुद की तस्वीर पर मृत्यु प्रणाम पत्र न लगाने की अंतिम ख्वाहिश भी चिपका दी।   हृदय,  भटकती रूह से भी नाता तोड़ने को बेक़रार है। विदेशी गंगा तो नहीं, हमने देशी गंगा नहाकर ही खुद को धन्य कर लिया। आप कभी हमसे मिलना चाहो तो हमारी रूह खुद को कागजों में तलाशती मिल जाएगी। अजन्मा होने की  पीर, जन्में  होने की पीड़ा से कहीं ज्यादा प्रबल है।  कोई यदि हमसे मिलना चाहें तो हम वहीँ  नगरनिगम की चौखट पर या सरकारी दस्तावेजों में खुद का वजूद ढूंढते मिल ही जायेंगे। सरकारी दस्तावेज में  उलझकर मेरी आत्मा चीख चीख कर कह रही है, मै मुर्दा नहीं  .......! 

-- शशि पुरवार  

समीक्षा -- है न -

  शशि पुरवार  Shashipurwar@gmail.com समीक्षा है न - मुकेश कुमार सिन्हा  है ना “ मुकेश कुमार सिन्हा का काव्य संग्रह  जिसमें प्रेम के विविध रं...

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