प्रकृति की
नैसर्गिक चित्रकारी पर
मानव ने खींच दी है
विनाशकारी लकीरें,
सूखने लगे है जलप्रताप, नदियाँ
फिर
एक जलजला सा
समुद्र की गहराईयों में
और प्रलय का नाग
लीलने लगा
मानव निर्मित कृतियों को.
धीरे धीरे
चित्त्कार उठी धरती
फटने लगे बादल
बदल गए मौसम
बिगड़ गया संतुलन,
ये जीवन, फिर
हम किसे दोष दे ?
प्रकृति को ?
या मानव को ?
जिसने
अपनी
महत्वकांशाओ तले
प्राकृतिक सम्पदा का
विनाश किया।
अंततः
रौद्र रूप धारण करके
प्रकृति ने दिया है
अपना जबाब ,
मानव की
कालगुजारी का,
लोलुपता का,
विध्वंसता का,
जिसका
नशा मानव से
उतरता ही नहीं .
और
प्रकृति उस नशे को
ग्रहण करती नहीं .
--शशि पुरवार
१२ -७ - १ ३
१२ .५ ५ am