Thursday, March 5, 2015

भंग दिखाए रंग - होली है




होरी आई री सखी ,दिनभर करे धमाल
हरा गुलाबी पीत रंग , बरसे नेह गुलाल .1

द्वारे  पे गोरी खड़ी ,  पिया  गए परदेश
नेह सिक्त  पाती लिखी ,आओ पिया स्वदेश2

भेद भाव से दूर ये  ,होरी का त्यौहार
डूबा जोशो जश्न में , यह सारा संसार 3

होरी के  हुडदंग में , हुरियारों की जंग
मिल जाए जो  सामने ,फेको उस पर रंग .4

अम्मा से बाबू कहे , खेलें  होरी  आज
कहा तुनक कर उम्र का , कुछ तो करो लिहाज .5

होरी की अठखेलियाँ , पकवानों में भंग
बिना बात किलकारियाँ , भंग दिखाए रंग 6


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 कुण्डलियाँ
होली के हुडदंग में , हुरियारों की जंग
मिल जाए जो सामने,  उस पर फेको  रंग
फेको उस पर रंग , नीले पीले गुलाबी
घेरो  सब चहुँ ओर, यह टोली है नबाबी
मस्ती का उन्माद , संग मित्रों के ठिठोली
जोश जश्न उल्लास , खेलो प्रेम की होली .

हाइकु -


होली है प्यारी
रंग भरी पिचकारी 
सखियाँ न्यारी


 मारे गुब्बारे
लाल पीले गुलाबी
रंग लगा रे

प्रेम की होली
दूर बैठी सखियाँ
मस्तानी टोली

होली की मस्ती
प्रेम का  है खजाना
दिलों की बस्ती


चढ़ा के भंग
मौजमस्ती संग
बजाओ चंग

    -----  शशि पुरवार
आप सभी ब्लॉगर मित्रों को होली की हार्दिक रंग भरी शुभकामनाएँ

Monday, February 23, 2015

अब कहाँ जाएँ।





बाहर की आवाजों का शोर,
सड़क रौंदती
गाड़ियों की चीख
जैसे मन की पटरी पर
धड़धड़ाती हुई रेलगाड़ी
और इन सब से बेचैन मन
शोर शराबे से दूर,
एक बंद कमरे में
छोड़ा मैंने बोझिल मन को ,
निढाल होते तन के साथ
नर्म बिस्तर की बाहों में
शांति से बात करने के लिए
पर अब पीछा कर रही थीं
श्वासोच्छवास की दीर्घ ध्वनि
धड़कनों की पदचाप
बंद पलकों में
चहलकदमी करने लगीं पुतलियाँ
उमड़ते हुए विचारों की भीड़
करने लगी कोलाहल
अंतर की हवा में ज्यादा प्रखर है प्रदुषण
खुद से भागते हुए
शांति की तलाश में अब कहाँ जाएँ।
- शशि पुरवार

Monday, February 16, 2015

गम की हाला - नवगीत



होठों पर मुस्कान सजाकर
हमने, ग़म की
पी है हाला

ख्वाबों की बदली परिभाषा
जब अपनों को लड़ते देखा
लड़की होने का ग़म ,उनकी
आँखों में है पलते देखा
छोटे भ्राता के आने पर
फिर ममता का
छलका प्याला 

रातों रात बना है छोटा
सबकी आँखों का तारा
झोली भर-भर मिली दुआये
भूल गया घर हमको सारा
छोटे के
लालन - पालन में
रंग भरे सपनो की माला

बेटे - बेटी के अंतर को
कई बार है हमने देखा
बिन मांगे,बेटा सब पाये
बेटी मांगे, तब है लेखा
आशाओं का
गला घोटकर
अधरों , लगा लिया है ताला
-- शशि पुरवार

Monday, February 9, 2015

रोजी रोटी की खातिर





रोजी रोटी की खातिर,फिर
चलने का दस्तूर निभाये
क्या छोड़े, क्या लेकर जाये
नयी दिशा में कदम बढ़ाये।

चिलक चिलक करता है मन
बंजारों का नहीं संगमन
दो पल शीतल छाँव मिली, तो
तेज धूप का हुआ आगमन

चिंता ज्वाला घेर रही है
किस कंबल से इसे बुझाये।

हेलमेल की बहती धारा
बना न, कोई सेतु पुराना
नये नये टीले पर पंछी
नित करते हैआना जाना

बंजारे कदमो से कह दो
बस्ती में अब दिल न लगाये।

क्या खोया है, क्या पाया है
समीकरण में उलझे रहते
जीवन बीजगणित का परचा
नितदिन प्रश्न बदलते रहते

अवरोधों के सारे कोष्टक
नियत समय पर खुलते जाये।
 -- शशि पुरवार

Monday, February 2, 2015

मौसम ठिकाने आ गए



आ गए जी आ गए
मौसम ठिकाने आ गए
सूर्य ने बदला जो रस्ता
दिन सुहाने आ गए।

धुंध कुहरे की मिटाने
ताप छनकर आ रहा
खेत में बैठा बिजूखा
धुप से गरमा रहा
धूप की
अठखेलियों के
दिन पुराने आ गए।

प्रेम पाती बाँचकर, यह
स्वर्ण किरणें चूमती
इंद्रधनुषी रंग पहने
तितलियाँ भी झूमती
स्वप्न आँखों में
बसंती
दिल चुराने आ गए।

नींद से जागा शहर
टहलाव,
सड़कों पर मिला
सुगबुगाती टपरियोँँ पर
चुसकियों का सिलसिला
लॉन में फिर
चाय पीने
के बहाने आ गए।

बात करते खिलखिलाते
साथ जोड़े चल रहे
घाट पर गप्पें लड़ाते
कुछ समय को छल रहे
हाथ नन्हे डोर थामे
नभ रिझाने आ गए
   --- शशि पुरवार




Monday, January 26, 2015

६६ गणत्रंत्र दिवस



आप सभी भारतीय मित्रों को ६६ वें गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ , जय हिन्द - जय भारत

सीना चौड़ा कर रहे ,वीर देश की शान
हर दिल चाहे वर्ग से ,करिए इनका मान
करिए इनका मान , हमें धरती माँ प्यारी
वैरी जाये हार , यह जननी है हमारी
दिल में जोश उमंग ,देश की खातिर जीना
युवा देश की शान ,कर रहे चौड़ा सीना .

- शशि पुरवार

Sunday, January 25, 2015

गजल - वक़्त लुटेरा है




कुछ पलों का घना अँधेरा है
रैन के बाद ही सवेरा है.

जग नजाकत भरी अदा देखे
रात्रि में चाँद का बसेरा है.

हर नियत पाक दिल नहीं होती
जाल सठ का बुना घनेरा है.

रंज जीवन नहीं रजा ढूंढो
हर कदम हर्ष का फुलेरा है.

इश्क है हर नदी को सागर से
इल्म है जोग भी निबेरा है.

मै मसीहा नहीं मुसाफिर हूँ
मुफलिसी ने मुझे ठठेरा है.

जिंदगी इम्तिहान लेती है
वक़्त सबसे बड़ा लुटेरा है।
- शशि पुरवार

Sunday, January 18, 2015

कुण्डलियाँ - भाग रही है जिंदगी,


1
भाग रही है जिंदगी, कैसी जग में दौड़
चैन यहाँ मिलता नहीं, मिलते अंधे मोड़
मिलते अंधे मोड़, वित्त की होवे माया
थोथे थोथे बोल, पराया लगता साया
जलती कुंठा आग, गुणों को त्याग रही है
कर्मो का सब खेल, जिंदगी भाग रही है

 2
थोडा हँस लो जिंदगी , थोडा कर लो प्यार
समय चक्र थमता नहीं , दिन जीवन के चार
दिन जीवन के चार  ,भरी  काँटों  से  राहे
हिम्मत कभी न हार , मिलेगी सुख की बाहें
संयम मन में घोल , प्रेम से नाता जोड़ा
खुशिया चारो ओर , भरे घट  थोडा थोडा
-- शशि पुरवार

Tuesday, January 13, 2015

नदिया तीरे


१ 
नया विहान
शब्दों का संसार
रचें महान

झुकता नहीं
आएं लाख तूफ़ान
डिगता नहीं

मन चंचल
मचलता मौसम
सर्द है रात

नदिया तीरे
झील में उतरता
हौले से चंदा

बिखरे मोती
धरती के अंक में
फूलों की गंध

एक शाम
अटूट है बंधन
दोस्ती के नाम

साथ तुम्हारा
महका तन मन
प्यार सहारा
 शशि पुरवार

Thursday, January 1, 2015

उम्मीदें हैं कुछ खास







 
नववर्ष के हाइकु

नव  उल्लास
उम्मींदों का सूरज
मीठी सुवास
धूप सोनल
गुजरा हुआ कल
स्वर्णिम पल
नवउल्लास
खिड़की से झाँकता
 वेद प्रकाश
 स्वर्ण किरण
रोम रोम निखरे
धरा दुल्हन
गुजरा वक़्त
जीवन की परीक्षा
ना लागे सख्त
-- शशि पुरवार


नवगीत -

नये वर्ष से है ,हम सबको
उम्मीदें  कुछ खास

आँगन के बूढ़े बरगद की
झुकी हुई  डाली
मौसम घर का बदल गया, फिर
विवश हुआ  माली
ठिठुर रहे है सर्द हवा में
भीगे से अहसास

दरक गये दरवाजे घर के
आँधी थी आयी
तिनका तिनका उजड़ गया फिर
बेसुध है  माई
जतन कर रही बूढी साँसे
आये कोई पास

चूँ चूँ करती नन्हीं  चिड़िया
समझ नहीं पाये
दुनियाँ उसकी बदल गयी है
कौन उसे  बताये
ऊँची ऊँची अटारियों पे
सूनेपन का वास

नए वर्ष का देख आगवन
पंछी  गाते गीत
बागों की कलियाँ भी झूमे
भ्रमर का संगीत
नयी ताजगी ,नयी उमंगें
मन में  है उल्लास

नये वर्ष से है हम सबको
उम्मीदें कुछ खास।


शशि पुरवार 

समस्त ब्लॉगर परिवार और स्नेहिल मित्रों को सपरिवार नववर्ष   की हार्दिक शुभकामनाएँ
अनुभूति पत्रिका में प्रकाशित गीत -

Friday, December 19, 2014

चीखती भोर




चीखती भोर
दर्दनाक मंजर
भीगे हैं कोर


तांडव कृत्य
मरती संवेदना
बर्बर नृत्य


आतंकी मार
छिन गया जीवन
नरसंहार


मासूम साँसें
भयावह मंजर
बिछती लाशें


मसला गया 
निरीह बालपन 
व्याकुल मन
 फूटी   रुलाई
पथराई  सी आँखें
दरकी  धरा


१६ -  १७ दिसम्बर कभी ना भूलने वाला दिन है ,  पहले निर्भया  फिर बच्चों की चीखें ---  क्या  मानवीय संवेदनाएं   मरती जा रहीं है।  आतंक का यह कोहरा कब छटेगा।
    मौन  श्रद्धांजलि

Tuesday, December 16, 2014

सम्मान


सम्मान --
आज जगह जगह अखबारों में भी चर्चा है फलां फलां को सम्मान मिलने वाला है और हमारें फलां महाशय भी बड़े खुश हैं. वे  अपने मुंह  मियां मिट्ठू बने जा रहें है ----  एक ही गाना   गाये जा रहें है  .......... हमें तो सम्मान मिल रहा है .........
भाई,  सम्मान मिल रहा है, तो क्या अब तक लोग आपका अपमान कर रहें थे, लो जी लो यह तो वही बात हो गयी, महाशय जी ने पैसे देकर सम्मान लिया है और बीबी गरमा गरम हुई जा रहीं है .
ये २ रूपए के कागज के लिए इतना पैसा खर्च किया, कुछ बिटवा को दे देते, हमें कछु दिला देते। …… पर जे तो होगा नहीं। …
हाय कवि से शादी करके जिंदगी बर्बाद हो गयी। ………। दिन भर कविता गाते रहतें है , लोग भी वाह वाह करे को बुला लेते हैं, कविता से घर थोड़ी चलता है. अब जे सम्मान का हम का करें, आचार डालें ……। हाय री किस्मत कविता सुन सुन पेट कइसन भरिये……।
             अब क्या किया जाए, कवि  महोदय अपने सम्मान को सीने से चिपकाए फिर रहें हैं, फिर  बीबी रोये , मुन्ना रोये  चाहे जग रोये या  हँसे, इससे कुछ फर्क नहीं पड़ेगा क्यूंकि भाई कविता की जन्मभूमि यह संवेदनाएं ही तो हैं. संवेदना के बीज से उत्पन्न कविता वाह वाह की कमाई तो करती ही है।  प्रकाशक रचनाएँ मांगते हैं , प्रकाशित करतें है, कवि की रचनाएँ अमिट हो जाती है, कवि भी अमर हो जाता है, पर मेहनताना कोई नहीं देता …………। फिर एक कवि का दर्द कोई कैसे  समझ सकता। वाह रे कविता सम्मान।
-- शशि पुरवार

Friday, December 12, 2014

"माँ सहेली खो गई है "






छोड़कर बच्चे गए जब
माँ अकेली हो गई  है
टूटकर बिखरी नहीं वो
इक पहेली हो गई है

स्वप्न आँखों में सजे थे
पुत्रवधू घर आएगी
दीप खुशियों के जलेंगे
सुख बिटिया का पायेगी

गाज सपनो पर गिरी, जब  
माँ सहेली खो गई है

पूछता कोई नहीं अब
दरकिनारा कर लिया है
मगन है सब जिंदगी में
बस सहारा हर लिया है।

गॉंव में रहती अकेली
माँ चमेली सो गई है
 
धुंध सी छायी हुई है
नेह, रिशतों के दरमियाँ
गर्म साँसें ढूंढती है
यह हिम बनी खामोशियाँ

दिन भयावह बन डराते
शब करेली हो गई  है
टूटकर बिखरी नहीं वो
इक पहेली हो गई है
-----  शशि पुरवार

Monday, November 24, 2014

रूखे रूखे आखर


हस्ताक्षर की कही कहानी
चुपके
से  गलियारों  ने
मिर्च
  मसाला
, बनती  खबरे
छपी
सुबह अखबारों में
.

राजमहल में बसी रौशनी
भारी
भरकम खर्चा है
महँगाई
ने बाँह मरोड़ी
झोपड़ियों
की चर्चा है

रक्षक भक्षक बन बैठे है
खुले
आम दरबारों में

अपनेपन की नदियाँ सूखी,
सूखा  खून  शिराओं में
रूखे
रूखे आखर झरते    
कंकर फँसा निगाहों में

बनावटी
है मीठी वाणी
उदासीन
व्यवहारों में
 
किस पतंग की डोर कटी है
किसने
पेंच लडाये है
दांव
पेंच के बनते जाले
सभ्यता
पर घिर आये है

आँखे गड़ी हुई खिड़की पर 
होंठ नये आकारों. में.

------ शशि पुरवार


Monday, November 17, 2014

नन्ही परी

मेरे मायके में नन्ही परी भतीजी बनकर आई है। स्नेह आशीष के साथ नामकरण करना था, तो नामकरण कविता के रूप में किया। बुआ की तरफ से नन्ही निर्वी  के लिए स्नेहाशीष -
`


बदल गया हैं घर का मौसम , ऋतु खुशियों की है आई
नन्ही नन्ही ,प्यारी निर्वी , घर - अँगना  रौनक लाई
दादा - दादी ,नाना -नानी , भूले दुख के सब अंधियारे
बचपन के संग  डूब  गए , फैले  हैं  सुख के उजियारे
ताऊ- ताई, मौसा - मौसी ,सब दूर देश के वासी
बुआ -फूफा, सौम्या -अवनि ,बोलें हम भी है अभिलाषी
नटखट गुड़ियाँ ने छेड़ी  हैं , बजी सबके मन झंकार
वाट्स आप बाबा के जरिये , सभी  मिलकर बाँटें प्यार
दादी पम्मो , घर के सारे, नाते - रिश्ते, जीता है  बचपन 
किलकारी से गूँज रहा है देखो, अब अपना  घर - आँगन
-- शशि पुरवार

Monday, November 10, 2014

कच्चे मकान




सघन वन
व्योम तले अँधेरा
क्षीण किरण।

कच्चे मकान
खुशहाल जीवन
गॉंव, पोखर

सुख की ठॉंव
हरियाली जीवन
म्हारा गॉंव

चूल्हा औ चौका
घर घर से उड़ती
सौंधी खुशबु
  ५
वो पनघट
पनिहारिन बैठी
यमुना तट

खप्पर छत
गोबर से लीपती
अपना मठ
७ 
ठहर गया
आदिवासी जीवन
टूटे किनारे .

बिखरे पत्ते
तूफानों से लड़ते
जर्जर तन

दीप्त  किरण
अमावस की रात
लौ से हारी
१०
अल्लहड़ पन
डुबकियाँ लगाती
कागजी नाव

११
शीतल छाँव
आँगन का बरगद
पापा  का गाँव

१ २
अकेलापन
तपता रेगिस्तान
व्याकुल मन
१३ 
गर्म हवाएँ
जलबिन तड़पें
मन, मछली

Monday, November 3, 2014

साक्षात्कार के हमाम में ………… -- अट्टहास पत्रिका में




आदमी खुद पर हँसे।  खुलकर ठहाके लगाये।  अपनी हरकतों (लेखन) पर चुटकी कसे।  यह सुनने में भले ही मुस्कुराने का कार्य लगता हो लेकिन अट्ठहास हम जैसे युवा रचनाकार को भी अपने कटघरे में खड़ा कर सकता है।  जब यह कहा गया  तो मुझे अजीब लगा।  लेकिन कलम उठाने के बाद अपने  अंदर के समीक्षक बनने का यह सुनहरा मौका मैंने छोड़ना उचित नहीं समझा।  लेखन में सीधे व्यंग्य को  दायरे  समेट रखा है , इसमें दो राय हो सकती। लीजिये हाजिर है शशि पुरवार   के साथ उनके जबाब और पत्रिका के एडिटर से हुई वार्ता ( साक्षात्कार )--- अट्ठहास पत्रिका में प्रकाशित  साक्षात्कार आप सभी के लिए यहाँ भी ----

प्रश्न १
आप व्यंग्य  के बारे क्या कहना चाहेंगी । व्यंग्य अच्छा है या बुरा ?
उत्तर --

सर्वप्रथम मै यही कहूँगी कि कोई भी चीज अच्छी या बुरी  नहीं होती है , उसे अच्छा या बुरा बनाने वाले हम और  आप  ही  होते है, या तो फिर बुरी लोगों की नजरें  होतीं  है। )
व्यंग्य संस्कृत भाषा का  शब्द है जो ‘अज्ज धातु में वि उपसर्ग और ण्यत् प्रत्यय के लगाने से बनता है। व्यंजना शक्ति के सन्दर्भ  में व्यंगार्थ के रूप  में इसका प्रयोग होता है। ।
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने व्यंग्य की परिभाषा देते हुए कहा र्है व्यंग्य कथन की एक ऐसी शैली है जहाँ बोलने वाला अधरोष्ठों में मुस्करा रहा हो और सुनने वाला तिलमिला उठे। यानी व्यंग्य तीखा व तेज - तर्रार कथन होता है जो हमेशा सोद्देश्य होता है और जिसका प्रभाव तिलमिला देने वाला होता है।
व्यंग्य का प्रयोग  आदि काल से होता आ रहा है, कबीर ने  भी धार्मिक आडम्बरों व  मूर्ति पूजा का खंडन  व्यंगात्मक शैली में ही किया था , मुसलमान हिन्दू  दोनों समुदाय के लिए उन्होंने जो लिखा वह करारा  व्यंग्य था
प्रश्न २ -- हास्य व्यंग्य जो कभी हाशिये पर था आजकल केंद्र में क्यों है ?
आपकी बात से पूर्णतः  सहमत हूँ ,  व्यंग्य पहले  ज्यादा प्रचलित नहीं था। मिडिया में वही परोसा जा रहा था जिसे  जनता देखना पसंद करती थी।  टीवी चैनलों पर सास - बहु ,लूट -पाट,  मार - धाड़ वाले  डेली सोप अपनी कलाबाजियों से;  लोगो को उलझा रहे थे, उसके बाद उनकी जगह  धार्मिक सोप  ने  ली।   किन्तु लोगों को बदलाव की आवश्यकता थी,  वहीं रोज ऊब  पैदा करने वाले डाइलोग  के अलावा कुछ नहीं था  जो तोहफे में सिवाय सरदर्द  के कुछ नहीं देते थे।  जीवन से मधुरता गायब होकर शरीर को बीमार बनाने पर आमादा हो गयी थी ।  हर चीज एक सीमा तक ही  अच्छी  लगती है, अब रबर को ज्यादा खीचेंगे, तो वह टूटेगी ही। रोज रोज आपको थाली  में वही भोजन परोसा जाये तो, क्या आप उतनी की रूचि से  रोज वह खाना पसंद करेंगे। यही बदलाव व्यंग्य को केंद्र में लेकर आया है .

प्रश्न ३ --
 सोशल मिडिया में व्यंग्य का क्या स्थान है ? महिला व्यंग्यकारों की  इसमें क्या भागीदारी है ?

उ-   सोशल मिडिया सदैव समाज  पर हावी  रहा है. बदलाव के बाद जब व्यंग्य, हास्य नाटक , हास्य कवि सम्मलेन प्रस्तुत हुए, तब लोगों ने खुले मन उसकी  वाह वाही की, जल्दी ही कविसम्मेलन,  हास्य नाटकों ने लोगों के दिलों में अपनी  सुरक्षित जगह बना ली थी,  धीरे धीरे व्यंग्य  का स्वरुप बदला और हास्य को शामिल  करके व्यंग्य विधा का पक्ष बहुत मजबूत हो गया है।  महत्वपूर्ण कथ्य हल्के -फुल्के अंदाज में प्रस्तुत होने लगे और पाठक - श्रोता वर्ग पर अपनी  गहरी छाप छोड़ने लगे।  किन्तु  वही भेड़चाल यहाँ  भी शुरू हो गयी और यही  पतन का कारण  भी बनी है।  टी आर पी बढ़ाने के चक्कर में, हास्य व्यंग्य के नाम पर भोंडापन दिखाया जाने लगा. सस्ती  लोकप्रियता की होड़ में सब औंधे मुँह गिरने लगे , एक समय ऐसा भी आया जब परिवार के साथ बैठकर  यह सब देखना शर्मनाक  हो गया।
    महिलाएं हर क्षेत्र में कार्य कर रही है तो लाजमी है, वह सफल  व्यंग्यकार के रूप में भी सक्रीय है और उनकी भागीदारी व्यंग्य  क्षेत्र में भी है.  मिडिया में कई हास्य कलाकारा है, जो   अपने अच्छे व्यक्तिव और कला के कारण  अस्तिव में आई है और उन्होंने  सम्मानजनक स्थिति में  कार्य  किया है।

प्रश्न ४ -- आज हास्य व्यंग्य की मौजूदा स्थिति क्या है ? क्या साहित्य में भी व्यंग्य प्रचलित है
उ-  जी हाँ, आज हास्य व्यंग्य को कथा जगत में भी खासा पसंद किया जाता  है और  खासा प्रचलित है।  साहित्यजगत ने सदैव  परिवर्तन को स्वीकारा है, साहित्य गतिशील है, वह  सदैव वर्तमान के  परिवेश को व्यक्त करता  है।  हास्य का समावेश गीत, गजल , व्यंग्य , कविता , लगभग सभी विधाओं में है . जन - मानस तक अपनी  बात को प्रभावशाली ढंग से पहुँचाना कोई गलत बात नहीं है , बशर्ते  उसमे भौंड़ापन ना हो। 

  प्रश्न  ५ -- हास्य व्यंग्य का समाज से कोई सरोकार है ?
उ- 
 बिलकुल , व्यंग्य का समाज से सरोकार है , भाई जो समाज में घटित हो रहा है , वही तो दिखाया जायेगा। इसमें  काल्पनिक वार्ता का तो कोई स्थान ही  नहीं होता है।  एक साहित्यकार, रचनाकार , व्यंग्यकार समाज   के दर्पण होते है , वह समाज को उसी का आइना दिखाते है।  बिना सामाजिक सरोकार के तो सभी विधाएँ पंगु  हो  जाएगी।  

प्रश्न  ६ 
क्या आप खुद को एक सफल  व्यंग्यकार मानती है ? क्या आपको  व्यंग्य लिखना पसंद है या  व्यंग्य लिखना आपकी   मज़बूरी है ?---

  नहीं,  मै स्वयं को एक रचनाकार मानती हूँ।   मै व्यंग्यकार नहीं हूँ , ना ही मेरी मज़बूरी है कि मै मज़बूरी  में  कोई कार्य करूँ . हाँ ........ व्यंग्य को  बेहद पसंद करती हूँ , मुझे भी व्यंग्य विधा पसंद है,  जब पढ़ना या सुनना शुरू करो तो , अंत समय कब आता  है ज्ञात ही नहीं होता और वातावरण हल्का फुल्का  रुचिकर बना रहता है , हल्का फुल्का अंदाज अंत तक रचना में अपनी जिज्ञासा बनाये रखता है। मै सिर्फ  व्यंग्य नहीं लिखती हूँ किन्तु मेरी रचनाओ में व्यंग्य का हल्का सा समावेश जरूर होता है , कथन को अपने मंतव्य तक पहुँचाने के लिए व्यंग्य एक सशक्त व सफल माध्यम है।  यदि रचनाओं में  सिर्फ सपाटबयानी , उबाऊपन होगा तो कहाँ आनंद आएगा , पाठक पन्ने फाड़ कर फ़ेंक  देंगे और श्रोता टमाटर फेकेंगे।
 पाठक तक अपना मंतव्य पहुचाने  के लिए,  रचना में थोड़ा  सा तीखापन व्यंग्यात्मकता जरूर प्रस्तुत करती हूँ।   यह समय की माँग है।  पाठको को व्यंग्य पसंद आता है  और  थोड़ी सी  चुटकी  बजनी चाहिए  भी चाहिए।   मेरी एक रचना है जिसमे ; आज  जिस परिवेश में परिवार टूटने  लगे है,जहाँ  बच्चों का  माता  -पिता के साथ   अनुचित व्यवहार हो रहा है, उन्हें अपने माता पिता  अधेड़ उम्र   बोझ प्रतीत होते  है.…  वक़्त बहुत बदल गया , नारी  की अस्मिता आज सरे बाजार  लुटने  लगी है आदि बातों को   मेरी दो कुंडलियों  में मैंने थोड़ी सी छींटाकशी की है। 


सारे वैभव त्याग के, राम गए वनवास
सीता माता ने कहा, देव धर्म ही ख़ास
देव धर्म ही ख़ास, नहीं सीता सी नारी
मिला राम का साथ, सिया तो जनक दुलारी
कलयुग के तो राम, जनक को ठोकर मारे
होवे धन का मान, अधर्मी हो गए सारे.

व्यंग्य का उपयोग सार्थक और सही दिशा में होगा तो  कारगर सिद्ध होगा।  आज जीवन को मुस्कान और हास्य पलों की जरुरत है. यह अंदाज बेहद अलग हल्का फुल्का रोचक  है।

लेखन वही सार्थक होता है, जो पाठक  के मन पर अपनी छाप छोड़ सके , पाठक को रुचिकर हो।  ऐसा नहीं है सिर्फ व्यंग्य लिखने से ही यह कार्य  संभव है , परन्तु व्यंग्य, रचना में सुगन्धित उस छौंक   के समान है , जिसकी खुशबु  हर वर्ग को अपनी और आकर्षित  कर लेती है।  पाठक वर्ग बड़ा  हो या छोटा, बरबस खींचे चले आते है । भाग -दौड़ भरी  जिंदगी में व्यंग्य पाठक को गुदगुदाते है और गंभीर  सवालों को सरलता से  पाठक तक   पंहुचाते है।
आज के व्यस्त जीवन में जहाँ लोग हँसना भी भूल गए है, महत्वकांशा उनके  जीवन पर हावी हो चुकी है. ऐसे समय में परिवार तो क्या,  उनके पास खुद के लिए भी वक़्त नहीं होता है।  मनोरंजन के नाम पर भी  मारधाड़ , कुटिलता परोसी जा रही है।  ऐसे में हास्य रस का स्वाद लेना लोग जैसे भूलते जा रहे है। पहले जो समय था ,जहाँ हंसी ठिठोली व्याप्त थी।  हास्य कविसम्मेलन के आयोजन होते रहते थे , गंभीर वार्ता सहजता से होती थी, धीरे धीरे सभी धूमिल सी हो गयी है।  आज ऐसे पलों में व्यंग रचनाएँ  ठन्डे फाहे के समान है, जो कहीं न कहीं अधरों पर मुस्कान ले आती है।  मेरा यह मानना है  कि जीवन में ऐसा तड़का जरूर लगाईये ,जिससे जीवन आसान होते जाए।   आज के समय में कम शब्दों में अपनी बात पाठक   तक पंहुचा सकें यही प्रयास रहता है .

जंग दौलत की छिड़ी है रार क्या
आदमी की आज है दरकार क्या १

जालसाजी के घनेरे मेघ है
हो गया जीवन सभी बेकार क्या२

लुट रही है राह में हर नार क्यों
झुक रहा है शर्म से संसार क्या ३












प्रश्न --व्यंग्य लिखना कितना जरुरी  है ,? मज़बूरी से ज्यादा। …………?

हाँ, आपकी बात से सहमत हूँ , व्यंग्य लिखना आज  पत्रकारों, साहित्यकारों की मज़बूरी भी हो गयी है, आज से विध्वंशकारी माहौल में जहाँ  इंसान हँसना -हँसाना भूल गए है वहीँ  हास्य एक योग भी है। पहले जहाँ लोग आपसे में मिलबैठ हँसते - बोलते थे आजकल  की ऊब भरी जिंदगी में हँसने के लिए  हास्य क्लब बन गए है।   राजनितिक  गहमागहमी, आतंकी गतिविधियाँ, बेरोजगारी, मँहगाई, भ्रष्टाचार, लोगों में आगे निकलने की महत्वकांषा ।जैसे सब  हँसना ही भूल गए हो, सीधी  राह चलने में आज अवरोध ही अवरोध  मिलते है।  कोई यदि अपनी बात सीधे रूप में रखना चाहता है तो गंभीर बातों की तरफ भी लोग ध्यान नहीं होता है ,व्यंगात्मक वार्ता जैसे जहर बुझे तीर के समान  होती है, न चाहते हुए बरबस  हर किसी का ध्यान अपनी तरफ आकर्षित करने की क्षमता रखती है। आज की विसंगतियों में जहाँ व्यंग को नम उपजाऊ धरती मिली है वहीँ आज व्यंग्य वार्ता अनिवार्य और  अनमोल हो गयी है।  हास्य के बिना जीवन चलता तो है किन्तु   जीवन में कोई रस नहीं रहता , तनाव इतना बढ़ गया है कि लोग फल - सब्जी  की जगह दवाईयाँ के सहारे जीते है,  जीवन  भी गोलियों के सहारे चलने लगा है, सब परिस्थितियां जानने और समझने के बाद भी लोग उबाऊ ,नीरस जीवन जीते है , अब आप ही बताईये  यह कैसा जीवन है ? कैसी महत्वकांक्षा  है ? जिसने  संतरे जैसे खट्टे - मीठे जीवन का सब रस ही निचोड़ लिया है। आज अपने ही घर में लोगों को आपस में  बात  करने तक की फुर्सत नहीं होती है,  मौज -मस्ती का अर्थ उनके लिए पार्टी और जाम से जाम टकराने तक ही  सिमित हो गया है,  या फिर जिंदगी  गैजेट में सिमट कर हाईटेक  हो गयी है।  लोग घर में तो बात नहीं करते  किन्तु  सोशल साइट पर दिन भर चैट कर सकते है।  और अब यह गंभीर लत ,नयी  बीमारी के रूप में उभर कर सामने आई है। यह लत छुड़ाने के लिए अब देश में कई सेंटर खुल गए है।

आज व्यंग्य के सरताज व्यंग्य और हास्य के बीच पर्दा खींच रहे है , किन्तु यह दोनों ही एक दूसरे से पूरक है, अब आप ही बताइये जहाँ गंभीर कार्य की रूप रेखा बन रही है,माहौल में तनातनी है, वहां मधुर संगीत सुनाने से कुछ नहीं होने वाला ऐसी स्थिति में व्यंगात्मक  दो टूक बात ही कड़वी गोली का काम करती है और जहाँ शादी होगी वहां शहनाई  की जगह  ताली बजाने से कुछ  नहीं होने वाला है। यही  पर्दा  हास्य  और व्यंग को पूरक बनता है. 
गीत -गजल, संगीत सुनने के लिए एक  मौसम के अनुरूप  मौहोल की भी जरुरत होती है , व्यंग उस केक्टस के समान है जो कभी भी किसी भी स्थति में जन्म लेकर सार्थक होता है. किन्तु आज व्यंग से हास्य क्षीण होता जा रहा है , आजकल यह देखने में आ  रहा है कि भेड़चाल की तरह व्यंग तीखे - कड़वेपन के साथ प्रस्तुत होने लगा है य़ह उचित नहीं है , व्यंग्य ऐसा होना चाहिए जिसमे हास्य का समावेश हो, पाठक मुस्कुराते - गुदगुदाते हुए व्यंग्य का आनंद ले , बातों ही बातों में गहरी गंभीर बात ऐसे सामने आए कि उसकी आने की आहट  का पता नहीं चले , यह कार्य हास्य व्यंगकार की कुशलता पर निर्भर होता है. हँसी - हँसी मे बात करते करते गंभीर मुद्दों की तरफ ध्यान आकृष्ट करने की बड़ी चुनोती है। हास्य के जरिये व्यंगात्मक शैली में ऐसे सहज भाव से चोट करना कि किसी को पता भी न चले यही हास्य व्यंग्य रचनाकार की कसोटी है। हास्य व्यंग्य की सीढ़ी है। सीधासादा व्यंग्य आलोचना बन कर रह जाता है। अच्छे व्यंग्य लेखक की पहचान यह है की उसका लेखन पठनीय और रोचक हो। जिसे पढ़ कर लोग जीने का होसला कर सकें।
-- शशि पुरवार




Monday, October 20, 2014

झूल रहे कंदील हवा में ......! नवगीत



झूल रहे कंदील हवा में
क्या क्या रंग दिखाएँ

रोशनियाँ तीली ने बदलीं
चकरी हुई सयानी
सहमी सहमी जले फुलझड़ी
गुपचुप कहे कहानी

राकेट फुर्र हुये तेजी से
वापस घर ना आएँ .

आँगन में जगमगा रही है
ये बनावटी लड़ियाँ
यूँ तो जले दीप बाती 
पर ,टूट रही है कड़ियाँ

बिखर रहे माला के मोती
शायद ही जुड़ पाएँ 

हुई विलीन कहाँ, ना जाने
वह खुशियों की दुनिया
तारे गिनती बैठी है
आँगन में छोटी मुनियाँ

शायद कोई तारा टूटे
खुशियाँ घर मेंआएँ 
--  शशि पुरवार
१९ /९ /१३

आप सभी ब्लोगर मित्रों सपरिवार दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ।

Thursday, October 9, 2014

यादों के झरोखों से ---

पटना का वह घर जहाँ बचपन ने उड़ान भरी थी,पटना बाद में तो कभी नहीं जा ही सकी, जिनके साथ वो हसीन यादें जुड़ीं थी वो तो कब से तारे बन गए. आज ४० वर्षों बाद भी बाहर से यह घर वैसा ही खड़ा है कुछ परिवर्तन नहीं दिखा। २०- २५ कमरों का यह घर जहाँ चप्पे चप्पे पर बचपन की अनगिन यादें जुडी है। चुपके से तहखाने में छुप जाना, आँगन में खेलना ...... गंगा जी जो घर से ज्यादा दूर नहीं थी, नित गंगा जी में डुबकी लगाना ……… आज यादों की आंधी ने अतीत के पन्नों को पलटना शुरू कर दिया है. सोचा आपसे साझा करूँ। 

मन में ख्वाहिश थी उस जगह पर जाकर यादों को थोड़ा ताजा करूँ। आज अचानक दिवाली से पूर्व मेरे प्यारे कजिन भाई  उसने ख़ास मेरे लिए पटना जाकर यह तस्वीर ली और मुझे भेजी।
हम बचपन में साथ रहते थे बहुत सुखद अहसास था. आज यह घर तो हमारा नहीं रहा किन्तु यादें आज भी उतनी ही अपनी है. तब दिवाली बहुत ख़ास होती थी. रतजगा होता था.२ दिन तक मिठाईयां बाँटते थे अब यह सब यादें तस्वीरों में कैद होकर वक़्त में धूमिल हो गई है. कुछ पंक्तियाँ जहन में उभर रही है हालांकि  यादों की आंधी के यह  उड़ते तिनके भर है ----


छज्जों की पुरानी लकड़ी अपने दुर्भाग्य की
कहानी कह रही है
उस पर उग आई लावारिस घास
जैसे कब्ज़ा किये हुए बैठी है
पपड़ाती इन दीवारों से जुड़ा है
एक सुखद अहसास
कभी झरोखें से झाँकना
बालकनी पर लटकना
घूम घूम कर हर कमरों में
अपने होने के अहसास को
दर्ज कराना,
कभी शैतानियाँ, कभी नादानियां
वक़्त पंख लगाकर उड़ गया और
यह मकान आज भी उन्ही यादों को समेटे
बस इसी इन्तजार में खड़ा है कि
कभी तो जंग लग गए ताले टूटेंगे
कोई तो आएगा इन दीवारों पर पुनः
रंगरोगन कराने, जर्जर हो रहे छज्जों को
गिरने से बचाकर उसके अस्तित्व को मिटने से बचाने .........!
 -- शशि पुरवार

आज सोमवार से पहले ही पोस्ट लगा दी , मन चंचल आज नियम कायदे तोड़ देना चाहता है - मेरी यादों में आपको भी शामिल करने का मन हुआ।  

Monday, October 6, 2014

क्षणिकाएँ - माहिया - माँ



माँ तुम हो
शक्तिस्वरूपा
मेरी भक्ति का संसार
माँ से ही प्रारंभ
यह जीवन
माँ ही उर्जा का संचार
नीड बनाने में कितनी
खो  गयी थी  माँ
उड़ गए
पंछी घोसलों से
फिर तन्हा हो गयी है माँ
-- शशि पुरवार
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१६ / ९ /१३

माहिया  --
 
न्यौछावर करती है
माँ घर में खुशियाँ
खुद चुन चुन भरती है


बच्चों की शैतानी
माँ बचपन जीती
नयनों झरता पानी


ममता की माँ धारा
पावन ज्योति जले
मिट जाए अँधियारा


माँ जैसी बन जाऊँ
छाया हूँ उनकी
कद तक न पहुँच पाऊँ


चंदन सा मन महके
ममता का आँचल
खिलता, बचपन चहके।


६ 

माँ  जैसी बन जाऊं
छाया हूँ उनकी
कद तक न  पहुंच पाऊं



-- शशि पुरवार
२९ सितंबर २०१४


 माँ  जैसी बन जाऊं
छाया हूँ उनकी
कद तक न  पहुंच पाऊं




समीक्षा -- है न -

  शशि पुरवार  Shashipurwar@gmail.com समीक्षा है न - मुकेश कुमार सिन्हा  है ना “ मुकेश कुमार सिन्हा का काव्य संग्रह  जिसमें प्रेम के विविध रं...

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