shashi purwar writer

Friday, April 21, 2017

पॉँव जलते हैं हमारे "




शाख के पत्ते हरे कुछ
हो गए पीले किनारे
नित पिघलती धूप में,ये
पॉँव जलते हैं हमारे ।

मिट रहे इन जंगलों में
ठूँठ जैसी बस्तियाँ हैं
ईंट पत्थर और गारा
भेदती खामोशियाँ है

होंठ पपड़ाये  धरा के
और पंछी बेसहारे
नित पिघलती धूप में,ये
पॉँव जलते हैं हमारे ।


चमचमाती डामरों की
बिछ गयी चादर शहर में
लपलपाती सी हवा भी
मारती  सोंटे  पहर में

पेड़ बौने से घरों में,
धूप के ढूंढें सहारे
नित पिघलती धूप में,ये
पॉँव जलते हैं हमारे ।

गॉँव उजड़े, शहर रचते

महक सौंधी खो गयी है
पंछियों के गीत मधुरम
धार जैसे सो गयी है.

रेत से खिरने लगे है

आज तिनके भी हमारे
नित पिघलती धूप में,ये
 पॉँव जलते है हमारे

    ------ शशि पुरवार

पर्यावरण संरक्षण हेतु चयनित हुआ नवगीत।  पर्यावरण संगठन का आभार। 


Monday, March 27, 2017

कातर नजरें

भीड़ भरे शहरों में जीना  
मुश्किल लगता है 
धूल धुआँ भी खुली हवा में 
शामिल लगता है 

कोलाहल की इस बस्ती में 
झूठी सब  कसमें 
अस्त व्यस्त जीवन जीने की 
निभा रहे रसमें
सपनों की अंधी नगरी में   
धूमिल लगता है 

सुबह दोपहर, साँझ, ढले तक 
कलरव गीत नहीं 
कहने को सब संगी साथी 
पर मनमीत नहीं
एकाकीपन ही जीवन में   
हासिल  लगता है

हर चौखट से बाहर आती  
राम कहानी है 
कातर नज़रों से बहता, क्या  
गंदा पानी है 
मदिरा में डूबे रहना ही
महफ़िल लगता है 
 शशि पुरवार  

Wednesday, March 22, 2017

शूल वाले दिन

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अब नहीं मिलते डगर में
फूल वाले दिन 
आज खूँटी पर टंगे हैं 
शूल वाले दिन 

परिचयों की तितलियों ने 
पंख जब खोले 
साँस को चुभने लगे फिर  
दंश के शोले 
समय की रस धार में 
तूल वाले दिन 

मधुर रिश्तों में बिखरती 
गंध नरफत की 
रसविहीन होने लगी  
बातें इबादत की 
प्रीत का उपहास करते 
भूल वाले दिन। 

आँख से बहता नहीं 
पिघला हुआ लावा 
चरमराती कुर्सियों  का 
खोखला  दावा 
श्वेत वस्त्रों पर उभरते 
धूल वाले दिन। 
 - शशि पुरवार 

Monday, March 20, 2017

उड़ान का आभाष

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सपने जीवन का अभिन्न अंग हैं, मैंने भी कई सपने देखे लेकिन जिंदगी में सभी सपने सच होते चले जायेंगे सोचा न था. सपने अच्छे भी देखे तो दुखद स्वप्न भी देखे, सत्य यह भी है कि जिंदगी ने बहुत दर्द से रूबरू कराया। मेरा मानना है कि दर्द को क्यों जाहिर किया जाये वह सिर्फ दुःख ही देता है। इसीलिए अच्छा स्वप्न ही साझा करना चाहूँगी. बचपन का एक स्वप्न अवचेतन मन में आकर जैसे बस गया था। १० -११ वर्ष की उम्र में चंचलता और स्वप्न का सुन्दर तालमेल था, ढेर सारे सपने मन के आँगन में रंगोली बना रहे थे। सादा जीवन उच्च विचार मन को आकर्षित करते थे। आँखों में तीन स्वप्न थे जिसमे से एक की राह चुननी थी। सफल डॉक्टर बनना, सफल बिज़निस टॉयकून बनना या नेवी की अफसर बनना। लेकिन एक बार ऐसा स्वप्न देखा जिसे भूल नहीं सकी. जीवन की कठिन राहों पर स्वयं को लेखिका बनकर लोगों के बीच जीवित देखा कि मैं इस दुनिया से चली जाऊं किन्तु मेरे शब्दों के माध्यम से सबके समीप जीवित रहूंगी। स्वयं को लेखिका धर्म निभाते हुए देखना असमंजस में डाल गया था। खैर इसे स्वप्न समझ कर छोड़ भी दिया। अंतर्मुखी संवेदनशील स्वभाव के कारण अनुभूति को शब्दों में ढालना सदैव पसंद था, लेकिन उसे कभी प्रोफेशन के रूप में नहीं देखा था। जिंदगी की राहें अलग अलग राहों पर चलकर आगे अपनी राह बना रही थीं. पढाई पूरी होते ही नौकरी ज्वाइन की, लेखन जीवन का अभिन्न अंग था डायरी के पन्नो से निकालकर कब वह भी उड़ान भरने लगा इसका आभाष नहीं हुआ। हालाँकि हिंदी से अध्यन भी नहीं किया किन्तु कलम की अभिव्यक्ति का मार्ग कभी न छूट सका, कलम निरंतर बिना किसी चाहत के चलती रही, पारिवारिक बंधन व जिम्मेदारी के तहत नौकरी छोड़ी लेकिन कुछ कर गुजरने की आशा न छूट सकी. जब भी किसी ने तंज कसा कि क्रांति वादी विचार थे कि महिला को कुछ करना चाहिए। अब क्या करोगी,तब लोगों को प्रतिउत्तर नहीं दिया, मौन ही उसका उत्तर था। जिंदगी में इसी बीच ऐसी मार दी जिससे उबरना मुश्किल था, नामुमकिन नहीं। तन की मार से अपाहिज महसूस करती लेकिन मन के उद्गार उड़ान का आभाष कराते थे . कलम की ताकत व कुछ कर गुजरने की इच्छा शक्ति ने कब इसे मेरी जिंदगी बना दिया इसका एहसास बहुत बाद में हुआ। पाठकों ने अपने दिलों में स्थान देकर स्नेह वर्षा द्वारा जैसे मन के घावों को भर दिया। लेखन कब पन्नों से निकलकर दबे हुए स्वप्न को साकार कर गया, स्वयं ज्ञात न हुआ , आज सिर्फ इतना याद है कि ऐसा कोई स्वप्न देखा था, जिसे सोचकर मन ही मन मुस्कराहट आती थी। मैंने सिर्फ सतत कर्म किया, फल की चिन्ता कभी नहीं की, शायद नियति में यही तय था। स्वप्न साकार होते हैं, स्वप्न जरूर देखें। स्वप्न देखने व जीने की कोई उम्र नहीं होती है।
      -- शशि पुरवार 

Saturday, March 11, 2017

स्नेह रंग



गली गली में घूम रही है 
मस्तानों की टोली 
नीले, पीले, रंग हठीले 
आओ खेलें होली 

दरवाजे पर आँख  गड़ी है 
हाथों में गुब्बारे
सबरे खेलें आँख मिचौली 
मस्ती के फ़ब्बारे 

भेद भाव सब भूल गए 
बिखरी हँसी ठिठोली 
नीले, पीले, रंग  हठीले 
आओ खेलें होली।

सखा -सहेली मिलकर बैठे 
गीत फाग के गाएं 
देवर- भाभी, जीजा - साली
स्नेह रंग बरसाएं 

सजन उड़ाए, रंग गुलाबी 
रंगी प्रिय की चोली 
नीले, पीले, रंग  हठीले 
आओ खेलें होली।

भाँति भाँति के पकवानों की 
खुशबु ने भरमाया 
बिना बात की किलकारी ने 
भंग का रंग, बरसाया  

फागुन के रंगों में डूबे 
भीग रहे हमजोली 
नीले, पीले, रंग  हठीले 
आओ खेलें होली
शशि पुरवार 

होली की हार्दिक शुभकामनाएँ 




Tuesday, March 7, 2017

फागुनी दोहे - उत्सव वाले चंग



१ 

छैल छबीली फागुनी, मन मयूर मकरंद 
ढोल, मँजीरे, दादरा, बजे ह्रदय में छंद।  
 २ 
मौसम ने पाती लिखी, उड़ा गुलाबी रंग 
पात पात फागुन धरे, उत्सव वाले चंग। 
 ३ 
फगुनाहट से भर गई, मस्ती भरी उमंग
रोला ठुमरी दादरा, लगे थिरकने अंग। 
 ४ 
फागुन आयो री सखी, फूलों उडी सुगंध 
बौराया मनवा हँसे, नेह सिक्त अनुबंध। 
 ५ 
मौसम में केसर घुला, मदमाता अनुराग 
मस्ती के दिन चार है, फागुन गाये फाग। 
६ 
फागुन में ऐसा लगे, जैसे बरसी आग 
अंग अंग शीतल करें, खुशबु वाला बाग़.
७ 
हरी भरी सी वाटिका, मन चातक हर्षाय
कोयल कूके पेड़ पर, आम सरस ललचाय। 
८ 
सुबह सबेरे वाटिका, गंधो भरी सराय 
गर्म गर्म चुस्की भरी, पियें मसाला चाय।
 ९ 
होली की अठखेलियाँ, मस्ती भरी उमंग 
पकवानों में चुपके से, चढ़ा भंग का रंग 
 १०  
सरसों फूली खेत में, हल्दी भरा प्रसंग
पुरवाई से संग उडी, दिल की प्रीत पतंग 
 ११
हल्दी के थापे लगे, मन की उडी पतंग। 
सखी सहेली कर रहीं, कनबतियाँ रसवंत।

  -- शशि पुरवार 

मधुरिमा दैनिक भास्कर में प्रकाशित दोहे - 


Thursday, February 16, 2017

बेनकाब हो जाये - गजल

शहर में इंकलाब हो जाए 
गॉँव भी आबताब हो जाए  १ 

लोग जब बंदगी करे दिल  से 
हर नियत मेहराब हो जाए  २ 

हौसले गर बुलंद हो दिल में 
रास्ते कामयाब हो जाए ३  

ज्ञान का दीप भी धरूँ मन में 
जिंदगी फिर गुलाब हो  जाए ४ 

दो कदम साथ तुम चलो मेरे 
हर ख़ुशी बेनकाब हो जाए५ 

कौन रक्षा करे असूलों की 
बद नियत जब जनाब हो जाए ६ 

जुस्तजू है, सृजन करूँ  कैसे
हाल ए दिल शराब हो  जाए ७ 

इक तड़पती गजल लिखूं कोई 
हर पहेली जबाब हो जाए.८ 

पास आये कभी चिलक दिल में 
फिर कहे शशि किताब हो जाए ९ 
शशि पुरवार 
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Friday, February 10, 2017

समर्पण भाव







अनवरत चलते रहें हम 
भूल बैठे मुस्कुराना 
है यही अनुरोध तुमसे  
बस ख़ुशी के गीत गाना।

फर्ज की चादर तले, कुछ 
मर गए अहसास कोमल 
पवन के ही संग झरते 
शाख के सूखे हुए दल 

रच गया बरबस दिलों में 
औपचारिकता निभाना 
है यही अनुरोध तुमसे  
बस ख़ुशी के गीत गाना
  
नित सुबह से शाम ढलती 
दंभ,दरवाजे खड़ा है  
रस  विहिन इस जिंदगी में 
शून्य सा बिखरा पड़ा है। 

क्षुब्ध मन की पीर हरता 
प्रीति का कोमल खजाना 
है यही अनुरोध तुमसे  
बस ख़ुशी के गीत गाना।

साँस का यह सिलसिला ही 
वक़्त पीछे छोड़ता है 
हर समर्पण भाव लेकिन 
तार मन के जोड़ता है.
मैं कभी रूठूँ जरा सा, 
तुम तनिक मुझको मनाना। 
है यही अनुरोध तुमसे 
बस ख़ुशी के गीत गाना। 
     ---- शशि पुरवार 
  

Monday, January 23, 2017

उमंगो की डोर



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पर्व खुशियों के मनाने का बहाना है 
डोर उमंगो की बढाओ गीत गाना है १ 

घुल रही है फिर हवा में गंध सौंधी सी 
मौज मस्ती स्वाद का उत्सव मनाना है २

तिल के लाडू, गजक- चिक्की,बाजरा, खिचड़ी 
माँ के हाथों की रची खुशबु  खजाना है ३

संग बच्चों के सभी बूढ़े मिले छत पर 
उम्र पीछे छोड़कर बचपन बुलाना है। ४ 

देखना हैं जोर कितना आज बाजू में 
लहकती नभ में पतंगे  काट लाना है ५ 

संग चाचा के खड़ी चाची कहे हँसकर
पेंच हमसे भी लड़ाओ आजमाना है। ६ 

गॉँव में सजने लगें संक्रांत के मेले 
संस्कृति का हाट से रिशता पुराना है ७ 

उड़ रही नभ में पतंगे, धर्म ना देखें  
फिर कहे शशि प्रेम का बंधन निभाना है ८ 
              -- शशि पुरवार 

Saturday, January 14, 2017

सुधियाँ बैचेन - प्रेम के रंग



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१ 
प्रीत पुरानी
यादें हैं हरजाई
छलके पानी। 
२ 
नेह के गीत 
आँखों की चौपाल में 
मुस्काती प्रीत 
३ 
सुधि बैचेन 
रसभीनी बतियाँ 
महकी  रैन 
४ 
जोगनी गंध 
फूलों की घाटी में 
शोध प्रबंध 
५ 
धूप चिरैया 
पत्थरों पर बैठी 
सोनचिरैया। 
६  
छलके जाम 
हैं यादें  हरजाई  
अक्षर -धाम  
७  
छूटे संवाद 
दीवारों पे लटके 
वाद -विवाद। 
८ 
मौन पैगाम 
खनके बाजूबंद 
प्रिय का नाम। 
९ 
काँच से छंद 
पत्थरों पे मिलते 
 बिसरे बंद 
१० 
सूखें हैं फूल 
किताबों में मिलती 
प्रेम की धूल। 
११
मन संग्राम 
बतरस की खेती
सिंदूरी शाम  
१२ 
वफ़ा का मोल 
सहमे तटबंध 
तीखे से बोल 
१३ 
प्रेम भूगोल 
सम्मोहित साँसे 
दुनिया गोल 
१४ 
आँसू , मुस्कान 
सतरंगी जिंदगी 
नहीं आसान। 
१५ 
 लिक्खें तूफान 
तकदीरों की बस्ती 
अपने नाम 
- शशि पुरवार 

Monday, January 2, 2017

नववर्ष का दिनमान

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नव तरंगो से भरा, नव 
वर्ष का दिनमान आया
फिर विगत को भूलकर 
मन में नया अरमान आया.
  
खिड़कियों से झाँकती, नव 
भोर की पहली किरण है 
और अलसाये नयन में 
स्वप्न में चंचल हिरण है। 
गंध पत्रों से मिलाने 
दिन, नया जजमान आया।
खेत में, खलियान में, जब 
प्रीत चलती है अढाई 
शोख नज़रों ने लजाकर 
आँख धरती  पर गढ़ाई।
गीत मंगल, गान गाओ 
हर्ष का उपमान आया.
  
नित समय के साथ बिखरे 
एक मुट्ठी आस  कोंपल 
द्वार अंतर्घट खुले हों
कर्म से,सज्जित मधुर पल.
सुप्त सुधियों को जगाने  
खुशबु का पवमान आया

झर गए पत्ते समय के
बन गया इतिहास जाजम 
द्वार पर आगम खड़ा है  
मंत्र गुंजित, छंद आजम
हौसलों के बाँध घुँघरू 
नव बरस अधिमान आया।  
फिर विगत को भूलकर 
मन में नया अरमान आया.
             ---शशि पुरवार 

आप सभी मित्रों व ब्लॉगर मित्रों को सपरिवार नव वर्ष की मंगलमयी शुभकामनाएँ।  नववर्ष ख़ुशियों और सकारात्मकता से सराबोर हो यही कामना है।  

Friday, December 16, 2016

वृद्धावस्था --- जीने का नजरिया



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       आज  कलयुग में जहाँ युवा अपने जीवन में प्रगति कर रहे है वहीँ बुजुर्ग अपने जीवन के अंतिम पड़ाव में अकेलेपन से झूझते नजर आते है . उच्च शिक्षा के लिए घर से बाहर निकले बच्चों की गृह वापसी कम ही होती है। नीड़ से उड़े पंछी अपना ठिकाना कहीं और ही बसाते हैं। शहर के  बाहर या विदेशों में जाकर वहीँ के जातें है।  फिर जैसा देश वैसा भेष  मंत्र सर्वोपरि होता है। एकल परिवार बनाकर रहना पसंद करतें हैं.यह  चौकानेँ वाले तथ्य है कि आज घर-घर  में  बुजुर्ग  चारदीवारी  में कैद अपने अकेलेपन की दीवारो से झूझते मिल जायेंगे। या फिर नाती पोतों व घर की चाकरी करना विवशता होती है।  पुरुष तो फिर भी रिटायर हो जाते है परन्तु महिलाएं  तो मरणोपरांत  ही पूर्णतः रिटायर होती है.  आज सयुंक्त परिवार के नाम  मुश्किल से उँगलियों पर गईं सकते हैं।  कितने परिवार ऐसे है जो सयुंक्त परिवार है जो खुशहाल हैं ?  

आज बुजुर्गों ने जीवन के अंतिम पड़ाव  जीना सीख  लिया है।  आजकल जीने का नया माध्यम उन्हें सोसल मीडिया के रूप में मिला है जहाँ २ शब्द में उन्हें वह आत्मीयता प्रदान करतें हैं जो वास्तविक जीवन में शायद ही मिले। 
                
     कुछ दिनों पहले बम्बई का एक किस्सा सुनने में आया कि एक लड़की ने अपनी सगाई इसलिए  तोड़ी कि वह परिवार में साथ नहीं रहना चाहती थी , उसने अपने होने वाले भावी पति से पूछा -- "  घर में खाली खोके या डस्टबिन कितने है " , पहले तो लड़का समझ नहीं सका, तब लड़की ने कहा कि तुम्हारे माँ बाप है या नहीं। .... !

        अब ऐसी सोच को क्या कहे, आजकल तो लड़की के माँ बाप भी यही देखते है कि लड़का अपने घर - परिवार से दूर नौकरी में हो, जिससे बिटिया को  पड़े. सास - ससुर का साथ उन्हें बोझ लगता है. परिवार का  अर्थ उनके लिए सिर्फ पति ही होता है और बेटे के लिए भी धीरे धीरे माँ - बाप उनकी स्वत्रन्त्र जिंदगी में बाधक। यही आजकल का कड़वा सत्य बन गया है।

              यही वजह है आज देश में जगह जगह  वृद्धाश्रम खुल  गएँ  है, मथुरा के  वृद्धाश्रम तो  बहुत चर्चित है वहाँ स्कान मंदिर की तरफ से बहुत से वृद्धाश्रम बने हुए है, कई ऐसे है जहाँ सिर्फ महिलाएं रहती है और कुछ जगह महिला पुरुष दोनों ही है, वहाँ के आश्रम में जाकर बुजुर्गो से मिलने का सौभाग्य भी मिला और यथास्थिति जानकार दुःख भी हुआ  कि कितने ही परिवार संपन्न  होते हुए भी  बुजुर्गो को  वहाँ जाकर छोड़ देते है। कमोवेश यही हाल देश के अन्य वृद्धा आश्रम का भी है।  जो चिंतनीय  व निंदनीय भी है।

                बुजुर्गो की वास्तविक स्थिति को और जानने के लिए मैंने जळगॉंव  स्थित वृद्धाश्रम में  भी कुछ पल बिताएं और वहाँ कुछ बुजुर्ग दम्पति की व्यथा सुनकर आँखों के कोर नम हो गए, वहाँ एक - दो बुजुर्ग दम्पति ऐसे भी थे जो अपने जीवन के अंतिम क्षणों  को जी रहे थे। जिनका शहर में बहुत बड़ा बंगला एवम करोडो का व्यवसाय था।  सिर्फ एक ही पुत्र जिसने करोडो की संपत्ति धोखे से अपने नाम करवा ली  फिर  उन्हें वृद्धाश्रम छोड़ दिया,  अपनी कहानी सुनाते हुए  बिलख कर रोने लगे कि आज ५ साल हो गए है बेटा हमसे मिलने भी कोई नहीं आता, हमने जिस बच्चे की राहों में काँटा भी चुभने नहीं दिया  आज वह  बच्चे गलती से पलट कर भी नहीं  देखते हैं। हमें धन संपत्ति का मोह नहीं है वह खुश रहें तो अब हम यहाँ खुश है, सिर्फ साल भर के लिए २००० रूपए भेज देते है

          समय कभी एक जैसा नहीं होता हैं, पहिया घूमता रहता है।  वक़्त बदला , युवा बदले और अब बुजुर्गो का खुद के लिए बदलता नजरिया, यह सुखद सकारत्मक पहलू है , आज आश्रम में रह रहे बुजुर्गों  ने अपने लिए जीना सीख लिया है। बुजुर्ग अपनी ख़ुशी के लिए कार्य करते है सत्संग से लेकर अपने पसंद के सभी कार्य आपस में मिल जुलकर करते है.   आश्रम में जुड़ा हुआ उनका यह परिवार ही उनके दुःख सुख का साथी भी है। 
                       वृद्धाश्रम के अतिरिक्त भी कुछ बुजुर्ग महिलाओ  से भी  मैंने मुलाक़ात की और उनकी सोच एवं हौसलों के आगे मै भी नतमस्तक हो गयी, आज इस उम्र में उनका  हौसला किसी युवा से कम नहीं है,  अपने इस समय को उन्होंने अपने लिए  चुना जो साथ में उनकी जीविका का साधन भी बना। साथ ही समाजसेवा भी हो गयी।  

 कुछ और लोगों के मिले अनुभव भी आपसे साझा  करती हूँ। 
 ७० साल की एक बुजुर्ग महिला हमेशा मुझे  उपचार केंद्र के दिखती थी, चेहरे  पर आत्मसंतोष की झलक  और मोहक मुस्कान , हाथ पैर में सूजन के कारन रोज शाम नियम से सिकाई के लिए आती थी, उनसे पूछा आप रोज अकेले आती है, कोई आपके साथ नहीं आता - तो जबाब में उन्होंने कहा -

     हाँ मै अकेले आती हूँ , मेरे पति बीमार है बिस्तर से नहीं उठ सकते है, बेटे बहू बाहर रहते है , उनका अपना घर है , वह यहाँ नहीं आते और हम यहाँ अपने जीवन से खुश है.

"   आप क्यूँ नहीं जाती बच्चो के पास "
" क्या करूँ जाकर , इस उम्र में  हमसे आना जाना नहीं होता वे अपने जीवन में व्यस्त व खुश है. तो रहने दो, हम भी खुश है"

 एक स्निग्ध मुस्कान चैहरे पर आ गयी।

  वहीँ  एक और महिला थी जिनसे पति का वर्ष भर पहले स्वर्गवास हो चूका था।  उम्र ६५  साल परन्तु जैसे उन्होंने उम्र को मात दी हैं।  हंसमुख ,मधुर स्वभाव - कहने लगी पहले मै बहुत दुखी हुई रोती रहती थी, मुझसे बोलने वाला कोई भी नहीं था, इतनी अकेली हो गयी थी कि बीमार पड़ने लगी, बेटे - बहु अपने कार्य में व्यस्त रहते है , फिर मैंने खुद को समझाया कि जीना पड़ेगा इस तरह जीवन नहीं काट सकतें हैं।  तब मैंने विरोध सहकर भी पालना घर शुरू कर दिया, २ पैसे भी मिलने लगे और लोग भी जुड़ने लगे, आज स्वस्थ हूँ , खुश हूँ , ग्रुप बन गया है सत्संग करते है, बच्चों के साथ मिलकर हँस लेते है. आज एकाकी पन नहीं है।

               आज बुजुर्गो का अपने प्रति बदलता नजरिया उन्हें जीवन जीने  और खुश रहने के लिए सकारात्मक सन्देश व संतुष्टि प्रदान कर रहा है, ऐसे कई बुजुर्ग भी है जिन्होंने कभी कंप्यूटर या मोबाइल को हाथ भी लगाया होगा किन्तु आज वह अंतरजाल पर सफलता पूर्वक सक्रीय है, अंतरजाल पर युवाओं के साथ साथ बुजुर्गो की संख्या भी बढ़ती जा रही है , वहाँ वे अपना योगदान लेखन में भी कर रहे है और जीवन को नए नजरिये से देख रहें है। यह बदलाव  सकारात्मक सन्देश भी देता है उम्र जीने की कोई सीमा नहीं होती है।  परन्तु क्या बुजुर्गो का नजरिया बदलना ही सम्पूर्णता है ?  परिवार और समाज की क्या जिम्मेदारियाँ है ?   सिर्फ वृद्धाश्रम ही इसका विकल्प नहीं है. आज कानून ने भी बुजुर्गो के लिए कई प्रावधान बनायें है, जिनका हनन होने पर कार्यवाही की जा सकती है।  एक उम्र के बाद जब शरीर  थकने लगता है तब  सहारा जरुरी है।  लेकिन आज के बुजुर्गों ने इससे लड़ना सीख लिया है , उनके जज्बे को नमन।
  -- शशि पुरवार

Friday, December 2, 2016

बूझो तो जाने। ..

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१ 
सुबह सवेरे रोज जगाये 
नयी ताजगी लेकर आये 
दिन ढलते, ढलता रंग रूप 
क्या सखि साजन ?
नहीं सखि  धूप
२ 

साथ तुम्हारा सबसे प्यारा 
दिल चाहे फिर मिलूँ दुबारा 
हर पल बूझू , एक पहेली 
क्या सखि साजन ?
नहीं सहेली।
३ 

रोज,रात -दिन, साथ हमारा  
तुमको देखें दिल बेचारा  
पल जब ठहरा, मैं, रही खड़ी 
क्या सखि साजन ?
ना सखी घडी।
४ 

तुमसे ही संसार हमारा  
ना मिले तो दिल बेचारा
पाकर तुमको हुई धनवान  
क्या सखि साजन ?
नहीं सखि ज्ञान।

शशि पुरवार 

Wednesday, November 16, 2016

प्रीत पुरानी

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१ 
प्रीत पुरानी
यादें हैं हरजाई 
छलके पानी। 
२ 
नेह के गीत 
आँखों की चौपाल में 
मुस्काती प्रीत 
३ 
सुधि बैचेन 
रसभीनी बतियाँ 
महकी  रैन 
४ 
जोगनी गंध 
फूलों की घाटी में 
शोध प्रबंध 
५ 
धूप चिरैया 
पत्थरों पर बैठी 
सोनचिरैया 
.-----शशि पुरवार  

Monday, August 22, 2016

सुख की मंगल कामना








बाबुल के अँगना खिला, भ्रात बहन का प्यार 
भैया तुमसे भी जुड़ा, है मेरा संसार। 

माँ आँगन की धूप है, पिता नेह की छाँव 
भैया बरगद से बने , यही प्रेम का गॉँव 

सुख की मंगलकामना, बहन करें हर बार 
पाक दिलों को जोड़ता, इक रेशम का तार 

चाहे कितने दूर हो, फिर भी दिल से पास 
राखी पर रहती सदा, भ्रात मिलन की आस 

प्रेम डोर अनमोल ये, जलें ख़ुशी के दीप 
माता के आँचल पली, बेटी बनकर सीप 
-- शशि पुरवार 


समीक्षा -- है न -

  शशि पुरवार  Shashipurwar@gmail.com समीक्षा है न - मुकेश कुमार सिन्हा  है ना “ मुकेश कुमार सिन्हा का काव्य संग्रह  जिसमें प्रेम के विविध रं...

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