शाख के पत्ते हरे कुछ
हो गए पीले किनारे
नित पिघलती धूप में,ये
पॉँव जलते हैं हमारे ।
मिट रहे इन जंगलों में
ठूँठ जैसी बस्तियाँ हैं
ईंट पत्थर और गारा
भेदती खामोशियाँ है
होंठ पपड़ाये धरा के
और पंछी बेसहारे
नित पिघलती धूप में,ये
पॉँव जलते हैं हमारे ।
चमचमाती डामरों की
बिछ गयी चादर शहर में
लपलपाती सी हवा भी
मारती सोंटे पहर में
पेड़ बौने से घरों में,
धूप के ढूंढें सहारे
नित पिघलती धूप में,ये
पॉँव जलते हैं हमारे ।
गॉँव उजड़े, शहर रचते
महक सौंधी खो गयी है
पंछियों के गीत मधुरम
धार जैसे सो गयी है.
रेत से खिरने लगे है
आज तिनके भी हमारे
नित पिघलती धूप में,ये
पॉँव जलते है हमारे
------ शशि पुरवार
पर्यावरण संरक्षण हेतु चयनित हुआ नवगीत। पर्यावरण संगठन का आभार।









